हिंदी रसगंगाधर
श्रीगोकुलनाथ
उत्तम काव्य

इलाहाबाद: इण्डियन प्रेस, पृष्ठ ४२ से – ४७ तक

 

उत्तम काव्य

जिस काव्य में व्यंग्य चमत्कार-जनक तो हो, पर प्रधान न हो, वह "उत्तम काव्य होता है।"

जो व्यंग्य वाच्य-अर्थ की अपेक्षा प्रधान हो और दूसरे किसी व्यंग्य की अपेक्षा गौण हो, उस व्यंग्य मे अतिव्याप्ति न हो जाय, इसके लिये "प्रधान न हो' लिखा है, और जिन वाच्य-चित्र-काव्यों मे व्यंग्य लीन हो जाता है-उसका कुछ भी चमत्कार नहीं रहता कितु केवल अर्थालंकारों-उपमादिकों-की ही प्रधानता रहती है, उनमे अतिव्याप्ति न हो जाय, इसलिये लिखा है कि "चमत्कार-जनक हो"। यहाँ एक विचार और है। काव्यप्रकाश के टीकाकारों ने "प्रताशि गुणीभूतव्यंग्य व्यंग्ये तु मध्यमम्" इस गुणीभूत व्यंग्य के लक्षण की व्याख्या करते हुए लिखा है कि "गुणीभूत व्यंग्य उसी का नाम है, जो "चित्र (अलंकारप्रधान) काव्य" न हो। पर यह उनका कथन ठीक नहीं; क्योंकि पर्यायोक्ति, समासोक्ति आदि अलंकार जिनमे प्रधान हों, उन काव्यों मे अव्याप्ति हो जायगी-अर्थात् उनका यह लक्षण न हो सकेगा। और होना चाहिए अवश्य, क्योंकि सभी अलंकारशास्त्र के ज्ञाताओं ने उनको गुणीभूत व्यंग्य और चित्र दोनों माना है। अतः जो चित्र-काव्य हो, वह गुणीभूत व्यंग्य न हो सके यह कोई बात नहीं।

अच्छा, अब उत्तम काव्य का उदाहरण लीजिए-

राघवविरहज्वालासंतापितसह्यशैलशिखरेषु।
शिशिरे सुखं शयानाः कपयः कुप्यंति पवनतनयाय॥

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रघुवर-विरहानल तपे सह-शैल के अत।
सुख सौ सोए, शिशिर मे कपि कोपे हनुमत॥

भगवान रामचंद्र के विरहानल की ज्वालाओं से संतप्त सह्याचल के शिखरों पर, ठंड के दिनों मे, सुख से सोए हुए बंदर हनुमान पर क्रोध कर रहे हैं।

इस श्लोक का व्यंग्य अर्थ यह है कि "जानकीजी की कुशलता सुनाकर हनुमान ने रामचंद्र को शीतल कर दिया, उनका विरह-ताप शांत हो गया और वाच्य-अर्थ है "हनुमान् पर बंदरों का अकस्मात् उत्पन्न होनेवाला क्रोध"। सो यह वाच्य-अर्थ व्यंग्य के द्वारा ही सिद्ध होता है, क्योंकि पहले जब व्यंग्य के द्वारा यह समझ लेते हैं-रामचंद्र का विरह शांत होने से सह्याचल के शिखर ठंडे हो गए, तव यह सिद्ध होता है कि इसी कारण, ठंड के मारे, बंदरों ने हनुमान पर क्रोध किया। अतः यह व्यग्य गौण हो गया, प्रधान नहीं रहा; क्योंकि वाच्य-अर्थ को सिद्ध करनेवाला व्यंग्य गौण हो जाता है, यह नियम है। पर इस दशा में भी, जिस तरह दुर्भाग्य के कारण कोई राजांगना किसी की दासी बनकर रहे, तथापि उसका अनुपम सौंदर्य झलकता ही है, ठीक उसी प्रकार इस व्यंग्य मे भी अनिर्वचनीय सुंदरता दृष्टिगोचर हो रही है।

यहाँ एक शंका होती है-इसी तरह "तल्पगताऽपि च सुतनुः... .." इस पूर्वोक्त ध्वनि-काव्य के उदाहरण मे "हाथ का धीरे धीरे हटाना" भी नई दुलहिन के स्वभाव के विरुद्ध है; क्योंकि नवोढा के स्वभाव के अनुसार तो उसे झट हटा लेना चाहिए था; इस कारण वह वाच्य भी व्यंग्य (प्रेम) से ही सिद्ध किया जा सकता है अर्थात धोरे धीरे उठाना तभी सिद्ध हो सकता है, जब हम यह समझ ले कि उसे पति से प्रेम होने लगा है, सो उसे उत्तमोत्तम काव्य कहना ठीक नही। इसका उत्तर यह है-प्रतिदिन के सखियों के उपदेश आदि, जो कि विशेप चमत्कारी नहीं हैं, उनसे भी "धीरे धीरे उठाना" सिद्ध हो सकता है, अत: उसके सिद्ध करने के लिये प्रेम ही की विशेष आवश्यकता हो, सो वात नहीं है। पर सहृदयों के हृदय मे जो पहले ही से यह बात उठ खड़ी होती है कि "यह वियोग के समय का प्रेम है। उसे ध्वनित किए विना "धीरे धीरे उठाना", खतंत्रता से, परम आनंद के आस्वाद का विषय बनने का सामर्थ्य नहीं रखता। इसी तरह "निःशेषच्युतचंदनम्........" आदि पद्यों मे भी "अधमता" आदि वाच्य, व्यंग्य (दूती-संभोग आदि) के अतिरिक्त अर्थ के द्वारा तैयार किए गए है, और व्यंग्य अर्थ को स्वयं प्रकट करते हैं, सो वहाँ भी व्यंग्य के गौण होने की शंका न करनी चाहिए।

उत्तमोत्तम और उत्तम भेदों मे क्या अंतर है?

