हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/वल्लभाचार्य

हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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सोलहवीं ई० शताब्दी को हम हिन्दी भाषा का स्वर्णयुग कह सकते हैं। इसी शताब्दी के आरम्भ में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने प्रसिद्ध 'पदमावत' नामक ग्रन्थ की रचना की जो अवधी भाषा का आदिम ग्रंथ है। · इसी शताब्दी में हिन्दी-साहित्य गगन के उस सूर्य और चन्द्रमा का उदय हुआ, जिनकी आभा से वह आज तक उद्भासित है। आचार्य केशव, जो हिन्दी साहित्य के भाम और मम्मट हैं. उनका आविर्भाव भी इसी शताब्दी में हुआ और अकबर के राजत्व का वह उल्लेखनीय समय भी जो मुसल्मान साम्राज्य का उच्चतम काल कहा जाता है. इस शताब्दी का ही अधिकांश भाग है। इस शताब्दी में अवधी और ब्रज भाषा का जैसा शृंगार हुआ फिर कभी वैसा गौरव उसको नहीं प्राप्त हुआ। इस शताब्दी के हिन्दी साहित्य के विकाश पर प्रकाश डालने के पहले मुझको एक बहुत बड़े धार्मिक परिवर्तन का वर्णन कर देना आवश्यक ज्ञात होता है। क्योंकि, ब्रज-भाषा के उत्थान और उसके बहुप्रान्तव्यापी होने का आधार वही है।

मैं पहले कह चुका हूं कि किस प्रकार सूफी सम्प्रदाय वाले प्रेम मार्ग का विस्तार मुसल्मानों की साम्राज्य-वृद्धि के साथ कर रहे थे और कैसे उनके इन मधुर भावों का प्रभाव भारतीय जनता पर पड़ रहा था। सूफी सम्प्रदाय वाले संसार की समस्त विभूतियों में ईश्वरीय सत्ता का विकास देखते हैं। वे परमात्मा की कल्पना प्रेम स्वरूप के रूप में [ १९९ ] ( १६६ ) करते हैं और अपने को उसका प्रेमिक मान कर प्रेम सम्बन्धी भावों को बड़ी ही मधुरता और सरसता से वर्णन करते हैं। उसके सम्मिलन के लिये जो उत्सुकता उनके हृदय में उत्पन्न होती है उसका बड़ाही मर्मस्पर्शी चित्र उनकी रचनाओं में अंकित है। उनकी विग्ह वेदनायें भी बहुत ही विमुग्धकारी और हृदयद्रवीभूत करने वाली हैं । वे जब अपनी उस अवस्था का वर्णन करते हैं जिस समय उनको इस बात का अनुभव होता है कि वे उससे किसी अवस्था विशेष के कारण पृथक हो गये हैं तो उसमें बड़ी मर्म वेधिनी उक्तियाँ होती हैं जो मनों को बेतरह अपनी ओर खोंचती हैं। उस समय उनके प्रेम मार्ग के इन बड़े विमोहक भावों ने हिन्दू जनता को बहुत कुछ अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। पर हिन्दुओं के किसो धर्म संप्रदाय में ऐसो मधुरतम कल्पनाओं का आविष्कार तबतक नहीं हुआ था. जो सफलता के साथ उनका प्रतिकार कर सके । हिन्दू धर्म का भक्ति- मार्ग उच्च कोटि का है और बहुत ही सरस और मधुर भी है. परन्तु उतना सुलभ नहीं, उसमें कुछ गहनता भो है। वह सर्ब साधारण के लिये उतना मोहक नहीं जितना प्रेम । भक्ति में उच्चता है और वह महत्तामय उच्च कोटि के व्यक्तियों पर ही आधारित है। उसमें विशेषता के साथ त्यागमय धार्मिकता है. परन्तु प्रेम में साधारणता है और उसमें सांसारिकता भी पाई जाती है। व्यापक प्रेम या प्रीति की पराकाष्ठा हो भक्ति है। इसी लिये भक्ति से उसमें अधिक व्यवहारिकता है और इस व्यवहारिकता के कारण ही मानव-समाज