हिंदी निबंधमाला-१/बुँदेलखंड-पर्य्यटन–श्रीयुत कृष्णबलदेव वर्म्मा
कवि-कुल-कमल-दिवाकर महात्मा सूरदासजी ने सत्य कहा है-"सबै दिन जात न एक समान"। निस्संदेह यह वाक्य ऐसा सारगर्भित है कि इसे जितना ही सोचिए उतना ही यह गूढ़ प्रतीत होता है। इतिहासानुरागी लोगों के लिये तो यह वाक्य ऐसा उपयोगी है कि यदि वे इसे स्वर्णाक्षरों से लिखकर रात दिन अपने सामने लटकाए रहें तो भी अनुचित न होगा। दंभी पुरुषों के सम्मुख तो यह वाक्य घनघोर नाद से पढ़े जाने के योग्य ही है। जनवरी मास में बुँदेलखंड के बीच पर्य्यटन करता हुआ जब मैं झाँसी में पहुँचा और वहाँ के दुर्गम दुर्ग, कोट तथा महाराणी लक्ष्मीबाई के राजभवन पर मेरी दृष्टि पड़ी, नगर में हिंदुओं के प्राचीन नगरों के ढब के हाट, बाट, मंदिर, गृह-जिनके द्वारों पर गज, अश्व, सेना,
देवतादि के नाना रंगों के चित्र बने थे-मैंने देखे, तब अनायास, एरियन, फाहियान, हुएनसाँग आदि विदेशियों द्वारा लिखित और प्राचीन कवियों द्वारा वर्णित भारतवर्षीय नगरों का चित्र आँखों के सम्मुख आ खड़ा हुआ और भारतवर्ष की उस सुख की दशा को वर्तमान दीन दशा से मिलाने पर चित्त विकल हो उठा। कंठावरोध होने को ही था कि पुनः महात्मा
सूरदास ने मेरा प्रबोध किया, और "सबै दिन जात न एक
समान" इस बात को स्मरण कर जगत् को परिवर्तनशील जान
चित्त ने धैर्य धारण किया । पुनः कई दिन तक मैं झाँसी नगर
के प्राचीन चिह्नों का अनुसंधान करता रहा। इसी अवसर पर
एक दिन मैं नगर के कोट के एक द्वार से निकला जो "ओड़छा
द्वार" करके प्रसिद्ध है। इस द्वार को देखते ही मुझे
अकस्मात् कवि-कुल-शिरोमणि सुरदासजी के सहयोगी साहित्य-
गगन के शोभावर्द्धक नक्षत्र कवींद्र केशवदासजी के, तथा उनके
प्रतिपालक और प्रचंड मुगल-सम्राट् कुटिल-नीत्यवलंबी अकबर
के दर्प दमनकारी बुंदेलवंशावतंस वीरशिरोमणि महाराज वीर.
सिंहदेवजी के अलौकिक चरित्रों की रंगभूमि का स्मरण हो
प्राया। सब ओर से हटकर चित्त उसी ओर आकर्षित हो
गया। यद्यपि मुझे कई एक आवश्यक कार्यों के कारण झाँसी
से बाहर जाने का अवकाश न था, परंतु “मन हठ परयो न
सुनहि सिखावा” की दशा हुई, सब काम छोड़कर सबके बर्जने
पर भी मैं गाड़ी मँगा दूसरे दिन प्रात:काल इन प्रातःस्मरणीय
महानुभावों की जन्मभूमि देखने को चल दिया। प्रकट हो कि
ओड़छा झाँसी से आठ मील के अंतर पर है, मार्ग अत्यंत
दुर्गम है, यद्यपि ओड़छाधिपति महाराज टीकमगढ़ ने, जो बुंदेल-
खंडीय राज-मंडल के अग्रणी हैं, उसे ऐसा सुधरवा रखा है
कि गाड़ी आदि के जाने में कुछ कष्ट नहीं होता। पार्वतीय
मार्ग होने से बहुधा मार्ग ऊँचा नीचा है, जो मुझे संसार की
संपत्ति-विपत्ति का ठौर ठौर पर स्मरण दिलाता था। मार्ग
के दोनों ओर सघन वनवृक्ष प्रहरीरूप में खड़े थे; उन पर
विहग-वृंद का कलरव एक अपूर्व आनंद का संचार कर रहा
था। पाठक-वृंद, कदाचित् आपको नगरवासी होने से वन-
वर्णन ऊभट प्रतीत होता होगा और आप मुख्य स्थान का वृत्तांत
