ऊषा-अनिरुद्ध/अंक दूसरा
* अंक दूसरा *
पहला दृश्य
(स्थान द्वारिकापुरी)
[चित्रलेखा का प्रवेश]
चित्रलेखा-
गाना
धन्य धन्य द्वारिकापुरी है, कृष्णचन्द्र की यह नगरी है।
सुन्दर सुखदाता सगरी है, जिसकी महिमा बहुत बड़ीहै ।
गूंजरही भौरों की टोली, बोलरही है कोकिल बोली ।
हरियाली से हरी भरी है, धन्य धन्य द्वारिकापुरी है ।
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किस प्रकार सिद्ध होगा? राजकुमार अनिरुद्ध को उड़ाकर लेजाना साधारण कार्य नहीं है। क्योंकि इस नगरी का रक्षक स्वयं भगवान् द्वारिकानाथ का चक्र सुदर्शन है।
नारद--यायुष्मती ! कहो चित्रलेखा, अच्छी तो हो ! राज- कुमारी ऊषा यो राजेन्द्र वाणासुर अच्छी तरह हैं ? इधर कैसे माना हुआ ?
चित्र०--सब अच्छे है महाराज । जब आप जैसे महान पुरुषो की कृपा है तो फिर क्लेश कहां ? श्रानन्द ही अानन्द है। दवर्षिजी, राजकुमार अनिरुद्ध को सखी ऊषा ने जब स्वप्न मे देखा है, तभी से वह उन्हें वर चुकी है। उसकी दृढ़ हठ है कि मैं विवाह यदि करूंगी तो अनिरुद्ध जी से करूँगी, नहीं तो जीवन भर अविवाहित रहकर तपस्या करूंगी।
नारद--(स्वगत) धन्य, आर्यवाले ! (प्रन्ट ) अविवाहित रहकर तपस्या करना तो अच्छा है, यह तो बड़ा ऊंचा दर्जा है।
चित्र०--वाह,ऋषिजी! आप तो सारी दुनिया को ऋषि बनाना चाहते हैं।
नारद--तो क्या ऋषि बनना कोई बुरा काम है ?
चित्र०--हाँ, कुमार अवस्था में बुरा है । ब्रह्मचर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम, उसके बाद वाणप्रस्थाश्रम तब कहीं सन्यास, पने तो पहले हो रखदिया पांच के ऊपर पचास ।
नारद--पर तुम तो हो हमसे भी क्यादा चालाक, चारो वेद और छहों शास्त्रों में ताक ! चित्र०--अजी, आपकी कला के भागे हम क्या हैं खाक ? खैर, यह मनोरजन जानेदीजिये और यह पताइये कि राजकुमार अनिरुद्ध को वहां किस प्रकार पहुंचाया जाय ? सुदर्शनचक्र जो उनका पहर दार है उसे किस प्रकार उस जगह से हटाया जाय !
नारद--अरे, तुम जैसी स्त्रियों के लिये तो यह सब बायें हाथ का खेल है। नारद इसमे क्या बताये :-"स्त्रीचरित्र पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।
चित्र०--महाराज यह ठठोली का समय नहीं है।
नारद--अच्छा तो सुनो, यहकाम करना ही है तो तुम अनिरुद्ध की माता रानी रुक्मावती का रूप बनाओ,और सुदर्शन को जाकर यह हुक्म सुनायो कि नारदजी तुम्हें बुलारहे हैं। :-
ठीक जो कम्पा लगा तो होगा तोता हाथ में ।
वरना नारद भी बंधेगा व्याधिनी के साथ में॥
चित्र०--धन्य है, धन्य है, मुनिराज ! आपको धन्य है। आपने अति उत्तम उपाय सोचा है।
नारद--अच्छा तो जाओ, अब रात अधिक नहीं रही है। बहुत थोड़ा समय है । सब काम अति शीघ्र कर डालो !
चित्र०--जो आज्ञा महाराज।
नारद--चलनेदो यह सब जो कुछ होरहा है होने दो । वैष्णव और शैव का मगडा मिटाने का यही एक उपाय है कि जिस प्रकार भी हो अनिरुद्ध और ऊषा का विवाह करादिया जाय । चल--नारद-रात भर के लिए कहीं गायब होजा ।
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गाना
छोड़कर मन के सब छलछन्द, भजो गोविंद, भजो गोविंद ।
विछा है माया का जो फंद, फँसे हैं इसमें प्राणी वृन्द,
पृथक रहने में है आनन्द, भजो गोविंद, भजो गोविंद ॥१॥
रटेगी जिह्वा अभी मुकुंद, ध्यान में आयेगा नंदनंद ।
तभी पाओगे परमानन्द, भजो गोविंद, भजो गोविंद ॥२॥
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दृश्य दूसरा
[अनिरुद्धका बयनागार, अनिरुद्ध सोरहा है, सुदर्शनचक्र पहरा दे रहा है चित्रलेखा प्रवेश करती है ]
चित्र०-[ स्वागत ] यही है, राजकुमार भनिरुद्ध का महल यही है। सखी ऊषा का भाग्य विधाता इसी महल में शयन कर रहा है। जाऊँ और जाकर उसे जगा दूं । परन्तु नहीं, जगाने के बाद उसे लेजाना बड़ा कठिन है। तब १ तब ? इसी तरह सोते हुए को पलंग सहित उड़ा लेजाना ही तो मेरे कार्य का क्रम है, और इसी के सिद्ध होने पर तो मेरा सुफल परिश्रम है । परन्तु वहाँ तक पहुंचने में भी तो बड़ी चिन्ता है, मैं प्रत्यक्ष देख रही हूं कि वहां सुदर्शन चक्र का पहरा हैं । फिर ? नारद जी की बताई हुई युक्ति ही ठीक है। भारमशक्ति, काम कर । चित्रलेखा, तू अनिरुद्ध की माता रुक्मावती का रूप धर ! [ रुक्मावती का रूप बनाती है ] बस अब ठीक होगई, काम शुरू करना चाहिये ।:यह चालाकी, यह ऐय्यारी सब प्राण सखी के कारन है। जिनमें ऊषा का जीवन है उसमें ही अपना जीवन है ।। (प्रकट) सुदर्शन !
सुदर्शन--(मनुष्यरूप में प्रकट होकर) कौन ? इस आधी रात के भयंकर समय में मुझे कौन पुकारता है ?
चित्र०--जिसको पुकारने का अधिकार है।
सुदर्शन--(देखकर ) हयँ, कौन ? छोटी माता जी ? प्रणाम !
चित्र०--चिरंजीवी हो । सुदर्शन, तुम मेरा कितना भादर करते हो ?
सुदर्शन--माता जी, आज आप यह कैसा प्रश्न कर रही हैं ? पुत्र माता का जितना आदर करता है, शिष्य गुरुपत्नी का जितना भादर करता है, यह सेवक उतना ही भादर अपनी स्वामिनी का करता है ।
चित्र--धन्य, सदाचारी सेवक ! अच्छा यदि मैं तुम से इस समय यहाँ से हट जाने के लिये कहू तो तुम हट सकते हो ?
सुदर्शन--परन्तु ऐसा भाप क्यों कहेंगी ?
चित्र०--अपनी प्यारी के लाभ के लिये ।
सुदर्शन--हयँ । अपनी प्यारी के लाभ के लिये ? यह आप क्या कह रही हैं ?
चित्र०--(स्वगत) भूली, चित्रलेखा तू भूली । शीघ्रता में तू यह क्या पक गई । सचमुच सुदर्शन के तेज के आगे तू अपना अभिमान भूल चली। तू तो इस समय रुक्मावती है ! देवर्षि नारद की शक्ति, तू मेरी सहायता कर । जिससे कि कार्य सुफल हो। (प्रकर) मैं ठीक कह रही हूं सुदर्शन । अपनी प्यारी वस्तु के लाभ के लिए! सुदर्शन--आपने तो अभी कहा था कि अपनी प्यारी के लाभ के लिये ।
चित्र--तो अब भी तो मैं कहती हूं कि अपनी प्यारी के लाभ के लिये । दुनिया में मेरी सब से प्यारी चीज़ क्या है, जानते हो?
सुदर्शन--जानता हूं, माता की सब से प्यारी चीज़ उसकी संन्तान होती है।
चित्र०--हां, तुम समझगये-इसीलिए मेरी सबसे प्यारी चीज़- यह अनिरुद्ध है। मेरी प्यारी की भी सबसे प्यारी चीज यह अनिरुद्ध है।
सुदर्शन--(आश्चर्य से) हयँ, आपकी प्यारी की भी प्यारी चीज ।
चित्र०--(स्वागत) चित्रलेखा, फिर बहकी ! देवर्षि मुझे संभालना । ( प्रकट) हाँ,मेरी सब प्यारी चीज-यात्मा है। और उस आत्मा की सबसे प्यारी चीज यह अनिरुद्ध है। इसीलिए मैने कहा कि यह मेरी प्यारी की भी प्यारी चीज है।
सुदर्शन--ठीक है, तो फिर इनके लाभ की बात क्या है ?
चित्र०--मैंने अभी एक स्वप्न देखा है कि भनिरुद्ध का विवाह होने वाला है।
सुदर्शन--राजकुमार का विवाह होनेवाला है ? कब? किस दिन ? किस जगह पर ? किस राजपुत्री से?
चित्र०--पहले बात पूरी होने दो!
सुदर्शन--अजी जरा ठहर तो जाओ, मुझे पहले खुशी तो मना लेने दो । राजकुमार क विवाह का समाचार सुनं और हर्ष प्रकट न करूं तो मुझ जैसा उत्साहहीन कौन हो सकता है ? देखिये मैं इस विवाह में बरी का जोड़ा लूंगा । चित्र०--दूंगी।
सुदर्शन--मोतियों का तोड़ा लूंगा !
चित्र--दूंगी।
सुदर्शन--लक्खी घोड़ा लूगा ।
चित्र०--दूंगी। अच्छा तो सुनो, तुम शीघ्र नारद जी के पास चले जाओ।
सुदर्शन--क्या लग्न-पत्रिका बचबाने के लिए ?
