स्वदेश/भारतवर्ष का इतिहास

स्वदेश
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक महावीर प्रसाद गहमरी

बंबई: हिंदी रत्नाकर कार्यालय, पृष्ठ २९ से – ४२ तक

 
भारतवर्ष का इतिहास।

जकल भारतवर्ष का जो इतिहास पढ़ा जाता है––जिसे रटकर लड़के परीक्षा देते हैं––वह भारत को आधीरात के सन्नाटे में दिखाई दिये हुए बुरे सपने की कहानीमात्र है। न जाने कहाँ से कोन आये; लड़ाई-भिड़ाई, मारकाट का शोर मच गया; बाप-बेटे और भाई-भाई में राजगद्दी के लिये चोटें चलने लगी; एक दल जाता है तो दूसरा दल आता है; वह सिधारता है तो तीसरा पधारता है। पठान-मुगल-पोर्चुगीज-फरासीसी-अँगरेज, सब ने मिलकर उस दुःस्वप्न को उत्तरोत्तर जटिल बना डाला है।

किन्तु, इस प्रकार रक्तरक्षित चंचल स्वप्नका पर्दा डाल कर देख- नेसे भारत का यथार्थ रूप नहीं दिखाई दे सकता। इस पृथ्वीपर भारतवासियों का स्थान कहाँ है, इसका कुछ भी उत्तर ये इतिहास नहीं देते। इन्हें देखने से तो यही जान पड़ता है कि भारतवासी कहीं हैं ही नहीं; भारत में जो लोग खूनखराबी, मारकाट, लूटपाट कर गये हैं वे ही जो कुछ हैं सो हैं।

मगर क्या उस दुर्दिन में उस मारकाट और खूनखराबी के सिवा और कुछ था ही नहीं? ऐसा नहीं हो सकता। आँधी के समय आँधी ही उस समय की प्रधान घटना है––यह बात आँधी के लाख लाख गरजने पर भी नहीं मानी जा सकती। उस दिन–उस आँधी–पानी के दोनभी उस धूलिधूसरित आकाश के तले घर घर जन्म-मृत्यु और सुख दुख का काम जारी था। वह काम आँधी के मारे चाहे देख न पड़े, पर हमारे लिए वही जानने की चीज है; हमें इस समय उसी के जानने की जरूरत है। किन्तु हमारे लिए वही प्रधान ज्ञेय होने पर भी, विदेशी के लिए वह आँधी ही प्रधान है। उस आँधी की धूल उसकी आँखों में ऐसी भर गई है कि वह और कुछ देख ही नहीं सकता। इसका कारण यही है कि वह हमारे घर के बाहर है। इसीसे हम विदेशी लेखकों के लिखे भारत के इतिहास में उसी धूल उसी आँधी का वर्णन पाते हैं; अपने घर का हाल कुछ नहीं पाते। वह इतिहास पढ़ने से जान पड़ता है कि उस समय भारतवर्ष था ही नहीं; केवल मुगल-पठानों के गर्जन पूर्ण बबण्डर, सूखे पत्तों के सदृश, झण्डे उड़ाकर उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूर्व तक घूम रहे थे।

किन्तु असल बात तो यह है कि उस समय भी हमारा देश था। यदि नहीं था, तो इस उपद्रव-उत्पात के समय में भी, रणजीतसिंह शिवाजी, राणा प्रतापसिंह, कबीर, नानक, चैतन्यदेव, तुकाराम, रामदास, आदि कहाँ पैदा हुए? तुलसी, सूर, भूषण आदि कवियों ने कहाँ जन्म लिया? उस समय दिल्ली और आगरा ही न था; काशी, नवद्वीप, पंजाब, राजपूताना और महाराष्ट्र–प्रान्त भी था। इन सपूतों ने जिस समय जन्म लिया उस समय हमारे घरमें––असली भारतवर्ष में वेगसे जीवनस्रोत बह रहा था। उस समय हमारे घर में जो चेष्टा की लहरें उठ रही थीं, जो सामाजिक परिवर्तन हो रहे थे, उनका ब्यौरा विदेशियों के लिखे इतिहास में कहीं नहीं मिलता।

