हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ भूषण

[ २५४ ] (७) भूषण––वीररस के ये प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई थे। इनका जन्मकाल संवत् १६७० है। चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें कविभूषण की उपाधि दी थी। तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इसका असल नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीर-काव्य के नायक हुए, छत्रपति महाराज-शिवाजी-मिले। पन्ना के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा नाम हुआ। कहते है कि महाराज, छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपनी कंधा लगाया था जिसपर इन्होंने कहा था––"सिवा को [ २५५ ]बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।" ऐसा प्रसिद्ध है कि इन्हें एक एक छंद पर शिवाजी से लाखों रुपए मिले। इनका परलोकवास सं॰ १७७२ में माना जाता है।

रीति-काल के भीतर शृंगार रस की ही प्रधानता रही। कुछ कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की स्तुति में उनके प्रताप आदि के प्रसंग में उनकी वीरता का भी थोड़ा बहुत वर्णन अवश्य किया है पर वह शुष्क प्रथा-पालन के रूप में ही होने के कारण ध्यान देने योग्य नहीं है। ऐसे वर्णनों के साथ जनता की हार्दिक सहानुभूति कभी हो नहीं सकती थी। पर भूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीरकाव्य का विषेय बनाया वे अन्याय दमन मैं तत्पर, हिंदूधर्म के संरक्षक, दो इतिहास-प्रसिद्ध वीर थे। उनके प्रति भक्ति और संमान की प्रतिष्ठा हिंदू-जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई। इसी से भूषण के वीररस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए। भूषण की कविता कवि-कीर्ति संबंधी एक अविचल सत्य का दृष्टांत है। जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेंगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी। क्या संस्कृत साहित्य में, क्या हिंदी-साहित्य में, सहस्त्रों कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में ग्रंथ रचे जिनका आज पता तर्क नहीं है। पुराना वस्तु खोजनेवालों को ही कभी कभी किसी राजा के पुस्तकालय में, कहीं किसी घर के कोने में, उनमे से दो चार इधर-उधर मिल जाते हैं। जिस भोज ने दान दे देकर अपनी इतनी तारीफ कराई उसके चरित-काव्य भी कवियों ने लिखे होंगे। पर उन्हें आज कौन जानता है?

शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णनों को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता। वे अभयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं हैं। इन दो वीरों की जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू-जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजन भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि है। जैसा कि आरंभ में कहा गया है, शिवाजी के दरबार में पहुँचने के पहले वे और राजाओं के पास भी रहे। उनके प्रताप आदि की प्रशंसा भी उन्हें [ २५६ ]अवश्य ही करनी पड़ी होगी। पर वह झूठी थी, इसी से टिक न सकी। पीछे से भूषण को भी अपनी उन रचनाओं से विरक्ति ही हुई होगी। इनके 'शिवराजभूषण', 'शिवावावनी' और 'छत्रसाल दसक' ये ग्रंथ ही मिलते हैं। इनके अतिरिक्त ३ ग्रंथ और कहे जाते हैं––'भूषण उल्लास', 'दूषण उल्लास' और 'भूषण हजारा'।

जो कविताएँ इतनी प्रसिद्ध है उनके संबंध में यहाँ यह कहना कि वे कितनी ओजस्विनी और वीरदर्पपूर्ण हैं, षिष्टपेषण मात्र होगा। यहाँ इतना ही कहना आवश्यक है कि भूषण वीररस के ही कवि थे। इधर इनके दो चार कवित्त शृंगार के भी मिले है, पर दे गिनती के योग्य नहीं हैं। रीति काल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराज-भूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। पर रीति ग्रंथ की दृष्टि से, अलंकार-निरूपण के विचार से यह उत्तम ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। लक्षणों की भाषा भी स्पष्ट नहीं है और उदाहरण भी कई स्थलों पर ठीक नहीं हैं। भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन प्राय: है और वाक्य-रचना-भी कहीं कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत-बिगाड़े गए हैं और कहीं कहीं बिल्कुल गढ़ंत के शब्द रखे गए है। पर जो कवित्त इन दोषों से मुक्त है वे, बड़े ही, सशक्त और प्रभावशाली हैं। कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं––

इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,
रावन संदर्भ पर रघुकुल राज हैं।
पौन बारिवाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्राहु पर राम द्विजराज़ है॥
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर,
भूषण बितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम-अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों मलैच्छ-बंस पर सेर सिवराज हैं॥

 

[ २५७ ]

डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी सी रहति छाती,
बाढ़ी मरजाद जस हद हिंदुवाने की।
कढ़ि गई रैयत के मन की कसक सब,
मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की॥
भूषन भनत दिल्लीपति दिल धक धक,
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की
मोटी भई चंढी, बिन चोटी के चबाय सीस,
खोटी भई संपत्ति चकत्ता के घराने की॥


सबन के ऊपर ही ठाढो रहिबे के जोग,
ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे।
जानि गैर-मिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
कीन्हों ना सलाम, न बचन बोले सियरे॥
भूषन भनत महाबीर बलकन लाग्यो,
सारी पातसाही के उढाय गए जियरे।
तमक तें लाल मुख सिंवा को निरखि भयो,
स्याह मुख नौरंग, सिपाह-मुख पियरे॥


दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की,
बाँधिबो नहीं है कैधौं मीर सहवाल को।
मठ विश्वनाथ को, न बास ग्राम गोकुल को,
देवी को न देहरा, न मंदिर गोपाल को॥
गाढे गढ़ लीन्हें अरु बैरी कतलाम कीन्हें,
ठौर ठौर हासिल उगाहत हैं साल को।
बूड़ति है दिल्ली सो सँभारे क्यों न दिल्लीपति,
धक्का आनि लाग्यो सिवराज महाकाल को॥


[ २५८ ]

चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार-बार,
दिही दहसति चितै चाहि करषति है।
बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति,
फिरत फिरंगिन की नारी प्रकृति है॥
थर थर काँपत कुतुब साहि गोलकुंडा,
हहरि हबस भूप भीर भरकति है।
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि,
केते बादसाहन की छाती धरकति है॥


जिहि फन फूतकार उड़त पहार भार,
कूरम कठिन जनु कमल बिदलिगौ।
विषजाल ज्वालामुखी लवलीन होता जिन,
झारन चिकारि मद दिग्गज उगलिगो॥
कीन्हों जिहि पान पयपान सो जहान कुल,
कोलहू उछलि जलहिंधु खलभलिगो।
खग्ग खगराज महाराज सिवराजजूं को,
अखिल भुजंग मुगलछल निगलिगो॥

(८) कुलपति मिश्र––ये आगरे के रहनेवाले माथुर चौबे थे, और महाकवि बिहारी के भानजे प्रसिद्ध हैं। इनके पिता का नाम परशुराम मिश्र था। कुलपतिजी जयपुर के महाराज जयसिंह (बिहारी के आश्रयदाता) के पुत्र महाराज रामसिंह के दरबार में रहते थे। इनके 'रसरहस्य' का रचनाकाल कार्तिक कृष्ण ११ संवत् १७२७ है। अब तक इनका यही ग्रंथ प्रसिद्ध और प्रकाशित हैं। पर खोज में इनके निम्नलिखित ग्रंथ और मिले हैं––