चित्र०--अरे तुम तो हर्ष में दीवाने से होगये हो! तुम यह भूलगये कि यह सब स्वप्न की बात है।
सुदर्शन--हां माता जी, अप ध्यान आया कि आपने अपना स्वप्न वर्णन किया । अच्छा, तो इस समय मुझे नारद जी पास क्यों जाना चाहिये ?
चित्र०--इस स्वप्न का फल मालूम करने के लिए ।
सुदर्शन--इस समय--पाधी रात में ?
चित्र०--हाँ, नारद जी तो सब समय जागते ही रहते हैं। फिर उन जैसे मुनि लोग तो रात्रि ही में शान्ति-पूर्व क बात करते हैं।
सुदर्शन--बहुत अच्छा, लीजिये यह चला ! परन्तु माता जी कहीं यह सप भी तो एक स्वप्न नहीं ?
चित्र०--नहीं, स्वप्न इसके पहले था, जिसको सन्चा करने के लिए मैं यहां आई हूं।
सुदर्शन--परंतु माताजी, पहरे पर ले मेरा हटना तो उचित नही है। चित्र०--जक माता स्वयं बेटे का पहरा देने भागई है, तब तुम्हें काहे की चिन्ता है?
सुदर्शन--कहीं बड़े महाराज नाराज न हों !
चित्र--अगर वे नाराज हों तो कह देना कि छोटी माता का हुक्म था !
सुदर्शन--जो आज्ञा ! लीजिए यह चला । परन्तु माताजी, भगर विवाह हो तो मेरे जोड़े, मोड़े और घोड़े का ध्यान रखमा !
चित्र०--(स्वगत) जान में जान भाई । चाल पलगई । वह भी किसके सामने, भगवान् विष्णु के चक्रसुदर्शन के सामने । कौन सुदर्शनचक्र १ जिसने बहुत से असुरों का संहार किया है, और दुश्मन की नीति को सदैव बेकार किया है। अब नारदजी इससे निपटते रहेगे ।:-
चक्रमें फंसकरके उनके, चक्र भी चकरायगा ।
ठीक इतने समयमें, यहाँ कार्य सब होजायगा।
बस, अब चलू और पलंग सहित भाकाश गमन करूं ।
इच्छा-शक्ती, काम कर, मंत्र सुफल कर योग ।
पहुंचे यह ऊषा निकट, हो ऐसा संयोग ।।
तीसरा दृश्य
-(स्थान रास्ता)-
[भोलागिरि और गौरीगिरि का हाथ में चिलम लियहुए आना]
गौरीगिरिः--
गाना
तम्बाकू नहीं है । मरगए, तम्बाकू नहीं है।
तम्बाकू ऐसी मोहनी, जिसके लंबे लबे पात ।
खाख टके का श्रादमी रे खड़ा पसारे हाथ ॥ तम्बाकू०॥
खाधु सन्त भी जब फेरी से तौर पाश्रम जाँय।
झोली खाली देखके रोवे, हाय तमाखू नाय ॥ तम्बाकू०
मोलागिरी०--ले अम्मी सो एक मुलका तम्बाकू और एक कली गांजे की झोली में और है । चढ़ा चिलम, मिटा राम ।
गौरी०--बम् शंकर, कांटा लगे न कंकर, मुजी लोगों को तंग कर और खाने पीने का ढंगकर, (चिलम चढाकर लेना हो बाबा भूतनाथ ।
भोला०--(चिलम लेकर ) अहा, जिसने न पी गांजे की कली उससे लड़के तो लड़की भली, ब्रो भाई गौरीगिरि । (गौरी को चिलम देना )
गौरी०--बम् भोले, कालहर, कंटकहर, दुःखहर, दरिद्रहर, (चिलम हाथ में लेकर) चिलम चमेली फूकदे दुश्मन की हवेती,
सुनना हो भोलेनाथ ।:-चिलम पियारी है रतनारी, मुक्ति दिलावनहारी ।
पीतेहैं जो इसे औलिया, उनकी उमर हजारी ।।
लेना हो विश्वनाथ, मुंडमालधारी, खबर हमारी।
भोला०--भाई गौरी गिरि, सुना है कि कृष्णदास नामक किसी वैष्णव ने सगठन बनाया है। अब एक छड़ी हानि हुई । हम तुम जो जहाँ तहां झगड़े रठाकर वैषको को शेष बना लेतेथे, उसमें बाधा आगई।
गौरी०--अरे क्या वाधा आगई। हम तो शंकर-पंथी हैं। शोध आजायगा तो सारे ससार का संहार करडालेगे। हमने तो सुना है कि पुगने खयाल के वैष्णव इन संगठन पंथी वैष्णवों की बात नहीं मानते।
भोला०--हाँ, माई अथी तो वह लोग इनकी बात नहीं मानते पर गानने लाजायेगे। मैंने सोचा है, इससे पहले चिलम भवानी की सेवा कर के जहाँ तहाँ खून झगड़ा उठाया जाय और वैष्णवों के बालक बालिकाओं को भगाया जाय । जो प्रसन्नता पूर्वक शेष न हो उसे जबरदस्ती शेष बनायाजाय ।
गौरी०--किस तरह बनाया जाय ।
भोला०--चिलम पिलाके बनाया जाय । कंठी तोड़ कर बनाया जाय।
गौरी०--अरे यार मेग तो यह मत है कि :--
वैष्णव हो या शैव हो, नहीं किसी की शर्म ।
मालपुश्रा मिलता जहां, वहीं हमारा धर्म ।।
भोला०-अरे क्या तू वैष्णव सम्प्रदाय में था? या चिलम ज्य़ादा चढ़गई है!
गौरी०-अरे बेटा, अपनी तो सारी आयुही वैष्णव सम्प्रदाय मे गई, जब वहाँ मालपुओं का टोटा आया तो पीताम्बर फेककर यह लंगोटा लगाया। देखो, तुमसे भी कहे देता हूं कि रोज़ चिलम पिलाने के बाद हलुआ खिलाना होगा, नहीं तो तुम्हारा पंथ भी छोड़देगे।
भोला०-अरे हलुआ चाहे जितना खाओ। हमारे पंथ में क्या आँखों के अंधे और गाँठ के पूरे यजमानों की कमी है?
गौरी०-ऐसा है तब तो मौज ही मौज है।--
जब मालपुआ हो खाने को, गाँजे की चिलम उड़ाने को।
तो धिक् है पोथी पढ़ने और घंटा घड़ियाल बजानेको॥
भोला०-अच्छा तो सुनो, कल ही एक वैष्णव बालक को शंकरगिरि लाया है। वह बहुत समझा चुका पर लड़का वैष्णव धर्म नहीं छोड़ता। आज वह उसी बच्चे को यहाँ लाता होगा। तुम पहले उसको समझाना, अगर वह न माने तो जबरदस्ती शैव बनाना।
गौरी०-यह कौनसी बड़ी बात है यह तो अपनी भभूत की अदना करामात है। भोला॰–तो लो वह शंकरगिरि भी लड़के को ले आया।
गौरी॰–तो लो यह गौरीगिरि भी मैदान में कूद आया।
[पांव पर पांव चढ़ाके बैठना, शंकरगिरि
का गङ्गाराम को लेकर आना।
गौरी॰–आओ बेटा, व्यर्थ की हठ छोड़ दो । शैव होना कुछ अनुचित नहीं है। वैष्णव धर्म में तुम्हें रोज़ सवेरे एक लड्डू मिलता था तो यहां दो लड्डु मिला करेंगे।
गङ्गाराम–चल चल लंगोटे, लड्डू पर कहीं धर्म छोड़ा जाता है।
धर्म ही संसार में एक सार है। धर्मही हरजीव का आधार है॥
धर्म पे तन प्रान सब बलिहार है। धर्म जो छोड़े उसे धिक्कार है॥
गौरी॰–अरे जब तक झलमलाती जलेबियां, लच्छेदार रबड़ियाँ और टकोरेदार पूरियाँ पेट नहीं पाता है तबतक कहीं धर्म पूरा होने पाता है?
भोला॰–अरे बच्चा, वैष्णव-धर्म धर्म नहीं हैं, सच्चा धर्म तो शैव पंथ ही है।
गङ्गाराम–हैं, यह कैसे? तुमने वैष्णव धर्म को समझाभी है!
भोला॰–अरे समझा भी है, सोचा भी है, सुना भी है और देखा भी है।
गङ्गाराम–क्या खाक समझा और सोचा है। अपने ही धर्म की पुस्तकों के पन्ने लौटनेवालो और उसके अर्थ का अनर्थ करके दुनियाँ को धोका देनेवालो, तुम धर्म की महिमा क्या जानो?
वैष्णव वह धर्म है जो देश का श्रृंगार है।
देशके जीवन की नौका का वही पतवार है॥
जिस समय संसार में पापों का बढ़जाता है ज़ोर।
तब हमारा विष्णु ही लेता यहां अवतार है॥
गङ्गाराम--हर्गिज नहीं।
गौरी०--मार डाला जायगा।
गङ्गाराम--पर्वाह नहीं।
आयेगा किस काम यह देह अन्म और प्रान।
नवजीवन है--धर्मपर, हो जाना बलिदान।।
भोला०--पकड़लो।
गङ्गाराम--खबरदार।
गौरी०--तेरा यहाँ कौन मददगार है।
गङ्गाराम--वह विष्णु, जो सारी सृष्टि का रचनहार है।
भोला०--अच्छा तो इसके विष्णु को देखना है। भैया गौरीगिरि, फाड़ो इसके मुंह को। ठूंंसो इसमें चिलम।
कृष्णदास--(मेपथ्य मे) ठहरो खबरदार!
