सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट
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तीसरा प्रस्ताव

गुणैर्हि सर्वत्र पदं निधीयते *

उसी नगर में एक महापुरुष विद्वान रहते थे। दूर-दूर देश के छात्र और विद्यार्थी इनके स्थान पर पढ़ने के लिये टिके रहते थे। नाम इनका शिरोमणि मिश्र था। गुण में भी यह वैसे ही विद्वन्मंडलीमंडन-शिरोमणि के समान थे। अध्यापकी के काम में दूर दूर तक कालाक्षरी के नाम से प्रसिद्ध थे, अर्थात् काला अक्षर-मात्र शास्त्र का कैसा ही दुरूह और कठिन कोई ग्रंथ होता, उसे यह पढ़ा देते थे। अनुपपन्न, गरीब विद्याथियों को, जिन्हें यह परिश्रमी, पर सर्वथा असमर्थ देखते थे, यथाशक्ति उनके गुज़रान के लायक छात्रवृत्ति भी देते थे। सेठजी इनको बहुत मानते थे, इसलिये कितनों को तो शिरोमणिजी अपने पास से देते थे, और कितनों को सेठ से दिलाते थे। सेठ इनका बड़ा भक्त था, और इन्हें मूर्तिमान प्रत्यक्ष देवता समझ एक बार दिन-रात-भर मे इनका दर्शन अवश्य आय कर जाता था। मिश्रजी जैसे श्रुताध्ययन-संपन्न वैसे ही सद्वृत्त और सदाचारवान् थे। "न केवलया विद्यया तपसा वापि पात्रता", सो इनमे न केवल विका ही, किंतु तपस्या भी पूरी थी। स्वभाव के अत्यंत गंभीर और देखने में साक्षात् गणेश की मूर्ति मालूम होते थे। इनका चौड़ा लिलार


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और दमकती हुई मुख की धुति दामिनी की दमक के समान देखनेवाले के नेत्र को मानो चकाचौंधी-सी उपजाती थी। इनकी सत्पात्रता का कहना ही क्या। याज्ञवल्क्य लिखते हैं—

कुक्षौ तिष्ठति यस्यान्न विधाभ्यासेन जीर्यति;
कुलान्युद्धरते तस्य दश पूर्वाणि दशापराणि।
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सो अध्यापकी में तो यह यहाँ तक परिश्रम करते थे कि चार बजे तड़के से आठ बजे रात तक निरंतर पढ़ाया करते। केवल मध्याह्न में तीन-चार घंटे विश्राम लेते थे। सबेरे से दस बजे तक भाष्य, वेदांत, पातजल आदि आर्ष ग्रंथों का पाठ होता था, और दूसरी जून काव्य, कोष, व्याकरण, गणित, ज्योतिष इत्यादि का। सिवा इसके जिस जून जो कोई जो कुछ पढ़ने आता था, वह उसे विमुख नहीं फेरते थे। किंतु केवल इतना विचार अवश्य रहता था कि असत् शास्त्र या निरीश्वरवादवाले ग्रंथ, जैसे कपिल का दर्शन, पहली जून नहीं पढ़ाते थे। प्रातःकाल के समय जब त्रिपुंड्र और रुद्राक्ष धारण किए कोड़ियों विद्यार्थी अपना-अपना आसन बिछाय संथा लेने को इनकी गद्दी के चारों ओर घेरकर बैठ जाते थे, उस समय यह मालूम होता था, मानो ऋषि-मंडली के बीच पद्मासन पर ब्रह्मा विराजमान हों। उस समय देखनेवाले के चित्त में यही भासती थी कि धन्य है इन


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विद्यार्थियों को, जो प्रतिदिन, प्रतिक्षण इनके दरस-परस से अपना जन्म सफल करते हैं। सरस्वती भी धन्य है, जो इनके मुख-कमल के संपर्क का सुखानुभव करती हुई ऐसे महात्मा के प्रसन्न, गंभीर और विमल मन-मानस मे राजहंसी के समान वास करती है, जहाँ से काव्य, कोप, अलंकार, तर्क आदि अनेक विद्या निकल-निकल नदी के समान प्रवाह-रूप में बहती छात्र-मंडली का कायिक और मानसिक दोनों पाप धोए देती है। न केवल विद्या ही के कारण इनकी सब कोई प्रशंसा करते थे और इनके बड़े मोतकिद हो गए थे, किंतु अनेक असाधारण लोकोत्तर गुणों से भी। शांति और क्षमा के यह आधार थे, तृष्णालता-गहन-वन के काटने को मानो कुठार थे अज्ञान-तिमिर के हटाने को सहस्रांशु थे; हठ और दुराग्रह आदि महाक्रूर ग्रह के अस्ताचल थे; उदार भाव के उदयगिरि थे, क्षमा और उपशम-महावृक्ष के मूल थे; धर्म की ध्वजा, सत्पथ के दिखलानेवाले, शील के सागर, सौजन्य-सुमन के कुसुमाकर थे। किबहुना, हीराचंद के तो पंडितजी सर्वस्व ही थे। उस प्रांत के छोटे-बड़े सभी ताल्लुकेदार इन्हें मानते थे, और प्रतिमास असंख्य धन इनकी भेट भेज देते थे। पंडितजी उस धन में से केवल साधारण भोजन और मोटा-मोटा कपड़ा पहन लेने के सिवा सब-का-सब अपने पास पढ़नेवाले विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति में खर्च कर देते थे। लड़का-बाला इनके कोई न था; पर इस बात का [ २१ ]
इनको कुछ सोच न था, उन विद्यार्थियों ही को अपना पुत्र मानते थे। वरन् पुत्र से अधिक प्रेम उनमें इनका था। उन सबों में दूर-देश का एक विद्यार्थी आकर थोड़े दिनों से यहाँ पढ़ने लगा था। यह किस नगर या ग्राम का रहनेवाला था, यह कुछ मालूम नहीं; पर बोली इसकी कुछ-कुछ मारवाड़ियों की-सी थी। जो हो, इसके शील-स्वभाव और बुद्धि की तीक्ष्णता से पंडितजी इस पर यहाँ तक रीझ गए कि इसे अपना पट्टशिष्य मानने लगे। और सब बातों में पंडितजी की अनुहार तो इसमें थी ही, किंतु बोलने में पटु और बर्बर होना, यह एक बात इसमें विशेष पाई गई। पंडितजी अध्यापक बहुत अच्छे थे; किंतु अत्यंत शांतशील होने के कारण शास्त्रार्थ करने में उतने प्रवीण न थे। इसमें दोनो बातें होने से गुरुजी भी इसका विशेष आदर करने लगे। सेठ हीराचंद जब पंडितजी के दर्शनों को आते थे, तो उसका वाक्पाटव और पैनी बुद्धि की तेजी देख प्रसन्न हो जाते थे, और इसके ये गुण हीराचंद के मन में जगह पाते गए। नाम इसका चंद्रशेखर था; किंतु पंडितजी का यह अत्यंत कृपापात्र था, इससे यह इसे चंदू कहते थे। सेठ अपने बालकों के लिये ऐसा एक आदमी खोज रहा था, जो उन्हें पढ़ावे तो थोड़ा, पर इधर-उधर की चतुराई की बातें उन्हें सुनावे बहुत। चंदू में यह गुण देख उसी को सेठ ने अपने दोनो पौत्रों के पढ़ाने के लिये नियत कर दिया।