पर उसका अधिक अधिकार है। प्रेम के आदर्श को न्यूनता हिन्दू संसार में किसी काल में नहीं रही। प्रेम की महत्ता और उसकी लोक प्रियता के आदर्श का अभाव हिन्दु संस्कृतिमें कभी नहीं हुआ। प्ररन्तु यह समय ऐसा था कि जब उसके व्यापक और महान आदशैको ऐसे मधुर और मोहक रूपमें उपस्थित करने की आवश्यकता थी. जो सर्वसाधारण को अपनी ओर आकर्षित कर सके, और सूफो सम्प्रदायके उन प्रभावों को विफल बनावे जो उसके चारों ओर अविरामगति से विस्तृत हो रहे थे। गमावत सम्प्रदाय में भक्ति भावना जितनी प्रबल है, उतनो प्रेम भावना नहीं । भगवान् रामचन्द्र [ २०० ] (२००) मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और इसी रूप में वे हिन्दू संसार के सामने आते हैं। उनका कार्यक्षेत्र भी ऐसा है जहाँ धीरता. गम्भीरता, कर्मशीलता, कार्य करती दृष्टिगत होती है। उनके आदर्श उच्च हैं, साथ ही अतीव संयत। या तो वे कर्म-क्षेत्र में विचरण करते देखे जाते हैं या धर्म-क्षेत्र में । इसीलिये उनमें वह मधुर भाव की उपासना पहले नहीं लाई जा सकी जो बाद को गृहीत हुई। सव से पहले समयानुसार इस ओर मध्वाचार्य जी की दृष्टि गई। उन्होंने श्रीमद्भागवत के आधार से भगवान् श्रीकृष्णको मधुर भावनामय उपासना की नींव डालो। पहले वे स्वामी शंकराचार्य के और रामानुज सम्प्रदाय के सिद्धान्तों ही की ओर आकर्षित थे। परन्तु श्रीमद्भागवत की भक्ति-भावना हो उनके हृदय में स्थान पा सकी और उन्होंने दक्षिण प्रान्त में इस प्रकारकी उपासना का आजीवन प्रचार किया। इनकी उपासना-पद्धति में भगवान कृष्णचन्द्र प्रेम के महान आदर्श के रूप में गृहीत हुये हैं और गोपिकायें उनकी प्रेमिका के रूप में । जो सम्बन्ध गोपिकाओं का भगवान श्रीकृष्ण के साथ प्रेम के नाते स्थापित होता है भगवान के साथ भक्त का वही सम्बन्ध वर्णित करके उन्होंने अपनी उपासना-पद्धति ग्रहण की । इसीलिये उनका सिद्धान्त द्वैतवाद कहलाता है। उन्हीं के सिद्धान्तों का प्रचार विष्णु स्वामी और निम्बार्काचार्य ने किया,केवल इतना अन्तर अवश्य हुआ कि गोपियों का स्थान उन्हों ने श्रीमती राधिका को दिया। स्वामी बल्लभाचाय्य ने इसी उपासना की नींव उत्तर-भारत और गुजरात में बड़ी ही दृढ़ता के साथ डाली और थोड़े परिवर्तन के साथ इस मधुर भावना का प्रसार बड़ी ही सरसता से भारतवर्ष के अनेक भागों में किया। स्वामी वल्लभाचार्य ने वालकृष्ण की उपासना हीको प्रधानता दी है इसीलिये उनका दर्शनिक सिद्धान्त शुद्धाद्वैतवाद कहलाता है। परन्तु जैसा मैंने ऊपर अंकित किया, समय की गति देखकर उनको राधाकृष्ण की युगलमूर्ति की उपासना ही को प्रधानता देनी पड़ी। उस समय यह उपासना पद्धति बहुत अधिक प्रचलित और आद्रित भी हुई। क्योंकि इस प्रणाली में सूफियों के उस प्रेम और प्रेमिक-भाव का उत्तमो- त्तम प्रतिकार था जिसका प्रचार वे उस समय भारत के विभिन्न भागों में [ २०१ ] ( २०१ ) तत्परता के साथ कर रहे थे। सूफियों के सम्प्रदाय में परमात्मा प्रेमपात्र के रूप में देखा जाता है और सूफ़ीभक्त अपने को उसके प्रेमिक के रूप में अंकित करते हैं। यह प्रणाली भारत के लिये इसलिये अधिक उपयोगिनी नहीं सिद्ध