लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ ६३

 
 

यह है बाज़ार।
सौदा करते हैं सब यार।
धूप बहुत तेज़ थी, फिर भी जाना था,
दुखिये को सुखिया के लिए तेल लाना था,
बनिये से गुड़ का रुपया पिछला पाना था,
चलने को हुआ जैसे बड़ा समझदार।
सुखिया बोली अपनी सास को सुनाकर यों,
"मास के पैसे शायद अब तक भी वाक़ी हों,
अच्छा है अगर करें पूरी धेली ज्यों-त्यों,
टूटा रुपया खर्च होते लगेगी न वार ।
दुखिया वोला मन में, "ठहर अरी सास की,
मास खिलाता हूँ मैं तुझे, अभी रास की
चोरी है याद मुझे, वात कौन घास को
बैठाली क्या जाने व्याही का प्यार?'
मगर निकलकर घर से तेज़ क़दम बढ़ा चला,
पिछली बातों का अगली बातों ने घोंटा गला,
दुखिया ने सोचा, "इसके पीछे बिना पड़े भला,
बैठा ले दूसरा तो सिंह से हूँ स्यार।"

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