हिंदुई साहित्य का इतिहास/अनुवादक की ओर से
अनुवादक की ओर से
हिन्दी साहित्य के इतिहास में उन्नीसवीं शताब्दी का जहाँ एक ओर आधुनिकता के बीजारोपण की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है, वहीं दूसरी ओर साहित्य के इतिहास-निर्माण की दृष्टि से भी यह शताब्दी उल्लेखनीय है। तासी, सेंगर और ग्रियर्सन की कृतियों (क्रमशः १८३९, १८७७, १८८९ ई॰) का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी में ही हुआ था। उनमें से फ़्रांसीसी लेखक गार्सां द तासी कृत फ़्रेंच भाषा में लिखित 'इस्तवार द ल लितेरत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानी' (हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास) का अपना विशेष स्थान है, क्योंकि हिन्दी साहित्य की दीर्घकालीन गाथा को सूत्रबद्ध रूप में स्पष्ट करने का यह सर्वप्रथम प्रयास था[१] और जिस वृत्त-संग्रह शैली के अंतर्गत सेंगर और ग्रियर्सन ने अपने-ग्रन्थों का निर्माण किया उसका जन्म तासी के ग्रन्थ से ही होता है। वास्तव में जितनी विस्तृत सूचनाएँ तासी के ग्रन्थ में उपलब्ध होती हैं वे अन्य दो ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होतीं, इस दृष्टि से भी इस आदि इतिहास ग्रन्थ का महत्व है। यद्यपि तासी ने कवियों और उनकी रचनाओं को अविच्छिन्न जीवन की विविध परिस्थितियों के बीच रख कर आलोचनात्मक दृष्टि से परखने का प्रयास नहीं किया, और न काल-विभाजन का क्रम ही ग्रहण किया (यद्यपि, जैसा कि उनकी भूमिका से ज्ञात होता है, वे इस क्रम से अपरिचित नहीं थे और कुछ व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण ही वे ऐसा करने में असमर्थ रहे), तो भी उनके ग्रन्थ का मूल्य किसी प्रकार भी कम नहीं हो जाता, विशेष रूप से उस समय जब कि 'विनोद' (१९१३ ई॰) की रचना के समय तक इतिहास-प्रणयन की तासी शैली अबाध रूप से प्रचलित रही। भाषा-संबंधी कठिनाई होने के कारण, ग्रियर्सन को छोड़ कर, हिन्दी साहित्य के अन्य किसी इतिहास-लेखक ने तासी द्वारा संकलित सामग्री की परीक्षा और उसका उपयोग भी नहीं किया। ऐसी परिस्थिति में तासी के इतिहास-ग्रंथ में से हिन्दुई (आधुनिक अर्थ में हिन्दी) से संबंधित अंश का प्रस्तुत अनुवाद निश्चय ही अपना महत्व रखता है।
तासी ने हिन्दुई और हिन्दुस्तानी शब्दों का जिस अर्थ में प्रयोग किया है उसके संबंध में मैं अपनी ओर से कुछ न कह कर पाठकों का ध्यान मूल ग्रन्थ की भूमिकाओं की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ। ग्रन्थ लिखते समय उनका क्या दृष्टिकोण था और उसकी उन्होंने किस प्रकार रूपरेखा तैयार की, इसका परिचय भी उनकी भूमिकाओं में मिल जायगा। अतएव उसकी पुनरावत्ति की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है।
