सौ अजान और एक सुजान/४
धनाधिए राजराज कुबेर का-सा असंख्य धन और देव-राज इद्र के-से अनुपम ऐश्वर्य के स्वतंत्र अधिकारी अपने'दो पौत्रों को छोड़ सेठ हीराचद सरधाम सिधार गए। सेठ के प्राण-धन-समान प्यारे पडित शिरोमणि ने भी इनके वियोग की आग के दाह में प्राह भरते हुए अपने जीवन को झुल-माला अनुचित मान और सेठ-सरीखे धर्मात्मा को वहाँ भी धर्मोपदेश से सनाथ रखने को इनका साथ दे दिया।'राजा'और'बहादुर'का-सा सिर्फ दुलार में पुकारने का नहीं,वरन्वा वास्तक में अपनी बेइंतिहा विभव की निश्चय दिलानेवाली दुहरी मुहर के समान अपने दो पौत्रों का नाम सेठ ने ऋद्धि-नाथ और निधिनाथ रक्खा था। इनमें ऋद्धिनाथ बड़ा था और निधिनाथ छोटा। करोड़ों का धन अपने अधिकार में पाय अब इन दोनों के नाम की पूरी-पूरी सार्थकता हो गई। शील- स्वभाव और आकृति मे दोनों की ऐसी समता पाई जाती थी, मानो वे हीराचद के सुकृत-सागर की सीप के एक-सी आभावाले छोटे-बड़े दो मोती हैं. या उसके पुण्य की दो पताकाएँ हैं,या वंश-वृद्धि करनेवाले बीजांकुर-न्याय के दो
जवानी,धन-दौलत,प्रभुताई और अज्ञानता,इनमें से एक-एक अनर्थ
ले करनेवाले होते हैं,फिर जहाँ ये चारो इकट्ठे हो जाय, उसका क्या कहना।
उदाहरण हैं,या एक ही डंठल के दो गुलाब हैं,या वसंत ऋतु के चैत्र वैशाख दो महीने हैं। साँचे के-से ढले इन दोनों के
एक-एक अंग और रंग-रूप में यहाँ तक तुलना थी कि दाहने गाल पर एक तिल जैसा बड़े के था,ठीक वैसा ही एक तिल छोटे
के गोल कपोल पर भी,चंद्रमा के गोलाकार मंडल में अंक के समान,शोभा दे रहा था।सामुद्रिकशास्त्र में लिखे हुए इनके अंग-प्रत्यंग में ऐसे-ऐसे एक-से लक्षणों को देख बोध होता था मानो ये दोनो जब गर्भ में थे,तभी इनका शुभ-अशुभ भावी परिणाम नियत कर बिधना ने इन्हें पैदा किया था।न केवल इन दोनो के शरीर की सुघराहट और बनावट ही में समता थी,बरन शील-स्वभाव,रंग-ढंग, बोल-चाल,रहन-सहन,सब इन दोनों का एक-सा था। उमर इस समय बड़े की चौदह और छोटे की बारह वर्ष की थी। कुछ दिनों तक ये दोनोंबराबर उसी क्रम पर चले गए,जिस क्रम पर सेठ इन्हें रख,गया था। चंदू नित्य इनके घर पढ़ाने आता। कभी-कभी यही दोनों उसके घर जाते थे। चंदू इन्हें पढ़ातातो थोड़ा,पर इधर-उधर की चतुराई की बातें,जो इनकी कोमल बुद्धि में सहज में समा सके और सोहावनी मालूम हो,बहुत सुनाया करता था। ये भी बड़े शांत और विनीत भाव से उसकी बातें सुनते और गुरु के समान उसका यथोचित आदर करते थे। चंदू की योग्यता और पांडित्य का प्रकाश हम पहले कर आए हैं कि यह पंडितजी का पट्टशिष्य था,और
उनके पढ़ाए हुए विद्यार्थियों में सबसे चढा-बढ़ा था;बल्कि
शिरोमणि महाराज के सब उत्तम गुण इसमें देखे गए,अंतर केवल इतना ही पाया गया कि स्वभाव का यह अत्यंत तीक्ष्ण और क्रोधी था,लल्लोपत्तो और जाहिरदारी इसे आती ही न थी,बल्कि ऐसे लोगों पर इसे जी से घिन थी।उन ब्राह्मण और पंडितों में न था कि केवल दूसरों ही के उपदेश के लिये बहुत-से ग्रंथों का बोझ लादे हो,पर काम में पतित महामंद शूद्र से भी अधिक गए-बीते हो। लोभ,कपट और अहंभाव का कहीं संपर्क भी इसमें न था। स्वलाभसंतोष,सिधाई और जीव-मात्र की हितेच्छा की यह मूर्ति था।
मानो भगवत् के इस श्रीमुखवाक्य का आधार यह था।इसकी चरितार्थता ऐसे ही ब्राह्मणों के विद्यमान रहने से हो रही है।अफसोस!यदि समस्त ब्रह्ममंडली या उनमें से अधिकांश चंदू के समान उन-उन सुलक्षणों से सुशोभित होते,तो इस नई रोशनी के जमाने में भी इनके विरुद्ध मुंह खोलने को किसी की हिम्मत न पङ सकती और न ये सर्वथा पतित
ऐसे ब्राह्मण जो स्वलाभ-संतुष्ट हैं,साधु है,प्राणिमात्र के हित
