हिंदी रसगंगाधर/अधम काव्य
अधम काव्य
जिस काव्य में शब्द का चमत्कार प्रधान हो और अर्थ का चमत्कार शब्द के चमत्कार का शोभित करने के लिये हो, वह "अधम काव्य" कहलाता है;
- जैसे-
मित्रात्रिपुत्रनेत्राय त्रयीशात्रवशत्रवे।
गोत्रारिगोत्रजत्राय गात्रात्रे ते नमो नमः॥
भक्त कहता है-सूर्य और चंद्र जिनके नेत्र हैं, जो वेदो के शत्रुओं (असुरों) के शत्रु हैं और इंद्र के वंशजो (देव-
र॰-४ ताओं) के रक्षक हैं, उन-गोपाल अथवा वृषभवाहन (शिव)-आपको बार-बार नमस्कार है।
इसमे स्पष्ट दिखाई देता है कि अर्थ का चमत्कार शब्द मे लीन हो गया है-श्लोक सुनने से शब्द के चमत्कार की ही प्रधानता प्रतीत होती है, अर्थ का चमत्कार कोई वस्तु नहीं।
अधमाधम भेद क्यों नही माना जाता?
यद्यपि जिसमे अर्थ के चमत्कार से सर्वथा रहित शब्द का चमत्कार हो, वह काव्य का पाँचवा भेद "अधमाधम" भी इस गणना मे आना चाहिए; जैसे-एकाक्षर पद्य, अर्धावृत्ति यमक और पद्मबंध प्रभृति। परंतु आनंदजनक अर्थ के प्रतिपादन करनेवाले शब्द का नाम ही काव्य है, और उनमे आनंदजनक अर्थ होता नहीं, इस कारण "काव्यलक्षण" के हिसाब से वे वास्तव मे कान्य ही नहीं हैं। यद्यपि महाकवियों ने पुरानी परंपरा के अनुरोध से, स्थान स्थान पर, उन्हे लिख डाला है, क्यापि हमने उस भेद को काव्यों मे इसलिये नहीं गिना कि वास्तव मे जो बात हो उसी का अनुरोध होना उचित है, आँखें मींचकर प्राचीनों के पीछे चलना ठीक नहीं।
प्राचीनों के मत का खंडन
कुछ लोग काव्यों के ये चार भेद भी नहीं मानते; वेउत्तम, मध्यम एवं अधम-तीन प्रकार के ही काव्य मानते हैं। उनके विषय मे हमे यह कहना है कि अर्थ-चित्र और शब्द-चित्र दोनों को एक सा-अधम-ही बताना उचित नहीं, क्योंकि उनका तारतम्य स्पष्ट दिखाई देता है। कौन ऐसा सहृदय पुरुष होगा कि जो-
विनिर्गतं मानदमात्ममन्दिरा-
द्भवत्युपश्रुत्य यहच्छयाऽपि यम्।
ससंभ्रमेन्द्रद्रुतपातितार्गला
निमीलिताक्षीव भियाऽमरावती॥*[१]
एवम्
सच्छिन्नमूलः क्षतजेन रेणु-
स्तस्योपरिष्टात्पवनावधूतः।
अङ्गारशेषस्य हुताशनस्य
पूर्वोत्थितो धूम इवाऽऽबभासे॥†[२]
इत्यादि काव्यों के साथ
स्वच्छन्दोच्छलदच्छकच्छकुहरच्छातेतराम्बुच्छटा
मूर्छन्मोहमहर्षिहर्षविहितस्नानाहिकालाय वः।
भिन्द्यादुधदुदारदर्दुरदरी दीर्घादरिद्रुम-
द्रोहो केमहोर्मिमेदुरमदा मंदाकिनी मंदताम्॥*[३]
इत्यादि काव्यों की, जिनको केवल साधारण श्रेणी के मनुष्य सराहा करते हैं, समानता बता सकता है। और यदि तारतम्य के रहते हुए भी दोनो को एक भेद बताया जाता है, तो जिनमे बहुत ही कम (व्यंग्य की प्रधानता और अप्रधानता का ही) अंतर है, उन "ध्वनि" और "गुणीभूतव्यंग्य" को पृथक् पृथक भेद मानने के लिये क्यों दुराग्रह है? अतः काव्य के चार भेद मानना ही युक्तियुक्त है।
शब्द-अर्थ दोनों चमत्कारी हों, तो किस भेद मे समावेश करना चाहिए ?