मुझे इस बात का दुःख है कि प्रयत्न करने पर भी तासी का जीवन-संबंधी विवरण उपलब्ध न हो सका। इस समय उन्हीं के उल्लेखानुसार केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वे फ़्रांस के एक राजकीय और विशेष स्कूल में जीवित पूर्वी भाषाओं के प्रोफ़ेसर, और फ़्रांसीसी इन्स्टीट्यूट, पेरिस, लंदन, कलकत्ता, मद्रास और बंबई की एशियाटिक सोसायटियों, सेंट पीटर्सबर्ग की इंपीरियल एकेडेमी ऑव साइन्सेज़, म्यूनिख़, लिस्बन औौर ट्यूरिन की रॉयल एकेडेमियों, नौर्वे, उप्सल और कोपेनहेगेन की रॉयल सोसायटियों, अमेरिका के ऑरिएंटल, लाहौर के 'अंजुमन' तथा अलीगढ़ इन्स्टीट्यूट के सदस्य थे। उन्होंने 'नाइट ऑव दी लिजियन ऑव ऑनर' (फ़्रांस), 'स्टार ऑव दि साउथ पोल' आदि उपाधियाँ भी प्राप्त की थीं, और संभवतः युद्ध क्षेत्र से भी वे अपरिचित न थे। उनकी रचनाओं में 'इस्तवार' के अतिरिक्त 'ले ओत्यूर ऐंदूस्तानी ऐ ल्यूर उवरज़' (हिन्दुस्तानी लेखक और उनकी रचनाएँ, १८६८, पेरिस, द्वितीय संस्करण), 'ल लाँग ऐ ल लितेरत्यूर ऐंदूस्तानी द १८५० अ १८६९' (१८५० से १८६९ तक हिन्दुस्तानी भाषा और साहित्य), 'दिस्कुर द उवरत्यूर दु कुर द ऐंदूस्तानी' (हिन्दुस्तानी की आरंभिक गति पर भाषण, १८७४, पेरिस, द्वितीय संस्करण), 'ल लाँग ऐ ल लितेरत्यूर ऐंदूस्तानी––रेव्यू ऐन्युऐल, १८७०-१८७६' (हिन्दुस्तानी भाषा और साहित्य-वार्षिक समीक्षा, १८७०-१८७६, १८७१ और १८७३-१८७६ में पेरिस से प्रकाशित), 'रुदीमाँ द ल लाँग ऐंदूई' (हिन्दुई भाषा के प्राथभिक सिद्धान्त), 'रुदीमाँ द ल लाँग ऐंदूस्तानी' (हिन्दुस्तानी भाषा के प्राथमिक सिद्धान्त), 'मेम्वार सूर ल रेलीजिओं मुसलमान दाँ लिंद' (भारत में मुसलमानों के धर्म का विवरण), 'ल पोएजी फ़िलोसोफ़ीक ऐ रेलीज्यूस शे लै पैर्सी' (फ़ारस-निवासियों का दार्शनिक और धार्मिक काव्य), 'र्होतोरीक दै नैसिओं मुसलमान' (मुसलमान जातियों का काव्य-शास्त्र) आदि रचनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनके अनेक भाषण भी मिलते हैं। उनके इतिहास ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि उन्होंने भारत के लोकप्रिय उत्सवों का विवरण भी प्रस्तुत किया था, और 'महाभारत' का एक संस्करण मी प्रकाशित किया था। उनके कुछ भाषण तो 'ख़ुतबात तासी' के नाम से उर्दू में अनूदित हो चुके हैं। उनके अन्य किसी ग्रन्थ का अनुवाद उपलब्ध नहीं हो सका। प्रस्तुत अनुवाद उनके इतिहासग्रन्थ में से हिन्दुई से संबंधित अंश का सर्वप्रथम अनुवाद है। उनके इस ग्रन्थ का पूर्ण या आंशिक अनुवाद न तो अँगरेजी में है और न अन्य किसी भारतीय भाषा में।