सुनने के लिये अधिक उत्सुक होंगे, अतः हम मार्ग का कुछ भी
वृत्तांत न कह मुख्य स्थान पर पहुँचते हैं । भारतवर्षीय इतिहास
में जब से यवनगण के संकटमय चरणों के इस देश में पड़ने
का वर्णन पाया जाता है तब से इस देश के दो प्रांतों के राज-
पूत वीरों को हम विशेषतः रणक्षेत्र में पाते हैं। एक तो राज-
पूताने के, दूसरे बुंदेलखंड के। आज का हमारा आलोच्य
विषय बुंदेलखंड का एक नगर है। इसलिये राजपूताने का
वर्णन न कर हम कुछ संक्षेप सा वर्णन बुंदेले राजपूतों के वंश
का कर देना उचित समझते हैं।
विंध्याचल की नाना शाखाएँ इस देश के भीतर प्रविष्ट हैं अतः यह पार्वतीय देश उसी संबंध से विध्यखंड, विंध्यशैलखंड अथवा विध्येलखंड कहलाया और कालांतर में इस शब्द का अपभ्रंश हो देश बुंदेलखंड कहलाने लगा ।
- किसी किसी का यह पौराणिक मत है कि इस वंश के
मूल पुरुष राजा वीर ने उग्र तप कर श्री विध्यवासिनी को अपना
सिर चढ़ाया था ।भगवती उनसे ऐसी प्रसन्न हुई कि उन्होंने उन्हें पुनः
जीवित कर दिया। इतना ही नहीं, देवी की कृपा से सिर चढ़ाने में जो रक्त-विदु गिरे थे उनसे अनेक वीर पुरुष उत्पन्न हुए जो राजा के सहायक हुए। बूंदों से उत्पन्न होने से वे बुंदेले कहलाए।
यों तो कवि-कुल-गुरु महर्षि वाल्मीकिजी की रामायण में
इसके चित्रकूट आदि स्थानों का वर्णन मिलता है; परंतु महा-
भारत में चेदि (चंदेरी) राजा के प्रसंग से इस देश का सवि-
स्तर उल्लेख पाया जाता है । युगांतर का इतिहास होने से हमें
यहाँ उसके वर्णन की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती और हम
कवि चंद लिखित महोबा खंड के साक्ष्य पर चंदेलवंश का,
जिसकी प्रथम राजधानी कालिंजर का दुर्गम दुर्ग अद्यापि उनके
प्रतापशील होने की सुब दिलाता है और द्वितीय राजधानी
खजूरपुर के अद्वितीय प्राचीन मठ, मंदिर, तड़ागादि अब तक
के सूचक छत्रपुर राज्यांतर्गत खड़े हैं और तृतीय
राजधानी महोबा के प्रबल वीर आल्हा, अदल, मलखान आदि
ने एक बार समस्त भारत में चंदेलवंश की विजय का डंका
पीट दिल्लीश्वर पृथ्वीराज तक को थर्रा दिया था और वे अपने
आश्चर्यदायक विशाल चिह्न अब तक महोबे के सन्निकट स्थानों
में छोड़ गए हैं, सविस्तर वर्णन करने का अलग संकल्प कर
चुके हैं, इसलिये यहाँ पर इतना ही लिखते हैं कि इस
प्रचंड वंश के भाग्य का सूर्य भी, सन् ११६७ ई० के लगभग
दिल्लीश्वर पृथ्वीराज के भाग्यभानु के साथ ही साथ, यवनदीप
के प्रज्वलित होने के समय, अस्ताचल को प्रस्थान कर गया और
तदुपरांत वीर बुंदेलवंशीय राजपूतों के शासन का इस देश में
प्रादुर्भाव हुआ।
जब चंदेल-चंद्र के वियोग में बुंदेल-भू-कुमु-
दिनी यवन-भाग्य-भास्कर को देख मुरझा रही थी, इस देश का
शृंखलाबद्ध राज्य नष्टप्राय हो गाँव गाँव के निराले ठाकुर होते
जाते थे, उसी समय शाकंभरी-नरेश पृथ्वीराज को हल से
मारनेहारे क्रूर शहाबुद्दीन गोरी के सेनानायक, पृथ्वीराज के
अधिकृत देशों में फैल गए। जिस लरक्क खत्री ने आर्यवंश की
