हिंदी रसगंगाधर
श्रीगोकुलनाथ
मध्यम काव्य

इलाहाबाद: इण्डियन प्रेस, पृष्ठ ४८ से – ४९ तक

 

मध्यम काव्य

जिस काव्य में वाच्य-अर्थ का चमत्कार व्यंग्य अर्थ के चमत्कार के साथ न रहता हो-उससे उत्कृष्ट हो, अर्थात् व्यंग्य का चमत्कार स्पष्ट न हो और वाच्य का चमत्कार स्पष्ट प्रतीत होता हो, वह "मध्यम काव्य' होता है।

जैसे यमुना के वर्णन मे लिखा है कि-

तनयमैनाकगवेषणलम्बी कृतजलधिजठरप्रविष्टहिमगि
रिभुजायमानाया भागीरथ्याः सखी... ..।

(यह यमुना) उस भागीरथी की सखी है, जो, मानो, अपने पुत्र मैनाक को ढूढ़ने के लिये लंबी की हुई एवं समुद्र के उदर मे घुसी हुई हिमालय पर्वत की भुजा है।

यहाँ संस्कृत मे 'क्यङ्' प्रत्यय से और हिंदी मे 'मानो' शब्द से वाच्य उत्प्रेक्षा ही चमत्कार का कारण है। यद्यपि यहाँ पर, गंगाजी मे हिमालय पर्वत की भुजा की उत्प्रेक्षा की गई है, इस कारण "श्वेतता" और "पुत्र मैनाक को ढूंढने के लिये...समुद्र के उदर मे घुसी हुई" इस कथन से "पाताल की तह तक पहुँचना" व्यंग्य है, और उनका किसी अंश मे चमत्कार


आचार्यों को सम्मत है, अतः अत में विप्रलंभ-शृंगार के ध्वनित होने से इस काव्य को गुणीभूत व्यंग्य न मानना कुछ भी अभिप्राय नही रखता, अन्यथा काव्यप्रकाशकारादि के दिए हुए "प्रामतरुण तरुण्या श्रादि उदाहरण भी असंगत हो जायेंगे, क्योंकि अंततोगत्वा विप्रलंभ की ध्वनि तो वे भी है ही। भी है ही; तथापि वह चमत्कार उत्प्रेक्षा के चमत्कार के अंदर घुसा हुआ सा प्रतीत होता है, जैसे किसी ग्रामीण नायिका कागोरापन केसर-रस के लेप के अंदर छिपा हुआ दिखाई देता हो। हाँ, इस बात में कोई संदेह नहीं कि कोई भी वाच्य-अर्थ ऐसा नहीं है, जो व्यंग्य अर्थ से थोड़ा बहुत संबंध रखे विना स्वतः रमणीयता उत्पन्न कर सके अर्थात् वाच्य-अर्थ मे रमयीयता उत्पन्न करने के लिये व्यंग्य का संबंध आवश्यक है।

वाच्य चित्रो को किस भेद मे समझना चाहिए?

इन्ही दूसरे और तीसरे (उत्तम और मध्यम)भेदो मे, जिनमे से एक मे व्यंग्य जगमगाता हुआ होता है और दूसरे मे टिमटिमाता, सब अलंकारप्रधान काव्य प्रविष्ट हो जाते हैं अर्थात् 'वाच्यचित्र' काव्यों का इन्ही दोनों भेदों मे समावेश है।