जिस काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का चमत्कार एक ही साथ हो, वहाँ यदि शब्द-चमत्कार की प्रधानता हो, तो अधम और अर्थ-चमत्कार की प्रधानता हो, तो मध्यम कहना चाहिए। पर यदि शब्द-चमत्कार और अर्थ-चमकार दोनों समान हों, तो उस काव्य को मध्यम ही कहना चाहिए। जैसे—
उल्लासः फुल्लपङ्केरुहपटलपतन्मत्तपुष्पन्धयानां
निस्तारः शोकदावानलविकलहृदां कोकसीमन्तिनीनाम्।
उत्पातस्तामसानामुपहतमहसां चक्षुषां पक्षपातः
संपातः कोऽपि धाम्नामयमुदयगिरिप्रांततः प्रादुरासीत्॥
खिले हुए कमलो के मध्य से निकलते हुए (रात भर मधुपान करके) मत्त भ्रमरों का उल्लास (आनंददाता), शोकरूपी दावानल से जिनका हृदय विकल हो रहा था, उन चक्रवाकियों का निस्तार (दुःख मिटानेवाला), जिन्होंने तेज को नष्ट कर दिया था, उन अंधकार के समूहों का उत्पाव (नष्ट करनेवाला) और नेत्रों का पक्षपात (सहायक) एक तेज का पुख उदयाचल के प्रांत से प्रकट हुआ।
इस श्लोक में शब्दों से वृत्त्यनुप्रास की अधिकता और ओजगुण के प्रकाशित होने के कारण शब्द का चमत्कार है, और प्रसाद-गुण-युक्त होने के कारण शब्द सुनते ही ज्ञात हुए "रूपक" अथवा "हेतु" अलङ्कार रूपी अर्थ का चमत्कार है। सो श्लोक में दोनों—शब्द और अर्थ के चमत्कारों—के समान होने के कारण दोनों की प्रधानता समान ही है; इस कारण इसे मध्यम काव्य कहना ही उचित है। हिंदी में, इस श्रेणी में, पद्माकर के कितने ही पद्य आ सकते हैं।
ध्वनि-काव्य के भेद
काव्य का उत्तमोत्तम भेद जो "ध्वनि" है, उसके यद्यपि असंख्य भेद हैं, तथापि साधारणतया कुछ भेद यहाँ लिखे जाते हैं। ध्वनि-काव्य दो प्रकार का होता है—एक अभिधामूलक और दूसरा लक्षणामूलक। उनमें से पहला अर्थात् अभिधामूलक ध्वनि-काव्य तीन प्रकार का है—रसध्वनि, वस्तुध्वनि और अलङ्कारध्वनि। "रसध्वनि" यह शब्द यहाँ असंलक्ष्यक्रम-ध्वनि (जिसमे ध्वनित करनेवाले और ध्वनित होने के मध्य का क्रम प्रतीत नहीं होता) के लिये लाया गया है, अतः "रस-ध्वनि" शब्द से रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशांति, भावोदय, भावसंधि और भावशबलता सबका ग्रहण समझना चाहिए। दूसरा (लक्षणामूलक ध्वनि-काव्य) दो प्रकार का है—अर्थातरसंक्रमित वाच्य और अत्यंततिरस्कृत वाच्य। इस तरह ध्वनिकाव्य के पाँच भेद हैं। उनमें से "रस-ध्वनि" सबसे अधिक रमणीय है, इस कारण पहले रस-ध्वनि का आत्मा जो "रस" है, उसका वर्णन किया जाता है।
- ↑ * यह हयग्रीव राक्षस का वर्णन है। इसका अर्थ यों है-मित्रो के सम्मानदाता अथवा शत्रुओं के दर्पनाशक जिस हयग्रीव का, स्वेच्छापूर्वक भी (न कि किसी चढ़ाई आदि के लिये), घर से निकलना सुनकर, घबड़ाए हुए इंद्र के द्वारा शीघ्रता से डलवाई गई हैं अर्गले जिसमे ऐसी अमरावती (देवताओं की पुरी), माना, डर के मारे आँखे मीच लेती है।
- ↑ † यह रण-वर्णन है। इसका अर्थ यों है-चौड़ों की टापों आदि से जो रज उडी थी, उसकी जड़ (पृथ्वी से सटा हुआ भाग) रुधिर ने काट दी, और वह उस रुधिर के ऊपर ही ऊपर उड़ने लगी। वह (रज) ऐसे शोभित होती थी, माना, आग के केवल अँगारे शेप रह गए हैं और उससे जो पहले निकल चुका था, वह धुओं (अपर उड़ रहा) है।
- ↑ वह गङ्गा आपके अज्ञान को शीघ्र नष्ट करे, जिसके स्वतंत्र उछलते हुए और स्वच्छ जलप्राय प्रदेश के खड्डों के प्रबल जल की परंपरा महपियों के अज्ञान का नाश करनेवाली है और जिस जलपरम्परा मे वे लोग स्नान एवं नित्यनियम किया करते हैं, जिसकी कंदराओं में, तरंगो की चोट से ऊपर का भाग गिर जाने के कारण, बड़े बड़े मेढक दिखाई देते है और विस्तृत एवं सघन वृक्षो के गिराने के कारण अधिकता से युक्त लहरे ही जिसका गहरा मद है।