स्वदेश
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक महावीर प्रसाद गहमरी

बंबई: हिंदी रत्नाकर कार्यालय, पृष्ठ ४३ से – ६१ तक

 

नया वर्ष।

(बोलपुर के शान्तिनिकेतन आश्रम में पठित।)

जकल हम लोगों के निकट 'कर्म' का गौरव अधिक है। हाथ के पास हो या दूर हो, दिन में हो या रात को हो, काम करना ही होगा। आजकल अशान्त अस्थिर चित्त से हम यही ढूँढ़ते हैं कि क्या करें, क्या करें, कहाँ मरना होगा––कहाँ आत्मत्याग करना होगा। यूरोप में लगाम पहने हुए मरना एक गौरव की बात समझी जाती है। काम न हो, काम हो, बेकाम का काम न हो, जिस तरह हो, जीवन के आखरी दम तक दौड़ धूप करते––जोश के साथ हाथ-पैर चलाते मरना होगा। जब किसी जाति को इस कर्म-चक्र में घूमने का चसका लग जाता है, तब फिर पृथ्वी में शान्ति नहीं रहने पाती। तब, दुर्गम हिमालय की चोटी पर जो रोएँदार बकरे अबतक बेखट के जिन्दगी बिता रहे थे, वे अकस्मात् शिकारी की गोली से मरने लगते हैं; सील और पेंगुयिन पक्षी, जो अबतक विश्वास के साथ सुनसान बरफ के सागर में बिना विरोध के जीने का सुख भोग रहे थे, उन बेचारों के खून से एकाएक निष्कलङ्क स्वच्छ बरफ लाल हो उठती है। न जाने कहाँ से सौदागरों की तोपें शिल्प-चतुर प्राचीन चीन के गलेमें अफीम के गोले बरसाने लगती हैं, और अफरी का की निर्जर जंगलों से ढकी हुई सिपाही; सभ्यता के वज्रपात से फटकर चीखती हुई प्राण त्याग करती है।

इस आश्रम में, निर्जन प्रकृति के बीच चुपचाप एकाग्र होकर बैठने से हृदय में इस बातका स्पष्ट अनुभव होता है कि 'होना' ही जगत् का चरम या परम आदर्श है; 'करना' नहीं। प्रकृति में कर्म की सीमा नहीं है, किन्तु प्रकृति को देखो, वह उस कर्म को आड़ में रखकर अपने को 'होने' के रूप में प्रगट करती है। मैं जब प्रकृति के मुख पर दृष्टि डालता हूँ तभी देखता हूँ कि उसमें क्लेश और थकावट का कोई चिह्न नहीं है; वह जैसे किसी का निमन्त्रण पाकर उससे मिलने के लिए सजधजकर सुविस्तृत नील आकाश में आराम से बैठी हुई है। इस संसार भरकी गृहिणी की पाकशाला कहाँ है? धान कूटने का घर कहाँ है? और किस भंडारे के घर में इसके विचित्र आकार के बरतन पाँति की पाँति सजाये हुए रक्खे हैं? फूल-फल-पत्तियाँ इसके गहने जान पड़ते हैं, इसका कार्य ही इसकी लीला जान पड़ता है, इसकी गति देखकर नृत्य का भ्रम होता है और इसकी चेष्टा उदासीनता के समान जान पड़ती है। प्रकृति ने घूमते हुए चक्रों को नीचे छिपाकर और स्थिति को ही गति के ऊपर रखकर सदा से अपने को प्रकाशमान रक्खा है। उसने अविराम कर्म के वेग में अपने को अस्पष्ट नहीं बनाया, और न संचित हुए कर्मो के ढेर में अपने को ढक ही दिया है।

इस कर्म के चारों ओर अवकाश का होना, इस (कर्म की) चंच लता को (अवकाश की) ध्रुव-शान्ति के द्वारा मण्डित कर रखना ही प्रकृति की नित्य नवीनता का रहस्य है। यह केवल नवीनता ही नहीं, बरन् यही उसका बल है।

भारतवर्ष ने उस प्रकृति के प्रातःकालीन अरुणवर्ण आकाश से, सूखे और धूसर मैदानों से, चमकती हुई किरणों की जटाओं से मण्डित विराट् मध्याह से, और उसकी कसौटी सरीखी अँधियारी सन्नाटे की रात से यह उदार शान्ति, यह विशाल निस्तब्धता अपने हृदय के भीतर प्राप्त की है। भारतवर्ष कर्म का किंकर नहीं है।

सब जातियों का स्वाभाविक आदर्श एक नहीं है। इसके लिए, मेरी समझ में, क्षोभ होना या पछताना बेकार और बेमतलब है। भारत वर्ष ने मनुष्य का उल्लंघन करके कर्म को बड़ा नहीं बनाया। फल कामना-रहित कर्म की महिमा बखानकर उसने वास्तव में कर्म को संयत ही कर लिया है। फल की कामना उड़ा देना मानों कर्मरूपी नाग के जहरीले दाँत उखाड़ डालना है। इस उपाय से मनुष्य कर्म के ऊपर भी अपने को सजग-सचेत करने का अवकाश पाता है; अर्थात् कर्म के नशे में अपनी स्थिति को भूल नहीं जाता––सोच समझकर चलता है। इसी से कहते हैं कि हमारे देश का चरम लक्ष्य 'होना' ही है; 'करना' तो केवल उपलक्ष्य मात्र है।