यह सब होने पर भी, पाठ्यपुस्तकों से बहिर्भूत उसी भारत के साथ हमारा चिर-सम्बन्ध है और वह सम्बन्ध स्वाभाविक होने के कारण सहज में टूटने लायक नहीं। इसी से जब उस सम्बन्ध का बहु-वर्ष-व्यापी ऐतिहासिक सूत्र, हमको पढ़ने के लिये समय नहीं मिलता तब हमारा हृदय निरवलम्ब हो जाता है, और, डूबते हुए मनुष्य की तरह, जिस वस्तु को सामने पाता है उसी को पकड़ने दौड़ता है। हम लोग भारतवर्ष के घास फूस नहीं हैं; सैकड़ों शताब्दियों से, हमारी जड़की हजारों शाखायें भारतवर्ष के मर्मस्थान पर अधिकार जमाये बैठी हैं। किन्तु हमारे, अभाग्यसे, हमें जो इतिहास पढ़ना पड़ता है वह ठीक इससे उलटा सबक देता है। हमारे लड़के भारत के साथ अपने ऐसे सम्बन्ध की बात जानने ही नहीं पाते। उन्हें जान पड़ता है कि भारत के वे कोई हैं ही नहीं; अन्य देशों से आये हुए ही सब कुछ हैं।

जब अपने देश के साथ हम अपने सम्बन्ध को ऐसा हीन समझ लेते हैं तब देश पर ममता या अनुराग कहाँ से हो? इस दशा में स्वदेश के स्थान पर विदेश को स्थापित करने में हमको कुछ भी सङ्कोच नहीं होता। भारतवर्ष की बेइज्जती देखकर हमको मर्मवेदना और लज्जाका अनुभव ही नहीं हो सकता। हमारे अँगरेज़ी पढ़े लिखे नौजवान अनायास कह उठते हैं कि हमारे देशमें पहले था ही क्या? हमको तो खानपान, चालढाल, रहनसहन, सब कुछ विदेशियों से सीखना ही होता।

भाग्यशाली देशों के निवासी लोग देश के इतिहास में ही अपने चिरकालीन देश को पाते हैं––बाल्यावस्था में इतिहास ही उनके देश के साथ उनका धनिष्ट परिचय करा देता है। किन्तु, हमारे यहाँ ठीक इससे उलटा है। देश के इतिहास ने ही हमारे देश को छिपा रक्खा है। महमूद के आक्रमण से लेकर लार्ड कर्जन के साम्राज्य-गर्व से भरे हुए उद्गार निकलने तक जो कुछ भारत का इतिहास लिखा गया है वह हमारे लिए विचित्र-अन्धकारमय कुहा सा है। वह, अपने देश को देखने में हमारी दृष्टिकी सहायता नहीं करता; बल्कि स्वभावतः जो कुछ हम देख सकते हैं उसमें भी रुकावट डालता है। वह ऐसी जगह पर अपना बनावटी प्रकाश डालता है जहाँ से हमारा देश हमें अन्धकारमय जान पड़ता है। उस अन्धकार में, मैजिक लालटेन के तमाशे की तरह, नबाबों की बिलास-शाला के झाड़ फानूसों का प्रकाश प्रकट होता है; और उस प्रकाश में नबाबों की बेगमों और रखैल रण्डियों के जवाहरात-जड़े जेवर जगमगा उठते हैं; बादशाहों के शराब के प्याले, जागने से लाल हुए साक्षात् उन्मत्तता के लाल नेत्रों की तरह, दिखलाई देते हैं। उस अन्धकार में हमारे सारे प्राचीन देव-मन्दिर सिर झुका लेते हैं और बादशाहों की प्रणयिनियों के श्वेत-संगमरमर-विरचित, वैभव-पूर्ण, समाधि-मन्दिरों की चोटियाँ आकाश चूमने के लिए उद्यत हो उठती हैं। उस अन्धकार में घोड़ों के टापों की ध्वनि, हाथियों की चिंग्धार, हथियारों की झनझनाहट, दूरतक फैली हुई छावनियों में लहराने वाला सैना का कोलाहल, कमखाब के बिछौनों की सुनहली छटा, मसजिदों की फेननिम कलसियों और पहरेदारों से सुरक्षित महलों के अन्तःपुर में रहस्य निकेतन या रङ्गभवन का सन्नाटा––ये सब बातें विचित्र शब्द, वर्ण और भाव के द्वारा जिस बड़े भारी इन्द्रजाल की रचना करती हैं उसे भारतवर्ष का इतिहास कहने से क्या लाभ? इस इन्द्रजालमय उपन्यास ने भारतवर्ष की पुण्य-मन्त्रमय पुस्तक को विचित्र अलिफलैलाकी कहानियोंसे लपेट रक्खा है। इस समय उस पुण्य-मन्त्रमय पुस्तक को कोई नहीं खोलता शिक्षार्थी बालक उसी अलिफलैला के किस्से को कण्ठस्थ कर लेते हैं।