तासी कृत 'इस्त्वार' के दो संस्करण हैं। प्रथम संस्करण दो जिल्दों में, क्रमशः १८३९ और १८४७ में, ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड की ऑरिएंटल ट्रान्सलेशन कमिटी की अध्यक्षता में प्रकाशित हुआ। ऑरिएंटल ट्रान्सलेशन फ़ंड की स्थापना लंदन में १८२८ में हिज़ मोस्ट ग्रेशस मेजेस्टी विलियम चतुर्थ के संरक्षण में हुई थी। जिस समय प्रथम संस्करण की प्रथम जिल्द प्रकाशित हुई उस समय सर जी॰ टी॰ स्टौन्टन (Staunton), बार्ट॰, एम॰ पी॰, एफ़॰ आर॰ एस॰; रॉयल एशियाटिक सोसायटी के उप-सभापति ऑरिएंटल ट्रान्सलेशन कमिटी के उप-प्रधान सभापति थे। उन्होंने ऑरिएंटल ट्रान्सलेशन फ़ंड में रुपया भी दिया था। पहली और दूसरी दोनों जिल्दें श्री ल गार्द दैं सो (M. le Garde des Sceaux) की आज्ञा से फ़्रांस के राजकीय मुद्रणालय में छपी थीं और लंदन तथा पेरिस दोनों नगरों में बिक्री के लिए रखी गई थीं। प्रथम संस्करण की पहली जिल्द के मुख्यांश में भूमिका के बाद हिन्दी और उर्दू के सात सो अड़तीस (७३८) कवियों और लेखकों की जीवनियाँ और ग्रंथों का उल्लेख है। अंत में परिशिष्ट और लेखकों तथा ग्रन्थों की अनुक्रमणिकाएँ अलग हैं। उसमें कुल मिला कर XVI और ६३० पृष्ठ हैं। प्रथम संस्करण की दूसरी जिल्द में उद्धरण और विश्लेषण हैं। भूमिका के पश्चात् प्रारम्भ में कबीर, पीपा, मीराबाई, तुलसीदास, बिल्व-मंगल, पृथीराज, मधुकर साह, अग्रदास, शंकराचार्य, नामदेउ, जयदेव, रैदास, राँका और बाँका, माधोदास, रूप और सनातन से संबंधित प्रसिद्ध 'भक्तमाल' से फ़्रेंच में अनूदित विवरण उद्धृत हैं। तत्पश्चात् तासी ने बाइबिल की कथाओं से तुलना करते हुए और ईश्वरावतार, गोप-गोपियों, भारतीय विवाह-प्रथा, जाति-प्रथा, तथा अन्य रीति-रस्मों आदि का परिचय देने की दृष्टि से कुछ अंशों का शब्दशः फ़्रेंच में अनुवाद और कुछ का अपनी भाषा में सार प्रस्तुत किया है। उदाहरण स्वरूप, कंस-वध, शंख-जन्म, द्वारिका-स्थापना, राजसूय-यज्ञ, नरकासुर, ऋतु-वर्णन, मथुरा-वर्णन आदि ऐसे ही प्रसंग हैं। अनुवाद या सार प्रस्तुत करते समय उन्होंने मूल 'प्रेमसागर' के अध्यायों के क्रम का अनुसरण नहीं किया। 'प्रेमसागर' को तासी काफ़ी महत्त्व देते थे और उसका उन्होंने जिस प्रकार विश्लेषण किया है उससे उनके कट्टर ईसाई होने का प्रमाण मिलता है। 'प्रेमसागर' के बाद तुलसी कृत 'सुंदर-काण्ड' का और फिर 'सिंहासन बत्तीसी' के प्रारम्भिक अंश का अनुवाद है। इस दूसरी जिल्द के शेषांश का संबंध उर्दू से है जिसमें 'आराइश-इ-महफ़िल', सौदा कृत लाहौर के कवि फ़िदवी पर तथा अन्य व्यंग्य, ग़ज़ल, क़सीदा, मसनवी आदि फ़्रेंच में अनूदित हैं। अन्त में विषय-सूची है। कुल मिला कर उसमें XXXII और ६०८ पृष्ठ हैं।