चाहनेवाले हैं,अहंकार-रहित हैं,शात स्वभाव के हैं,भगवान् कहते हैं,मैं उन्हें बार-बार सिर से प्रणाम करता हूँ।
हो ऐसी गिरी दशा में आ जाते।अस्तु,वे सब उत्तम गुण
इसके लिये अवगुण हो गए।साथ के पढ़नेवाले ही इसके गुण-गौरव को न सह इसकी खुचुर मे लग गए। यह किसे प्रकट नही है कि आपस'की नाइत्तिफाकी के बीज दूसरे की तरक्की पर जलने ने ही हिंदुस्तान को मुदत से कबाब कर रक्खा है। फिर जिस जाति का चंदू है,उसकी तो यह स्वास खसूसियत-सी हो गई है।कहावत है"नाऊ,बाम्हन,हाऊ;जाति देखि गुर्रऊ" "सिरे की मेड़ कानी'के भाँति प्राह्मण ही,जो हिंदू-जाति का सिरा और हिंदुस्तान के सब कुछ हैं,इस लक्षण के हुए,तो औरों की कौन कहे। चंदू इस बात को जान गया था कि लोग हमसे खार खाते हैं,और हमारी खुचुर में लगे हुए हैं,फिर भी अपना कर्तव्य काम समझ उन दोनों बालकों को सिखाने और उन्हें ढंग पर चढ़ाने से यह विमुख न हुआ।इसने सोचा कि हीरा-चंद-सरीखे सत्पात्र के घराने की प्रतिष्ठा और भलमनसाहत इन्हीं दोनों के सुधरने या कुडंग होने से बनती या बिगड़ती है। दूसरे, सेठजी का एहसान इस पर इतना अधिक था कि उसे याद कर यद्यपि यह स्वभाव का बहुत सज्ञा और खरा था,तो भी इस काम से अलग न हुआ।
अब वर्ष ही दो वर्ष के उपरांत तरुनाई की झलक इन दोनों पर आने लगी। नई-नई तरंगे सूझने लगी;नई उमर का तकाजा शुरू हो गया;अमीरी के अल्हड़पन ने आकर
जब जगह की, तो उसी तरह के सब सामान इकट्ठे होने की फिक्र हुई। एकाएक अज्ञान-तिमिर के छा आने पर चॉदनी-
समान चदू के उपदेश को प्रकाश पाने का अवसर ही न रहा।असंख्य वन और राजसी वैभव पर अपनी स्वतंत्र अधिकार
देख दोनों में एक साथ चढ़े हुए दर्पदाह ज्वर की दाहन बुझाने,
को सदुपदेश शीतलोपचार इनके लिये किसी भाँति कारगर न हुआ। बबुआ से बाबू साहब बनने का शौक बढ़ा;जी मे नई-नई उमंगों का समुद्र उमड़-उमड़ लहराने लगा। सेठ की दौलत पर गीध के समान ताक लगाए बैठे हुए मीरशिकार भोड़-भगति दूर-दूर से आ जमा होने लगे,रखुशामदी,चुटकी बजानेवाले मुफ्तखोरों की बन पड़ी।चंदू की शिक्षा के अनु-सार चलने की कौन कहे,उसके नाम की चर्चा भी चित्त में दोनों को बिच्छू के डंक की भाँति व्यथा उपजाने लगी।इनकी पसंद या तबियत के खिलाफ जरा-सा कोई कुछ कहता,तो वह इनका पूरा दुश्मन बन जाता था। चंदू जब
इनकी कोई अनुचित बात देखता,उसी दम इन्हें टोक देता और आगे के लिये सावधान हो जाने को चिता देता था।यह इन दोनों को जहर लगता था,और जी से यही चाहते थे कि कौन-सा ऐसा शुभ दिन होगा कि इस खसट से हमारा पिंड छूटेगा। जो अनंतपुर सेठजी-सरीखे विद्यारसिक भोजदेव के मानो ननावतार के समय दूर-दूर से मुड-के-मुड नित्य नए विद्वानों के आने-जाने से छोटी काशी का नमूना
बना हुआ था,वही अब मॉड़-भगतिए,कत्थक-कलावतों वे
ङ्केभर जाने से मन और दिल्ली की अनुहार मारने लगा।हमारे बाबू साहब को इस बात का हौसला नित-नित बढ़त ही गया कि जो अमीरी के ठाटवाट हसारे यहाँ हों,वे अवर के बड़े-बड़े नौवाबजादे और ताल्लुक़दारों के यहाँ भी देखा मे न आवें। बड़े बाबू का हौसला देख छोटे बाबू साहब क्य पीछे हट सकते थे? इस तरह दोनो मिल खेत सींचनेवा दोगले की भॉति सेठ की चिरकाल की कमाई का संचित धा दोनो हाथों से उलच-उलच फेकने लगे। इस तरह वहाँ अजान लोगों का दल इकट्ठा होते देख और इन दोनों के कुढंग औ कुचाल की बढ़ती देख चदू-सा सुजान अचानक अंतर्दा हो गया। पर जी में इसके इस बात की चोट लगी रह गा कि हीराचंद-सरीखे सुकृती की संपत्ति का ऐसा बुरा परिणार होना अत्यंत अनुचित है।
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