अहित-चिता कर कई बार शहाबुद्दीन को पृथ्वीराज के बंधन से
और अंत में पृथ्वीराज की वैसी ही दशा में सहायता न
कर, शहाबुद्दीन के हाथ उसका शिरच्छेद होने दिया, और
इस प्रकार स्वजातिघात का पाप अपने सिर पर लिया उसी की
संतान, यवन-शासन होते ही, महोबे की ओर भाई और राज्य
की सीमा पर जालौन प्रांत के कांच परगने के मुद्दानी ग्राम में
अपने राज्य की राजधानी नियत कर रहने लगी।
धन्य भारत ! तेरा जलवायु अद्भुत है, कोई कैसा ही क्रूर कुटिल प्रकृतिवाला तेरी गोद में क्यों न आवे, जहाँ पतित- पावनी भगवती जमुनंदिनी के जलबिदुओं का उसने प्राचमन किया और जहाँ त्रैले क्य-विभूति को तृण गिनने और ब्रह्मानंदा- मृत का पान करनेहार हिमशृगाश्रित ऋषियों के पादस्पर्शपूत- वायु उसके अंगों में लगी, तहाँ उसके मनोविकार, जन्म- क्षणमात्र में आ ही गया। "खल सुधरहि सतसंगति पाई-पारस परस कुधातु सुहाई” का न्याय होता ही है।
लोरक्क की संतानों की भी यही दशा हुई। भारतवर्ष के
जलवायु ने उन्हें यहाँ के पवित्र गुणों से अलंकृत कर दिया;
सदाचार, सद्व्यवहार, बंधुभाव, सुशोलता और सुजाता का
संचार उनके हृदय में हो गया। मुद्दानी गद्दा के एक वृद्ध
महाराज निस्संतान थे; उनके जीवनकाल की संध्या होने ही
को थी कि इतने में काशी के प्रसिद्ध गहिरवार-वंश-भूषण राजा
कर्य किसी कारण अपने पूर्वजों की राजगद्दो काशी छोड़
मुहानी आए। निस्संतान मुद्दानी राज्याधीश ने बड़े प्यार
से उनका सत्कार किया और उनको अपना पाहुना बनाया।
कुछ कालोपरांत दोनों में घनिष्ट प्रेम हो गया और मुरौनी-राज
महाराज कर्ण के गुणों से ऐसे मोहित हो गए कि अपना समस्त
राज आगंतुक को सौंप आप सुरपुर सिधारे। यही राजा कर्य
बुंदेलवंश के मूल पुरुष हैं। राजा कर्ण और उनके पुत्र अर्जुन-
पाल मुहानी में ही राज करते रहे और अपने राज्य का विस्तार
करते गए; परंतु अर्जुनपालजी के पुत्र राजा सहनपाल ने प्रबल
खंगार जाति को परास्त कर और उनकी राजधानी गढ़ कुंडार
को विजय कर मुहानी से राजधानी हटा गढ़ कूडार को अपनी
राजधानी बनाया। राजा सहनपाल, राजा सहजइंद्र, राजा
नौनिध, राजा पृथु, राजा सूर, राजा रामचंद्र, राजा मे देनीमल,
राजा अर्जुन, राजा राय अन्प, राजा मलखान, राजा प्रतापरुद्र
तक यहाँ राज्य करते रहे, परंतु महाराजा रणरुद्र ने गह कूडार
से राजधानी हटा एक सिद्वजी के आज्ञानुकूल वेत्रवती के तट
पर ओड़छा बपाया। यही ओड़छा नमार आज हमारा
आलोच्य विषय है।
पाठक महानुभावो ! आप पहले थोड़ा प्रकृति का वर्णन
सुन लीजिए और देखिए कि यहाँ वह किस रूप में विस्तृत है।
नगर के चतुर्दिक पर्वतों के छोटे छोटे शृंग फैले हुए हैं। इन पर
पलाश, खैर, बरगद, पीपल के वन के वन खड़े हैं। इन्हीं के
बीच बीच में कहीं शिवदिर, कहीं गिरे पड़े कोट, कहीं
तिद्वारी देखने में आती हैं। तु भी बहुतायत से इन वनों में
रहते हैं। पर्वतों के बीच बीच में बड़े बड़े नाले हैं जो जड़ी
बूटियों से भरे पड़े हैं। बबुई, दोनामरुमा और तुलसी के