प्रथम संस्करण की दूसरी जिल्द में दिए गए उद्धरण और विश्लेषण द्वितीय संस्करण में मुख्यांश में जीवनी और ग्रन्थों के विवरणों के साथ ही दे दिए गए हैं। जैसे, जहाँ 'कबीर' का उल्लेख हुआ है वहीं उनसे सम्बन्धित 'भक्तमाल' वाला अंश भी है, अलग नहीं है। अपवाद-स्वरूप केवल 'मधुकर साह' और 'राँका और बाँका' हैं। इन दोनों का उल्लेख न तो प्रथम संस्करण की पहली जिल्द में और न द्वितीय संस्करण की किसी जिल्द में है। अतः वे प्रस्तुत अनुवाद के परिशिष्ट ४ और ५ के अन्तर्गत रख दिए गए हैं।
द्वितीय परिवर्द्धित और संशोधित संस्करण तीन जिल्दों में हैं। पहली और दूसरी जिल्दें १८७० में और तीसरी जिल्द १८७१ में प्रकाशित हुई। द्वितीय संस्करण पेरिस की 'सोसिएते एसियातीक' (एशियाटिक सोसायटी) के पुस्तक-विक्रेता अदोल्फ़ लबीत (Adolphe Labitte) द्वारा प्रकाशित और हेनरी प्लौं (Henri Plon) द्वारा मुद्रित है। पहली जिल्द में प्रस्तावना और लम्बी भूमिका के बाद एक हज़ार दो सो तेईस (१२२३), दूसरी जिल्द में एक हज़ार दो सौ (१२००), और तीसरी जिल्द में छोटी-सी विज्ञप्ति के बाद आठ सौ एक (८०१) कवियों और लेखकों का उल्लेख है। दूसरी जिल्द में कोई विज्ञप्ति, प्रस्तावना और भूमिका नहीं है और इस गणना में तीसरी जिल्द के अंत में परिशिष्ट में दिए गए कवियों और लेखकों की संख्या सम्मिलित नहीं है। तीसरी जिल्द के अंत में उर्दू से संबंधित एक संयोजित अंश (Post-Scriptum) के बाद ग्रन्थों और समाचारपत्रों-सम्बन्धी दो परिशिष्ट और लेखकों तथा ग्रन्थों की दो अनुक्रमणिकाएँ हैं। तीनों जिल्दों में क्रमश: IV, ७१ तथा ६२४, ६०८ और VIII तथा ६०३ पृष्ठ हैं।
प्रस्तुत अनुवाद में सम्मिलित कवियों और लेखकों की संख्या तीन सौ अट्ठावन (३५८) है जिनमें से केवल बहत्तर (७२) का उल्लेख प्रथम संस्करण की पहली जिल्द में हुआ है। इन तीन सौ अट्ठावन (३५८) में से कुछ कवि और लेखक ऐसे हैं जो प्रधानतः उर्दू के हैं (इस बात का अनुवाद में यथास्थान उल्लेख कर दिया गया है)। उन्हें इसलिए सम्मिलित कर लिया गया है क्योंकि या तो उनका हिन्दी की कुछ, प्रसिद्ध रचनाओं से संबंध है, जैसे जवाँ और विला का 'सिंहासन बत्तीसी', 'बैताल पचीसी' आदि से, अथवा जिनकी किसी रचना का हिन्दी में अनुवाद हुआ बताया गया है, अथवा जिनकी कोई रचना हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुई, अथवा जिनकी कुछ रचनाओं के लिए तासी ने 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग किया है (क्योंकि उर्दू के लिए प्रायः 'हिन्दुस्तानी' शब्द का प्रयोग हुआ है), उदाहरण के लिए, करीमबख़्श, कालीचरण, काशी-नाथ, चिरंजीलाल, ज़मीर, जवाहरलाल हकीम, तमीज़, नज़ीर, फ़रहत, महदी, वज़ीर अली, वहशत, शिवनारायण, सदासुखलाल, सफ़दर अली, हुकूमत राय आदि ऐसे ही लेखक हैं। कुछ कवि या लेखक स्पष्टतः मराठी या गुजराती