इसके बाद प्रलय-रात्रि में, जब मुगल-साम्राज्य रण-शय्या पर पड़ा सिसक रहा था, श्मशान-भूमिमें दूरसे आये हुए गिद्धों में परस्पर चातुरी और प्रवञ्चनाकी चोटें चलने लगीं। उनका वर्णन भी भारत का इतिहास नहीं माना जा सकता। इसके बाद अँगरेजों का शासन शुरू होता है। वह पाँच पाँच वर्ष के हरएक लाटके शासन में बँटा हुआ शतरंज के समान विचित्र है। शतरंज में और उसमें अन्तर केवल इतना ही है कि शतरंज के खाने आधे काले और आधे सफेद होते हैं, पर इसमें सोलहों आने सफेद रंग है। उसमें हमारे शिक्षित बन्धु अपने पेटका अन्न औरों को देकर उसके बदले में सुशासन, सुविचार, सुशिक्षा आदि सब कुछ एक बड़े भारी 'ह्वाइट-वे-लेडला' कम्पनी के कारखाने से खरीद रहे हैं। शेष सभी दूकानें और बाजार बन्द हैं। इस कारखाने की सभी चीजें 'सु' हो सकती हैं; परन्तु इसके द्वारा प्रकाशित और प्रचारित भारतवर्ष का इतिहास हमारे किसी काम का नहीं।

सब देशों के इतिहास एक ही ढँग के होने चाहिए––यह कुसंस्कार है। इस कुसंस्कार को छोड़े बिना काम नहीं चल सकता। जो आदमी 'रथचाइल्ड' का जीवनचरित पढ़ चुका है वह ईसा की जीवनी पढ़ते समय ईसा के हिसाब-किताब का खाता और आफिस की डायरी तलब कर सकता है; और यदि ईसा की जीवनी में उनके हिसाब-किताब का खाता तथा डायरी वह न पावेगा तो उसे ईसा के प्रति अश्रद्धा होगी। वह कहेगा कि जिसके पास एक पैसे का भी सुभीता न था उसकी जीवनी कैसी? ठीक इसी तरह, भारतवर्ष के राष्ट्रीय दफ्तर से उसके राजाओं की वंशमाला और जय-पराजय के कागज-पत्र न पाकर जो लोग निराश हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि "जहाँ राजनीति नहीं वहाँ इतिहास का क्या जिक्र?" वे सचमुच ही धान के खेत में बैंगन ढूँढने जाते हैं और यहाँ बैंगन न पाकर धान की गिनती अन्न में ही नहीं करते। सब खेतों में एक ही चीज नहीं होती, यह समझकर जो लोग स्थान के अनुसार उपयुक्त खेत से उपयुक्त अन्नकी आशा करते हैं वे ही समझदार समझे जाते हैं।

