अणिमा/३२. जननि मोहमयी तमिस्ना दूर मेरी हो गई है

लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ ६२

 
 

जननि, मोहमयी तमिस्रा दूर मेरी हो गई है।
विश्व-जीवन की विविधता एकता में खो गई है।

देखता हूँ यहाँ, काले-लाल-पीले-श्वेत जन में
शान्ति की रेखा खिंची है, क्रान्ति कृष्णा से गई है।

जग रहे हैं वे जगत् में जो तुम्हारी गोद में हैं,
दृष्टि में उनकी अपरिचयता पराई सो गई है।

काम आये हैं, बने हैं जो किसी के भी बनाये
बीज पानी में, जवानी में, सुखाशा बो गई है।

चाल उलटी फिर उलटती है यही है सत्य जग का;
देखता हूँ, पल्लवों की धूल वर्षा धो गई है।

'४२