के हैं, जैसे, चोकमेल, तुकाराम, जनार्दन रामचन्द्र जी, दामा जी पन्त, मोरोपन्त, मुक्तेश्वर, वामन, नाथभाई तिलकचंद आदि। किन्तु क्योंकि तासी ने हिन्दी या हिन्दुई कवियों के रूप में उनका उल्लेख किया है, इसलिए उन्हें भी प्रस्तुत अनुवाद में सम्मिलित कर लिया गया है। सिक्ख धर्म से संबंधित सभी कवियों के अतिरिक्त तानसेन और बैजू बावरा जैसे प्रसिद्ध गायकों को भी अनुवाद में स्थान दे दिया गया है क्योंकि उन्हें कुछ हिन्दुई गीतों का रचयिता बताया गया है।
प्रस्तुत अनुवाद प्रथम और द्वितीय दोनों संस्करणों के सम्मिलित आधार पर किया गया है। प्रथम संस्करण की पहली जिल्द में सम्मिलित बहत्तर (७२) कवियों में से कुछ का तो ज्यों-का-त्यों विवरण द्वितीय संस्करण में मिलता है, और कुछ के संबंध में जिनमें हिन्दी के प्रसिद्ध कवि कबीर, तुलसी, सूर आदि भी सम्मिलित हैं, नवीन सामग्री मिलती है। इसलिए प्रस्तुत अनुवाद में प्राचीन और नवीन दोनों प्रकार की सामग्री है। इसके अतिरिक्त मूल फ़्रेंच के दोनों संस्करणों की तुलना करने से ज्ञात होता है कि कहीं कुछ शब्दों के हिज्जों में अन्तर मिलता है, कहीं-कहीं प्रथम संस्करण की बातें द्वितीय संस्करण में नहीं हैं, कहीं-कहीं वर्णन-क्रम में कुछ परिवर्तन है, कहीं-कहीं विराम-चिह्नों में अंतर मिलता हैं, प्रथम संस्करण में अनेक कवियों, लेखकों और ग्रन्थों आदि के नाम, फ़ारसी और देवनागरी लिपि में हैं, किन्तु द्वितीय संस्करण में सर्वत्र रोमन लिपि का व्यवहार किया गया है। वास्तव में द्वितीय संस्करण में न केवल कुछ कवियों के संबंध में नवीन सामग्री ही उपलब्ध होती है, वरन् उसमें अनेक नवीन कवियों और लेखकों का भी उल्लेख हुआ है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम साठ-सत्तर वर्षों के गद्य-लेखकों का उल्लेख द्वितीय संस्करण की विशेषता है। तासी के उल्लेखों से यह प्रमाणित हो जाता है कि गद्य के विकास में नवीन शिक्षा ने भारी योग प्रदान किया। और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, प्रथम संस्करण की दूसरी जिल्द की सामग्री का उपयोग द्वितीय संस्करण के मुख्यांश में ही हो गया है। प्रस्तुत अनुवाद के अंत में मूल के परिशिष्टों और 'मधुकर साह' और 'राँका और बाँका' संबंधी परिशिष्टों के अतिरिक्त 'जै देव' और 'संकर आचार्य' को भी परिशिष्टों में रख दिया गया है। मूल परिशिष्टों के अनुवाद में ऐतिहासिक या विषय के महत्त्व की दृष्टि से कुछ अहिन्दी पुस्तकें भी सम्मिलित कर ली गई हैं। तासी द्वारा 'भक्तमाल' से लिए गए अवतरणों का फ़्रेंच से हिन्दी में अनुवाद करते समय मैंने छप्पय सर्वत्र और कुछ अन्य उपयुक्त अंश मूल 'भक्तमाल' से ही ले लिए हैं, जिनकी ओर यथास्थान फ़ुटनोट में संकेत कर दिया गया है। तासी ने सर्वत्र अकारादिक्रम ग्रहण किया है। प्रस्तुत अनुवाद में रोमन के स्थान पर देवनागरी अकारादिक्रम ग्रहण किया गया है जिससे कवियों, लेखकों और ग्रन्थों आदि का वह क्रम नहीं रह गया जो मूल फ़्रेंच में है।
