ऊषा-अनिरुद्ध  (1925) 
राधेश्याम कथावाचक

बरेली: राधेश्याम कथावाचक, पृष्ठ आवरण-पृष्ठ से – पात्र-परिचय तक

 

ऊषा-अनिरुद्ध

लेखक–

राधेश्याम कथावाचक

♣श्री.♣

"श्री सूरविजयनाटक समाज" के
स्टेज पर खिलनेवाला
धार्मिक, मनोरञ्जक,
और उपदेशप्रद
नाटक

सर्वाधिकार स्वरक्षित
 


ऊषा-अनिरुद्ध



 

लेखक और प्रकाशक-
प॰ राधेश्याम कथावाचक।
अध्यक्ष–
श्रीराधेश्याम पुस्तकालय
बरेली।

प्रथम बार २०००] सन् १९२५ [मूल्य।।।)
 
 


प्रिन्टर प॰ रामनारायण पाठक, श्रीराधेश्याम प्रेस, बरेली।



 

निवेदन

नाटक प्रेमीवृन्द ।

'श्रीसूरविजय नाटक समाज' के मालिक श्रीयतलबजो और डाइरेक्टर श्रीयुत भगवानजी भी बड़े जबर्दस्त आदमी है। गतवर्ष जब 'सूरविजय' बरेली में आई तो २० दिनही में उन्होंने मुझले यह नाटक 'स्टेज करने के वास्ते' लिखवा लिया।

बारा यह हुई कि मेरे श्रद्धास्पद, ऋषिकुल हरिद्वार के संस्थापक, महामहोपदेशक रायसाहब श्रीयुत दुर्गादत्तजी पन्त श्रानरेरी मजिस्ट्रट काशीपुर (जिन्हें मैं बचपन से 'चाचाली कहता हूँ) उन्हीं दिना बरेली भाग गये। इस नाटक का कथानक उन्हीं ने कुछ लिखा था, परन्तु उनका वह लेख साहित्य के क्षेत्र का थो, नाटक के स्टेज का नहीं। उन्होंने मुझे आशा दी कि में उसे नाटक के रूप में लाऊँ और 'सरविजय में स्टेज कराऊँ । इधर उनकी आज्ञा मैंने शिरोधार्य की और उधर सूरविजय के मेरे उपरोक्त प्रेमियों के प्रेम ने मुझे परास्त किया, परिणाम यह हुआ कि खेलही खेल में यह एक खेल तैयार होगया।

सच पूछिए तो इस नाटक की तरफ ध्यान दिलाने, इसे लिखवाने, खिलवाने यहाँतक कि प्रकाशित करने तक का श्रेय चाचाजी (इसजगह 'पन्तजी न लिखकर चाचाजी ही लिखता मुझे प्यारा मालूम होता है) को ही है और कामिक का बहुत सा भाग तो उन्ही की विशाल बुद्धि की उपज है। शेष उनके आशीर्वाद का फल है। मैं क्या हूँ, मुझ अल्पज्ञ कीक्या शक्ति है। भगवान् जैसा चाहते हैं वैसा अपने बालकों से करालिया करतेहैं:–

मेरे दिल को दिल न समझो, मेरी जाँ को जाँ न समझो।
कोई और बोलता है, ये मेरी ज़बाँ न समझो॥

अन्त में, इसनाटक के लिखने के दिनों में जो दो प्यारी शक्तियाँ मेरी सहायक रही हैं उनका भी ज़िक्र किए बिना यह 'निवेदन' समाप्त नहीं किया जासकता। उनमें एक हैं मेरे प्रिय सतीशकुमार बी॰ए॰ (भ्रमर-सम्पादक) और दूसरे है मेरे अनुज मदनमोहन लाल शर्म्मा (उत्तर-रामचरित्र लेखक)। मैं सोच रहा हूं कि इन्हें धन्यवाद दूं या आशीर्वाद! या हँसकर यह कहदूं कि यह 'नाटे' ही इस नाटक की खड़खड़िया को खींचकर स्टेज तक लेगए। अच्छा, दोनों बने रहो।

पाठकों को इस नाटक में प्रेम मिलेगा, धर्म्म मिलेगा, और कहीं कहीं शिक्षा भी मिलेगी, ज़्यादातर क्या मिलेगा, यह मैं भी नहीं जानता। इतना अवश्य जानता हूं कि कुछ मिलेगा जरूर। इसीलिए इसे प्रकाशित करके इस महायज्ञ की आज पूर्णाहुती करता हूं।

गम्भीर, उदार महज्जन की, यदि कृपादृष्टि अपनाती है। तो बूंद भी नन्ही, छोटीसी, सागर का पद पा जाती है।

बरेली

अकिञ्चन—
राधेश्याम।

रथयात्रा, आषाड़ १९८२ वि॰

पात्र परिचय

पुरुष पात्र।

भगवान् शङ्कर—महादेव।
भगवान् कृष्ण—विष्णुदेव।
महाराज उग्रसेन—भगवान् कृष्ण के नाना।
बलराम—भगवान् कृष्ण के भाई।
अनिरुद्ध—भगवान् कृष्ण के पौत्र। प्रद्युम्न के पुत्र।
सुदर्शन—पुरुष रूप में भगवान कृष्ण का चक्र।
गरुड़—भगवान् कृष्ण का वाहन।
उद्धव—महाराज उग्रसेन के प्रतिष्ठित सभासद।
सुबुद्धि—महाराज उग्रसैन का द्वारपाल।
वाणासुर—एक शिवभक्त, प्रतापी राजा।
पुरोहित—वाणासुर का उपरोहित।
विष्णुदास—एक वृद्ध, विष्णु भक्त।
कृष्णदास—विष्णुदास का पुत्र।
माधोदास—एक मूर्ख वैष्णव।

गोमतीदास— वैष्णव दल
सरयूदास—
कौशिकीदास—


गंगादास—एक धर्म प्रेमी बालक।

भोलागिरि— शैव दल
गौरीगिरि—
शङ्कर गिरि—
एक शैव—
धूम्राक्ष— वाणासुर के सैनिक।
पिंगाक्ष—
वज्र मूर्त्ति—
वक्र शक्ति—

स्त्रीपात्र।

भगवती पार्वती—महादेवी।
रुक्मिणी—भगवान् कृष्ण की पटरानी।
रुक्मवती—अनिरुद्ध की माता, प्रद्युम्न की स्त्री।
ऊषा—वाणासुर की पुत्री।

चित्रलेखा— ऊषा की सहेलियाँ।
चंचला—
शारदा—
सरस्वती—
माधुरी—
प्रभा—
प्रतिभा—
मनोरमा—


राधारानी—कृष्णदास की स्त्री।
माधवी—एक सत्सङ्ग प्रेमिनी नारी।

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