पौधे समभूमि पर सहस्रों देख पड़ते हैं। निर्मल वेत्रवती पर्वत
को विदारकर बहती है और पत्थरों की चट्टानों से समभूमि
पर, जो पथरीली है, गिरती है, जिससे एक विशेष आनंददायक
वाद्यनाद मीलों से कर्णकुहर में प्रवेश करता है और जलकण
उड़ उड़कर मुक्ताहार की छबि दिखाते तथा रविकिरण के संयोग
से सैकड़ों इंद्रधनुष बनाते हैं। नदी की थाह में नाना रंग
के पत्थरों के छोटे छोटे टुकड़े पड़े रहते हैं, जिन पर वेग से
बहती हुई धारा नवरत्नों की चादर पर बहती हुई जलधारा की
छटा दिखाती है। नदी के उभय तटों पर उँची पथरीली
भूमि है। इसी पर पुराना नगर बसा था जिसके एंडहर
अद्यापि कई मील तक विस्तृत हैं। नदी के दोनों तटों पर
देवालयों की पाँते', कूप, बावली, राजाओं की समाधियों पर
के मंदिर दिखाई पड़ते हैं। जब वेवती ओड़छा के मध्य में
पहुँचती है तब वह दो धाराओं में विभक्त हो जाती है और
मील भर के लगभग लंबा एक अंडाकार टापू बीच में रह जाता
है। पाठक महानुभावो !आप इस टापू को भूल न जाइएगा।
आगे चलकर आप इस टापू पर फिर अावेंगे। नगर के चतुर्दिक्
पहाड़ी पत्थरों की टोलें चुन चुनकर कोट बनाया गया था और
उसमें बड़े बड़े ऊँचे फाटक छोड़ दिए गए थे। ये टोलें चूने से
जोड़ी नहीं गई हैं, केवल एक दूसरे पर चुन दी गई हैं। इनके
दोनों ओर सघन वृक्ष जम आए हैं जिनकी जोड़ों में फंसकर ये
ऐसी हो गई हैं कि हिलाए नहीं हिल सकतीं और इसी कारण
स्वाभाविक पर्वत-श्रेणी सी प्रतीत होती हैं। इस ऊजड़ दशा में
भी हमें यह स्थान रम्य जान पड़ता है, मानो मनुष्यों के अभाव
में स्वयं प्रकृति देवी वहाँ पथिकों का सत्कार करती हैं। इसी
रम्य भूमि पर महाराज रणरुद्रजी ने ओड़छा बसाया था ।
किसी कवि ने सत्य कहा है "गुण ना हिरानो गुण ग्राहक
हिरानो है " राजा गुणग्राहक चाहिए, फिर गुणियों की त्रुटि
कहाँ। राजा रणरुद्र की गुणग्राहकता से प्रान की आन में
सैकड़ों गुणी, पंडित, विद्वान, नीतिज्ञ, ओड़छे में आ बसे;सब
का राजदरबार से सत्कार होने लगा। महाराज रणरुद्र के
पश्चात् महाराज भारतचंद्र, और तब हरिचंद्र राजा हुए।
इन सपूतों ने अपने पूर्वजों के राज्य को और भी बढ़ाया।
कृतघ्न शेरशाह सूर ने पूर्व उपकारों को भूल महाराज हरिचंद्र
पर आक्रमण किया। परंतु अंत में वह कायर इनकी कृपाण
का लेख अपनी पीठ पर लिखा रक्तप्लावित और आहत हो
कायरों की भाँति रण से भाग गया। ओड़छे का चतुर्भुजजी
का विशाल मंदिर इन्हीं महाराज का कीर्तिस्तंभ है। यह
स्वर्णकलशमय मंदिर तीन शिखरों में है। एक तो पर्वत के
समान ऊँची बैठक पर यह मंदिर बनवाया गया है, दूसरे
मंदिर की उँचाई भी एक पहाड़ के समान ही है। इसका
विस्तृत सभामंडप वृदावन के गोविददेवजी के मंदिर से किसी
अंश में न्यून नहीं है। सभामंडप में वायु तथा उजाले के लिये
द्वार कटे हैं और एक छोर पर चतुर्भुजजी की मूर्ति स्थापित
है। सभामंडप के किसी द्वार पर खड़े हो जाइए, नगर के
उस ओर का सारा भाग हथेली पर की वस्तु की भाँति दृष्टि-