अनुवाद करते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि जहाँ तक हो सके अनुवाद मूल के समीप रहे। मूल लेखक विदेशी था, इसलिए अनेक शब्दों को ठीक-ठीक समझने और लिखने में उसने भूल की है। अनुवाद में उन्हें शुद्ध रूप में लिखने की चेष्टा नहीं की गई; उन्हें उसी रूप में रहने दिया गया है जिस रूप में तासी ने लिखा है। इसीलिए प्रस्तुत पुस्तक में अनेक शब्दों और नामों के हिज्जे ऐसे मिलेंगे जो हिन्दी या उर्दू भाषाभाषियों की दृष्टि से स्पष्टतः अशुद्ध हैं। ऐसे अनेक शब्दों और लगभग सभी यूरोपीय व्यक्तिवाचक नामों को रोमन लिपि में लिख दिया गया है ताकि कोई भ्रम न रह जाय। जहाँ मैंने अपनी ओर से कुछ कहा है उसका द्योतन 'अनु॰' शब्द से हुआ है।
कुछ असाधारण परिस्थितियों के कारण कवियों और लेखकों तथा सभी ग्रन्थों की अनुक्रमणिका प्रस्तुत अनुवाद के अंत में नहीं दी जा सकी। मुख्य भाग (अ से ह तक) में उल्लिखित कवियों और लेखकों की सूची तो प्रारम्भ में दे दी गई है। अनुवाद के मुख्य भाग (अ से ह तक) में आए केवल ग्रन्थों, पत्रों और प्रधान यूरोपीय लेखकों की अनुक्रमणिका अन्त में है।
अनुवाद में विस्तृत टीका-टिप्पणियाँ देने का भी विचार था, क्योंकि कुछ तो स्वयं तासी ने अशुद्धियाँ की हैं और कुछ नवीनतम खोजों के प्रकाश में उनकी सूचनाएँ पुरानी पड़ गई हैं। किन्तु एक तो पुस्तक का आकार बढ़ जाने के भय से और दूसरे इस विचार से कि खोज-विद्यार्थी अपनी स्वतन्त्र खोज के फलस्वरूप निष्कर्ष निकालेंगे ही, टीका-टिप्पणियाँ देने का विचार छोड़ दिया गया।
तासी ने हिन्दी-उर्दू के मूल ग्रन्थों का अवलोकन करने के साथ-साथ भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों द्वारा निर्मित संदर्भ-ग्रन्थों का आश्रय भी ग्रहण किया था। जिन लेखकों और उनके संदर्भ-ग्रन्थों का उन्होंने उपयोग किया उनमें से प्रमुख ग्रन्थ इस प्रकार हैं :
- १. जनरल हैरियट : 'मेम्वार ऑन दि कबीरपंथी'
- २. एच॰ एच॰ विल्सन : 'मेम्वार ऑन दि रिलीजस सेक्ट्स ऑव दि हिन्दूज़'
- 'मैकैन्ज़ी कलेक्शन की भूमिका'
- 'हिन्दू थिएटर'
- 'एशियाटिक रिसर्चेज़' में प्रकाशित उनके लेख
- ३. कनिंघम : 'हिस्ट्री ऑव दि सिक्ख्स'
- ४. डब्ल्यू॰ प्राइस : 'हिन्दी ऐन्ड हिन्दुस्तानी सलेक्शन्स'
- ५. ब्राउटन : 'पॉप्युलर पोयट्री ऑव दि हिन्दूज़'
- ६. मौंट्गोमरी मार्टिन : 'ईस्टर्न इंडिया'
- ७. जनार्दन रामचन्द्र : 'कवि चरित्र' (मराठी)
- ८. नाभादास : 'भक्तमाल'