भोला०--अरे वैष्णव दल आरहा है। जल्दी से इसकी कंठी तोड़ो।
गङ्गाराम--अरे बचाओ, बचाओ, मुझे इन धूतों से बचाओ।
कृष्ण--बेटा न घपराओ।
भोला०--भागो भैया, गौरीगिरि, यहाँ हम तुम दो ही हैं, उधरसे चारभादमी आरहे हैं। फिर कभी निबट लेंगे। जबरदस्ती किसी का धर्म बदलने में भी गुनाह है। (दोनों का जाना)
[कृष्णदास और महन्त माधोदास का पाना]
कृष्ण०--बेटा तुम कौन हो।
गाङ्गा०--एक पतित वैष्णव।
कृष्ण०--प्रतित? पतित कैसे? गङ्गा०--दूर रहिये, दूर रहिये । वैष्णव धर्म के मुकुट-मणि, इस भ्रष्ट बालक से दूर रहिये । इसकी गन्ध तुन्हें कहीं अपवित्र न करदे । यह शवों द्वारा बलात्कार से शैव होगया है।
कृष्ण०--(स्वगत) सुन रहा है कृष्णदास, तू इस बालक की करुणामरी पुकार सुनरहा है । हाय,पृथ्वी तू फट क्यों नहीं जाती, आकाश तू टूट क्यों नहीं पड़ता जो इस प्रकार शांति के पुजा- रियों पर अन्यान्य धर्मवालों को अत्याचार होरहा है।
सोगये हो क्षीरसागर में कहां भगवान तुम ।
अपने भक्तों पे नहीं देते प्रकट हो ध्यान तुम ॥
ये तुम्हारी धर्म नौका है ज्वारो धानकर ।
आन हो तो आनमें डूषों को तारो आनकर ।।
[गगाराम से ] उठो वीर बालक उठो, तुम अपवित्र नहीं हुए हो। कंठी टूट गई तो टूट जान्दो । उसके टूट जाने से तुम्हारा धर्म नष्ट नहीं हुआ है। तुम अब भी वैष्णव हो और शुद्ध वैष्णव हो।
कंठीमाला, छायसब, हैं जाहिरी दिखाव ।
सच्चा वैष्णव है वही, जिसमें सच्चा माव ॥
माधो०--तो महाराज कंठी टूट जाने से हर्जही क्या हुआ ? हम भभी तुलसी इसके मुंह में डालकर वैष्णव बनाए लेते हैं।
कृष्ण०--हां, यही विचार वैष्णव संगठन को पायेदार बनाने वाले हैं । जाइये महन्त जी महाराज, इस धर्म प्रेमी बालक को आप अपनी राम कथा सुनाइये, राम मंत्र ताइये और रामजी का सचा भक्तपनाइये।
*गाना*
वैष्णवो, तुमने कभी ये भी विचारा आजकल।
है कहाँ वह धर्मकी उन्नत अवस्था आजकल॥
जिस जगहथी धूम एकदिन रामराज्य बसंतकी।
होती जाती है वहीं ऊजड़ अयोध्या आजकल॥
आप तो श्रीराम से शुद्धात्मा बनते नहीं।
चाहते हैं, नारियाँ बनजायें सीता,आजकल॥
बस पढ़ेजाते हैं क़िस्से और कहानी रात दिन।
कोई करता ही नहीं है ज्ञान चर्चा आजकल॥
बढ़गया है धर्मके झगड़ोंका कुछ ऐसा विवाद।
उठता जाता है जगत से भाईचारा आजकल॥
(सब्र का जाना)
चौथा दृश्य
ऊषा का महल
ऊषा:–
गाना
अरे हाँ हाँ प्यारे, दरस दिखायमोरे मन को चुराय गये.
अब कहाँ गये हो छुपाय?
बाँकी झाँकी थी बिजली सम, चमकत गई बिलाय।
अब हा हा कर कर तारे गिनकर सगरी रजनी जाय।
अरे हाँ हाँ प्यारे।
बुझानेवाली, स्वाति की खूद वह चित्रलेखा नहीं पाई । क्या नहीं पायी ? (प्राय से ) हैं वामान फड़कने लगा ?अवश्य आयेगी।
मेरी इस प्रेम खेती को फली फूली बनायेगी ।
घटाभनकर दह पायेगी, इवा परकर वा आयेगी ।।
परन्तु,न जाने हृदय क्यो घबरा रहा है ? एक एक क्षरण एक एक वर्ष के समान जारहा है। बताओ मेरे पिता सूर्य और चन्द्र । चित्रलेखा तुम्हारी दोनों आँखों के सामने ही होगी । ताओ इस समय बह कयों हैं ? भाकास, तेरे ही सादर मे बह मेरी प्यारी सखी छुपी हुई है, प्रट करदै । वायु, तू ही उसकी ऐसे समय में साथिनी है, उसे इधर की राह बतादे:-
पंख न दिये विधाता तूने धरना मैं पढ़ जाती ।
प्राणसखी के साथ साथ ही प्राण सखा को लाली ।।
आह, आज की रात्रि घड़ी ही बेचैनी की रात्रि है । निद्रा नहीं आती है। यह मुख शय्या कॉटों की शय्या के समान दिखाती है। यह राजमहल की शोभा सिर्जन बन के समान डराती है । (सहयं कर) नहीं पायेगी, अब तो यही मालूम होता है कि चित्रलेखा नहीं आयेगी! तप, तब, सफेद सफेद धीधागे, तुम बहान बन जामो, मैं सिर फोड़गी। अगूठी के हीरे, तू काल आवजा, मैं तुझे मुलमें डालूगी । भाले की रस्सी ! तू यमपाश बनजा, मैं आज तुझे पकड़ कर भाखिरी बार भूलूंगी :--
वह झूजा झूलते दिल को मेरे झोंके जो देता है।
झूलाने के बहाने मेरे मन को मोह लेता है।।
उसे फॉसी बनाऊँगी मैं अपनी फॉब सोने की।
परा सी झोंक में इस विश्व से आजार होने को।।
नहीं, मैं भूली । मुले सक काने की शुरूरत ही नहीं है। मेरी ये बड़ी बड़ी बटें ही फाँसी का काम करेंगी।
लट तू देती रही है नित्य मुझे भानन्द ।
उलट पुलट होकर तुही, काट मेरे सप पान्द ॥
चित्रलेखा--[अन्तरिक्ष से] ठहर, ठहर, प्रीतम के विरह में प्राय: देने वाली वियोगिनी, ठहर ।
उषा--(आश्चर्य से) हैं यह किसकी आवाज है ! मारा पार्वती की या सखी चित्रलेखा की ?
(चित्रखा का अभिरुद्ध के पलंग सहित भाकाय मार्ग से सगरमा)
चित्रलेखा:--
भब न छोड़ेगी तुझे यह प्रेम की प्यासी वेरी।
भारही है गंगधारा की तरह दासी तेरी।
उषा--आरही है, प्रारही है, सखी पारही है। सनी नाही भारही है, जिदगी आरही है !
चित्र०--(नीचे आकर) राजकुमारी, वधाई।
उषा--सस्त्री, मैं आज तेरी ऋणी होगई हूं:-
बाप ने पाला था मुझको अपनी बेटी जानकर ।
दाधियों ने सुख दिया था राजपुत्री मानकर ॥
माँ भवानी ने दिया वरदान वेरी जानकर ।
पर पिलाया तूने अमृत सूखी खेती जानकर ।।
स्वप्न में अपनी मधुर मूर्ति दिखानेवाले ।
मेरे सीने से मेरे दिल को चुरानेवाले ॥
यह ही तो हैं मेरी बिगड़ी के बनानेवाले ।
आगये आगये मुर्दे को जिलानेवाले ।।
अगादो, बहन चित्रलेखा, मेरे सोते हुए भाग्य को अगादो।
चित्र०--सखी,इतनी व्याकुल न हो, वह स्वयं ही थोड़ी देर में जग जायेंगे। अगर हम उन्हें जगायंगे तो वे तकलीफ पायेंगे।
ऊषा--ऐसाहे तो मत जगायो। मैं उनके जागने तक इंतिज़ार करूंगी ! चकोर की तरह छापने चन्द्रमा को दूर ही से प्यार करूंगी।
चित्र०--धन्य, यही सो प्रेम की चरम सीमा है।
ऊषा--अहा, कैसी अच्छी केशावलि है ! मानो घटाओं की पंक्ति चन्द्रमा को छुपाने के लिए आकाश-मण्डल पर मण्डला रही है। ग्रीष्म ऋतु में धूप की तपिश से काले होजाने वाले हिरनों के समान स्पाह बालो, मैं तुम से लडूंगी । तुम्हारे बोझ से मेरे प्यारे को कहीं तकलीफ न पहुंचे :--
नाग क्यों बैठा उधर तू कुण्डली मारे हुए।
खेलते हैं तेरे भागे तेरे ही मारे हुए ।
चित्र०--प्रेम के दो अक्षरों ने, प्यारी को कविशिरोमणि बना दिया।
ऊषा--हाँ, देखो न बहन चिलेखा, मैं मंठ नही कहती हूं। बन्द घाँस्खों के ऊपर यह दोनों भौहैं ऐसी मालूम होरही हैं मानों दो भौंरी कमलिनियों के खिलने का इन्तिजार कर रही हैं। जगातो, बहन लगादो, कुछ हो, इन्हें जगा दो। चित्र--अच्छा तुम उबर हो। मैंने जिस मंत्र द्वारा इमको घोर निद्रा में पहुंचा दिया है, वह मंत्र उतारती हूँ।
ऊषाः-
खिलजाओ कलियो खुलखुन कर बुलबुल तू तान एड़ा अपनी ।
सूर्योदय होने वाला है, मृदुवंशी वायु घमा अपनी ।।
चित्र०--चलो सखी, अबक्षरा छुपकर इसकी लीला देखें।
ऊषा--मोहदय जरा तो धीरजधर,क्यों पना डोलनेवाला है। जो चित्र देखने तक हीथा,वह आज बोलनेवाला है।
अनि०--[जागकर आश्चर्य्य से ] हैं ! मैं कहाँ ?
ऊषा-मैं कहूं तो ठीक है यह-मैं कहाँ ?
तुम यहाँ हो, तुम यहाँ हो, तुम यहां ।
अनि०--[स्वगत] पलंग तो वही है, परन्तु महल वह नहीं है। और मैं ? मैं भी वह हू या नहीं ?
सोने का वह है कहाँ अपना शयनागार ।
यह मन्दिर तो है किसी नृप का रत्नागार ।।
समझा, मैं स्वप्न में हूं, फिर सो जाऊँ।
चित्र--नहीं, जाग्रत अवस्था में हो, अब मत सोओ।
अनि०--[अाश्चर्य से] हैं ! यह तो किसी मनुष्य की आवाज भाई। कौन है ? कौन बोलता है ? कौन मुझे सोने के वास्ते मना करता है ?