गोचर होगा। छत पर से तो समस्त नगर ही दिखाई पड़ता
है। यह मंदिर एक छोटे किले के समान है और ऐसा दृढ़
है कि कदाचित् तोपों की मार भी वह सरलता से सहन कर
सके। भूलभुलैयों की भाँति इसकी छत पर द्वार कटे हैं।
अपने ढंग का यह मंदिर ऐसा अनूठा है कि कदाचित् बुंदेलखंड
में कोई ऐसा दूसरा मंदिर न निकले । परंतु कुछ कारणों से
यह मंदिर अपूर्ण सा रहा और महाराज स्वर्गयात्रा कर गए।
राजसिहासन पर यशस्वी महाराज मधुकर साह आसीन हुए।
मुगलवंश का भाग्य इस समय पूर्णिमा के चंद्रमा के समान चम-
चमा रहा था। शुद्ध स्वार्थी लोभी जन दिल्लीश्वर की तुलना
"दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा" कहकर परमेश्वर से करने लगे
थे और अपनी कुटिल नीति से अकबर भारतवर्ष के हिंदू राजा
मात्र से अपना संबंध जोड़ उन्हें धोखा दे मुसलमान बनाने का
प्रबंध कर रहा था, कि इतने में महाराज मधुकर साह का
अर्कोदय हो उठा। उनकी विमल कीति मुगल-सम्राट् का
हृदय सालने लगी। उसके यश का खद्योत इनके यशार्क के
सम्मुख कांतिहीन सा हो गया और उसके यश की जर्जरित
नौका इनके अगम्य कीर्तिसागर में डूबती जान पड़ी। तब
दुराग्रही मुगल-सम्राट् ने ईर्षावश इन्हें भी राजपूताने के कुछ
राजपूतवंशों के समान अपनी दासत्व-श्रृंखला में बांधने के
नाना उपाय रचे, परंतु यहाँ तो "भूख मरै दिन सात लैौं सिंह
घास नहिं खाय” की दशा थी। अकबर ने सब प्रयोगों के
निष्फल होने पर अपने पुत्र मुराद को बलाध्यक्ष कर इन पर सेना
संधान किया । परंतु वह सेना महाराज के कृपाण के प्रज्वलित
दीपज्योति की पतंग हुई। मुराद रण से भाग गया, अंत में अक-
बर ने हार मानकर इनसे संधि कर लो। कवींद्र केशवदासजी
के पितामह कृष्णदत्तजी मिश्र, जो प्रख्यात प्रबोधचंद्रोदय नामक
रूपक के रचयिता हैं, इन्हों महाराज के राजपंडित थे।
इन महाराज का और अकबर का यहाँ तक घनिष्ठ संबंध
बढ़ता गया और अकबर इनका यहाँ तक कृपाकांक्षो रहा कि
उसने इनके पुत्र महाराज रत्नसेन के सिर पर अपने हाथ से
पगड़ो बाँधी और इनके ज्येष्ठ पुत्र महाराज रामशाह की सहा-
यता ले दक्षिण विजय किया। महाराज के स्वर्गवासी होने
पर वीरकेशरी महाराज वीरसिंहदेव राज्याधिकारी हुए ।
औदार्य, निश्छलता और शौर्य इन्हीं के भाग्य में आ पड़ा था।
अकबर के प्राचरणों से इन्हें स्वाभाविक घृणा थी। स्त्रियों
का बाजार लगवाकर वहाँ से महिलागणों को भटकवाकर
उनका धर्म-नाश करने और व्यर्थ राजपूत राजाओं को अपनी
बेटियाँ यवनों के घर ब्याहन के लिये सताने आदि की उसकी
कार्रवाइयाँ सुन सुन इनकी क्रोधाग्नि भड़क उठा करती थी।
ये ऐसा अवसर ढूँढ़ा ही करते थे कि अकबर किसी प्रकार
इनसे रण रोपे और यह अपने हाथ से उसका दर्प दमन करें।
होते होते ऐसा अवसर आ ही पड़ा। युवराज सलीम और
उसके पिता अकबर में परस्पर वैमनस्य रहा करता था, क्योंकि
अकबर तो अपने मंत्रियों के पैरों चलता था, विशेषतः अबुल
फज्ल के। अबुल फज्ल यह चाहा करता था कि अकबर के
