हिंदी निबंधमाला-१/बातचीत-श्रीयुत बालकृष्ण भट्ट
( ७ ) बातचीत
इसे तो सभी स्वीकार करेंगे कि अनेक प्रकार की शक्तियाँ जो वरदान की भाँति ईश्वर ने मनुष्यों को दी हैं उनमें वाक्शक्ति भी एक है। यदि मनुष्य की और और इंद्रियाँ अपनी अपनी शक्तियों से अविकल रहतीं और वाक्शक्ति उसमें न होती तो हम नहीं जानते कि इस गूँगी सृष्टि का क्या हाल होता। सब लोग लुंज-पुंज से हो मानों कोने में बैठा दिए गए होते और जो कुछ सुख-दुःख का अनुभव हम अपनी दूसरी दूसरी इंद्रियों के द्वारा करते उसे, अवाक् होने के कारण आपस में, एक दूसरे से कुछ न कह सुन सकते। इस वाक्शक्ति के अनेक फायदों में "स्पीच" वक्तृता और बातचीत दोनों हैं। किंतु स्पीच से बातचीत का कुछ ढंग ही निराला है। बातचीत में वक्ता को नाज नखरा जाहिर करने का मौका नहीं दिया जाता कि वह एक बड़े अंदाज से गिन गिनकर पाँव रखता हुआ पुलपिट पर जा खड़ा हो और पुण्याहवाचन या नांदीपाठ
की भाँति घड़ियों तक साहबान मजलिस, चेयरमैन, लेडीज एंड जेंटिलमेन की बहुत सी स्तुति कर कराय तब किसी तरह वक्तृता का आरंभ करे। जहाँ कोई मर्म या नोक की चुटीली बात वक्ता महाशय के मुख से निकली कि, तालि-ध्वनि से कमरा गूँज उठा। इसलिये वक्ता को खामखाह ढूँढ़कर कोई
ऐसा मौका अपनी वक्तृता में लाना ही पड़ता है जिसमें
करतल-ध्वनि अवश्य हो।
वही हमारी साधारण बातचीत का कुछ ऐसा घरेलू ढंग है कि उसमें न करतलध्वनि का कोई मौका है न लोगों को कहकहे उड़ाने की कोई बात उसमें रहती है। हम तुम दो आदमी प्रेमपूर्वक संलाप कर रहे हैं। कोई चुटीली बात श्रा गई हँस पड़े तो मुसकराहट ओठों का केवल फरक उठना ही इस हँसी की अंतिम सीमा है। स्पीच का उद्देश्य अपने सुननेवालों के मन में जोश और उत्साह पैदा कर देना है। घरेलू बातचीत मन रमाने का एक ढंग है। इसमें स्पीच की वह सब संजीदगी बेकदर हो धक्के खाती फिरती है।
जहाँ आदमी को अपनी जिंदगी मजेदार बनाने के लिये
खाने, पीने, चलने फिरने आदि की जरूरत है वहाँ बातचीत
की भी हमको अत्यंत आवश्यकता है। जो कुछ मवाद या
धुवाँ जमा रहता है वह बातचीत के जरिये भाफ बन बाहर
निकल पड़ता है। चित्त हलका और स्वच्छ हो परम आनंद
में मग्न हो जाता है। बातचीत का भी एक खास तरह का
मजा होता है। जिनको बातचीत करने की लत पड़ जाती है
वे इसके पीछे खाना-पीना भी छोड़ देते हैं। अपना बड़ा हर्ज
कर देना उन्हें पसंद आता है पर बातचीत का मजा नहीं
खोया चाहते । राबिन्सन क्रूसो का किस्सा बहुधा लोगों ने
पढ़ा होगा जिसे १६ वर्ष तक मनुष्य का मुख देखने को भी
नहीं मिला। कुत्ता, बिल्लो आदि जानवरों के बीच में रह
१६ वर्ष के उपरांत उसने फ्राइडे के मुख से एक बात सुनी।
यद्यपि इसने अपनी जंगली बोली में कहा था पर उस समय
राबिन्सन को ऐसा आनंद हुआ मानों इसने नए सिरे से
फिरके आदमी का चोला पाया। इससे सिद्ध होता है कि