द्रोणपर्व (स॰ १७३७), युक्ति-तरंगिणी (१७४३) नखशिख, संग्रामसार, रस रहस्य (१७२४)।

अतः इनका कविता-काल सं॰ १७२४ और सं॰ १७४३ के बीच ठहरता है। रीति-काल के कवियों में ये संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। इनका 'रसरहस्य' [ २५९ ]मम्मट के काव्यप्रकाश को छायानुवाद है। साहित्यशास्त्र का अच्छा ज्ञान रखने के कारण इनके लिये यह स्वाभाविक था कि ये प्रचलित लक्षण-ग्रंथो की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ निरूपण का प्रयत्न करें। इसी उद्देश्य से इन्होंने अपना 'रस-रहस्य' लिखा। शास्त्रीय निरूपण के लिये पद्य उपयुक्त नहीं होता, इसका अनुभव इन्होंने किया, इससे कहीं कहीं कुछ गद्य वार्तिक भी रखा। पर गद्य परिमार्जित न होने के कारण जिस उद्देश्य से इन्होंने अपना यह ग्रंथ लिखा वह पूरा न हुआ। इस ग्रंथ का जैसा प्रचार चाहिए था, न हो सका। जिस स्पष्टता से 'काव्यप्रकाश' में विषय प्रतिपादित हुए है वह स्पष्टता इनके भाषा-गद्यपद्य में न आ सकी। कहीं कहीं तो भाषा और वाक्य-रचना दुरूह हो गई है।

यद्यपि इन्होंने शब्दशक्ति और भावादि-निरूपण में लक्षण उदाहरण दोनों बहुत कुछ काव्यप्रकाश के ही, दिए हैं पर अलंकार प्रकरण में इन्होंने प्रायः अपने आश्रयदाता महाराज रामसिंह की प्रशंसा के स्वरचित उदाहरण दिए हैं। ये ब्रजमंडल के निवासी थे अतः इनको ब्रज की चलती भाषा पर अच्छा अधिकार होना ही चाहिए। हमारा अनुमान है, जहाँ इनको अधिक स्वच्छंदता रही होगी वहाँ इनकी रचना और सरस होगी। इनकी रचना का एक नमूना दिया जाता है।

ऐसिय कुंज बनीं छबिपुंज, रहै अलिगुज्रत यों सुख लीजै।
नैन बिसाल हिए बनमाल बिलोकत रूप-सुधा भरि पीजै॥
जामिनि-जाम की कौन कहै, जुग जात न जानिए ज्यों छिन छीजै।
आनँद यों उमग्योई रहै, पिय मोहन को मुख देखियो कीजै॥

(९) सुखदेव मिश्र––दौलतपुर (जि॰ रायबरेली) में इनके वंशज अब तक हैं। कुछ दिन हुए उसी ग्राम के निवासी सुप्रसिद्ध पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इनका एक अच्छा जीवनवृत्त 'सरस्वती' पत्रिका में लिखा था। सुखदेव मिश्र को जन्मस्थान 'कपिला' था जिसका वर्णन इन्होंने अपने "वृत्तविचार" में किया। इनका कविता-काल संवत् १७२० से १७६० तक माना जा सकता है। इनके सात ग्रंथों का पता अब तक है–– [ २६० ]वृत्तविचार (संवत् १७२८), छंदविचार, फाजिलअली-प्रकाश, रसार्णव, शृंगारलता, अध्यात्म-प्रकाश (संवत् १७५५), दशरथ राय।

अध्यात्म-प्रकाश में कवि ने ब्रह्मज्ञान-संबंध बातें कहीं हैं जिससे यह जनश्रुति पुष्ट होती है कि वे एक नि:स्पृह विरक्त साधु के रूप में रहते थे।

काशी से विद्याध्ययन करके लौटने पर ये असोथर (जि॰ फतेहपुर) के राजा भगवंतराय खीची तथा डौंड़िया-खेरे के राव मर्दनसिंह के यहाँ रहे। कुछ दिनों तक ये औरगंजेब के मंत्री फाजिलअलीशाह के यहाँ भी रहे। अंत में मुरारमऊ के राजा देवीसिंह के यहाँ गए जिनके बहुत आग्रह पर ये सकुटुंब दौलतपुर में जा बसे। राजा राजसिंह गौड़ ने इन्हें 'कविराज' की उपाधि दी। थी। वास्तव में ये बहुत प्रौढ़ कवि थे और आचार्यत्व भी इनमें पूरी था। छदःशास्त्र पर इनका सा विशद निरूपण और किसी कवि ने नहीं किया हैं। ये जैसे पंडित थे वैसे ही काव्यकला में भी निपुण थे। "फाजिलअली-प्रकाश" और "रसार्णव" दोनों में शृंगाररस के उदाहरण बहुत ही सुंदर हैं। दो नमूने लीजिए––