विदेशों के साथ सम्बन्ध होने से भारतवर्ष की यह प्राचीन निस्तब्धता हिल उठी है; अर्थात् निस्तब्ध एकाग्र भारतवर्ष चञ्चल हो उठा है। मेरी समझ में इससे हमारा बल नहीं बढ़ता; उलटे हमारी शक्ति क्षीण होती जा रही है। इससे दिन-दिन हमारी निष्ठा, अर्थात विश्वास विचलित हो रहा है; हमारे चरित्र का संगठन नहीं होता, वह टूटता बिखरता जाता है; हमारा चित्त चंचल और हमारी चेष्टायें व्यर्थ हो रही हैं। पहले भारतवर्ष की कार्यप्रणाली (काम करने का ढँग) अत्यन्त सहज-सरल, अत्यन्त शान्त, तथापि अत्यन्त दृढ़ थी। उसमें किसी प्रकार का आडम्बर या दिखावा न था। उसमें शक्ति का अनावश्यक अपव्यय नहीं होता था। सती स्त्री अनायास ही पति की चिता पर चढ़ जाती थी, सेना का सिपाही चने चबाकर समय पर उत्साह के साथ युद्धभूमि में जाता और लड़ता था। उस समय आचार की रक्षा के लिए सब प्रकार की अड़चनें उठाना, समाज की रक्षा के लिए भारी से भारी दुःख भोगना और धर्म की रक्षा के लिए प्राण तक दे देना बहुत ही सहज था। निस्तब्धता या एकाग्रता की यह अद्भुत शक्ति इस समय भी भारत में संचित है; हम लोग आप ही उसको नहीं जानते। हम इने-गिने शिक्षा चंचल नवयुवक इस समय भी दरिद्रता के कठिन बल को, मौन के स्थिर जोश को, निष्ठा की कठोर शान्ति को और वैराग्य अर्थात् आनासक्ति की उदार गम्भीरता को अपनी शौकीनी, अविश्वास, अनाचार और अन्ध अनुकरण के द्वारा इस भारतवर्ष से दूर नहीं कर सके हैं। इस मृत्यु के भय से रहित आत्मगत शक्ति ने संयम, विश्वास और ध्यान के द्वारा भारत वर्ष को उसके मुख की कान्ति सुकुमारता, अस्थिमज्जा में कठिनता, लोकव्यवहार में कोमलता और स्वधर्म की रक्षा में दृढता दी है। इस शान्तिमयी विशाल शक्ति का अनुभव करना होगा––एकाग्रता के आधार भूत इस भारी कठिनता को जानना होगा। भारत के भीतर छिपी हुई यह स्थिर शक्ति ही अनेक शताब्दियों से, अनेक दुर्गतियों में, हम लोगों की रक्षा करती आती है। याद रक्खो, समय पड़ने पर यह दीन हीन वेश वाली, आभूषणहीन, वाक्यहीन, निष्ठापूर्ण शक्ति ही जागकर सारे भारतवर्ष के ऊपर अपनी अभयदायक मंगलमय बाँह की छाँह करेंगी। अँगरेजी कोट, अँगरेजों की दूकानों का सामान, अँगरेज मास्टरों की गिटपिट बोली पकी पूरी पूरी नकल––यह कुछ उस समय नहीं रहेगा; किसी काम नहीं आवेगा। हम आज जिसका इतना अनादर करते हैं कि आँख उठाकर भी नहीं देखते; जिसे इस समय हम जान ही नहीं पाते; अँगरेजी स्कूलों के झरोखों में से जिसकी सँवार सिंगार से रहित झलक देख पड़ते ही हम त्यौरी बदलकर मुँह फेर लेते हैं; वही सनानन महान् भारतवर्ष है। वह हमारे व्याख्यानदाताओं के विलायती ढँग के ताली पीटने के ताल पर हर एक सभा में नाचता नहीं फिरता, वह हमारे नदीतट पर कड़ी धूप से भरे भारी सुनसान मैदान में केवल कोपीन पहने कुशासन पर अकेला चुपचाप बैठा है। वह प्रबल भयानक है, वह दारुण सहन शील है, वह उपवास व्रत धारण किये हुए है। उसके दुर्बल हड्डियों के ढाँचे में प्राचीन तपोवन की अमृत, अशोक, अभय होम की अग्नि अब भी जल रही है। यदि कभी आँधी आवेगी तो आजकल का यह बड़ा आडम्बर, डींग, तालियाँ पीटना और झूठी बातें बनाना––जो कि हमारा अपना ही रचा हुआ है, जिसे हम भारत वर्ष भर में एकमात्र सत्य और महान् समझते हैं, किन्तु यथार्थ में जो मुँहजोर चञ्चल और उमड़े हुए पश्चिम-सागर की उगली हुई फेनकी राशि है––इधर उधर उड़ जायगा; दिखलाई भी न पड़ेगा। तब हम देखेंगे कि इसी अचल शक्तिधारी सन्यासी (भारतवर्ष) की तेज से भरी आँखें उस दुर्दिन में चमक रही हैं; इसकी भूरी जटायें उस आँधी में फहरा रही हैं। जब आँधी के हाहाकार में अत्यन्त शुद्ध उच्चारणवाली अंगरेजी की वक्तृतायें सुनाई न पड़ेंगी, उस समय इस सन्यासी के वज्र कठिन दाहिने हाथ के लोहे के कड़े के साथ बजते हुए चिमटे की झनकार आँधी के शब्द के ऊपर सुनाई पड़ेगी। तब हम इस संग-हीन एकान्तवासी भारतवर्ष को जाने और मानेंगे। तब जो निस्तब्ध है उसकी उपेक्षा नहीं करेंगे; जो मौन है उस पर अविश्वास नहीं करेंगे जो विदेश की बहुत सी विलास-सामग्री को समझकर उसकी ओर नजर नहीं करता उसको दरिद्र समझकर उसका अनादर नहीं करेंगे। हम हाथ जोडकर उसके आगे बैठेंगे और चुपचाप उसके चरणों की रज शिर पर धारण कर स्थिर भाव से घर आकर विचार करेंगे। आज नवीनवर्ष में इस शून्य मैदान के बीच हम लोग भारतवर्ष का और एक भाव अपने हृदय में ग्रहण करेंगे। वह भाव और कुछ नहीं, भारतवर्ष का एकाकित्व अर्थात् अकेलापन है। यह अकेलेपन का अधिकार बहुत बड़ा अधिकार है। इसे पैदा करना होता है। इसको पाना और उससे अधिक इस की रक्षा करना कठिन है। हमारे बाप-दादे यह अकेलापन भारतवर्ष को दे गये हैं। यह महा भारत और रामायण की तरह हमारी जातीय सम्पत्ति है।