- ९. कृष्णानन्द व्यासदेव : 'राग कल्पद्रुम'
- १०. ... : 'आदि ग्रंथ'
- ११. रोएबक : 'ऐनल्स ऑव दि कॉलेज ऑव फ़ोर्ट विलियम'
- १२. टॉड : 'ऐनल्स ऑव राजस्थान'
- 'ट्रैविल्स'
- १३. वॉर्ड : 'हिस्ट्री (या व्यू) ऑव दि लिट्रेचर एट्सीटरा ऑव दि हिन्दूज़'
- १४. गिलक्राइस्ट : 'ग्रैमर', 'अल्टीमेटम', 'हिन्दी मैनुअल'
- १५. विलर्ड : 'ए ट्रिटाइज़ ऑन दि म्यूज़िक ऑव हिन्दुस्तान'
- १६. लैंग्ल्वा : 'मौन्यूमाँ लित्रेअर द लिंद'
- १७. लशिंगटन : 'कैलकटा इन्स्टीट्यूशन्स'
- १८. एच॰ एस॰ रीड : 'रिपोर्ट ऑन दि इन्डेजेनस ऐज्यूकेशन'
- १९. सेडन : 'ऐड्रेस ऑन दि लैंग्वेज ऐंड लिट्रेचर ऑव एशिया'
- २०. तासी : 'रुदीमाँ', भाषण
- २१. 'प्रोसीडिंग्स ऑव दि वर्नाक्यूलर सोसायटी'
- २२. 'प्रीमीटी ऑरिएंटालिस'
- २३. लाँसरो : 'क्रिस्तोमेती' (विविध संग्रह)
- २४. लासेन का प्राथमिक संग्रह
- २५. 'हिस्ट्री ऑव दि सेक्ट ऑव दि महाराजाज़'
इसके अतिरिक्त उन्होंने दोशोआ, फ़िट्ज एड्वर्ड हॉल, कोलब्रुक, ब्यूकैनैन, मार्कस अ तुम्बा आदि अन्य अनेक लेखकों के लेखों और उनके द्वारा संपादित संस्करणों का उपयोग किया।
'कवि वचन सुधा', 'सुधाकर' आदि अनेक हिन्दी-उर्दू-पत्रों की फ़ाइलों के अतिरिक्त जिन अँगरेज़ी और फ़्रेंच के पत्रों का तासी ने आश्रय ग्रहण किया उनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं :
- १. 'ज़ूर्ना दै सावाँ'
- २. 'नूवो ज़ूर्ना एसियातीक'
- ३. 'ज़ूर्ना एसियातीक'
- ४. 'एशियाटिक जर्नल'
- ५. 'एशियाटिक रिसर्चेज़'
- ६. 'जर्नल एशियाटिक सोसायटी ऑव बेंगाल (या कैलकटा)'
- ७. 'जर्नल ऑव दि बॉम्बे ब्रांच ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी'
- ८. 'जर्नल ऑव दि रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑव लंदन'
- ९. 'कलकत्ता रिव्यू'
जिन पुस्तक सूचियों, गज़ट आदि से तासी ने सहायता ली उनमें से प्रमुख के नाम इस प्रकार हैं :
- १. जे॰ लौंग : 'डेस्क्रिप्टिव कैटैलौग' (ऑव बेंगाली वर्क्स)
- २. ज़ेंकर : 'बिबलिओथेका ऑरिएंटालिस'
- ३. 'आगरा गवर्नमेंट गज़ट'
- ४. 'ट्रूब्नर्स लिट्रेरी रेकॉर्ड्स'
- ५. सर डब्ल्यू॰ आउज़ले के संग्रह (ऑरिएंटल कॉलेज) का सूचीपत्र (स्टीवर्ट द्वारा तैयार किया गया)
- ६. 'जनरल कैटैलौग ऑव ओरिएंटल वर्क्स' (आगरा)
- ७. टीपू के पुस्तकालय का सूचीपत्र
- ८. फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के पुस्तकालय का सूचीपत्र
- ९. विल्मेट पुस्तकालय का सूचीपत्र
- १०. स्प्रेंगर : 'ए कैटैलौग ऑव दि लाइब्रेरीज़ ऑव दि किंग ऑव अवध'
- ११. 'ए डेस्क्रिप्टिव कैटैलौग ऑव मैकेन्ज़ीज़ कलेक्शन'
- १२. मार्सडेन की पुस्तकों का सूचीपत्र
- १३. 'कैटैलौग ऑव नेटिव पब्लिकेशन्स इन दि बॉम्बे प्रेसीडेंसी'