ईसाकी जीवनी में हिसाब का बहीखाता तलब करने से उस विषय में उनके प्रति अश्रद्धा हो सकती है, किन्तु उनके चरित्र के अन्य अंशों पर दृष्टि डालने से हिसाब का बहीखाता भूल जाता है। इसी तरह राष्ट्रीय मामलों में भारतवर्ष को औरों से हीन समझ लेने पर भी अन्य ओर दृष्टि डालने से वह हीनता जरा भी नहीं खटकती। उसी ओर से––अर्थात् अपने घर की ओर से भारतवर्ष को न देखकर, हम लोग लड़कपन से ही उसे छोटा समझते हैं और आप भी छोटे बनते हैं। अँगरेज का बच्चा जानता है कि उसके बापदादाओं ने अनेक युद्धों में जय-लक्ष्मी प्राप्त की है; अनेक देशों पर कब्जा करके वहाँ अपने देश का बनिज-व्यापार फैलाया है, इसीसे वह भी अपने को रणगौरव, धनगौरव और राज्यगौरव के योग्य बनाना चाहता है। और हम क्या जानते हैं? हम जानते हैं कि हमारे बाप-दादे बिलकुल ही असभ्य, कायर और मूर्ख थे; उन्होंने न कभी किसी युद्ध में विजय-वैजयन्ती उड़ाई, न किसी देश पर अधिकार जमाया और न अपने देशकी उन्नति ही की। हमको यही जताने के लिए शायद यह भारत का इतिहास है। हमारे बापदादाओं ने क्या किया, सो तो हम कुछ भी नहीं जानते। फिर अब हम क्या करें? बस, औरों की नकल!

हम इसके लिए दोष किसे दें? लड़कपन से हम जिस ढँग की शिक्षा पाते हैं उससे, शिक्षा के पहले ही दिन से, देश के साथ जो हमारा हार्दिक सम्बन्ध है वह विच्छिन होता चला जाता है। परिणाम यह होता है कि धीरे धीरे हम देश के विरोधी और विद्रोही बनते चले जाते हैं। हमारे देश के सुशिक्षित कहलानेवाले उपाधिधारी लोग भी नासमझों की तरह, दूसरों के स्वर में स्वर मिलाकर, बारबार कह उठते हैं कि देश तुम किसे कहते हो? हमारे देश में यह 'स्वदेश' की विशेषता का थी, और इस समय भी कहाँ है?

इस प्रकार के प्रश्नोंका उत्तर देना सहज नहीं। इसका कारण यही है कि यह बात इतनी सूक्ष्म और इतनी बड़ी है कि केवल युक्ति और अल्प तर्क से समझी या समझाई नहीं जा सकती। चाहे अँगरेज हों और चाहे फरासीसी, किसी भी देश के आदमी इन प्रश्नों का उत्तर दो-चार बातों में नहीं दे सकते। वे नहीं बता सकते कि उनका देशी भाव क्या है, और उनके देश का मूल मर्मस्थान कहाँ है? ये बातें देह-स्थित प्राण की तरह प्रत्यक्ष सत्य हैं; तथापि प्राण की तरह संज्ञा और धारणा से परे हैं। यह देशी भाव, एक प्रश्न के उत्तर में दो चार बातें सुन लेने से समझ में नहीं आ सकता। भारत में लेक्चर सुनकर ही कोई देशी भाव को नहीं ग्रहण करता था। वह तो बचपन ही से हमारे ज्ञान के भीतर हमारे प्रेम के भीतर, हमारी कल्पना के भीतर अनेक अलक्ष्य मार्गों से अनेक आकार धारण करके प्रवेश करता था। इस देशी भाव का नियम ही यह है कि वह इसी तरह ज्ञान, प्रेम और कल्पना में प्रवेश करके अपनी विचित्र जादू-भरी शक्ति से, चुपचाप छिपे-छिपे हृदयका संगठन करता है––अतीत के साथ वर्तमान का विच्छेद नहीं होने देता। इसी की कृपा से हम अब भी बड़े हैं-हम अब भी मरे नहीं जीवित हैं। इस विचित्र उद्यममयी गुप्त पुरातन शक्ति को हम संशयपूर्ण जिज्ञासु के आगे किसी संज्ञा के द्वारा, या दो-चार बातों से, किस तरह जाहिर कर सकते हैं?