सभी देशों में देखा जाता है कि जब कोई अपरिचित विदेशी यात्री अपूर्व पहनावे के साथ आकर उपस्थित होता है तब वहाँ के लोगों को ऐसा कौतूहल होता है कि वे पागल से हो उठते हैं––उसे घेर कर प्रश्न पर प्रश्न कर, खोद बिनोद कर, सन्देह कर हैरान कर डालते हैं। किन्तु भारत का यह नियम नहीं है। भारतवासी ऐसे अपरिचित अजनवी की ओर अत्यन्त सहज भाव से देखता है––न उसको धक्का मारता है और न उसके धक्के खाता है। चीना यात्री फाहियान और हुएनसांग जैसे आसानी के साथ, आत्मीय स्वजन की तरह, भारत, भर में भ्रमण कर गये हैं वैसे वे यूरोप की यात्रा कभी न कर पाते। धर्म का एका बाहर नहीं दिखाई देता। जहाँ भाषा, आकार पहनावा ओढ़ावा, सभी भिन्न हैं, वहाँ कौतूहल के निठुर आक्रमण से पग-पग पर बचकर चलना सर्वथा असाध्य है। किन्तु भारतवर्ष की बात ही और है। वह अकेला और अपने में मग्न है। वह अपने चारों ओर एक प्रकार की चिरस्थायी निर्जनता धारण किये हुए है। यही कारण है कि कोई एकदम उसके शरीर पर आकर नहीं गिर पड़ता। अपरिचित विदेशी लोगों को उसके पास से निकल जाने के लिए काफी जगह मिल जाती है। जो लोग सदा भीड़ लगाकर, दल बाँध कर, रास्ता रोक कर बैठे रहते हैं उन लोगों को बिना धक्का दिये और बिना उनके धक्के खाये नये आदमी का उधर से निकल जाना सं भव ही नहीं। नया आदमी जब ऐसी मण्डली में पड़ जाता है तब उसे सब प्रश्नों का उत्तर देकर––सब परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर तब कहीं एक कदम आगे बढ़ने का अवकाश मिलता है। किन्तु भारतवर्ष का आदमी जहाँ रहता हैं वहाँ वह बाधा की रचना नहीं करता––वह स्थान के लिए खींचतान नहीं करता। उसके अकेलेपन के अवकाश को कोई छीन नहीं सकता। चाहे ग्रीक हो, चाहे अरबी हो और चाहे चीना––वह किसी को, जंगल की तरह, नहीं रोकता। वह एक बड़े वृक्ष की तरह, अपने नीचे चारों ओर, रुका वट से रहित स्थान छोड़ देता है। यदि कोई उसके पास आकर आश्रय ग्रहण करता है तो उसे छाया देता है, और, अगर कोई पास आकर चला जाता है तो उससे कुछ कहता नहीं।

इस अकेलेपन का महत्त्व जिसके चित्त को अपनी ओर नहीं खींच ता वह भारतवर्ष को ठीक तौर से पहचान ही नहीं सकता। कई शताब्दियों से, प्रबल विदेशी लोग उन्मत्त बराह की तरह अपने दाँतों से भारतवर्ष को, एक सिरे से दूसरे सिरे तक, खोदते फिरते रहे; उस समय भी भारतवर्ष अपने बहुव्यापक अकेलेपन से ही सुरक्षित था––कोई भी उसके मर्मस्थान पर चोट नहीं पहुँचा सका। हमारा भारतवर्ष युद्ध और विरोध न करके भी अपने को अपने में अनायास ही स्वतन्त्र कर रखना जानता है। इसके लिए अबतक हथियारबन्द पहरेदार की जरूरत नहीं हुई। जैसे कर्ण स्वाभाविक कवचसहित पैदा हुए थे वैसे ही भारतवर्ष की प्रकृति भी एक स्वाभाविक बेठन से लिपटी हुई है। सब प्रकार के विरोध और विप्लव में भी, एक प्रकार को न तोड़ी जा सकने वाली शान्ति उसके साथ साथ अटल रूप से रहती है। इसी से वह टूट फूट कर गिर नहीं पड़ता, किसी में मिल नहीं जाता, कोई उसको लील नहीं सकता। वह जोश से जाती हुई भारी भीड़ में भी अकेला विराजमान है।