पश्चात् किसी ऐसे को बादशाह बनावे जो उसके हाथ की
कठपुतली हो। सलीम अपने पैरों चलनेहारा था, इसी कारण
वह अबुल फज्ल को खटकता था। अबुल फज्ल फूट डालकर
अकबर को सलीम से लड़ाता रहता था। सलीम अपना
पक्ष पिता की दृष्टि में निर्बल पाकर किसी बड़े तथा बलवान
का आश्रय ढूँढ़ने लगा। अंत में उसकी दृष्टि में वीर महाराज
वीरसिंहदेव ही "निरबल को बल राम" दिखाई पड़े। सलोम
आकर महाराज का पाहुना हुआ और उसने अपना सब
वृत्तांत कहा। महाराज ने उसे सहायता देने का संकल्प
किया और जब गोलकुंडे से अबुल फज्ल लौटकर आगरे आ
रहा था, तब ग्वालियर के निकट प्रांतरी की घाटी में इन्होंने
उससे रण रोपा और अपने हाथ से अकबर के एकमात्र प्यारे
मंत्री का सिर काट सलीम के पास प्रयाग भेज दिया और
इस प्रकार अकबर को युद्ध के लिये उत्तेजित किया। परंतु
अकबर इतने पर भी इनके सम्मुख रण रोपने का साहस न
कर सका; रो रोकर अबुल फज्ल के शोक में अपना जीवन
घटाता रहा और अंत में अपने बुढ़ापे के दो वर्षों को काट मर
गया। ओड़छे का राज्य तथा बुंदेलकुल के भाग्य का भानु इस
समय पूर्ण उन्नति पर था। भारतवर्ष में उसकी प्रख्याति हो
रही थी। राजसभा सींगपूर्ण थी। महाराज वीरसिंहदेव
को महाराज इंद्रजीत से सहोदर मिले थे, जिनका चातुर्य
संसार भर में प्रगट था। महाराज को सावंत विक्रमसिंह,
अर्जुनसिंह ऐसे स्वामिभक्त कर्मचारी और रामचंद्रिका, कवि-
प्रिया, रसिकप्रिया, विज्ञानगीता ऐसे पंथों के रचयिता कवींद्र
केशवदास से कवि और प्रवीणराय, सत्यराय, रंगराय सदृश
काव्यकलासंपन्न, गान तथा वाद्य-विद्यापारंगत गायिकाएँ मिली
थों। प्रोड़छाधीश की जय देश-देशांतर में बोली जाती थी।
ऐसी उन्नति के दिनों में, पाठक महानुभाव, हम आपको
एक बार उस टापू पर, जो तुंगारण्य से आगे हम आपको
वेत्रवती की दो धाराओं के बीच में दिखा चुके हैं, फिर ले जाना
चाहते हैं। यह टापू रघुनाथजी के मंदिर के द्वार के सामने
ठीक सीध में पड़ता है। चतुर्भुजजी के मंदिर के सभामंडप
में खड़े हो जाइए,इस टापू की एक एक अंगुल भूमि दिखाई
पड़ेगी। जन-रव है कि एक बार महाराज वीरसिंहदेव चतु-
भुजजी के मंदिर का दर्शन कर सम्मुख के द्वार पर खड़े बेतवा
की तरंग-माला देख रहे थे, इतने में उनको अनायास एक
ग्रामीण युवती दिखाई पड़ी। यह युवती अपने सिर पर एक
डलिया लिए दूसरे तट से आ रही थी। ज्योंही नदी की एक
धार मँझियाकर टापू के तट पर पहुँचो, त्योंही वह प्रसव-
पीड़ा से विकल होकर सिर से डलिया उतार वहीं बैठ गई
और मूछित हो गई। थोड़ी देर पीछे वह फिर विकल होकर
रो उठो। दयालु वीरसिंहदेव यह कौतुक देख ही रहे थे।
उनको प्रगट हो गया कि वह नवलबाल प्रसव-पीड़ा से विकल
है। महाराज ने उसी समय राजमंदिर में जा परिचारिकाओं
को इसलिये भेजा कि वे उस निस्सहाय युवती की रक्षा करें।
परिचारिकाओं ने जाकर उसे सँभाला और वहीं उसके पुत्र का
जन्म हुआ। महाराज वीरसिंहदेव ने उसे तुरंत पाल की पर
बालक सहित उठवा मँगाया और बड़े प्रेम से उसकी रक्षा