मनुष्य की वाक्-शक्ति में कहाँ तक लुभा लेने की ताकत है।
जिनसे केवल पत्र-व्यवहार है, कभी एक बार भी साक्षात्कार
नहीं हुआ उन्हें अपने प्रेमी से कितनी लालसा बात करने की
रहती है। अपना आभ्यंतरिक भाव दूसरे को प्रकट करना
और उसका आशय आप ग्रहण कर लेना केवल शब्दों ही के
द्वारा हो सकता है। सच है-
"तामर्द सखुन गुफ़ा बाशद-एबो हुनरश निहुफ्ता बाशद"
"तावच शोभते मूखों यावत्किञ्चिन्न भाषते"
बेन जानसन का यह कहना, कि बोलने ही से मनुष्य के रूप का साक्षात्कार होता है, बहुत ही उचित बोध होता है।
इस बातचीत की सीमा दो से लेकर वहाँ तक रखी जा सकती है जितनों की जमात मीटिंग या सभा न समझ ली एडिसन का मत है कि असल बातचीत सिर्फ दो में हो सकती है, जिसका तात्पर्य यह हुआ कि जब दो आदमी होते हैं तभी अपना दिल दूसरे के सामने खोलते हैं। तीन हुए तब वह दो की बात कोसों दूर गई। कहा है-
"घट कर्यो भिद्यते मंत्र,
दोनों हिजाब में आय अपनी बातचीत से निरस्त हो बैठेंगे या उसे निपट मूर्ख और अज्ञानी समझ बनाने लगेंगे। इसी से
"द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन्"
लिखा है। जैसे गरम दूध और ठंढे पानी के दो बरतन पास साँट के रखे जायँ तो एक का असर दूसरे में पहुँचता है अर्थात् दूध ठंढा हो जाता है और पानी गरम, वैसे ही दो प्रादमी पास बैठे हों तो एक का गुप्त असर दूसरे पर पहुँच जाता है, चाहे एक दूसरे को देखे भी नहीं। तब बोलने की कौन कहे। पर एक का दूसरे पर असर होना शुरू हो जाता है। एक के शरीर की विद्युत् दूसरे में प्रवेश करने लगती है। जब पास बैठने का इतना असर होता है तब बातचीत में कितना अधिक असर होगा इसे कौन न स्वीकार करेगा। अस्तु, अब इस बात को तीन आदमियों के समय में देखना चाहिए । मानों एक से त्रिकोण सा बन जाता है। तीनों का चित्त मानो तीन कोण हैं और तीनों की मनोवृत्ति के प्रसरण की धारा मानों उस त्रिकोण की तीन रेखाएँ हैं । गुप- चुप असर तो उन तीनों में परस्पर होता ही है जो बात चीत तीनों में की गई वह मानों अँगूठी में नग सी जड़ जाती है उपरांत जब चार आदमी हुए तब बेतकल्लुफी को बिल्कुल स्थान नहीं रहता!, खुलके बाते न होगी। जो कुछ बात- चीत की जायगी वह “फार्मेलिटी", गौरव और संजीदगी के लच्छे में सनी हुई। चार से अधिक की बातचीत तो केवल रामरमौवल कहलावेगी। उसे हम संलाप नहीं कह सकते। इस बातचीत के अनेक भेद हैं । दो बुड्ढों की बातचीत प्रायः जमाने की शिकायत पर हुआ करती है बाबा आदम के समय का ऐसा दास्तान शुरू करते हैं जिनमें चार सच तो दस झूठ। एक बार उनकी बातचीत का घोड़ा छूट जाना चाहिए पहरों बीत जाने पर भी अंत न होगा। प्रायः अँगरेजी राज्य, परदेश और पुराने समय की बुरी से बुरी रीति-नीति का अनु- मोदन और इस समय के सब भाँति लायक नौजवानों की निंदा उनकी बातचीत का मुख्य प्रकरण