यूरोप के लोग भोग तो अकेले, परन्तु काम दल बाँध कर करते हैं। भारतवर्ष में ठीक इसका उलटा होता है। भारतवर्ष भोग तो करता है बाँट कर, पर काम करता है अकेला। यूरोप की धनसम्पत्ति और सुख-आराम व्यक्तिगत है; किन्तु उसका दान-ध्यान, स्कूल-कालेज की स्थापना, धर्म-चर्चा, बनिज-बेपार सब दल बाँध कर होता है। पर हमारे यहाँ अपने सुख, अपनी सम्पत्ति को कोई अकेले नहीं भोगता-हमारे यहाँ दान-ध्यान, पढ़ना-पढ़ाना और कर्तव्य-पालन ही अकेले किया जाता है।

हमारे यहाँ के इस भाव को चेष्टा करके नष्ट करने की प्रतिज्ञा करना व्यर्थ है। ऐसी चेष्टा करने से भी कुछ विशेष फल नहीं हुआ; और न आगे ही होगा। यहाँ तक कि मैं तो बनिज-बेपार में भी एक जगह बड़ी भारी धूनी जमा करके उसके द्वारा छोटी छोटी शक्तियों को बल-पूर्वक निष्फल कर डालने को अच्छा नहीं समझता। भारतवर्ष के जुलाहे जो रोजगार से खाली हो रहे हैं, इसका कारण उनका एकत्र होने की चेष्टा न करना नहीं है। उनका अपने औजारों की उन्नति न करना ही इसका कारण है। अगर करघा अच्छा हो,और हर एक जुलाहा अगर काम करे, कमाकर खाय, सन्तोष के साथ जिन्दगी बिताये, तो समाज में यथार्थ दरिद्रता और ईर्षा का विष जमने ही न पावे और मंचेस्टर अपने भारी कल-कारखानों से भी इनके मुँह की रोटी न छीन सके।कल-पुरजों को बहुत ही सीधे सादे और सहज बनाकर काम को सब के करने लायक बना देना––पेटभर अन्न को सबके लिए सुलभ कर देना ही पूर्वीय आदर्श है। यह बात हमें याद रखनी चाहिए।

चाहे मनोरञ्जन हो, चाहे शिक्षा हो और चाहे कोई हितकारी काम हो, सभी को एकदम पेचीला और कष्टसाध्य बना डालने से लाचार होकर सम्प्रदाय या दल के हाथ में पड़ना होता है। इससे यह होता है कि काम की तैयारी और जोश लगातार इतना बढ़ता जाता है कि मनुष्य उसी से ढक जाता है––घिर जाता है। चढ़ा ऊपरी के निठुर धक्के से काम करनेवाले मजदूरों की हालत मेशीन से भी बुरी हो जाती है। हम ऊपर से सभ्यता का बड़ा आयोजन––भारी धूमधाम––देख कर आश्चर्य में आ जाते हैं। उसके नीचे जो दारुण नरमेध यज्ञ दिनरात किया जा रहा है वह छिपा ही रहता है। उसे हम नहीं देख पाते। परन्तु विधाता से वह नरबलि नहीं छिप सकती। बीच बीच में, सामाजिक भूकम्प से उसके परिणाम की खबर मिला करती है। यूरोप में बड़ा दल छोटे दल को पीस डालता है, बड़ा रुपया छोटे रुपये-को उपवास से क्षीण करके अन्त को गोली की तरह निगल जाता है।

काम के उद्योग को बेहद बढ़ा कर, काम को भारी बना कर, काम को काम से भिड़ा देने में उससे जो अशान्ति और असन्तोष का विष उबल पड़ता है उसकी आलोचना मैं इस समय नहीं करना चाहता। मैं इस समय यही सोच रहा हूँ कि इन काले धुएँ की साँस लेनेवाले दानब सरीखे कारखानों के भीतर, बाहर और चारों ओर जिस तरह मनुष्यों को घूमघाम कर––हिर फिर कर–– रहना होता है उससे उनका एकान्त में रहने का सहज अधिकार नहीं रहता; अकेलेपन की प्रतिष्ठा नहीं रहती। न रहता है स्थान का अवकाश, न रहता है समय का अवकाश और न रहता है सोचने विचारने का अव काश। इस प्रकार अपने मन को ही अपने पास रहने का बिलकुल अभ्यास नहीं रहता। फल यह होता है कि काम से ज़रा छुट्टी पाते ही शराब पीकर, ऐश और खेल तमाशों में मस्त होकर जबरदस्ती अकेलेपन के हाथ से छुटकारा पाने की चेष्टा की जाती है। चुप चाप रहने की, निस्तब्ध भाव से रहने की, आनन्द में रहने की, शक्ति फिर नहीं रहती।