यद्यपि इन दोनों (उत्तमोत्तम और उत्तम) भेदों मे व्यंग्य का चमत्कार प्रकट ही रहता है, छिपा हुआ नही, तथापि एक मे व्यंग्य की प्रधानता रहती है और दूसरे मे अप्रधानता, इस कारण इनमे एक दूसरे की अपेक्षा विशेषता है, जिसे सहदय पुरुष समझ सकते हैं।

चित्र-मीमांसा के उदाहरण का खंडन

अच्छा, अब एक "चित्रमीमांसा' के उदाहरण का खंडन भी सुन लीजिए; क्योंकि इसके विना पंडितराज को कल नही, पड़ती। वह उदाहरण यह है

प्रहरविरता मध्ये वाह्नस्ततोऽपि परेण वा
किमुत सकले याते वाह्नि प्रिय त्वमिहेष्यसि?
इति दिनशतप्राप्यं देशं प्रियस्य यियासतो
हरति गमनं वालाऽऽलापैः सवाष्पगलज्जलैः॥

"प्यारे! क्या आप एक पहर के बाद लौट आवेगे, या मध्याह्न मे, अथवा उसके भो बाद? किंवा पूरा दिन बीत जाने पर ही लौटेंगे?", अश्रुधारा सहित, इस तरह की बातों से चालिका (नवोढा), जहाँ सैकड़ों दिनों में पहुंचनेवाले हैं, उस देश मे जाना चाहते हुए प्रेमी के जाने का निषेध कर रही है-उसे जाने से रोक रही है।

इस पद्य मे "सारा दिन पूरी अवधि है, उसके बाद मैं न जी सकूँगी" यह व्यंग्य है, और वाच्य है "प्यारे के जाने का निवारण"| अव सोचिए कि "प्यारे का न जाना" तभी हो सकता है, जब कि वह यह समझ ले कि "यह एक दिन के वाद न जी सकेगी” सो यह वाच्य-अर्थ पूर्वोक्त व्यंग्य से सिद्ध होता है, इस कारण यह काव्य "गुणीभूत व्यंग्य" (मध्यम ) है। यह है चित्रमीमांसाकार का कथन ।

अब पंडितराज के विचार सुनिए। वे कहते हैं-गुणीभूत व्यंग्य का यह उदाहरण ठीक नही; क्योंकि अश्रुधारा सहित "क्या आप एक पहर के वाद लौट आवेगे?" इत्यादि कथन ही से "प्यारे का न जाना, रूपी वाच्य सिद्ध हो जाता है, इस कारण व्यंग्य के गौण होकर उसे सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं। "बातो से...जाने का निवारण कर रही है।" इस कथन मे "बातों से" यह तृतीया करण-अर्थ मे है; अतः स्पष्ट है कि वे (बा) जाने के निवारण की साधक हैं। पर यदि आप कहें कि-व्यंग्य भी तो वाच्य को सिद्ध कर सकता है, इस कारण हमने उसे गुणीभूत लिखा है, तो यह भी ठीक नही, क्योंकि यदि ऐसा करोगे तो "निःशेषच्युतचंदनम्..." आदिकों में भी "दूती-संभोग' आदि व्यंग्य भी नायक की अधमता को सिद्ध करते हैं, इस कारण वे भी गुणीभूत हो जायँगे। हॉ, यदि आप कहें कि "अश्रुधारा सहित ..बातो" की तो "जाने के बाद बहुत समय तक न ठहरना" यह सिद्ध कर देने से भी चरितार्थता हो सकती है; अतः व्यंग्य-सहित होने पर ही उनसे "जाने का निवारण" सिद्ध हो सकता है; तो पंडितराज कहते हैं-अच्छा, "उसके बाद न जी सकूँगी" इस व्यंग्य को वाच्यसिद्धि का अंग मानकर गौण समझ लीजिए; पर नायक-आदि विभाव, अश्रु-आदि अनुभाव एवं चित्त के आवेग आदि संचारी भावो के संयोग से ध्वनित होनेवाले विप्रलंभ-श्रृंगार के कारण इस काव्य को "ध्वनि-काव्य' कहा जाय वो कौन मना कर सकता है*[]


  1. * इस बहस में पंडितराज अप्पय दीक्षित को परास्त न कर सके, क्योंकि मध्य में प्रतीत होनेवाले व्यंग्य के द्वारा भी ध्वनि एवं गुणीभूत व्यंग्य का व्यवहार होना काव्यप्रकाशकारादि साहित्य के प्राचीन