हो सकती थी जितनी कि स्वामी वल्लभाचार्य को उद्भावित पद्धति । कारण इसका यह है कि पुरुष के प्रति पुरुष के प्रेम में वह स्वारस्य नहीं है जो पुरुष के प्रति स्त्री के प्रेम में। भारत की यह चिर प्रचलित परंपरा और इस देश का यही आदर्श है कि स्त्रियां पुरुषों पर आसक्त दिखलायी जाती हैं। इसलिये श्रीमती राधिका को भगवान कृष्णचन्द्र पर उत्सर्गीकृत-जीवन बनाकर स्वामी वल्लभाचार्य या उनके पहले के आचार्यो ने जिस मर्मज्ञता का परिचय दिया और परमात्मा की जिस उपासना- पद्धति का आदर्श उपस्थित किया वह अभूतपूर्व और अधिकतर भाव-प्रवण है। योरोप का प्रसिद्ध विद्वान् न्यूमैन क्या कहता है, उसे सुनिये १"पुरुषों में तुम कितने ही पौरुष-विकास-सम्पन्न क्यों न हो. उच्चतर आध्या-त्मिक आनन्द की ओर प्रगति करने के लिये तुम्हारी आत्मा को नारीरूप ही ग्रहण करना होगा।' भगवान के बालभाव की उपासना की कल्पना बड़ी ही मधुर है, साथ ही सर्वथा नवीन। स्वामी वल्लभाचार्य को छोड़कर यह उपासना पद्धति किसी के ध्यान में नहीं आई। जो धर्म अवतारवाद का मर्म नहीं समझ सकते वे बालभाव की उपासना की कल्पना कर भी नहीं सकते। संसार के कुछ धम्मों में परमात्मा को पिता और अपने को पुत्र मान कर उपासना करने की प्रणाली है। पर परमात्मा को बाल स्वरूप मानकर इसी भाव से उसकी उपासना करने की उद्भावना स्वामी वल्लभाचार्य का ही आवि- प्कार है । उपासना का प्रयोजन यह है कि परमात्मा के अशेप गुणों का मनन और चिन्तन करके तदनुरूप अपने को बनाना, आर्य धर्म का यह सिद्धान्त वाक्य है 'यञ्चिन्तति तद्भवति' मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बनता है। पौराणिक धम में नाम जपने की बड़ी महिमा है। निगुण- . --" If my soul is to go on into high spiritual blessedness, it must beecome a woman; yes, however, manly thou may be among men.,,-

         Newman. [ २०२ ]                   ( २०२ )

वादियों में यह सिद्धान्त बहुत व्यापक रूपमें गृहीत है । उद्देश्य इसका यही है कि बिना नामके परिचय नहीं होता, और बिना परिचय के गुण-ग्रहण की संभावना नहीं । किन्तु नाम जपनेका लक्ष्य भी तादात्म्य और गुण-ग्रहण ही है. अन्यथा उपासना व्यर्थ हो जाती है। इसीलिये भगवद्गीताका यह महावाक्य है, ये यथामाम् प्रपद्यन्ते तान् तथैव भजाम्यहम् '। मुझको जो जिस रूपमें भजता है। मैं उसको उसी रूपमें प्राप्त होता हूं । बालभाव की उपासना का अर्थ है बालकोंके समान निरीह, निर्दोष और सरल अवस्थाका प्राप्त करना । कहा जाता है, बालक सदैव स्वर्गीय बातावरणमें बिचरता रहता है, इस कथन का मर्म यह है कि वह समस्त सांसारिक बन्धनों और झगड़ों से मुक्त होता है और उसके भावों में एक स्वर्गीय मधुरता विद्यमान रहती है। बालभाव की उपासना में माधुर्य-भावना की चरम सीमा दृष्टिगत होती है। परन्तु इस अवस्थाका प्राप्त करना सहज नहीं । बाल्यावस्था के बाद जो अवस्थायें सामने आती हैं उनको बिल्कुल भूल जाना बहुत बड़ी साधना से सम्बन्ध रखता है । भारतवर्ष में सौ डेढ़ सौ वर्ष के भीतर अनेक महात्माओं का आविर्भाव हुआ है। उनमें से एक परमहंस रामकृष्ण को