जो लोग मेहनत-मजदूरी करते हैं उनकी यह दशा है। इनके सिवा जो लोग भोग करने वाले अमीर हैं वे भी भोग की नित-नई उत्तेजना में चूर हैं। वे निमन्त्रण, खेल, नाच, घुडदौड़, शिकार और सफर की आँधी में सूखे पत्तों की तरह चक्कर खाया करते हैं। हिंडोले में बैठा हुआ आदमी, उसके चक्कर में, अपने को या सारे जगत् को ठीक-ठीक नहीं देख पाता––उसे सब धुंधला दिखाई पड़ता है। अगर दम भर के लिए हिंडोले का घूमना थम जाता है तो वह घड़ी भर का अपने को देखना और विशाल विश्व से मिलने का लाभ उसे असह्य जान पड़ता है। यही दशा यूरोप के अमीरों की है।

किन्तु भारतवर्ष ने भोग के घनेपन को भाईबन्दों और पास-परोसियों में बाँटकर हल्का कर दिया है और कामकाज की पेचीली उलझन को सुलझा-कर उसे आदमी-आदमी में बाँट दिया है––अर्थात् जो जिस योग्य आदमी है उसको वह काम सौंप दिया है। ऐसा करने से यह होता है कि भोग, कामकाज और विचार करते रहने पर भी हरएक को मनुष्यत्व की चर्चा करने का यथेष्ट अवकाश बना रहता है। हमारे यहाँ का बेपारी भी मन लगाकर कथा सुनता है और कामकाज करता है, और कारीगर या मेहनत-मजदूरी करनेवाला भी निश्चिन्त होकर भक्तिपूर्वक रामायण की चौपाइयाँ गाता है। यह अवकाश की अधिकता घर को, मन को और समाज को पाप की गंदी धनी भाफ से बचाकर बहुत कुछ निर्मल और उज्ज्वल बनाये रखती और मलिनता के कूड़े को अपने शरीर के पास ही जमने––ढेर होने––नहीं देती। और देशों में परस्पर की छीन-झपट और रगड़-झगड़ से जो काम-क्रोध आदि शत्रुओं का दावानल जल उठता है, वह, भारतवर्ष में शान्त रहता है––नहीं जलता।

भारतवर्ष के इस अकेले रहकर काम करने के व्रत को यदि हममें से हरएक ग्रहण करे तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस बार का नया वर्ष आशीर्वाद की वर्षा और कल्याण के शस्य (अन्न) से परिपूर्ण होगा। हम लोग यदि दल बाँधने, रुपया जुटाने और सङ्कल्प को बड़ा बनाने की बहुत दिनों तक अपेक्षा न करके, जो जहाँ है वह वहीं––अपने गाँव में, महल्ले में, मैदान में, घर में––स्थिर शान्त चित्त से धैर्य के साथ, सन्तोष के साथ, पुण्यकार्य––मङ्गलकार्य का श्रीगणेश कर दें; आडम्बर के अभाव से खिन्न न होकर, दरिद्र आयोजन से सङ्कोच न कर, देशी भाव से लज्जित न होकर, झोपड़ी में रह कर, जमीन पर बैठकर, अँगौछा पहन कर सीधेसादे सहज भाव से काम करने में लग जायँ; धर्म के साथ कर्म को और कर्म के साथ शान्ति को जोड़े रहें; चातक पक्षी की तरह विदेशियों की करतालिध्वनि-वर्षा के लिए ऊपर की ओर गर्दन उटाये ताकते न रहें; तभी भारतवर्ष के भीतरी सच्चे बल को पाकर बलवान् बन सकेंगे। हमको याद रखना चाहिए कि हम बाहर से धक्के पा सकते हैं; बल नहीं पा सकते। अपने बल के सिवा दूसरे से बल नहीं मिल सकता। भारतवर्ष जिस जगह पर अपने बल से बलवान् है उसी स्थान को अगर हम ढूँढ लें और उस पर दखल भी कर लें, तो दम भर में हमारी सारी लज्जा दूर हो जायगी।