ननद निनारी, सासु मायके सिधारी,
अहै रैनि अँधियारी भरी, सूझत न करु है।
पीतम को गौन कबिराज न सोहीत मौन,
दारुन बहत पौन, लाग्यो मेघ झरु है॥
संग ना सहेली, बैस नवल अकेली,
तन पुरी तलवेली-महा, लाग्यो मैन-सरु है।
भई, अधिरात, मेरो जियरा डरात,
जागु जागु रे बटोही! यहाँ चोरन को डर है॥


जोहै जहाँ मगु नंदकुमार, तहाँ चलि चंदमुखी सुकुमार है।
मोतिन ही को कियो गहनो सब, फूलि रही जनु कुंद की डार है॥
भीतर ही जो लखी, सो लखी अब बाहिर जाहिर होति न दार है।
जोन्ह सी जोन्हैं गई मिलि यों, मिलि जाति ज्यौ दूध में दूध की धार है॥

[ २६१ ](१०) कालिदास त्रिवेदी––ये अंतर्वेद के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। जान पड़ता है कि संवत् १७४५ वाली गोलकुंडे की चढ़ाई में ये औरंगजेब की सेना में किसी राजा के साथ गए थे। इस लड़ाई को औरंगजेब की प्रशंसा से युक्त वर्णन इन्होंने इस प्रकार किया––

गढ़न गढ़ी से गढ़ी, महल मढ़ी से मढ़ि,
बीजापुर ओप्यो दलमलि सुघराई में।
कालिदास कोप्यो वीर औलिया अलमगीर,
तीर तरवारि गहि पुहमी पराई में॥
बूँद तें निकसि महिमंडल घमंड मची,
लोहू की लहरि हिमगिरि की तराई में।
गाडि के सुझंडा आड कीनी बादसाही, तातें,
डकरी चमुंडा गोलकुंडा की लराई में॥

कालिदास का जंबू-नरेश जोगजीत सिंह के यहाँ भी रहना पाया जाता है। जिनके लिये संवत् १७४९ में इन्होंने 'वरवधू-विनोद' बनाया। यह नायिकाभेद और नखशिख की पुस्तक है। बत्तीस कवितो की इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'जँजीराबंद' भी है। 'राधा-माधव-बुधमिलन-विनोद' नाम का एक कोई और ग्रंथ इनका खोज में मिला है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इनका बड़ा संग्रहग्रंथ 'कालिदास हजारा' बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। इस संग्रह के संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि इसमें संवत् १४८१ से लेकर संवत् १७७६ तक के २१२ कवियों के १००० पद्य संगृहीत हैं। कवियों के काल आदि के निर्णय में यह ग्रंथ बड़ा ही उपयोगी है। इनके पुत्र कवींद्र और पौत्र दूलह भी बड़े अच्छे कवि हुए।

ये एक अभ्यस्त और निपुण कवि थे। इनके फुटकल कवित्त इधर उधर बहुत सुने जाते है जिनसे इनकी सरस हृदयता का अच्छा परिचय मिलता है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

चूमौं करकज मंजु अमल अनूप तेरो,
रूप के निधान, कान्ह! मो तन निहारि दै।

[ २६२ ]

कालिदास कहै मेरे पास हरै हेरि हेरि,
माथे धरि मुकुट, लकुट कर डारि दै॥
कुँवर कन्हैया मुखचंद्र की जुन्हैया, चारु,
लोचन-चकोरन को प्यासन निवारि दै।
मेरे कर मेहँदी लगी है, नंदलाल प्यारे!
लट उरझी है नकबेसर सँभारि दै॥