और सेवा कराई। अंत में उसे उसके पति को सौंप दिया
और प्रस्थान के समय उसे बहुत सा धन, रत्न, वस्त्रादि दे अपनी
बेटी कह दिया । वह युवती ब्राह्मण वर्ण की थी। सती ब्राह्मणो
उनको बहुत आशीर्वचन कहती अपने पति के घर गई । राजा
के इस दयासंपन्न कार्य की ख्याति फैल गई। कहते हैं कि जब
महाराज उस ब्राह्मणी को प्रस्थान करा रहे थे, तब एक महात्मा
पाकर राजा के सम्मुख खड़े हो गए और बोले "राजन् ! तेरा
यह पुण्यकार्य तेरे सब पुण्यकार्यों से गुरुतर है, यह टापू सिद्धा-
श्रम है और तूने भी यहाँ पर महायज्ञ किया है। यदि तू यहाँ
पर अपना राजमंदिर तथा कोट बनवावेगा तो तेरा आतंक
वहाँ पर बैठ आज्ञा करने से दिन दूना रात चौगुना बढ़ता
जायगा।" सिद्धवचन सिर पर धर राजा ने उसी समय वहाँ
राजमंदिर प्रादि बनवाना प्रारंभ कर दिया। कहते हैं कि जब
किले के लिये टापू में नींव खोदी जा रही थी, तब एक मठ
भूमि के भीतर दिखाई पड़ा जब वह खोला गया तब एक
और सिद्धजी के दर्शन हुए, जिन्होंने यही आदेश किया कि
मेरा मठ ज्यों का त्यों ही बंद करके ऊपर से अपना कोट बना
लो। राजा ने वैसा ही किया और कुछ काल में काट बनकर
प्रस्तुत हो गया। महाराज के कोट के भीतर ही और बहुत
से कार्यालय बन गए और ओड़छा राजसभा के प्रवीण सभा-
सदों के सुयश की सुबास दूर दूर तक फैलने लगी। महाराज
और उनके सहोदर इस अपने सौभाग्य को परिपूर्ण देख फूले
नहीं समाते थे।"संसार परिवर्तनशील है ", महाराज को
यह बात भी भली भाँति ज्ञात थी कि मध्याह्न के पश्चात् साँझ
होती है। शरीरधारी एक न एक दिवस मृत्यु का ग्रास होता
ही है। कवींद्र केशवदासजी से महाराज ने स्पष्ट शब्दों में एक
बार कह ही डाला कि हमारी जीवन-संध्या होने का समय अब
निकट आ चला, इसका तो मुझे कुछ शोक नहीं है, परंतु जब
जब यह ध्यान आता है कि मृत्यु के प्रचंड बवंडर के झोंके से
उड़ बालू के कणों की भाँति यह मंडली भी तितर बितर हो
जायगी तब आँखों के सम्मुख अंधकार सा छा जाता है और
चित्त शोकाकुल हो उठता है, क्योंकि ऐसा समाज अब जन्मां-
तर में भी मिलना कठिन प्रतीत होता है। गुरुवर, क्या आपके
शास्त्र कुछ ऐसा उपाय है जिससे यह समाज अधिक काल
तक स्थिर रह सके ? कबोंद्र ने उत्तर दिया कि राजन् ! उपाय
तो अवश्य है परंतु बहुत दुःखप्रद है। समस्त सभा यदि एक
बार ही आत्मसमर्पण कर दे तो यह समाज प्रेतयोनि में एक
सहस्र वर्ष तक स्थित रह सकता है । राजा ने उपाय से सहमत
हो कृत्य का विधान पृछा । कवींद्र ने प्रेतयज्ञ का विधान कहा।
राजा ने यज्ञ के लिए प्राज्ञा दी। तुंगारण्य पर वेत्रवती-
तट के दक्षिण और प्रेतयज्ञ के लिये वेदी रची गई और वहीं
पर सब सभा प्रेतयज्ञ में आत्मसमर्पण कर भस्मीभूत हुई ।
मेरे अनुमान में यह ठौर महाराज वीरसिंहदेव के समाधि-
मंदिर के पास कहीं पर होगा। प्रेतयज्ञ हुआ तो तुंगारण्य
में ही; परंतु ठीक चिह्न अनिश्चित है।। महाराज के भस्मी-
भूत होते ही ओड़छे के भाग्य ने पुनः पलटा खाया । काल-