भारतवर्ष ने छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, सभी को मर्यादा दी है। और, उस मर्यादा को उसने दुराकांक्षा के द्वारा नहीं पाया है। विदेशी लोग बाहर से उस मर्यादा को नहीं देख पाते। जिस आदमी ने जिस काम के करनेवाले माता-पिता के यहाँ जन्म लिया है, जो काम जिसके लिए सहज और सुलभ है, उसी काम के करने में उसका गौरव है। उस काम को न करने ही में उसकी मर्यादा न रहेगी। यह मर्यादा ही मनुष्यत्व को बनाये रखने का एक मात्र उपाय है। अवस्था की विषमता (अर्थात् सबकी एक सी अवस्था न होना) सदा पृथ्वी पर रहेगी ही; उसे कोई नहीं मिटा सकता। ऊँची अवस्था बहुत ही कम लोगों को नसीब होती है। शेष सब लोग अगर उन थोड़े से हैसियतदार या अमीर लोगों के भाग्य से अपने भाग्य का मिलान करके उससे अपनी बेइज्जती समझें तो वे अपने को दीन समझने के कारण वास्तव में छोटे हो जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि विलायत के मजदूर प्राणपण से काम करते हैं; किन्तु उस कार्य से उनको मर्यादा नहीं मिलती। वे अपने को हीन समझने के कारण सचमुच ही हीन हो जाते हैं। इस प्रकार यूरोप के पन्द्रह आने आदमी दीनता और ईर्षा में पड़कर व्यर्थ की चेष्टा में डावाँडोल हो रहे हैं। यही कारण है कि यूरोपियन यात्री यहाँ आकर अपने यहाँ के गरीबों और नीचे दर्जे के लोगों के हिसाब से यहाँके गरीबों और नीचे दर्जे के लोगों की अवस्था पर विचार करता है। वह सोचता है कि यूरोपके गरीबों और नीचे दर्जे के लोगों को जैसा दुःख और अपमान भोगना पड़ता है वैसा ही दुःख और अपमान यहाँ के गरीब और नीचे दर्जे के लोग भी भोगते हैं। किन्तु यहाँ यह बात बिल्कुल नहीं है। भारतवर्ष कर्म-भेद, श्रेणी-भेद अच्छी तरह नियमित और निर्दिष्ट है। इस कारण यहाँ के ऊँचे दर्जे के लोग अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए नीचे दर्जे के लोगों को अपमानित करके उनको निकाल बाहर नहीं करते। ब्राह्मणका लड़का भी वयोवृद्ध चमार को काका कहता है। सीमा-रेखा की सहज ही रक्षा होती है; इसीसे हमारे यहाँ छोटे-बड़े में परस्पर जाना-आना और हृदय से हृदय का सम्बन्ध बाधा-हीन है। हमारे यहाँ बड़ों के बेगानेपन का बोझा छोटों की हड्डी-पसली को चूर चूर नहा कर देता। पृथ्वी में यदि छुटपन और बड़ेपन की विषमता अवश्य होने की चीज है, और यदि स्वभावतः सर्वत्र सब प्रकार के छोटों की संख्या ही अधिक और बड़ों की संख्या कम है तो स्वीकार करना होगा कि समाज के इन अधिकांश छोटे लोगों को बेइज्जती की लज्जा से बचाने का जो उपाय भारत ने निकाला है वह बहुत ही श्रेष्ठ है।

यूरोप में इस प्रकार की बेइज्जती का असर इतना फैल गया है कि वहाँ की कुछ नई स्त्रियाँ अपने स्त्री होने को ही लज्जा की बात समझने लगी हैं। गर्भधारण और अपने स्वामी या बालबच्चों की सेवा करने को भी वे लज्जा की––बेइज्जती की बात समझती हैं। यूरोप में इस भाव का जगह ही नहीं मिलती कि मनुष्य बड़ा है; कोई खास काम बड़ा नहीं है; मनुष्यत्व को बनाये रखकर चाहे जो काम किया जाय, उसमें अपमान नहीं है; गरीबी लज्जा की बात नहीं है, सेवा करना लज्जा की बात नहीं है, अपने हाथ से काम करना लज्जा की बात नहीं है; हरएक अवस्था में, हरएक काम, इज्जत के साथ सिर ऊँचा करके किया जा सकता है। यही कारण है कि यूरोप में, जो अधिकारी है वह भी और जो अधिकारी नहीं है वह भी, सभी सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए समाज में अत्यन्त असफलता, अपार व्यर्थ काम और आत्मा की हत्या करनेवाले उद्योग की सृष्टि करते रहते हैं। घर में झाडू देना, जल भरकर लाना, मसाला पीसना और इष्टमित्र अभ्यागत आदि सबकी सेवा और सत्कार करने के बाद अन्त में आप भोजन करना––ये काम यूरोप की दृष्टि में अत्याचार और अपमान की बातें हैं। मगर हमारी दृष्टि में ये काम गृहलक्ष्मियों (स्त्रियों) के उन्नत अधिकार हैं। इन्हीं के करने में वे पुण्यभागिनी होती हैं; उनको सम्मान और गौरव मिलता है। सुनते हैं कि विलायत में जो स्त्रियाँ इन कामों में लगी रहती हैं वे नीचे दर्जे में गिनी जाकर स्त्री समाज की दृष्टि में हेय हो जाती हैं। इसका कारण यही है कि काम को छोटा समझ कर उसे करने के लिए लाचार होने-पर मनुष्य आप अपनी दृष्टि में छोटा हो जाता है। हमारे यहाँ की देवियाँ जितना ही सेवा के कामों में लगती हैं––तुच्छ कामों को पुण्य-कार्य समझकर करती हैं––विशेषता-रहित स्वामी को देवता मानकर उसकी भक्ति करती हैं उतना ही वे शोभा, सुन्दरता और पवित्रता से चमक उठती हैं, उनके पुण्य तेज से परास्त होकर नीचता या बेइज्जती पास भी नहीं फटकती।

यूरोप कहता है कि सभी मनुष्यों को सब कुछ होने का अधिकार है––ऐसी ही धारणा (समझ) में मनुष्यजाति का गौरव है। लेकिन वास्तव में यह बात नहीं है––सभी को सब कुछ होने का अधिकार नहीं है। इस अत्यन्त सत्य सिद्धान्त को नम्रता के साथ शुरू से ही मान लेना अच्छा है। यदि इसे विनयपूर्वक मान लें तो फिर बेइज्जती की कोई बात नहीं। इस बात को और जरा खुलासा करके कहना ठीक होगा। राम-दास के घर में श्यामदास का कोई अधिकार नहीं है––यह बात बिलकुल निश्चित है। इसी कारण रामदास के घर में हुकूमत न चला सकने से श्यामदास के लिए कोई लज्जा की बात नहीं है। किन्तु अगर श्यामदास के सिर पर ऐसा पागलपन सवार हो कि वह रामदास के घर में हुकूमत चलाना ही अपने लिए उचित समझे और रामदास के घर में हुकूमत चलाने की व्यर्थ चेष्टा करके वारम्बार विडम्बना को प्राप्त होता रहे तो फिर उसके नित्य के अपमान और दुःख की सीमा नहीं रहेगी। हमारे देश में, अपने स्थान की नियत सीमा के भीतर, सभी लोग अपने निश्चित अधिकार की इज्जत और शान्ति प्राप्त करते हैं। इसी से हमारे यहाँ छोटा बड़े को और बड़ा छोटे को, मौका पाते ही, निकाल बाहर करने की चेष्टा नहीं करता।