होगा। पढ़े लिखे हुए तो शेक्स- पियर, मिलटन, मिल और स्पेंसर उनकी जीभ के आगे नाचा करेंगे। अपनी लियाकत के नशे में चूर चूर 'हमचुनी दीगरे- नेस्त'। अक्खड़ कुश्तीबाज हुए तो अपनी पहलवानी और अपने अक्खड़पन की चर्चा छेड़ेंगे। अशिकतन हुए तो अपनी अपनी प्रेमपात्री की प्रशंसा तथा अशिकतन बनने की हिमाकत की डोंग मारेंगे। दो ज्ञातयौवना हम-सहेलियों की बातचीत का कुछ जायका ही निराला है। इसका समुद्र मानों उमड़ा चला आ रहा । इसका पूरा स्वाद उन्हीं से पूछना चाहिए जिन्हें ऐसों की रससनी बातें सुनने को कभी भाग्य लड़ा है।
"प्रजल्पन्मत्पदे लग्नः कान्तः किं ? नहि नूपुरः।"
"वदन्ती जारवृत्तान्तं पत्यौ धूर्ता सखोधिया।
पतिं बुवा सखि ततः प्रबुद्धा स्मीत्यपूरयत् ॥"
बेटीवाली हुई तो अपनी बहुओं या बेटों का गिल्ला शिकवा
होगा या बिरादराने का कोई ऐसा रामरसरा छेड़ बैठेगो कि
बात करते करते अंत में खोढ़े दाँत निकाल लड़ने लगेंगी।
लड़कों की बातचीत खिलाड़ी हुए तो अपनी अपनी आवारगी
की तारीफ करने के बाद कोई ऐसी सलाह गाँठेंगे जिसमें
उनको अपनी शैतानी जाहिर करने का पूरा मौका मिले । स्कूल
के लड़कों की बातचीत का उद्देश्य अपने उस्ताद की शिकायत
या तारीफ या अपने सहपाठियों में किसी के गुन-ौगुन का
कथोपकथन होता है। पढ़ने में तेज हुआ तो कभी अपने
मुकाबले दूसरे को फौकोयत न देगा। सुस्त और बोदा हुआ
तो दबी बिल्ली का सा स्कूल भर को अपना गुरु ही मानेगा।
अलावा इसके बातचीत की और बहुत सी किस्में हैं।
काज की बात, व्यापार-संबंधी बातचीत, दो मित्रों में प्रेमालाप
इत्यादि । हमारे देश में नीच जाति के लोगों में बतकही होती
है। लड़की लड़केवाले की ओर से एक एक आदमी बिच-
वई होकर दोनों के विवाह-संबंध की कुछ बातचीत करते हैं।
उस दिन से बिरादरीवालों को जाहिर कर दिया जाता है कि
अमुक की लड़की का अमुक के लड़के के साथ विवाह पक्का
हो गया और यह रसम बड़े उत्सव के साथ की जाती है
एक चंडूखाने की बातचीत होती है, इत्यादि सब बात करने के
अनेक प्रकार और ढंग हैं।
यूरोप के लोगों में बात करने का हुनर है। "आर्ट आफ
कनवरसेशन" यहाँ तक बढ़ा है कि स्पीच और लेख दोनों इसे
नहीं पाते । इसकी पूर्ण शोभा काव्यकला-प्रवीण विद्वन्मंडली में
है। ऐसे ऐसे चतुराई के प्रसंग छेड़े जाते हैं कि जिन्हें सुन कान
को अत्यंत सुख मिलता है। सुहृद् गोष्ठो इसी का नाम है। सुहृद्-
गोष्ठी की बातचीत की यह तारीफ है कि बात करनेवालों की
लियाकत अथवा पांडित्य का अभिमान या कपट कहों एक बात
में न प्रकट हो वरन् जितने क्रम रसाभास पैदा करनेवाले सभी
को बरकते हुए चतुर सयाने अपनी बातचीत का अक्रम रखते हैं
वह हमारे आधुनिक शुष्क पंडितों की बातचीत में जिसे शास्त्रार्थ
कहते हैं कभी आवेगा ही नहीं। मुर्ग और बटेर की लड़ाइयों की
झपटाझपटी के समान जिनकी नीरस कांव काँव में सरस संलाप