भारतवर्ष की प्रधान सार्थकता या देशीभाव क्या है?––इस प्रश्न का जो स्पष्ट उत्तर हो सकता है उसका समर्थन भारतवर्ष का सच्चा इतिहास ही करेगा। भारत की सदा से यही चेष्टा देखी जाती है कि वह अनेकता में एकता स्थापित करना चाहता है; वह अनेक मार्गो को एक ही लक्ष्य की ओर अभिमुख करना चाहता है; वह बहुत के बीच किसी एक को निस्संशय–रूप से––अन्तरतर–रूप से––उपलब्ध करना चाहता है। उसका सिद्धान्त या उद्देश्य यह है कि बाहर जो विभिन्नता देख पड़ती है उसे नष्ट न करके, उसके भीतर जो निगूढ़ संयोग देख पड़ता है उसे प्राप्त करना चाहिए।

एक को प्रत्यक्ष करने या ऐक्य-विस्तार करने की यह चेष्टा भारत के लिए अत्यन्त स्वाभाविक और अन्य लोगों की अपेक्षा सहज भी है। भारत से इसी स्वभाव ने उसे सदा से, राष्ट्रगौरव की ओर से उदासीन बना रक्खा है। राष्ट्र-गौरव की जड़ है विरोध का भाव। जो लोग गैर को गैर ही नहीं समझ सकते, अथवा यों कहिए कि गैर के प्रति सहानुभूति-शून्य ही नहीं हो सकते, वे राष्ट्रगौरव की प्राप्ति को अपने जीवन का चरम लक्ष्य कभी नहीं मान सकते। दूसरे के विरुद्ध अपने को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा ही राजनैतिक उन्नति की नीव है। इसी तरह दूसरे के साथ अपने सम्बन्ध-बन्धन तथा अपने भीतर के विचित्र विभागों और विरोधों में सामञ्जस्य स्थापन की चेष्टा ही धर्मनीतिसम्बन्धिनी और समाज-सम्बधिनी उन्नति की नीव है। लोग यूरप के ऐक्यकी प्रशंसा करते हैं; पर वे नहीं जानते कि यूरप की सभ्यता ने जिस एकेको पसन्द किया है वह विरोध-मूलक है, और भारत वर्ष की सभ्यता ने जिस एकेको पसन्द किया है वह मिलन-मूलक है। यूरप के राजनैतिक एकेके भीतर विरोध की फाँस मौजूद है। वह फाँस यूरप को दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर सकती है, किन्तु उसके भीतर सामञ्जस्य नहीं स्थापित कर सकती। बोट-भिखारिणी रमणियों के उपद्रव और आयरलैंड को मिलनेवाले स्वराज्य के विरुद्ध होनेवाली घटनाओं पर विचारपूर्वक ध्यान देने से यह बात अच्छी तरह समझ में आ सकती है। राजनैतिक एकेके भीतर विरोध वर्तमान रहने के कारण राजनीति-शास्त्र के प्रेमी यूरप में व्यक्ति–व्यक्ति में, राजा–प्रजा में, धनी–निर्धन में विच्छेद और विरोध का भाव प्रबल रूप से बना रहता है। यह समझना सरासर भूल है कि उन सबने मिलकर अपने अपने निर्दिष्ट अधिकार के द्वारा सारे समाज को संयत कर रक्खा है। वे सब एक दूसरे के प्रतिकूल आचरण करने में जरा भी सङ्कोच नहीं करते। वहाँ हर एक पक्ष या दल की हर घड़ी यही चेष्टा रहती है कि दूसरे पक्ष या दल का बल किसी तरह बढ़ न जाय।