यूरोप कहता है कि यह सन्तोष––यह जीतने की इच्छा का अभाव ही जाति की मृत्यु का कारण होता है। इसके उत्तर में हमारा निवेदन यही है कि वह यूरोपियन सभ्यता की मृत्यु का कारण अवश्य हो सकता है, किन्तु हमारी सभ्यता तो उसी के आधार पर खड़ी हुई है। जो आदमी जहाज पर है उसके लिए जो नियम है वही नियम उसके लिए भी नहीं है जो कि अपने घर में है। यूरोप अगर कहे कि सब सभ्यतायें समान हैं और विचित्रता रहित सभ्यता का आदर्श केवल यूरोप में है तो उसकी यह शेखी की डींग सुनते ही झटपट अपनी धन-रत्न आदि बहुमूल्य सामग्री को टूटे सूप से उठाकर, घर के बाहर सड़क पर, फेंक देना ठीक नहीं।

हम यह मानते हैं कि सन्तोष में दोष है। पर, क्या अत्यन्त आकांक्षा अर्थात् बेहद हबस में दोष नहीं है? अगर यह सच है कि अधिक सन्तोष से जड़ता आकर काम करने की प्रवृत्ति को शिथिल कर देती है तो यह भी न भूल जाना चाहिए कि अत्यन्त आकांक्षा का जोश बढ़ जाने से भी अनेकानेक अनावश्यक और दारुण काम पैदा हो जाते हैं। अत्यन्त सन्तोष में अगर रोग से मृत्यु होती है तो अत्यन्त आकांक्षा में अपघात-मृत्यु होती है। यह बात याद रखने योग्य है कि सन्तोष और आकांक्षा, दोनों की मात्रा बढ़ जाना विनाश का कारण है। अत्यन्त इस कारण वह आलोचना छोड़कर यह स्वीकार करना ही होगा कि सन्तोष, संशय, शान्ति और क्षमा––ये सभी सर्वोच्च सभ्यता के अङ्ग हैं। इनमें चढ़ाऊपरी-रूपी चकमक पत्थर की रगड़ का शब्द और चिनगारियों की वर्षा नहीं है। इनमें हीरे की शीतल शान्त ज्योति है। उस रगड़ के शब्द और चिनगारियों को इस स्थिर सत्य ज्योति से बढ़कर कीमती समझना कोरा जंगलीपन है। यूरोपियन सभ्यता के विश्वविद्यालय से भी यदि ऐसा जंगलीपन उत्पन्न हो तो भी वह जंगलीपन ही है।

हमारी प्रकृति के एकदम एकान्त कोने में जो अमर भारतवर्ष विराजमान है उसे आज नये वर्ष के दिन मैं प्रणाम कर आया। मैंने देखा कि वह फललोलुप कर्म की अनन्त ताड़ना से मुक्त होकर शान्ति के आसन पर ध्यानमग्न अवस्था में बैठा है। वह अनन्त अविराम भीड़-भाड़ की चक्की में पड़ा पिस नहीं रहा है। वह अपने अकेलेपन में ही मग्न बैठा है। वह चढ़ाऊपरी की गहरी रगड़ और ईर्षा की कारिख से दूर रहकर अपनी अचल मर्यादा के घेरे में विराजमान हैं। इस कर्मवासना, जनसमूह की रगड़ झगड़ और औरों से बढ़ जाने के जोश से अलग रहने ने ही सारे भारतवर्ष को ब्रह्म के मार्ग में––भय, शोक और मृत्यु से रहित परम मुक्ति के मार्ग में––पहुँचाया है। यूरोप में जिसे "फ्रीडम" कहते हैं वह मुक्ति इस मुक्ति के सामने बहुत ही तुच्छ है। वह मुक्ति चंचल, दुर्बल और कायर है। वह स्पर्द्धापूर्ण और निठुर है। यह दूसरे के बारे में अन्धी है। वह धर्म को भी अपने समान नहीं समझती। वह सत्य को भी अपना दास बनाकर दूषित करना चाहती है। वह केवल दूसरों पर चोट करती रहती है, और इसी कारण औरों की चोट-के डर से दिनरात वर्दी चपरास और अनशस्त्र से लदी हुई बैठी रहती है। वह, अपनी रक्षा के लिए, अपने पक्ष के अधिकांश लोगों को गुलामी की बेड़ी में बाँध रखती है। उसकी असंख्य सेना मनुष्यत्व से भ्रष्ट भयानक मेशीन के सिवा और कुछ नहीं है। यह दानवी 'फ्रीडम' किसी समय भारतवर्ष की तपस्या का चरम लक्ष्य नहीं थी। इसका कारण यही है कि हमारे देश के सर्वसाधारण लोग वास्तव में अन्य देशवालों की अपेक्षा स्वाधीन थे। इस समय भी, आधुनिक समय से हमें धिक्कार मिलने पर भी, यह 'फ्रीडम' हमारे देश के लोगों की चेष्टा का चरम लक्ष्य कभी न होगा। यह 'फ्रीडम' हमारे देश के सर्वसाधारण लोगों का चरम लक्ष्य न होगा तो कोई हानि नहीं है। इस फ्रीडम से भी अत्यन्त उन्नत, विशाल और महत्त्वमय, भारतवर्ष के भारी तपका सर्वस्व जो 'मुक्ति' है उसको यदि हम अपने समाज में फिर बुला लावें––अपने हृदय के भीतर ही प्राप्त कर लें––तो भारतवर्ष के नंगे पैरों की धूल से पृथ्वी के बड़े बड़े राजमुकुट पवित्र होंगे।