उषा--बहन चित्रलेखा, मुझसे तो अब नहीं छुपाजाता:-सुना है वह पुजारी देवता का गान गाता है।
यहाँ खो देवता ही खुद पुजारी को बुलाता है।।
- अनि०--बोलो, बोलो, मैं कहां आया हूं ?
- ऊषा--जहाँ आना चाहिये था, वहाँ आये हो:--
किसी के मनमें भाये हो किसी के नैन में आये।
प्रभो तुम चैन बन, करके दिले वेचैन में भाये।।
- अनि०--हैं ! तुम, तुम..........
- ऊबा--हाँ, तुम, तुम.........
- अनि०--कोई स्वर्गीय प्रतिमा को ?
- उषा--कोई स्वर्गीय देवता हो ?
चित्र--
न देवता है न कोई प्रतिमा, न कोई प्यारा न कोई प्यारी।
हैं सूरतें एक प्रेम की दो, उधर तो नर है इधर है नारी ।।
अनि०--देवी, वास्तव में तुम कोई स्वर्गीय सुन्दरी हो, इन्द्राणी हो, रवि हो या प्रक्षा की सर्वश्रेष्ठ पुत्री हो ।
ऊषा--देष, वास्तव में तुम कोई स्वर्ग के देवता हो, इन्द्र हो, काम हो या ब्रह्मा की सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हो।
चित्र०--(स्वागत) दोनों पागल । [प्रकट] बहन ऊषा, होश में आओ। तुम्हारे सामने खड़े हुए देवता इसी भूमि के रल हैं। द्वारिकानाथ भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के पौत्र राजकुमार अनिरुद्ध हैं।
ऊषा--हैं ! क्या ये द्वारिकाधीश के पौत्र हैं ?
- चित्र०-और अनिरुद्ध जी महाराज, आपके सामने खड़ी हुई बालिका गजराजेन्द्र श्रीवाणासुर महाराज की प्यारी और
इकलौती बेटी राजकुमारी ऊषा है ।
अनिल--ऊषा है, हाँ सचमुच ऊषा है :-
जब सचमुच सम्मुख ऊषा है तो अंधकारमय गलगाई। जब रातगई तो प्रात हुआ, मंठी सपने की बात गई ।।
अच्छा तो फिर मैं यहाँ कैसे पाया ?
ऊषा--मैंने बुलाया !
चित्र०--मैं लाई।
ऊषा--दिल ने खेंचा!
चित्र०--मंत्रशक्ति ले पाई :--
सपने में आपने जो मधुर मूर्ति दिखाई ।
प्यारी के धीर चित्त पै बिजली सीगिराई ।।
तत्काल चित्रलेखा यह तम आंधी सी धाई ।
बादल की तरह आपको लेकर यहाँ आई।।
भनि०--यह खूब रही, ऐसी सुन्दर मूर्ति और ऐसी माया फैलाई ?
ऊषा--इतना भोला चेहरा भौर इतनी चतुराई :-
अनि०--पराई चीज़ चोरी से चुराना इसको करते हैं। थिना जादूगरी जादू दिखाना इसको कहते हैं ।।
ऊषा-किसी को स्वप्न में भाकर सताना इसको कहते हैं । लगाकर आँख फिर आँखें दिखाना इसको कहते हैं ।।
अनि०-अच्छा मैं हारगया देवी.
ऊषा-जानेदो दासी हारी यह । चित्र०--तुमभी जीते, तू भी जीती...
तुम इनके और तुम्हारी यह ।
अनि०--भई वाह, इस नगर की नारियाँ तो खूब गले पड़ है
चित्र०--और द्वारिका के मनुष्य गलेपडू नहीं हैं ?
जिसका बच्चा जन्म से है माखन का चोर ।
उसका नाती क्यों नहीं, होगा मन का चोर ।।
अनि०--परन्तु मैंने चोरी कब की है ?
उषा--बहन चित्रलेखा, इनका अपमान मत करो।
चित्र०--[स्वगत ] धन्य रे प्रेम, तूने ऊषा को कितना ऊंचा बना डाला है ! [प्रकट] राजकुमार तुमने चोरी की है :-
सपने ही सपने में तुमने मनकी मनहर चोरी की है।
इमने तो डाका डाला है तुमने छुपकर चारी की है ।।
अनि०--स्वप्न की बात भी कहीं पायदार होती है ?
'चित्र०--होती है, यह इस महल से पूछो, इस महल की मालकिनी के दिलसे पूछो,और अब द्वारिका से लेकर शोणितपुर तक की मजिल से पूछो।
अनि०--हां अब मुझे भी ध्यान पाया। मैंने भी कुछ इसी प्रकार का स्वप्न देखा,थाः-
ख्वाब की देखी हुई तस्वीर अब तकदीर है ।
ऊषा०--बस वही तकदीर मेरे ख्वाब की ताबीर है ।
अनि०--(स्वगत) अहा प्रेम, प्रेम, प्रेम की धारा दोनों ओर है । मैं तो समझवा था कि प्रेम मेरी ही ओर है, परन्तु दूसरी ओर से भी एक सोत बह रहा है। मैं तो समझता था कि प्रेम के इस खेल में मैं इस बाला से आगे निकल जाऊँगा, परन्तु ऐसा नहीं हुआ, यही मुझसे आगे निकल गई ।
ऊषा०--(स्वगत) मुझे ऐसा प्रतीत होरहा है कि मैं एक रूपसुधा का पाम कर रही हूं । सोमरस के पीने से जैसे मनुष्य के दिल में ताजगी और एक नई ताकत सी भातो है, उसी प्रकार यह देह मतवाली सी होती जाती है ।
अनि०--देवी।
ऊषा०--देवता
भनि०--मैं तुम्हाग होगया ।
उषा०-और मैं तुम्हारी होगई, ।
चित्र०--प्यारी प्यारा होगई, और प्यारा प्यारी होगई।
देखो, बादल उमड़ने लगे, बिजली चमकने लगी, पपीहो की पिठ घिउ और कोयलियों की कूकू मजबूर करती है कि प्रिया और प्रियतम इस समय प्रथम मिलन के सिलसिले मे मूले पर झूलने के लिये विराज जायें और हम सब सखियां प्रेम पूर्वक मुलाये। अरी, माधुरी, सरस्वती, मनोरमा और प्रभा, तुम सब कहा चली गई ? माओ, प्यारी और प्यारे को मुलायो ।
(ऊषा-अनिरुद्ध झले म बठजात ह चित्रलेखा झुलाती है)
सब सखियाँ-
गाना
झूलाओ सब सखियाँ प्यारी को झूला झुलाओ। झूम झूम, मुक झपट, झकाझक झक मार झोक झुकाओ । सांग सुन्दर सलोने सुरों से सावन सुहावन सुनायो।
ध्वजा ने गिर कर मुझे यह भेद बता दिया है कि मेरा बरी मेरे ही महल में झूले पर झूल रहा है। अच्छा, ठहर तो सही, मैं अभी तुझे झूला झूलने का मजा चखाता हूं।
देखू अब कैसे सुलेगा और कौन मुलाएगा स्कूजा ।
गुम्स से मेरे, फांसी का फन्दा बन जायेगा भूजा ।
सिपाहियो ! क्या देख रहे हो ! मागे बढ़ जाभो और
इस झूला झूलनेवाले को जंजीरों के मूजे में मुजाओ।
ऊषा०-ठहरिये पिता जी
(साधासर का आषाको धक्का देदा और चित्रलेखा का उस सम्हालना, सिपाहियों का अनिरुद्ध को गिरफ्तार करना)
दृश्य पांचवां
(स्थान-महन्त माधोदास का मंदिर)
[माधोदास एका गटाममक साथ प्रवेश]
माघो०--सुन पश्चा गड्गराम, तू अब गुरूजी का सेवक और नहीजी का चेला बनाया जाता है।
गङ्गा०--कृपा है, गुरुजी की यह बड़ी कृपा है।
माधो०--काल से तेरे मेख का नाम गङ्गाराम के बदले गङ्गादास होता है, समझा ? अब स्म गुरु जी की सेवा बजाना और मालपुए उड़ाला।
गङ्गा॰––जो आज्ञा गुरुजी महाराज!
माधो॰––और सुन, गुरूजी के बताए हुए पञ्चकर्म आज ही से याद करले। उन्हें भूल न जाना।
गङ्गा॰––वह पञ्चकर्म कौनसे हैं गुरूजी महाराज?
माधो॰––यह पञ्चकर्म यह हैं––
- (१) प्रथम ठाकुरजी के और रसोईजी के वर्तनजी को मांजना।
- (२) दूसरे गृहस्थियों से रोज मिच्छाजी को माँग कर लाना।
- (३) तीसरे रसोईजी को बनाना और सन्तोंजी के लिए खिलाना।
- (४) चौथे चिलमजी को भर कर गुरूजी को पिलाना।
- (५) पांचवें कोई चेलाजी या चेली जी आये तो उसे गुरुजी के पास ले आना।
गङ्गा॰––बस गुरूजी, यही पंचकर्म हैं।
माधो॰––हाँ बच्चा पंचकर्म तो यही हैं, पर भेखीजी की वाणी जी के कुछ शब्द और भी हैं जिन्हे खूब याद करले।
गङ्गा॰––वे शब्द भी बतादीलिए गुरूजी।
माधो॰––अच्छा तो उन शब्दों को भी सुन। जो कोई इन शब्दों पर विश्वास नहीं करता है वह घोर नर्क में जाता है। यह शब्द भण्डार बहुत गुप्त है। हर एक आदमी को नहीं बताया जाता है। गङ्गा०-हाँ, तो इस सेवक के लिए वह शब्द भण्डार भौ प्रकट करदीजिए गुरूजी महाराज।
माधो०-अच्छा तो सुन, आज से रसोईजी को राम रसोंई कहना, नमक को रामरस कहकर बोलना। दाल चाहे उड़द की हो या मूस की--सब को राम बैकुंठी बताना। लालमिर्च का नाम राम तड़ाका और प्याज का नाम रामलडुआ कहकर जताना। सममा?
गङ्गा०-समझा गुरूजी महाराज। तो क्या आप प्याज भी खाते हैं?
माधो०-चुप मुर्ख! प्याज नहीं, रामलडुआ खाते हैं।
गङ्गा०-वाह गुरुजी महाराज, यह तो आपने खूब गुप्त भण्डार दिखाया। परन्तु इन्न सब चीज़ो के पहले राम का नाम क्यो लगाया?