किन्तु, जहाँ सब मिलकर आपस में धक्कमधक्का करते हैं वहाँ बलका सामञ्जस्य हो ही नहीं सकता। धीरे धीरे योग्यता की अपेक्षा जनसंख्या का महत्व अवश्य बढ़ जाता है। तब गुण की अपेक्षा उद्यम को श्रेष्ठता मिलती है और व्यापारी सौदागरों की सम्पत्ति या रुपया गृहस्थों के धनभाण्डार को अपनी ओर खींचने लगता है। इस प्रकार समाज का सामञ्जस्य नष्ट हो जाता है। तब समाज के उन सब विसदृश विरोधी अङ्गों, पक्षों या दलों को, किसी तरह जोड़तोड़ लगाकर, खड़े रखने के लिए गवर्नमेंट कानून पर कानून बनाती रहती है। यह परिणाम राजनीति प्रेम का अवश्यंभावी फल है। कुछ दिनों से यहाँ भी यूरप की देखा देखी राजनीति प्रेम बढ़ जाने के कारण, हिन्दू-मुसलमानों के लाख मेल चाहने पर भी, उनमें परस्पर विरोध ही बढ़ता जाता है। कारण यही है कि विरोध जिसका बीज है और विरोध ही जिसकी खाद है उसका फल भी, विरोध के सिवा, मेल कभी नहीं हो सकता। इस राजनीति-प्रेम के बीच में जो परिपुष्ट पल्लवित व्यापार देख पड़ता है वह इसी विरोध-फलका बलवान् वृक्ष हैं। मगर,भारत ने विसदृश को भी सम्बन्ध के बन्धन में बाँधने की-अपने में संयुक्त करने की––चेष्टा की है। सभी एक हो जायँ, ऐसा एक कानून जारी कर देने से सब एक नहीं हो सकते। जो एक होने वाले नहीं, उनमें सम्बन्ध स्थापित करने का एकमात्र उपाय यही है कि उनको उनके भिन्नभिन्न अधिकारों में अलग अलग स्थापित कर दिया जाय। जो अलग ही है उसे बलपूर्वक एक बनाने से कभी न कभी वह अवश्य ही विच्छिन्न हो जाता है। उस विच्छेद के समय बड़ा अनर्थ––घोर अनिष्ट––हो जाया करता है। हमारा भारत, मिलाने अर्थात् एक करने के इस नियम या रहस्य को अच्छी तरह जानता था। फरासीसी विद्रोह ने बाहुबल से रक्तपात के द्वारा मनुष्यों के सारे अलगाव या विसदृशता को दूर कर देने की चेष्टा की थी; पर फल उलटा ही हुआ। यूरोप में राजशक्ति और प्रजाशक्ति, धनशक्ति और जनशक्ति, क्रमशः प्रबलरूप से एक दूसरे के विरुद्ध होती जारही है। भारत का लक्ष्य था, सबको एक सूत्र में बाँधना। इसका उपाय भी उसने निराला ही निकाला था। भारत ने समाज की परस्पर प्रतियोगिनी या विरोधिनी सारी शक्तियों को सीमाबद्ध और विभक्त करके समाजकलेवर को अखण्ड, अत-एव सर्वशक्तिमान्, बना दिया था। उसने अपने अधिकार का क्रमशः उल्लंघन करने की चेष्टा करके विरोध-विशृंखला उपस्थित करने का अवसर ही नहीं दिया। उसने परस्पर की प्रतियोगिता (चढ़ाऊपरी) के मार्ग में ही समाज की सारी शक्तियों को एकत्र करके और उन्हें लड़ाभिड़ाकर धर्म, कर्म गृहस्थाश्राम को आवर्तित, आन्दोलित, कलुषित और उद्भान्त बना देने की स्वतन्त्रता कभी किसी को नहीं दी। ऐक्य-निर्णय, मिलन-साधन और शान्ति तथा स्थिति के भीतर ही परिपूर्ण परिणति (उन्नति) और मुक्ति का अवकाश प्राप्त करना ही भारतवर्ष का लक्ष्य था। विधाता भारत वर्ष में विविध प्रकार की विभिन्न और विचित्र जातियों को खींच लाया है। इससे कोई हानि नहीं। भारतवर्ष की आर्य जाति ने गैर को भी अपना बना लेने की शक्ति पाई है। उस शक्ति की चर्चा और प्रयोग करने का अवसर भी उसे प्राचीन काल से ही प्राप्त है। ऐक्य-मूलक सभ्यता को मनुष्य जाति की चरम सभ्यता कहना चाहिए। उसकी नीव, विचित्र उपकरणों द्वारा, चिर काल से, भारतवर्ष ही डालता आया है। गैर कहकर उसने किसी को अपने से दूर नहीं किया; अनार्य कहकर उसने किसी को अपने घर से बाहर नहीं निकाला; असंगत कहकर उसने किसी की हँसी नहीं उड़ाई। भारत ने सबको ग्रहण कर लिया––सब कुछ स्वीकार कर लिया। इतना ग्रहण करके भी भारतवर्ष यह नहीं भूला कि आत्मरक्षा के लिए, इस समूह के भीतर, हर एकको अपना अधिकार, अपनी व्यवस्था, अपनी शृंखला स्थापित करने की आवश्यकता है। लडाई के मैदान में पशु जैसे छोड़ दिये जाते हैं उसी तरह इन सबको, एकको दूसरे के ऊपर, छोड़ देने से काम नहीं चल सकता। उसने अच्छी तरह समझ लिया कि इनको नियम-निर्माण द्वारा अलग अलग रखकर एक ही मूल-भाव में बाँध रखना––मिला रखना––आवश्यक है। सामग्री चाहे जहाँ की हो, यह शृंखला––यह व्यवस्था भारतवर्ष की ही है।