हाथ हँसि दीन्हौं भीति अंतर वरसि प्यारी,
देखत ही छको मति कान्हर प्रवीन की।
निकस्यो झरोखे माँझ बिगस्यौ कमल सम,
ललित अँगूठी तामें चमक चुनील की॥
कालिदास तैसी लाल मेंहँदी के बुंदन की,
चारु नख-चंदन की लाल अँगुरीन की।
कैसी छवि छाजति है छाप और छलान की सु
कंकन चुरीन की जडाऊ पहुँचीन की॥

(११) राम––शिवसिंहसरोज में इनका जन्म-संवत् १७०३ लिखी हैं और कहा गया है कि इनके कवित्त कालिदास के हजारा में हैं। इनका नायिकाभेद का एक ग्रंथ शृंगारसौरभ है जिसकी कविता बहुत ही मनोरम हैं। खोज में एक "हनुमान नाटक" भी इनका पाया गया है। शिवसिंह के अनुसार इनका कविता-काल संवत् १७३० के लगभग माना जा सकता है। एक कवित्त नीचे दिया जाता है––

उमड़ि घुमडिं घन छोंडत अखंड धार,
चंचला उठति तामें तरजि तरजि कै।
बरही पपीहा भेक पिक खग टेरत हैं,
धुनि सुनि प्रान उठे लरजि लरजि कै॥
कहै कवि राम लखि चमक खदोतन की,
पीतम को रहीं मैं तो बरजि बरजि कै।

[ २६३ ]

लागे तर तावन बिना री मनभावन के,
सावन दुवन आयो गरजि गरजि कै॥

(१२) नेवाज––ये अंतर्वेद के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् १७३७ के लगभग वर्तमान थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि पन्ना-नरेश महाराज छत्रसाल के यहाँ ये किसी भगवत् कवि के स्थान पर नियुक्त हुए थे जिसपर भगवत् कवि ने यह फबती छोड़ी थी––

भली आजु कलि करत हौ, छत्रसाल महराज।
जहँ भगवत गीता पढ़ी, तहँ कवि पढ़त नेवाज॥

शिवसिंह ने नेवाज का जन्म संवत् १७३९ लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता क्योकि इनके 'शकुंतला नाटक' का निर्माण-काल संवत् १७३७ है। दो और नेवाज हुए हैं जिनमें एक भगवंतराय खींची के यहाँ थे। प्रस्तुत नेवाज का औरंगजेब के पुत्र अजमशाह के यहाँ रहना भी पाया जाता है। इन्होंने 'शकुंतला नाटक' का आख्यान दोहा, चौपाई, सवैया आदि छंदो में लिखा। इनके फुटकल कवित्त बहुत स्थानों पर संगृहीत मिलते हैं जिनसे इनकी काव्यकुशलता और सहृदयता टपकती है। भाषा इनकी बहुत परिमार्जित, व्यवस्थित और भावोपर्युक्त है। उसमें भरती के शब्द और वाक्य बहुत ही कम मिलते हैं। इनके अच्छे शृंगारी कवि होने में संदेह नहीं। संयोग-शृंगार के वर्णन की प्रवृत्ति इनकी विशेष जान पड़ती है जिसमें कहीं कहीं ये अश्लीलता की सीमा के भीतर जान पड़ते हैं। दो सवैए इनके उद्धृत किए जाते हैं––

देखि हमैं सब आपुस में जो कछू मन भावै सोई कहती हैं।
ये घरहाई लुगाई सबै निसि द्यौस नेवाज हमैं दहती हैं॥
बातैं चवाव भरी सुनि कै रिस आवति, पै चुप ह्वै रहती है।
कान्ह पियारे तिहारे लिये सिगरे ब्रज को हँसिबो सहती हैं॥


आगे तौ कीन्हीं लगालगी लोयन, कैसे छिपै अजहूँ जौं छिपावति।
तू अनुराग को सोध कियो, ब्रज की बनिता सब यों ठहरावति॥
कौन सँकोच रह्यो है, नेवाज, जो तु तरसै, उनहू तरसावति।
बाबरी! जो पै कलंक लग्यो तौ निसंक ह्वै क्यौं नहिं अंक लगावति॥