सौ अजान और एक सुजान/२
दूसरा प्रस्ताव
नर की अरु नल-नीर की गति एक करि जोय;
जेतो नीचो ह्वै चलै, तेतो ऊँचो होय।
प्रतीत होती है। अवध इक्ष्वाकु और रामचंद्र के समय से वीर बाँकुरे क्षत्रियों का उत्पत्ति स्थान प्रसिद्ध है। सरकारी फ़ौज में अब भी बेसवारे के सिपाहियों का दर्जा अव्वल समझा जाता है। पंजाब की लड़ाई में ज़र्रार सिक्खों के दाँत यदि किसी ने खट्टे किए, तो इन बैसवारेवालों ही ने। अस्तु, इस अवध के इलाके में पुण्यतोया सरिद्वरा गोमती के तट पर अनंतपुर नाम का एक पुराना कस्बा है। यहाँ सेठों का एक पुराना घराना है, जो अपनी कदामत का पता उस नगर की प्राचीनता के साथ-ही-साथ बराबर देता चला आता है। इस घराने के सेठ लोग पहले दिल्ली के बादशाहों के खज़ानची बहुत दिनों तक रहे, किंतु इधर थोड़े दिनों से समय के हेरफेर से यह खानदान बिलकुल दब गया; और अब सिवा किले-से बड़े भारी मकान के कोई निशान इस घराने के पुराने बड़प्पन का बाकी न रहा। किंतु इधर हाल में यह खानदान फिर जुगजुगाने लगा, और सेठ हीराचंद, जिनसे मेरे इस कथानक का आरंभ है, बड़े प्रसिद्ध और भाग्यवान् पुरुष हुए, जिन्होंने अपने उद्यम और व्यापार से असंख्य धन-संपत्ति के सिवा बहुत-से गाँव-गिराँव और इलाके भी बढ़ाए। नसीबे का सिकंदर यह यहाँ तक था कि इसके भाग से मिट्टी छूते सोना होता था, जिस काम को अपने हाथ में लेता, उसे बिना छोर तक पहुँचाए अधूरा कभी नहीं छोड़ देता था। नीति भी है—
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति।*
अपने काम में भरपूर लाभ उठाते हुए इसके कृतकार्य होने का कारण भी यही था। स्वयं यह बड़ा विद्वान् न था, न क्रम-पूर्वक किसी ग्रंथ का अनुशीलन किए था; पर प्रत्येक विषय के पंडित और विद्वानों के सत्संग में बड़ी रुचि रखता था। इस कारण यह इतना बहुश्रुत हो गया था कि ऐसे-वैसे साधारण योग्यतावाले ग्रंथचुंबकों की इसके सामने मुँह खोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। पर इससे यह अपनी योग्यता के अभिमान से किसी का अपमान करता हो, सो नहीं। योग्यता के अनुसार साक्षर-मात्र का आदर और प्रतिष्ठा करता था। यहाँ तक कि कोई शिष्ट मनुष्य अपने द्वेष्यवर्ग का भी हो, तो वह रोगी को औषध के समान उसका महामान्य हो जाता था, और अपना निज बंधु भी अनपढ़ा और दुश्चरित्र हो, तो वह साँप से डसी अँगुली-सा उसे प्यारा न होता था। वरन् वह ऐसे को त्याग देता था——
द्वेष्योऽपिसम्मतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम्;
त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदढ्गुलीवोरगक्षता।
उस समय ठौर-ठौर अवध में पाठशालाएँ ऐसों ही की दी हुई वृत्ति से चलती थीं। हमारे यहाँ पंडितों की छात्र-मंडली में उत्तरहा अब तक प्रसिद्ध हैं, विशेष कर यहाँ के वैयाकरण
तो एक उदाहरण हो गए हैं। कहावत प्रचलित है--"नैन चैन की चंद्रिका रही जगत् में छाय" इत्यादि। अपव्यय या फिजूलखर्ची से इसे चिढ़ थी। कहा भी है—