यूरप, गैर को दूर करके––उत्सन्न करके––अपने समाज को निरापद रखना चाहता है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और केप-कलोनी में आज तक हम इसी का परिचय पा रहे हैं। यूरप की इस लालसा का कारण भी है। कारण यही है कि उसके निज के समाज में एक सुविहित शृंखला का भाव नहीं है। वह अपने ही भिन्न भिन्न सम्प्रदायों को समाज में यथोचित स्थान नहीं दे सकता। उसके समाज के जो अङ्ग हैं उनमें से अनेक ऐसे हैं जो समाज के लिए भार हो रहे हैं। ऐसी अवस्था में वह बाहर के लोगों को अपने समाज में किस जगह स्थान दे सकता है? जहाँ घर के ही लोग हिस्से-बाँट के लिए उपद्रव मचा रहे हैं वहाँ बाहर के आदमी को कहाँ जगह मिल सकती है? जिस समाज में शृंखला है, ऐक्यका विधान है, सबके लिए अलग अलग स्थान और अधिकार है, वही समाज सहज में दूसरे को अपना बना सकता है। या तो दूसरे को मार काट कर, भगाकर, अपने समाज और सभ्यता की रक्षा की जा सकती है, और या दूसरे को अपने नियमों से संयत बनाकर सुविहित शृंखला में उसके लिए स्थान देकर। यूरोप ने इनमें से पहली प्रणाली पसंद करके सारे संसार के साथ विरोध का द्वार खोल रक्खा है। परन्तु भारतवर्ष ने दूसरा ढँग पसंद करके क्रमशः धीरे धीरे सबको अपना कर लेने की चेष्टा की है। यदि शान्ति-धर्म पर श्रद्धा हो, यदि धर्म ही मानुषी सभ्यता का चरम आदर्श माना जाय, तो भारत ही का ढँग श्रेष्ठ और अच्छा कहा जा सकता है।