का तो चर्चा ही चलाना व्यर्थ है, वरन् कपट और एक दूसरे
को अपने पांडित्य के प्रकाश से वाद में परास्त करने का संघर्ष
आदि रसाभास की सामग्रो वहाँ बहुतायत के साथ आपको
मिलेगी। घंटे भर तक काँव काँव करते रहेंगे तो कुछ न होगा।
बड़ी बड़ी कंपनी और कारखाने आदि बड़े से बड़े काम इसी
तरह पहले दो चार दिली दोस्तों की बातचीत ही से शुरू
किए गए। उपरांत बढ़ते बढ़ते यहाँ तक बढ़े कि हजारों
मनुष्यों की उससे जीविका और लाखों की साल में आमदनी
उसमें है। पचीस वर्ष के ऊपरवालों की बातचीत अवश्य
ही कुछ न कुछ सारगर्भित होगी, अनुभव और दूर देशो से
खाली न होगी और पचोस से नीचे की बातचीत में यद्यपि
अनुभव, दूरदर्शिता और गौरव नहीं पाया जाता पर इसमें एक
प्रकार का ऐसा दिल-बहलाव और ताजगी रहती है जिसकी
मिठास उससे दसगुना अधिक चढ़ी बढ़ी है। यहाँ तक
हमने बाहरी बातचीत का हाल लिखा जिसमें दूसरे फरीक के
होने की बहुत आवश्यकता है, बिना किसी दूसरे मनुष्य के
हुए जो किसी तरह संभव नहीं है और जो दो ही तरह पर
हो सकती है या तो कोई हमारे यहाँ कृपा करे या हमी जाकर
दूसरे को सर्फराज करें। पर यह सब तो दुनियादारी है
जिसमें कभी कभी रसाभास होते देर नहीं लगती, क्योंकि जो
महाशय अपने यहाँ पधारें उनकी पूरी दिलजोई न हो सकी तो
शिष्टाचार में त्रुटि हुई। अगर हमी उनके यहाँ गए तो पहले
तो बिना बुलाए जाना ही अनादर का मूल है और जाने पर
अपने मन माफिक बर्ताव न किया गया तो मानो एक दूसरे
प्रकार का नया घाव हुआ। इस लिये सबसे उत्तम प्रकार बात-
चीत करने का हम यही समझते हैं कि हम वह शक्ति अपने
में पैदा कर सकें कि अपने आप बात कर लिया करें। हमारी
भीतरी मनोवृत्ति जो प्रतिक्षण नए नए रंग दिखाया करती है
और जो वह प्रपंचात्मक संसार का एक बड़ा भारी आईना है,
जिसमें जैसी चाहो वैसी सूरत देख लेना, कुछ दुर्घट बात नहीं
है और जो एक ऐसा चमनिस्तान है जिसमें हर किस्म के बेल-
बूटे खिले हुए हैं । इस चमनिस्तान की सैर में क्या कम दिलबहलाव है ? मित्रों का प्रेमालाप कभी इसकी सोलहवीं कला
तक भी न पहुँच सका। इसी सैर का नाम ध्यान या मनोयोग
या चित्त को एकाग्र करना है जिसका साधन एक दो दिन का
काम नहीं, सालहासाल के अभ्यास के उपरांत यदि हम थोड़ा
भी अपनी मनोवृत्ति स्थिर कर अवाक हो अपने मन के साथ
बातचीत कर सकें तो मानों अति भाग्य । एक वाकशक्ति
मात्र के दमन से न जानिए कितने प्रकार का दमन हो गया ।
हमारी जिह्वा जो कतरनी के समान सदा स्वच्छंद चला करती
है उसे यदि हमने दबाकर काबू में कर लिया तो क्रोधादिक
बड़े बड़े अजेय शत्रुओं को बिना प्रयास जीत अपने वश कर
डाला। इसलिये अवाक रह अपने आप बातचीत करने का
यह साधन यावत् साधनों का मूल है, शांति का परमपूज्य
मंदिर है, परमार्थ का एकमात्र सोपान है ।
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