चक्र किसी और ही गति पर घूमने लगा और महात्मा सूर-
दासजी का वाक्य "सबै दिन जात न एक समान" यहाँ पर
- इसका सविस्तर वृत्तांत जानने के लिये प्रेतयज्ञ नामक नाटक देखिए।
+कोई कोई प्रेतयज्ञ का स्थान सिंहपौर के निकट बताते हैं। फिर चरितार्थ हुआ। जिस वीरकेशरी ने अकबर ऐसे प्रबल सम्राट का दर्प दमन किया था, उसके ही निर्बल पुत्र शाहजहाँ बादशाह के अधोन हो दिल्ली के दरबारे-आम के खंभों से टिककर विनीत भाव से खड़े रहने लगे। केशवदास, विक्रम- सिंह, अर्जुनसिंहादि अमात्यों के ठौर प्रतीतराय सदृश अमात्यों की प्रतीति होने लगी। विहारीलाल के समान कवि "जिन दिन देखे वे कुसुम गई सो बीति बहार । अब अल रही गुलाब की अपत कटीली डार' यह कह ओड़छा छोड़ने लगे। पाठक महाशयो ! विहारीलालजी के 'अपत कटीली डार" वाक्य से ही समझ लीजिए कि इतने ही स्वल्प काल में, अर्थात् पिता से पुत्र तक राज्य आने में, क्या अंतर पड़ गया। कवि अपने पिता केशवदासजी के समय के ओड़छे की उपमा गुलाब के लहलहे पुष्पमंडित प्रासाद से और अपने समय के ओड़छे की 'अपत कटीली डार' से देते हैं। एक और दोहे में वे स्वयं कह चुके हैं “यहि आशा अटक्यो रह्यो अलि गुलाब के मूल । हहैं बहुरि वसंत ऋतु इन डारन वे फूल"। ओड़छे की राजसभा ने यहाँ तक पलटा खाया कि जिस राजवंश के लोग बंधुप्रेम में एक दूसरे पर प्राण निछावर करने को प्रस्तुत रहते थे, उन्हीं की गद्दो के अधिकारी अपने सहोदरी को विष देने लगे राजकुमार हरदेवसिंहजी* को उनके बड़े भाई ने
- प्रकट हो कि विसूचिका के दिनों में इन्हीं हरदेव की पूजा दश-
देशांतर में रोगशांत्यर्थ होती है। अपनी पत्नी द्वारा विष दिलवाया; इस जघन्य कार्य पर राज- वश से सब संबंधी और सजातीय रुष्ट हो गए। इन्हीं वीरों पर राज के महत्त्व-मंदिर की नीव थी, वह उनकी उदासीनता से ऐसी पोली पड़ी कि राज्य धसकने लगा। संबंधी इधर उधर तितर बितर हो, अपने छोटे छोटे राज्य अलग बना बैठे, जिनमें से बहुत से अब तक बुंदेलखंड के अंतर्गत वर्तमान हैं। आड़छा धीरे धीरे उजड़ने लगा, फिर कोई विशेष ख्याति के कार्य ऐसे नहीं हुए जिनसे इतिहास के पत्र सुभूषित होते । पर ओड़छा राज्य बना रहा। ओड़छे के राजमंदिर में दीपक जलते रहे। थोड़े दिनों में राजधानी ओड़छे से उठाकर टीकमगढ़ में कर दी गई। ओड़छे के राजमंदिरों में ताले पड़ गए। जहाँ रात- दिन राजकर्मचारियों, राजकुमारों, सैनिकों, सेवकों और दास- दासियों के कोलाहल से "निज पराय कछु सुनिय न काना" का वाक्य सत्य होता था वहाँ अब चतुर्दिक निःस्तब्धता ही नि:स्तब्धता भीषण रूप में छाई है। धन्य है, कालदेव ! तुम्हारे विचित्र कौतुक हैं! शिवधनुष टालने का साहस तो भग- वान रामचंद्रजी ने कर लिया था, परंतु तुम्हारे चक्र को थामने की सामर्थ्य त्रैलोक्य में किसी को नहीं है। राजसभा टीकम- गढ़ में हो जाने से ओड़छा अब नितांत छविहीन हो गया है।
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