पराये को अपना कर लेने में प्रतिभा की जरूरत हुआ करती है। विख्यात कवि शेक्सपियर ने कहाँ से क्या लिया, इसका अनुसन्धान करने बैठिए तो अनेक भाण्डारों में उसके प्रवेश का अधिकार आविकृत हो सकता है। फिर उसकी इतनी प्रशंसा क्यों है प्रशंसा का कारण यह है कि उसमें पराये को अपना बना लेने की शक्ति थी। इस शक्ति से ही वह इतना ले भी सका। अन्यके भीतर प्रवेश करने की शक्ति और अन्य को सम्पूर्ण रूप से अपना बना लेने की करामात ही प्रतिभा का सर्वस्व-प्रतिभा की खूबी है। भारतवर्ष में हम वही प्रतिभा विद्यमान पाते हैं। भारत ने बिना संकोच के अन्य के भीतर प्रवेश किया है और अनायास ही अन्य की सामग्री को अपने ढँग पर अपना लिया है। विदेशी लोग जिसे मूर्ति-पूजा या बुतपरस्ती कहते हैं उसे देख- कर भारतवर्ष डरा नहीं; उसने उसे देखकर नाक-भौं नहीं; सिकोड़ी भारतवर्ष ने पुलिन्द, शबर, व्याध आदि से भी बीभत्स सामग्री ग्रहण करके उसे शिव (कल्याण) बना लिया है––उसमें अपना भाव स्थापित कर दिया है––उसके भीतर भी अपनी आध्यात्मिकता को अभिव्यक्त कर दिखाया है। भारत ने कुछ भी नहीं छोडा; सबको ग्रहण करके, अपना बना लिया है।

भारत का यह ऐक्यविस्तार और शृंखला-स्थापन केवल समाज की व्यवस्था ही में नहीं, धर्म नीति में भी देखा जाता है। गीता में ज्ञान, प्रेम और कर्म के बीच सामञ्जस्य स्थापित करने की जो चेष्टा देख पड़ती है वह भी विशेष रूप से भारतवर्ष ही की है। यूरोप में 'रेलिजन' नाम से जो शब्द प्रसिद्ध है उसका ठीक ठीक अनुवाद भारत की किसी भी भाषा में नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि भारत ने धर्म से मन का सम्बन्ध कभी टूटने नहीं दिया। हमारे बुद्धि-विश्वास आचरण हमारे इंद्रलोक और परलोक सबमें 'धर्म' का धागा पिरोया हुआ है। जैसे हाथ का जीवन, पैर का जीवन, मस्तक का जीवन, पेट का जीवन, अलग अलग नहीं, वैसे ही विश्वास का धर्म, आचरण का धर्म, रविवार का धर्म, अन्य छः दिनों का धर्म, गिरजे का धर्म और घर का धर्म अलग अलग नहीं हो सकता है भारत ने नित्य और नैमित्तिक धर्म मानकर भी उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं माना। भारत का जो धर्म है वह उसके सारे समाज का धर्म है। उसका मूल पृथ्वी के नीचे है और सिर आकाश के भीतर। भारत ने उसके सिर और पैरों को अलग अलग नहीं देखा। भारत ने धर्म को धुलोक-भूलोक-व्यापी, मनुष्य के सारे जीवन में व्याप्त, एक बड़े भारी वनस्पति के रूप में देखा है। भारत के सच्चे इतिहास से यही सिद्ध होगा कि पृथ्वी के सारे सभ्यस समाजों में भारतवर्ष ही 'अनेक को एक करने' का आदर्श बनकर विराजमान है। भारत ने अनेक प्रकार की बाधा-विपत्ति और दुर्गति-सुगति में, विश्व में और अपनी आत्मा में, 'एक' का अनुभव करके उस एक को अनेक (विचित्रताओं) में स्थापित किया है––ज्ञान के द्वारा उसका आविष्कार करके, कर्म के द्वारा उसकी प्रतिष्ठा, प्रेम के द्वारा उसकी उपलब्धि और जीवन के द्वारा उसका प्रचार किया है। हम, अपने सच्चे इतिहास में ध्यान लगाकर, जब भारत में इस सनातन भाव का अनुभव करेंगे तभी 'अतीत' के साथ 'वर्तमान' का विच्छेद मिट जायगा।