कभी कभी बाल- भाव में मग्न देखा जाता था । परन्तु उनको भी यह अवस्था कुछ काल के लिये ही प्राप्त होती थी। सदेव इस दशा में वे नहीं रह सकते थे। इसी असम्भवता के कारण स्वामी वल्लभाचार्य प्रचारित बालभाव उपासना की पद्धति को व्यापकता नहीं प्राप्त हुई। उनकी प्रेमिका और प्रेमिक भावकी उपासना ही व्यापक रूप से गृहीत हुई और आज भी उसकी मधुरता उसके अधिकारियों को विमुग्ध कर रही है। अद्वैतवाद में साधक को अपनी सत्ता को विलोप कर देना पड़ता है, क्यों कि द्वैत का भाव उत्पन्न होते ही अद्वैत भाव सुरक्षित नहीं रह सकता। इसीलिये इस मार्ग पर चलना अत्यन्त दुर्लभ है। कोई कोई सच्चा उच्च कोटि का ज्ञान मार्गी ही उस पद्धति का अधिकारी हो सकता है। भक्ति मार्ग में अपनी सत्ता को सर्वथा लोप करना नहीं पड़ता। परन्तु, मर्यादा पद पद पर उसकी सहचरी रहती है, क्यों कि भक्ति महत्ता के अभाव में उत्पन्न नहीं होती और महान् पुरुष के साथ मर्यादा का उल्लंघन नहीं हो सकता। इसलिये मानवी सत्ता [ २०३ ] ( २०३ ) भक्ति मार्गमें भी बन्धनोंसे मुक्त नहीं होती। और अनेक अवस्थाओंमें उसकी वांछित स्वतंत्रता में बाधा भी पड़ती रहती है। प्रेम पथ इन बन्धनों से मुक्त रहता है। उसमें अपनी सत्ता तो बहुत कुछ सुरक्षित रहती ही है उसकी स्वतंत्रता में भी उतनी बाधा नहीं पड़ती। प्रेमिका प्रेम-पात्र को यथावसर टेढ़ी-मेढ़ी बातें भी कह देती है और दिल खोलकर उपालम्भ देने में भी संकुचित नहीं होती। ऐसा वह प्रेमातिरेक के वश होकर हीकरती है दम्भ अथवा अभिमान से नहीं । यही कारण है कि यह उपासना पद्धति अधिकतर गृहीत हुई और माधुर्य भावना कही गई। आज दिन भारतवर्ष का कौन सा प्रदेश है जिसमें वल्लभाचार्य सम्प्रदाय के मन्दिर नहीं और जिसमें राधा-कृष्ण की मूति विराजमान नहीं ? रामावत सम्प्रदाय भी इस माधुर्य भाव की उपासना से प्रभावित हुआ और उसमेंभी आजकल सखी भाव की सृष्टि होकर यह पद्धति गृहीत हो गई है । भगवान कृष्णचन्द्र जैसे विलक्षण प्रेम स्वरूप प्रेमिक हैं श्रीमतीराधिका वैसी ही प्रेम प्रतिमा । असंख्य ब्रह्माण्ड के अधिप आकाश का जो वण है वही वर्ण प्रेमावातार प्श्री कृष्णचन्द्र का है, जो इस बात का सूचक है कि जो इस रंगमें सच्चे जी से रंगा उसने माधुर्य समुद्र में ही प्रवेश किया, आजन्म उसमें ही निमग्न रहा। श्यामायमाना वसुन्धरा मेंभी वहो छटा दृष्टिगत होती है और विश्वविगमदायिनी रजनी में भी ।वे विश्वरूप हैं, इसलिये सूर्य, शशांक, वहनि नयन हैं; मयूर-मुकुट-मण्डित,बनमाली, एवं गिरिधर भी हैं। ब्रह्माण्ड की चोटी के ध्वन्यात्मक स्वर से उनकी मुरलिका स्वरित है, जिसको सुन सलिल-प्रवाह रुक जाता है,पवन नर्तन करने लगता है, दिशायें प्रफुल्ल हो जाती हैं और बृक्ष तक का पत्तापत्ता आनन्द से आन्दोलित होने लगता है। वे लोक ललाम हैं। अतएव कोटिकाम कमनीय हैं, वे सच्चिदानन्द हैं, इसलिये संसार सुखके सर्वस्व हैं, माधुर्य्यमय विभूतिके मूल हैं. एवं लोक-लीलाओंके लोको- त्तर आधार। उन्हीं की तद्गता प्रेमिका और आराधिका श्रीमती राधिका हैं। वे भी उन्हीं के समान लोकोत्तर मुन्दरी और अलौकिक शक्ति शालिनी हैं। उनका संयोगमय