माधो०-रामजी के नाम से उन चीज़ों का अशुद्ध भाग जब शद्ध बनाया जाता है तब वह राम रसाई जा में लाकर रामप्रसादीजी के नाम से खाई जाती हैं। और सुन--
गङ्गा०-कहिए गुरुजी महाराज।
माधो०-जो कोई तुझसे तेरे भेख का नाम पूछे तो इस प्रकार बताना--"मेरे भेख का नाम सब सन्तों का दिया हुआ रामजी के आमरे गङ्गादास है। हम विवाहजी नहीं करते, परन्तु चेलाजी रखसकते हैं। चेलीजी से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह सयोगीजी कहलाती है"।
बालक यही है। वैष्णवों के अखाड़े से इसे उबालेमाने ही के वास्ने इस गौरीगिरि ने भाज गौरीदास का वेश बनाया है। (प्रकट) जय सीताराम सन्तो अय सीताराम ।।
माघो०--जय सीताराम, बच्चा जय सीताराम । बैठो भक्त- राज, आजसे हमारे प्यारे शिष्य जी श्रीगङ्गादास जी श्रीरामपण. जी का भीसत्संग जी सीखेंगे। तुम भी सुनो।
गोरी०--जो आज्ञा ।
(ध्यान मग्न होकर माला जपने लग जाता है।)
माघो०-
नमप्रदेशमाछाद्य घनाः गर्जन्ति निष्ठुराः ।
एतत्काले पुाहीनं क्लेशमाप्नोति मे मनः ॥
बेटा यह कीचकन्धा काण्ड के आगे की कथा है। नवाजी. में वाहिका नाम का एक पहाड़ है। वहाँ भीषम जी जब पहुंचे तो बरसात जी प्रारम्भ होगी। उस समय घन नाम के वानर सं श्रीरामचन्द्र जी ने कहा कि भाई घना, नभ कहिए श्राकाश सो निष्ठर होकर गरज रहा है। ऐसे समय में मेरा मन पुश्रा के. बिना क्लेश को प्राप्त होरहा है। वर्षा में राम जी का मन गरम गरम पुआ खाने को चाहने लगा था । पन में पुआ मिले. नहीं, सोई क्लेश होता भया-समझा बच्चा गङ्गादास ?
गडा०--समझा गुरुजी ।
माधो०--
तथाऽखितेषु मेधेषु पञ्चला चञ्चलायते ।
शैवानां दुष्टशीलानों मत्तिर्जाती यथाऽस्थिरा।।
रहती । जैसे दुष्टशील अर्थात् दुष्ट स्वभाव वाले शैकों की मति ।
वृष्टि-विन्दु-अलाघातं सहन्ते पर्वतास्तथा ।
यथा वै कटुषचनानि शैवानों वैष्णवाः जनाः ॥
आकाश से होनेवाली दृष्टि की बंदों के जलाधात को पर्वत इस तरह अपने ऊपर सहलेते हैं जैसे वैष्णव लोग शैवो के कटु वचन सदा करते हैं।
- (अक्षदास का सरयूमास और गोमतीदास के साथ जाना)
कृष्ण--(धीरे से) भाई गोमतीदास, छिपकर देखो कि महन्त जी महाराज गंगागम को टीक ठीक उपदेश दे रहे हैं या पहले की तरह आज भी गषड़ घोटाले का सत्संग कर रहे हैं ।
माधो०--
रुक्ताः बहु मण्डूकाः घोषयन्ति समन्ततः ।
येन केन प्रकारेण परद्रव्यं समाहरेत् ।।
जलानि भूपतिवानि तथा योति सरोवरे ।
यथाशिष्याः सुरूपिण्याः गच्छन्ति गुरु सन्निधौ ।
(गौरिगिरि आंखे खोलकर देखने लगता है)
गौरी०--सीताराम ! सीताराम !!
माधो०--सुनो मतराज, बरसात में सव ओर पास ही घास होगयी तो उसे रामजी ने अपने वाण से मेट दिया । तच दादुरवा सार अस बोले लाग जस 'राम रुपया बोलत है।
कृष्ण--(स्वगत) हैं अभी तक यही गन्दे विचार ! धिकार घिक्कार !! (सामियस) रामजी के सच्चे मनो, आंखें खोलकर पहले एस सरफ देखो। तुम्हारे धर्म के कमजोर खम्भे ऐसे ही पेशे नाम मात्र के साधु हैं। इसलिए माइयो-
पहले अपने आप को बलवान करना चाहिए ।
तष पराये गेह में प्रस्थान करना चाहिए ।
(गेपथ्य से )-रूपी महामा, गुरूजी महाराज ।
माधो०--बच्चा गङ्गादास, देख सो थाहर जाके कौन पुकारता है।
माधो०--(स्वागत) अब यह बचा पाठ पढ़कर ठीक बन गया है, गुरू भी की खूष सेवा करेगा ।
गङ्गा०--(पास जाभर माशोधास से) गुरूजी महाराज, एक गुप्त बात है । गुप्तवाणी के अक्षरों में कहता हूं।
माधो०--कहो कहो जल्दी कहो बच्चा, क्या बात है ?
गडा०--एक रामप्रिया मी आयी है। (राम प्रिया का माम हम कर मानोदास का प्रसन्न होना)
माघो०--अच्छा तो तू यही ठहर, मैं अभी उसको राम उपदेश जी देकर पाता हूं। (माता है) ।
गौरी०--(स्वागत )यही समय है किइगाराम को उद्या और अपने शैव अखाड़े की भार ले जाऊ । (प्रकट ) क्यों थे ! उस रोज तो तू माग आया था अम कहाँ जायगा ?
गङ्गा०--(आश्चर्य से) हैं वैष्णपेश में तुम गौरीगिरि नाग- वाले शैव हो?
गौरी०--हां, हम वही हुम्हारे सिस्तोड़ औषद हैं । (गङ्गालास को पाने के लिए पटना है) गङ्गा०--(चिल्लाकर ) अरे बचाओ बचाओ, गुरूजी मुझे इस दुष्ट से बचाओ।
कृष्ण०--(प्रकट होकर) न घबराओ बेटा न अपराओ ।
माधो०--(प्रवेश करके) क्या है ? क्या है ??
गौरी०--(कांपकर ) अरे बाप रे यहाँ भी यही महाकाल के महापुजारी आगए ।
कृष्ण--(गैरीगिरि से) देखो शैव सम्प्रदाय के पुजारी, तुम्हारा आज का दुराचार न केवल अप्रसन्न होने योग्य बल्कि विककारने योग्य है। हमें संशोप होगा कि तुम शैव होने पर मी सचे शैव बने रहोगे, दूसरे के धर्म पर आक्रमण न करोगे और किसी को क्लेश न पहुंचाओगे:-
है काम नीचता का औरों का माल तकना ।
अपने सुखों की खातिर औरों के सुख को हरना ।
जीते ही जी नरक में यों नारकी हो सड़ना ।
अपने ही माइयों में यों मरना और कटना ॥
मजहब नहीं सिखाता आपुस में वैर रखना ।।
गौरी०--धन्य महाराज,माज मुझे आपके आशीर्वादसे सच्चा बोध होगया। अब मैं आपके बताए हुए मार्ग पर ही चलूंगा। अपने अब तक के अपराधों की क्षमा चाहता हूं। (प्रणाम करता है।
कृष्ण०--उठो,भाई उठो ( यह कह कर गौरीगिरि को गले से लगाते हैं,फिर माधोदास से कहते हैं ) क्यों महन्त जी महाराज, अभी तक आपने अपना ही सुधार नहीं किया तो फिर इस लड़के को कैसे सुधारिएंगा? माधो०--वाह, सुधार कैसे नहीं किया ? थोड़ी देर पहले आप आते तो मालूम होता कि मैं अब रामायणजी का भाधा सल्लोक पुरानी रीति पर कहता हूं और आधी नई रीति पर ।
कृष्ण०--क्या खाक नई रीति पर कहते हो ! मैने छिपे रे सब कुछ सुनलिया है। मेरा कहना यह है कि बाप रामायण के ही श्लोक कहिए और उनका शुद्ध अर्थ करिए । साथ ही, अपन्न चरित्र को भी बनाइये, विद्या की अग्नि में अविद्या के कूड़े को जवाइए । लध पाप वैशाक कहाने के अधिकारी और जाति के सचे पुजारी होंगे। क्योंकि-
पहले अपने आपको, जो निर्मल करलेय ।
बह ही इस संसार को, सच्ची शिक्षा दय ।।
माधो०--धन्य महाराज,आपके उपदेश से आज मेरे नेत्र खुजगए और अभ्यंतर के समस्त विकार धुलगए । अब मैं अपना और भी सुधार करूंगा। रामायणजी में कहा है कि--
कोऽपि दोषःसमर्थानां अस्मिल्लोके न विद्यते।।
त्वचाह वै समर्थोस्तः भाचरेव यथारुचिम् ॥
अर्थात् इस संसार में सामर्थ्यवान् जो चाहे सो करे, उसे दोष नहीं लगता । सो हम और आप भी चाहे जो कुछ करें क्योंकि हम और आप सामर्थ्यवान हैं।
कृष्ण०--खेद, अब भी तो आप अपने अण्ड बण्ड श्लोको का ऊटपटाँग अर्थ धांगेही जाते हैं। अच्छा जाइए और मत्र अम्बाड़े को साथ लेकर मेरे पास माइए । मै श्राप से वैष्ण धर्म का प्रचार अपने निरीक्षण में कराऊंगा।
[महन्त माधोदासका सबको साथ लेकर अखाड़े की ओर चले जाना और कृष्णदास का अकेला रह जाय । कृष्ण०--[ ऊपर को विनीत भाव से देखते हुए ] दीननाथ, बहुत होगया। अब शैव-वैष्णवो ही के नही, सार संसार के झगड़ो का नाश करके विश्व-प्रम फैलाइए और अपने प्रेम के सागर मे सारे संसार को नहलाइए-
गाना
फिर से इस देश को तू अपना वनाले आजा।
नाव मंझधार में है नाथ स्वचाले अाजा ॥
दर बदर तेरे बिना ख्वार फिरा करते हैं।
अपने गिरते हुए भक्तों को उठाले आमा ।
द्वेष-रावण ने तेरे विश्व को फिर खाया है।
अपना वह वाण-धनुष शीघ्र चढ़ाले आजा ॥
रोशनी के बिना अंधे हैं जगत के वासी ।
इनकी आँखों में ओ श्रांखों के उजाले श्राजा ॥
____०____
छठा दृश्य
(महाराज उग्रसेन का दरबार)
उग्रसेन--क्यों उद्धव, तुम्हारा क्या खयाल है । प्रजा अब पहले से अधिक सुखी है या नहीं ?