मैं नये वर्ष के विचारों को यहीं पर समाप्त करता हूँ। आज पुरातन में मैंने प्रवेश किया था, क्योंकि पुरातन ही चिर-नवीनता का अक्षय भाण्डार है। आज वनलक्ष्मी ने नवपल्लवरूपी उत्सव-वस्त्र धारण किये हैं। पर ये वस्त्र आज के नहीं हैं। जिन महाकवि महर्षियो ने त्रिष्टुप् छन्द में तरुणी उषा का वन्दना की है उन्होंने भी इन चिकन मुलायम पीले-हरे वस्त्रों से वनलक्ष्मी को अकस्मात् सजते देखा है। उज्जयिनी पुरी के उद्यान मे, महाकवि कालिदास की मोहित दृष्टि के आगे भी यही वायु-कम्पित पुष्प-गन्ध-पूर्ण वनलक्ष्मी का नव-वस्त्राञ्चल बाल-सूर्य की किरणों से जगमगा उठा है। नवीनता में चिर-पुरातन का अनुभव करने ही से अलख अनन्त जवानी के सागर में हमारा जीर्ण जीवन स्नान कर सकेगा। आज, इस नये वर्ष के दिन में, भारत के कई हजार पुराने वर्षों का अनुभव कर सकने ही से हम लोगों की कमजोरी, लज्जा, लाञ्छना और दुबिधा दूर होगी। दूसरों से उधार लेकर उन फूल-पत्तों से पेड़ को सजाना ठीक नहीं। वह शोभा-वह नवीनता-आज है, कल जाती रहेगी। उस नवीनता की अस्थिरता और विनाश को कोई रोक नहीं सकता, हम दूसरी जगह से नवीन बल और नवीन सुन्दरता उधार लेकर अपने को सजाना चाहते हैं। किन्तु दो घड़ी के बाद ही वह नीचता की माला के समान हमारे मस्तक की हँसी करावेगी। धीरे धीरे उसमें से फूल-पंखड़ी झड़ पड़ेगी––केवल बन्धन की रस्सी, हमारे गले में, रह जायगी। विदेश का साजबाज और हावभाव हमारे शरीर पर देखते ही देखते मलिन––शोभाहीन हो जाता है। विदेश की शिक्षा और रीति-नीति हमारे मन में देखते ही देखते निर्जीव और निष्फल हो जाती है। इसका कारण केवल यही है कि उसके पीछे बहुत दिनों का इतिहास नहीं है। वह असंलग्न और असङ्गत है; उसकी जड़ उखड़ी हुई है।

आज इस नये वर्ष के दिन हम भारतवर्ष की चिरपुरातन सामग्री से ही, अपने में नवीनता प्राप्त करेंगे। सन्ध्या को जब विश्राम की घण्टी बजेगी, उस समय भी यह नवीनता सूखी माला की तरह झड़ नहीं जायगी। उस समय हम इस अम्लान गौरव-माला को अपने पुत्र के गले में आशीर्वादपूर्वक डालकर, उसको निर्भय चित्त और सरल सबल हृदय से विजय की राह में भेजेंगे! निश्चय जानो, जय होगी––भारतवर्ष ही की जय होगी! जो भारत प्राचीन है, जो ढका हुआ है, जो विराट् है, जो उदार है, जो चुप है उसी भारत की जय होगी! और हम, जो अँगरेजी बोलते हैं, अविश्वास करते हैं, झूठ बोलते हैं, डींग मारते हैं सो हरसाल उसी तरह समय सागर में लीन होते जायँगे जिस तरह सागर की लहरें उठकर उसी में लीन हो जाती हैं। किन्तु उससे निस्तब्ध सनातन भारतवर्ष की कुछ हानि नहीं होगी। वह भस्माच्छन्न मौनी भारत चौराहे पर मृगचर्म बिछाये बैठा हुआ है। हम जब अपने सारे शौकों को पूरा करके––बेटी बेटों को कोट–कालर–फ्रक पहनाकर–कूच कर जायँगे उस समय भी वह शान्त चित्त से हमारे पोतों की प्रतीक्षा करेगा। उसकी वह प्रतीक्षा व्यर्थ न होगी। वे इस सन्यासी के आगे हाथ जोड़े आकर कहेंगे––"पितामह, हमको मन्त्र दीजिए।"

यह कहेगा––"ॐ इति ब्रह्म।"

यह कहेगा––"भूमैव सुखं नाल्पे सुखमस्ति।"

यह कहेगा––"आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कदाचन।"