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हिंदी-साहित्य का इतिहास

वृत्तविचार (संवत् १७२८), छंदविचार, फाजिलअली-प्रकाश, रसार्णव, शृंगारलता, अध्यात्म-प्रकाश (संवत् १७५५), दशरथ राय।

अध्यात्म-प्रकाश में कवि ने ब्रह्मज्ञान-संबंध बातें कहीं हैं जिससे यह जनश्रुति पुष्ट होती है कि वे एक नि:स्पृह विरक्त साधु के रूप में रहते थे।

काशी से विद्याध्ययन करके लौटने पर ये असोथर (जि॰ फतेहपुर) के राजा भगवंतराय खीची तथा डौंड़िया-खेरे के राव मर्दनसिंह के यहाँ रहे। कुछ दिनों तक ये औरगंजेब के मंत्री फाजिलअलीशाह के यहाँ भी रहे। अंत में मुरारमऊ के राजा देवीसिंह के यहाँ गए जिनके बहुत आग्रह पर ये सकुटुंब दौलतपुर में जा बसे। राजा राजसिंह गौड़ ने इन्हें 'कविराज' की उपाधि दी। थी। वास्तव में ये बहुत प्रौढ़ कवि थे और आचार्यत्व भी इनमें पूरी था। छदःशास्त्र पर इनका सा विशद निरूपण और किसी कवि ने नहीं किया हैं। ये जैसे पंडित थे वैसे ही काव्यकला में भी निपुण थे। "फाजिलअली-प्रकाश" और "रसार्णव" दोनों में शृंगाररस के उदाहरण बहुत ही सुंदर हैं। दो नमूने लीजिए––

ननद निनारी, सासु मायके सिधारी,
अहै रैनि अँधियारी भरी, सूझत न करु है।
पीतम को गौन कबिराज न सोहीत मौन,
दारुन बहत पौन, लाग्यो मेघ झरु है॥
संग ना सहेली, बैस नवल अकेली,
तन पुरी तलवेली-महा, लाग्यो मैन-सरु है।
भई, अधिरात, मेरो जियरा डरात,
जागु जागु रे बटोही! यहाँ चोरन को डर है॥


जोहै जहाँ मगु नंदकुमार, तहाँ चलि चंदमुखी सुकुमार है।
मोतिन ही को कियो गहनो सब, फूलि रही जनु कुंद की डार है॥
भीतर ही जो लखी, सो लखी अब बाहिर जाहिर होति न दार है।
जोन्ह सी जोन्हैं गई मिलि यों, मिलि जाति ज्यौ दूध में दूध की धार है॥