उद्धव--क्यों न सुखी होगी ! जिस प्रजा ने कंसके अत्याचार सहे हों क्या वह ऐसा राज्य पाकर भी सुखी न होगी ? उग्र०--परन्तु उद्धवजी, राजा को खुद कभी सुख और चैन नहीं होता है। ताग और तख्त ये दोनों चीजें बेचैनी को बुनियाद पर रक्खी हुई हैं।
उद्धव--परन्तु कब ? जबकि अधर्म उस राज्य का लक्ष्य हो, अन्याय उस राज्य का मन्त्र हो । वाल्मीकीय रामायण में हमने पढ़ा है कि रघुकुल के राजाओ में सर्वदा शांति रही है । परन्तु रावण मे सदा अशान्ति रही है :-
उसे डर था प्रजा सर पै न चढ़ जाए कहीं तनके ।
मेरे कानून मेरे हैं, प्रजा के हैं नही मनके ॥
उग्र०--हाँ, यह ठीक है । रावण को अपने बलपर बड़ा अभिमान था। अपने अभिमान ही मे वह छोटे छोटे निर्दोष राजाओं को खून चूसा करता था । प्रजा के दीन हीन परन्तु धर्म के सच्चे पुजारियों को अत्याचार के बेलन से पीसा करता था ।
उद्धवः--इसीलिए तो उसका नाश हुआ और धर्मवीर रघुकुल के सूर्य का प्रकाश हुआ:-
आपकी गद्दी तो है महाराज गद्दी धर्म की ।
इस मुकुट की सर्वदा रक्षक है शक्ती धर्म की ।।
सुबुद्धिः--राजराजेन्द्र, बड़ा गजब होगया ! बड़ा उत्पात्र होगया!
उग्र०:--[घबराकर ] क्या वज्रपात होगया ?
सुबुद्धिः--राजकुमार अनिरुद्ध अपने महल से ग़ायब हैं। वही नहीं उनका पलंग तक ग़ायब है । उग्र०:--और तुम अब दरवार के समय यह खबर सुनाने आये ? अब तक कहाँ थे।
सुबुद्धिः--राजकुमार को दूढ रहा था।
उग्र०:--वह कहीं नहीं मिले ?
सुबुद्धिः--नही महाराज।
उग्र०:--यह तो बड़े आश्चर्य की बात है । पहरेपर कौन था ?
सुबुद्धिः--सुदर्शन !
उग्र०:--तो उस को बुला मो, और उससे इस घटना का निर्णय करामो। [ मुबुद्धि जाता है ] आश्चर्य पर यह दूसरा आश्रय है कि सुदर्शन के होते हुए यह घटना घट जाय ।
उग्र०--क्यों सुदर्शनजी, अनिरुद्ध के महल में कल राव तुम्हाराही पहरा था ?
सुदर्शन--हाँ महाराजा
उग्र०--तो बताओ अनिरुद्ध कहाँ हैं ?
सुदर्शन--मैंने उन्हें महल ही में छोड़ा था।
उग्र०--हैं ! छोड़ा था, छोड़ने का क्या कारण ? तुम्हारी तो वहाँ तईनाती थी।
सुह०--हाँ महाराज, किन्तु आधी रात के बाद मैं बहा है चला आया!
उग्र०--क्यों ?
सुद०--राजकुमार की माताजी ने स्वयं प्राकर मुझसे यह फरमाया कि तुम्हें नारदजी बुलारहे है।
उप्र०--फिर तुम वहाँ से हटगये ? सुद॰––हाँ महाराज, माताजी की आज्ञा मानकर हटगया।––
अगर यह दोष है मेरा तो मैं निर्दोष भी भगवन्।
सुदर्शन ने तो की तामील माँ के हुक्म की भगवन्॥
उग्र॰––अच्छा तो तुम नारदजी के पास चलेगये?
सुद॰––हाँ महाराज।
उग्र॰––वे तुमसे मिले?
सुद॰––नहीं महाराज।
उग्र॰––तुम उन्हें ढूंढते रहे?
सुद॰––हाँ महाराजा।
उग्र॰––सारी रात ढूंढते रहे?
सुद॰––हाँ महाराज।
उग्र॰––भोले, सीधे और विश्वासी पहरेदार तुम धोखा खागये। (सुबुद्धि से) क्या किसीने इस बातका भी पता लगाया है कि इन्हें वहाँ से हटानेवाली अनिरुद्ध की माता ही थीं या उनके वेष में कोई और माया थी?
सुबुद्धि॰––हाँ महाराज, इस बात की भी तहक़ीक़ात होचुकी है। राजकुमार की माता तो रात भर अपने शयन-मँदिर ही में रही थीं। वे तो वहाँ से उठकर भी नहीं गयी थीं।
उग्र॰––तब तो यह बड़ी निराली घटना है। हमारे राज्य में ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ! श्री मदनमोहन जी कहाँ हैं? आज वे भी दरबार में नहीं आये!
उद्धव॰––[सामने देखकर] शायद वही सामने से आरहे हैं। संभव है कि इस विषय में वे कुछ जानते हों।–– कुण्डल पहने, पटका डाले वंशीवाले भाते हैं।
उजियाला अब होजायेगा जग उजियाले आते हैं।
उग्र०--आइये, आइये, मदनमोहन जी आहये । आपने रात, की घटना सुनी है ?
श्रीकृष्ण--हां सुनी है।
उग्र०--फिर उसका कुछ उपाय भी किया है ?
श्रीकृष्ण०--प्रद्युम्न को इस बात का पता लगाने के लिये मुकर र करदिया है।
बलराम--और तुमने ? वंशीवाले तुमने ? तुमने आप इस घटना पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया है ?
श्रीकृष्ण--अनिरुद्ध यादववंश का वीर बालक है। कौन उसे धोखा देकर तकलीफ पहुंचा सकता है ? उसकी वीरता पर भरोसा करके ही मैं निश्चिन्त हूँ।
बलराम--बाहरी निश्चिन्ता, पौत्र गायब होगया और आप भब भी निश्चिन्त हैं।
उग्रसेनः--
इसे अवगुण समझते हो ? नहीं यह गुण है मोहन का ।
सुखो मे या दुखों में एक रस रहता है मन इनका ।।
बलरामः--भैया कन्हैया, आज का तुम्हारा यह शान्तरस हमें नहीं सुहाता:--
बसा ओ तुम बताओ, बहू नयन तारा कहाँ पर है ?
हमारा और तुम्हारा प्राण का प्यारा कहाँ पर है ?
- ओवा:--अच्छा, यदि तुम नहीं मानते हो तो मैं नारद जो
को स्मरण करता हूं। वह अभी आयेंगे और इस घटना पर प्रकाश डालकर उलझन सुलझायो ।
- नारदः--[ गाना]
भजो रे मन राधा और गोविन्द ।
- उग्र०:--आइये, आइये, देवर्षि जी श्राइथे । आपकी कृपा से
हमारी चिन्तायें नसायेंगी और उलझी हुई कड़ियाँ सुलक जायगी ।
- बलगम:--नारद जी महाराज, क्या आपने कल रात का
किसी युक्ति द्वारा पहरे पर से सुदर्शन को हटाया था ?
- नारदः--हाँ !
- सबलोग:--[आश्चर्य से ] हाँ ?
- उग्र०:--यह कैसी आश्चर्यकारी दात है ?
- नारद:-सुनिये मैं सब सुनाता हूं । शैबो के राजा महाबली
वाणासर की एक कन्या ऊषा है।
- उग्र०:--है !
- नादः--उसकी सखी चित्रलेखा यहाँ आई और राजकुमार
को लेगई !
- बलरामः--और आपने चित्रलेखा को सहायता दी ?
- नारदः--हाँ,
- बलराम:--वह क्यों ?
- नारदः--वही तो सुना रहा हूँ । वाणासुर बड़ा अत्याचारी
और अभिमानी है। फिर भगवान शंकर से अजेय वर भी पाए हुए, सहस्रमुनाओं का पल रक्खे हुए है । वह शैव होने के कारण अपनी वैष्णव प्रजा पर बड़ा अत्याचार कर रहा है। वैष्णव,वों के बच्चों को नये नये कानून बनाकर उसके यहाँ शैव किया जा रहा है, उनके कंठी-तिलक को नष्टकर तरह तरह से कष्ट दिया जारहा है । बेचारी वैष्णव स्त्रियों को चोरी ओर बरजोरी से शैव सम्प्रदाय में घसीटा जारहा है, वैष्णवों के विरुद्ध शैव धर्म का डका पीटा जारहा है। स्त्री जाति का ऐसा अपमान आज तक कहीं देखने और सुनने में नहीं पाया।
बजरामः--ओह, इतना अत्याचार ? इतना बलात्कार ? तब तो अवश्य उस मामी का मद हरण करना चाहिए । धर्म की रक्षा के लिये अधर्मी का सिर कुचलना चाहिए।
नारद:--इसीलिए तो मैंने चित्रलेखा को सहायता दी ! यदि मै उसको अनिरुद्ध की माता के वेश में यह कार्य सम्पादन करने की त्ति का बताता तो सुदर्शन को इस स्थान से कैसे हटाता ?
उग्र--पन्य नारदजी, आपको भी धन्य है, और आपकी कला को भी धन्य है !
सुद०--श्रमती सुदर्शन इल्काम से बरी होगया ?
उग्र०--तुम मुलजिम ही कप थे ? ( नारह खे) अच्छा खो अनिरुद्ध इस समय वहाँ किस हाल में है ?
नारद--कारागार के माल में है !