- १४. हैमिल्टन और लैंग्ले (Lànglés) : 'सड़क रिशल्यू के पुस्तकालय का सूचीपत्र'
- १५. ई॰ एच॰ पामर द्वारा प्रस्तुत प्राच्य हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र
- १६. 'बिबलिओथेका रिशल्यू'
- १७. 'बिबलिओथेका स्प्रेंगरिआना'
अंत में, जिन पुस्तकालयों और संग्रहों का तासी के ग्रन्थ में उल्लेख हुआ है वे इस प्रकार हैं :
- १. ज़ाँती संग्रह (Fonds Gentil)
- २. पोलिए संग्रह (Fonds Polier)
- ३. लीडेन संग्रह (Fonds Leyden)
- ४. बोर्जिया संग्रह (Fonds Borgia)
- ५. उएसाँ संग्रह
- ६. मैकेन्जी संग्रह
- ७. डंकन फ़ोर्ब्स का संग्रह
- ८. पेरिस का राजकीय पुस्तकालय
- ९. ईस्ट इंडिया हाउस का पुस्तकालय (इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी)
- १०. मुहम्मद बख़्श ख़ाँ का पुस्तकालय
- ११. ट्यूबिन्गेन का पुस्तकालय
- १२. लीड का पुस्तकालय
- १३. रॉयल एशियाटिक सोसायटी का पुस्तकालय
- १४. टीपू का संग्रह
- १५. फ़ोर्ट विलियम कॉलेज का पुस्तकालय
- १६. किंग्स कॉलेज (केम्ब्रिज) का पुस्तकालय
हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने इस समस्त सामग्री और संग्रहों से कहाँ तक लाभ उठाया है, यह विचारणीय है।
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आज से तीन वर्ष पूर्व मैंने तासी के ग्रन्थ से हिन्दुई-अंश का अनुवाद करना प्रारम्भ किया था। धीरे-धीरे वह पूर्ण हुआ। अब एक सौ चौदह वर्ष बाद हिन्दी साहित्य के इस ऐतिहासिक महत्त्व से पूर्ण आदि इतिहास-ग्रन्थ को विद्वानों के सामने रखते हुए मुझे स्वाभाविक प्रसन्नता हो रही है।
पुस्तक प्रकाशन की स्वीकृति और सुविधा के लिए मैं हिन्दुस्तानी एकेडेमी के मंत्री श्री डॉ॰ धीरेन्द्र जी वर्मा एम्॰ ए॰, डी॰ लिट्॰ (पेरिस) और श्री रामचन्द्र जी टण्डन, एम्॰ ए॰, एल॰ एल॰ बी॰ का आभारी हूँ। अनुवाद करते समय तालिकाएँ तैयार करने तथा इसी प्रकार के अन्य कार्यों में श्रीमती राज वार्ष्णेय बी॰ ए॰ ने जो सहायता पहुँचाई है वह भी किसी प्रकार कम नहीं है।
पुस्तक की अनुक्रमणिका तैयार करने के लिए मैं श्री माधव प्रसाद पांडेय, एम्॰ ए॰ का कृतज्ञ हूँ।
लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय
- हिन्दी विभाग,
यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद
मंगलवार, फागुन सुदी ११, सं॰ २००९ वि॰
- (२४ फ़रवरी, १९५३)
- ↑ सेंगर ने 'सरोज' की भूमिका में लिखा है: 'मुझको इस बात के प्रकट करने में कुछ संदेह नहीं कि ऐसा संग्रह कोई आज तक नहीं रचा गया।' तासी ने कवियों की कविताओं का संग्रह तो नहीं दिया, किन्तु 'कवियों के जीवन चरित्र सन् संवत्, जाति, निवास स्थान आदि' उनकी रचना से छः वर्ष पूर्व द्वितीय बार तासी द्वारा प्रस्तुत किए जा चुके थे।