जीवन बड़ा ही भावमय, उदात्त और [ २०४ ] ( २०४ ) सहृदय-हृदय-संवेद्य है । उनकी रागात्मिका प्रकृति जितनी ही लोक रंजिनी है उतनी ही चमत्कारमयी। वे इतनी प्रेम परायणा हैं कि प्रियतम का क्षणिक घियोग भी सह्य नहीं, किन्तु इतनी आत्मावलंबिनी हैं कि वियोग अवस्था उपस्थित होने पर वे विश्वमात्र में अपने आराध्यदेव की विभूतियों को अवलोकन करती हैं और इसप्रकार अपने उन्मत्त प्राय हृदय में वह रस धारा बहातो हैं जिसको सुधाधारा से भी सरस कह सकते हैं। उनको वियोग वेदनायें पत्थर को भी द्रवीभूत करती हैं, किन्तु इस सिद्धान्त का अनुभव कराती हैं कि 'प्रेम की पीड़ायें बड़ी मधुर होती हैं।'

       (Love's pain is very Sweet )
       

महाप्रभु वल्लभाचार्य का सिद्धान्त इन्हीं युगल मूर्तियों पर अवलम्बित है। इसी लिये वह इतना हृदयग्राही, मनोहर और व्यापक है कि वही विविध विदेशी भाव-प्रवाह में बहती हुई हिन्दूजनता का प्रधान पोत बना । उनके इस लोक मोहक सिद्धान्त के मूर्तिमन्त अवतार चैतन्य देव थे। यह भी हिन्दू जनता का सौभाग्य है कि वे भी उसी समय में अवतीर्ण हुए और अपने आचरणों द्वारा उन्हों ने ऐसा आदर्श उपस्थित किया, जिससे इस युगलमूर्ति के प्रेम प्रवाह में बंगाल प्रान्त निमग्न हो गया। उनके विषय में बङ्गाल प्रान्त के प्रसिद्ध विद्वान और प्रतिष्ठित लेखक दिनेशचन्द्र सेन बी० ए० क्या कहते हैं सुनियेः-

यदि चैतन्यदेव न जन्म लेते तो श्रीराधा का जलद-जाल को देखकर नेत्रों से अश्रु बहाना, कृष्ण का कोमल अंग समझ कर कुसुमलता का आलिंगन करना, टकटकी बाँधकर मयूर-मयूरी के कण्ठको देखते रह जाना,और नव-परिचय का सुमधुर भावावेश कवि की कल्पना बन जाता। एवं भाव के उछ्वास से उत्पन्न हुई उनकी विभ्रममय आत्म-विस्मृति आजकल के असरस युग में कवि-कल्पना कही जाकर उपेक्षित होती । किन्तु चैतन्य देव ने श्रीमद्भागवत और वैष्णव गीतों की सत्यता प्रमाणित कर दी। उन्हों ने दिखलाया कि यह विगट शास्त्र भक्ति की भित्ति पर, नयनों के अश्रु पर, और चित्त की प्रीति पर अचल भाव से खड़ा है। इस शास्त्र के [ २०५ ]शोभा सर्वस्व पूर्वराग, विरह, सम्भोग, मिलन इत्यादिसे सम्बन्ध रखनेवाली जितनी ललित लोलाओं की सरस धारायें बही हैं, वे कल्पित नहीं हैं। उनका आस्वादन हुआ है और वे आस्वादन योग्य हैं। प्रेम की अद्भुत स्फूर्ति से चैतन्यदेव की देह कदम्ब पुष्प के समान रोमाञ्चित बनती, उन्हें समुद्र की लहरें यमुना की लहरें जान पड़ती. चटक पर्वत गोवर्द्धन प्रतीत होता, और उनके लिये पृथ्वी कृष्णमय हो जाती। इसी अपूर्व भक्ति और प्रेमकी सामग्री के आधार से श्रीमती राधिका सुन्दरी सृष्ट हुई हैं। उनके विरह जन्य कष्ट को एक कणिका धारण करे, अथवा उनके सुख की एक लहरीका अनुभव कर सके, इस प्रकार का नारी-चरित्र पृथ्वी-तल के काव्योद्यान में नहीं पाया जाता" । * अवतक इस विषय में जो कुछ लिखा गया उससे यह सिद्ध होता है कि सोलहवीं शताब्दी में महाप्रभु बल्लभाचार्य्यने कृष्णप्रेमकी जो सरस धारा बहाई वह समयोपयोगी थी और उसका उस काल और उसके बाद के हिन्दी साहित्य पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।