बलराम--(चौककर) हैं ! कारागार में ! हमारा पौत्र कारा- गार में ! (उपप्लेम से) महाराज, अब नहीं रहाजाता है। खून खौला जाता है। एकदम चलो, पौत्र अनिरुद्ध को छुड़ाने के
लिए तैयार होजाओ-भस्म करदो चलझे शोणितपुर को अब एक आनमे ।
फ़र्क मत प्रामेदो बादववंश के अभिमान में ॥
मेरी छाती उस समय ही शांति पूरी पायगी ।
जबकि शोणितपुर में शोणित की नदी बहलायगी ।।
श्रीकृष्ण--भैया बलदाऊ, शान्त । शोणितपुर में शोणित की नदी बहाना ठीक नहीं। इस कार्य से वहाँ की प्रजा दुख्न पायगी । हमें राजा से लड़ना है न कि प्रजा से। इसलिए ऐसे समय में शान्तिपूर्वक विचार करना चाहिये ।
बलराम--मदनमोहन, यह तुमक्या कहते हो । युद्ध में शांति ?
श्रीकृष्ण--भैया, शांति सब जगह काम देती है। बड़े से बड़ा योद्धा भी यदि युद्ध में शान्ति खो बैठेगा तो अपनी जीतसे हाथ धोबैठेगा ! देखो, सृष्टि ही को देखो। शिवमी शान्तिपूर्वक अपना काम करसी है । नित्य बोजसे वृक्ष और वक्ष से बीज बनाती है और किसी को कानो कान भी इस रहस्य की खबर नहीं होने पाती है।
बलगम--तो क्या तुम्हारी यह राय है कि हम शान्तिपूर्वक घर में जाकर बैठजायें ?
श्रीकृष्ण--नहीं, अनिरुद्ध को छुड़ाने अवश्य जाइये, परन्तु शान्ति के साथ !......देखो "महादेवजी अपने संहार कार्य का कितनी शान्ति के साथ करते हैं ? सबसे ज्यादा शान्ति अगर हम कहीं देखते हैं तो शमशान ही में देखते हैं:--
धनवान् के घर शांति का मिलता पता नहीं ।
अभिमान जहाँ पर है घों खुख जरा नहीं ।।
मिलती है कहीं पर तो रागों में शांती ।
महलों में नहीं, पर्ण-कुटीरों में शांती ।।
बनराम--सुनलिया, आपकी शांति का व्याख्यान । युद्ध करने में तो आप भी सहमत हैं, फिर देर किस बात की है ? सब योद्धाओं को प्रस्थान करने की आज्ञा दी जावे ।
उग्र०--उद्धवजी, आप और बलराम अपनी संरक्षता में यादव सेना को ले जाइये, और दुष्ट वाणासुर का मद चूर्ण करके अनिरुद्ध को कुशल और विभय सहित द्वारिका लाइमे !
नारद--कुशल और विजय सहित ही नहीं श्री सहित भी !
सुद०--अर्थात् ?
नारद--गृहलक्ष्मी सहित भी !
सुद--हाँ, जब गृहलक्ष्मी आयेगी तभी तो नारदकला को विजय समझो जायगी।
बलराम--प्रद्युम्न को भी साथ ले जाइए ?
उग्र--नहीं, वह द्वारिका हो रहे। तुम और उद्धव ही काफी हो ।
श्रीकरण--उद्धवजी, देखिए, मेरे बताए हुए नियमों के अनु- मार लडिएगा। हमारा द्वेष राजा से है प्रमाले नहीं। प्रका को कोई दुःख न दिया जावे। जो योद्धा सामने युद्ध करने आवे, उसीपर वार किया जावे । खेत पर काम करनेवाले किसानो की खेती ऊजड़ न की जावे । झोपड़ों में रहनवाले गरीबों को न सताया जावे। किलों को तोड़न का पूरा प्रयत्न कियाजावे, परन्तु शिव मदिरों, पाठशालाओं और पुस्तकालयों को कोई हाथ न लगावे।
उद्धव०--ऐसा ही होगा। श्रीकृष्ण--तो विजय के साथ यश का डङ्का बजाओ और अपने कार्य में पूरी सफलता पाओ।
गाना
जो धर्म पै दृढ़ है, जिसका स्वच्छ हृदय है ।
कहते हैं वेद और शास्त्र, उसी की जय हैं।।
जिसने अपने कर्तव्य पै रण ठाना है ।
जिसने पर कारज का पहरा बाना है।।
जिसने स्वजाति का मूल तत्त्व जाना है।
जिसने स्वदेश का गौरब पहचाना है।।
जो स्वाभिमान के कारण दोवाना है ।
जो भान पै मर मिटने का मरदाना है।।
वह ही है रण बाँकुरा, और निर्भय है ।
कहते हैं वेद और शास्त्र, उसी की जय है ।।
सातवां दृश्य
(स्थान महल का एक भाग)
(ऊषा और चित्रलेखा का आना)
ऊषा--हाय, क्या कहूं ! किससे कहूँ?
थे मिले हुए दो फूल एक डाली के ऊपर खिले हुए ।
जालिम हाथों से दोनों ही टूटे और दममे जुद हुए ।।
चित्र०--प्यारी, धीरज धरो, इतना न घबराओ ।
ऊषा--कैसे न घबराऊं ? पशु पक्षी तक वियोग की वेदना से घबराते हैं, फिर मैं तो मनुष्य जाति में हूं ? चित्र०-तो क्या अपने पिता से लड़ोगी?
ऊषा--लड़ने को जी तो चाहता है, परन्तु धर्म रोकता है। क्या करूं--
एक ओर पतिदेव दूसरी ओर पिता है।
दो पाटों के बीच फंस रही यह उषा है॥
चित्र०-मेरी राय तो यह है कि तुम अब अनिरुद्ध को भूल जाओ।
ऊषा--यह सबसे ज्यादा असंभव है।
चित्र०-क्यों?
ऊषा--नारी धर्म की बात है!
चित्र०-वह बात क्या है?
ऊषा--नारी एक बार भी जिसको अपना पति बना लेगी, उसी को पति समझती रहेगी। फिर दूसरे पुरुष की ओर दृष्ट हालना भी उस के लिए घोर पाप है। संसार में नारि जाति के लिए इससे बढ़कर दूसरा पाप नहीं होसकता।
एक बार जिसको वरा है वह ही भरतार।
झिंझरी नैया का वही पति है बस पसवार॥
चित्र०-पर तुम्हारी और अनिरुद्ध की पहली मुलाक़ात तो स्वप्न की मुलाक़ात है।
ऊषा--यह वो और भी ऊंचे आदर्श की बात है। नारी यदि स्वप्न में भी किसी को स्वीकार करले तो उसे फिर दूसरे पुरुष से विवाह करने का अधिकार न होना चाहिए--
स्वप्न ही में उनको जब देखा तो उनकी होगई।
वह मेरे स्वामी हुए मैं उनकी दासी होगई ।।
ऊषा अब अनिरुद्ध की अनिरुद्ध अब ऊषा के है।
मिलगई वो गाँठ जब तब एक जोड़ी होगई ।।
चित्र०--तो याद रक्खो, तुम्हारे पिता बड़े जालिम हैं, के किसी तरह यह सम्बन्ध नहीं होने देंगे।
ऊषा-सम्बन्ध तो होचुका, भब उसे वे क्योंकर बदल देगे?
चित्र०-इतनी जबरदस्त अग्नि है ?
ऊषा--हाँ, यह अग्नि भष पत्थर के भीतर रहनेवाली वह चिनगारी नहीं है जो घोट खाके प्रकट होती है।
चित्र०--तो?
ऊषा--यह तो जशलामुखीहोकर फूटी है !
चित्र०--फिर इसके बुझाने का साधन ?
ऊषा--प्रीतम का दर्शन।
चित्र०--अच्छा को तैयार होजामो!
ऊषा--काहे के लिए?
चित्र--प्रीतम के दर्शन के लिए।
ऊषा--क्या इस एकडंडी महल में, जहाँ मेरे प्राणनाथ कैद है-मुझे लेच नी
चित्र०--नही चलूंगी तो चलने के लिए वैसे ही कहरही हूं?
ऊषा--परन्तु वहाँ तो नंगी तलवारों के पहरे हैं-
किस तरह उम्मीद जायगी मना के पास में । चित्र०--जिसररह परवाना जाता है शमा के पास में !! सुनो, मै आज रात्रि को अपने पिता के पास जाकर गिड़गिड़ाऊगी। वे इस राज के प्रधान मंत्री है, उनकी कृपा से व्योमयान माँग लाऊंगी।
ऊषा--फिर ?
चित्र०--उसपर तुम्हे बिठाऊंगी।
ऊषा--और ?
चित्र०--प्राणाधार के पास--एकडंडी महल मे--पहुंचाऊगी।
ऊषा०--उपकार, तब तो तेरा अनन्त उपकार होगा-
पहले भी तूमे ही नहलाया है उस जलधार में ।
अब भी पहुंचायेगी तूही मुझको उस दरवारमें ।।
गाना
कोई प्रीतम का दरस दिखाय दो रे।
पिड पिउ की रट करे पपीही, हे घन प्यास बुझाय दो रे।
ओ चाहते हैं तुम्हारी ही चाह करते हैं ।
जो देखते हैं तुम्हीं पर निगाह करते हैं।
तुम्हारे तालिचे दीदार अाह करते हैं।
तुम्हारे वास्ते इतना गुनाह करते हैं ।
तुम्हारी राह में खुद को तबाह करते है।
बिछुड़ रहा बिरहिन का जोड़ा.विधना देग मिलाय दो रे ।
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आठवां दृश्य
(एकडराडी महल)
अनिरुद्ध--हाय, ऊषा, प्यारी ऊषा, तुम्हारे प्रेम-वन्धन मे बँधा हुआ यह अनिरुद्ध अब कारागार के बन्धन में बंधा हुआ है। यह वन्धन जितना तुच्छ है, उतना ही वह बन्धन पुष्ट और पवित्र है जिसमे यह वियोगी जकड़ा हुआ है:--
हम तो पहले से बंधे हैं प्रेम की तक्कसीर में ।
जोर जुल्फोसे जियादा कव है। इस जंजीर मे ॥
वाणा०-[प्रवेश करके ] सिपाहियो, मेरे शिकार को मेरे सामने हाजिर करो।
वाणा०--[स्वगत] संसार की मिट्टी का एक घरौदा, यह नही जानता है कि वह किस हिमालय के पाषाणोंसे टकराने की खड़ा हो रहा है । छोटा सा नाला यह नहीं समझता है कि वह किसी भयानक नद से कुश्ती लड़ने के वास्ते बढ़ता आरहा है -
खिलौने दोनों सूरज चाँद हैं जिसके जमाने में ।
हिमालय और विन्ध्याचल हैं जिसके एक निशानेमे।।
उसी से खेलने को एक बालक सिर उठाता है।
तअज्जुध है कि जुगनू सूर्य से आँखे मिलाता है ।।
क्यों जिद्दी लड़के, तुझे अपनी मौत का कुछ खयाल है ? अनि०--मौत का स्त्रयाल ? मौत का खयाल उन्हे होता है ओ दौलत के कुत्ते हैं, हिर्स और हविस्र के बन्दे हैं । सच्चे योद्धा और सच्चे धर्म-सेवक को मौत का नहीं विजय का और परमात्मा का खयाल रहता है।--
एक दिन सब हैं इसी मग से गुजरनेवाले ।
मौत से डरते नहीं मौत से मरनेवाले ।।
वाणा०--पर तुझे तो मौत से नहीं बेमौत मारना है ।
आनि०--यह तुम्हारा खयाल है। कोई बेमौत नहीं मरता है। जो मरता है यह अपनी मौत से मरता है। शोणितपुराधीश, मैं तुमसे एक बात पूछता हूं।
वाणा०--पूछो ?
अनि०--क्या तुम कभी नहीं मरोगे ? हमेशा जीते ही रहोगे ? भरे ग्राफिज मुसाफिर, यादरखः--
क्यों झगड़ता है तू इसके और उसके वारत !
भाज मेरे वास्ते तो कल है तेरे वास्ते ।।
बाणा--अरे तू यह नहीं जानता है कि मैं राजा हूं ?
अनि०--राजा है तो क्या अमर होकर पाया है ?-
यह है तेरा अंधपन, अज्ञान है, अविवेक है।
मौत के नीचे रिआया और राजा एक है।।
- देख, रावण भी एक राजा था, तुमसे बढ़ा चढ़ा राजा
था, परन्तु अत्याचार के कारण मृत्यु क बाद भी लोग उसे धिक्कारते हैं, राक्षस के नाम से पुकारते हैं। गवण का बल और उसका विस्तृत राज्य और अरत में इसका सर्वनाश, भविष्य के मानी और अत्याचारी राजाओ के लिए बतलागया है कि प्रजा की प्राह के सामने जालिम राजा का पत्थर सा कठोर पल भी बर्फ की नाई पिघल जाता है, चट्टान सा भी अटल और अचल राज्य मिट्टी की ढाय के समान पहले के बेग से जाता है :--
गर तू राजा है तो गजापन को सीख--
जर तू योद्धा है तो योद्धापन को देख।।
देखता है क्या सुझ अमिमान से-
पहले अपने पापवाले मन को देख ।।
वाणा०--लड़के, तू यह नहीं जानता कि तू मेरा चोर है। तुझ सजा देना मेरा धर्म है । तुझे मेरे महल में घुसने का क्या अधिकार था ?
अनि०--वही अधिकार जोकि सूर्य के प्रतिविम्ल को जल के प्रत्येक घड़े में होता है, वही अधिकार जो कि हवा के मोके को प्रत्येक खुली हुई खिड़की के मार्ग में होता है।
बाणा--इसका स्पष्ट अर्थ ?
अनि०--मैं नही बता सकता, तेरी पुत्री बतायगी :--
शुद्ध प्रेम के भाव को क्या समझेगा नीच ।
गङ्गारज की शानाको, पहुंच न सकती क्रीच !
वाणा०-- तो क्या मैं कीच हू? अगर मैं कीच हूँ तो ऊषा कौन है?
अनि०--कीच में उत्पन्न होनेवाली कमिलिनी :-अवतीर्ण असुर के हुई सुर बाल आनकर।
धूर में जन्म लेता है ज्यो लाल आनकर।
वाणा॰-छोकरे, तू यह भी जानता है कि तू किसके आगे खड़ा हुआ है?
अनि॰-हां, जानता हूं। मैं इस नगरी के तुच्छ राजा वाणासुर के सामने खड़ा हुआ हूं।
वाणा॰-वह वाणासुर जिसने शिवजीकी बड़ी तपस्या की।
अनि॰-हां, वह वाणासुर जिसने अपनी प्रजा पर बड़ी हिंसा की।
वाण॰-वह वाणासुर जिसने अपने तप से शिवजी को प्रसन्न किया और वरदान पाया।
अनि॰-हाँ, वह वाणासुर जो तप करके इतराया। अपने इष्टदेव पर ही लड़ने को धाया। तब अंत मे वरदान के बहाने अभिमान पूर्ण होने का प्रसाद पाया:-
नहीं कुछ मर्तबा तू जानता है देवताओं का।
किसीने पार भी पाया है ऊंची आत्माओं का॥
तेरा अभिमान दलने को यहाँ मुझको पठाया है।
मै उनका अंश हूं और तेरी ऊषा उनकी माया है॥
वाणा॰-यह बालक अवश्य वध करने योग्य है।
अनि॰-यह राजा अवश्य दंड के योग्य है।
वाणा॰-इतना छोटा मुंह और इसनी बड़ी बातें!
अनि॰-इतना बड़ा मुंह और इतनी छोटी बातें! धारणा०--अच्छा तू मुझे यह बता कि तू किसका पुत्र है ।
अनि०--महाराज प्रद्युम्न का पुत्र ।
वाणा--कौन प्रद्युम्न इस माखनचोर कृष्णका बेटा प्रद्युम्न?
अनि०--हों, उन योगीराज श्रीकृष्णचन्द्र का बेटा प्रद्युम्न, जिन्होने तेरे मित्र कस को मारकर संसार को दुःखो से बारा था।
वाणा--मेरे सामने उस ग्वाले की इतनी बड़ाई ! भर हाकरे, तूने कहाँ से खीखी है इतनी ढिठाई ?
अनि०--यह निर्भयता मैंने तेरे ही कुना के रत्न मन्त प्रसाद का जीवन-चरित्र पढ़कर सीखी है ।
वाणाo--प्रह्लाद का नाम मेरे सामने लेना बेकार है । हा वैष्णव न था।
अवि०--तो तेरे आगे प्रह्लाद के बाप हिरण्यकशिपु का नाम लूं जिसको स्वयं भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप धारण करके सहारा था -
नाम जिन श्रीकृष्ण का संसार में मजबूत है।
यह बली अनिरुद्ध उनके वंश का ही पून है ।।
वाणा०--अरे कौन कृष्ण ! उन्हीं कृष्ण को बड़ाई करता है जो ब्रज की ग्वालनियों के साथ खेले थे ?
अनि०--हाँ, मैं उन्हीं श्रीकृष्ण का वर्णन कर रहा हूं जिनके रासमण्डल में स्वयं भगवान शंकर में आकर नाचे थे।
वाणा०--तब तो दूसरी प्रकार से भी तू मेरा शत्रु है !तू वैष्णव है और मैं वैष्णव संप्रदाय का कट्टर बैरी हूँ। अनि॰-अगर तू वैष्णव सम्प्रदाय का वैरी है तब तो मुझे प्रसन्नता है कि मैं उसका मुक्काबला कर रहा हूँ जो मेरे कर्स का विरोधी है:-
अवतलक समझा था रिश्ता मैं श्वसुर दामाद का।
पर समझ में आगया सब जाल अब सैयाद का॥
याद रख जालिम न अब बचा है तेरे सामने।
वैष्णवों के धर्म का लोहा है तेरे सामने॥
वाणा॰-छोकरे, सॉप की बॉबी में हाथ न डाल !
अनि॰-डालूंगा, मगर साँप को पकड़नेवाले बैगी की तरह ।
वाणा॰-अच्छा तो ले ! ( तलवार निकालकर ) तूने मेरी यह चमकती हुई तलवार नहीं देखी है ?
अनि॰-देखी है, माता की गोद में से निकलने के बाद ऐसी कितनी ही तलवारों से मैं खेला हूँ।
वाणा॰-नादान, मेरे गुस्से की आग को क्यो भड़का रहा है?
अनि॰-ताकि वह तेरे पापो को भस्म करके तुझे शुद्ध बैष्णव बनादे।
वाणा॰-अच्छा तो खबरदार!
अनि॰-धिक्कार, निहत्थे बालक पर वार करते लज्जा नहीं आती?वीर है तो खम ठोक कर मैदान में आ। मुझसे कुश्ती लड़के फतेह पा।
वाणा॰-अच्छा तो आजा।
(तलवार फेंककर कुश्ती लड़ता है
अनिरुद्ध उसकी छाती पर चढ़ बैठता है)
- (सिपाहियोंका दौडकर अनिरुद्ध को पकडना
और वाणाटर का उठ खडे होना)
बाणा०--इसे नागपाश में बाँध लो!
[सिपाही अनिरुद्ध को बांध लेत ह]
अनि०--है ऐसी शान में लानत है ऐसी चाल में। शेर के बच्चे को फांसा इस तरह पर जाल मे ।।
वाणा०--फांसा ही नहीं बल्कि समाप्त करदेना है। इस तलवार से सिर उड़ा देना है।
[मारना चाहता है, उसी समय वायुयान मे ऊषा चित्रलेखा सहित भाती हे ]
ऊषा०--ठहरिये, पिताजी ठहरिए !
चाणा०--है । यह कौन । उषा ? राज-व्योमयान पर ? स्या कहती है ?
उचा०--(सामने आकर) उन्हे न मारिए-
पिता तुम व्याज खोकर मूल भी अपना भवाघोगे। सन्हे मारा तो विधवा-वेश में ऊषा को पायोगे ।।
वाण०--तो तू भी ले !
(कमान पर तीर का खीचना भी भगवती उमा का प्रकट होना)
उमा--ठहरो--
वाणा०-- कौन ? माता जी ?
उमा--हां, वाणासुर!इसे कलपाओगे जो तुम तो तम भी कल न पाओगे
अगर ऊषा को मारा तो उमा का दिल दुखाओगे।
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