इदमेव हि पाण्डित्यमियमेव विदग्धता;
अयमेव परो धर्मो यदायान्नाधिको व्ययः।*
ऊपरी दिखाव और चटक-मटक से इसे अत्यंत घिन थी, जाहिरदारी को यह दिल से नापसंद करता था। जिस किसी को आमद से जियादह खर्च करते देखता, उसे यह निरा बेईमान और दिवालिया मानता था, और न कभी ऐसों का अपने किसी काम में विश्वास करता था।
इससे यह मत समझो कि यह महाटंच, वज्र सूम था। काम पड़ने पर यह बेदरेग़ लाखों लुटा देता था, और बेजा एक पैसा भी उठ गया हो, तो उसके लिये दिन-भर पछताता था। जैसा कहा है—
यः काकिणीमप्यपथप्रपन्नां समुद्धरेन्निष्कसहस्रतुल्याम्;
कालेषु कोटिष्वपि मुक्रहस्तस्तं राजर्सिहं न जहाति लक्ष्मीः।†
दिन-रात सदा एक ही काम में लगे रहना इसे बहुत बुरा लगता था। सबेरे से साँझ तक खाली तेल और पानी से देह
चिकनाते हुए फैशन और नज़ाकत के पीछे ज़नरव़ा बन केवल अपने आराम और भोग-विलास की फिक्र के सिवा और कुछ न करना इसे बिलकुल नापसंद था। न हरदम खाली सुमिरनी फेरना ही इसे भला लगता था, न यह आठों पहर अर्थ-पिशाच बन केवल रुपया-ही-रुपया अपने जीवन का सारांश मान बैठा था। वरन् समय से धर्म, अर्थ, काम, तीनों को पारी-पारी सेवता था। व्यासदेव के इस उपदेश को अपने लिये इसने शिक्षागुरु मान रक्खा था——
धर्मार्थकामाः सममेव सेव्याः
यस्त्वेकसेव्यः स नरो जघन्यः।*
बुद्धिमान और सभाचतर ऐसा था कि जरा-से इशारे में बात के मर्म को पकड़ लेता था। केवल एक ही में नितांत आसक्ति न रख धर्म, अर्थ, काम, तीनो में एक-सी निपुणता रखने से कभी किसी चालाक के जुल में यह नहीं आता था। संसार के सब काम करता था, पर जितेंद्रिय ऐसा था कि कच्ची तबियतवालों की भाँति लिप्त किसी में न होता था——
श्रुत्वा दृष्ट्वा च स्पृष्ट्वा च मुक्त वा घ्रात्वा च यो नरः;
यो न हृप्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः।†
व्यापार में इसकी बुद्धि की स्फूर्ति उस समय के रोजगारियों में एक उदाहरण हो गई थी। नगर-नगर इसकी कोठी, आढ़त और दूकाने इतनी अधिक थी कि उनका इंतिज़ाम इसी की अथाह बुद्धि का काम था। धर्म में निष्ठा, ब्राह्मण में भक्ति, शक्ति रहते भी क्षमा इत्यादि ऐसे लोकोत्तर गुण इसमें थे कि उनकी उपमा किसी दूसरे पुरुष में ढूँढ़ने से भी मिलना दुर्घट है।अस्तु, लड़के इसके कई हुए, किंतु बहुत कुछ उपाय के उपरांत केवल एक ही जीता बचा। पिता के उसमें एक भी गुण न हुए। इसकी अत्यंत सिधाई और सादापन देख लोग इसे भोंदूदास कहते थे; पर नाम इसका रूपचंद था।आशा होती थी, कदाचित् अपनी उमर पर आने से रूपचंद भी पिता के समान गुणागर होते। किंतु ईश्वर का कर्तब कुछ कहा नहीं जा सकता। २५ वर्ष की थोड़ी ही उमर में दो पुत्र, एक कन्या छोड़ यह सुरधाम को सिधार गया। सेठ हीराचंद को यद्यपि इसका बड़ा सदमा पहुँचा, किंतु उस दुःख को अपने धैर्यगुण से दबाय उन दो पौत्रों ही को निज पुत्र-समान पालन-पोषण करने और पढ़ाने-लिखाने लगा, और इतनी धन संपत्ति पाकर जैसा विनीत भाव और नवंता अपने में थी, वैसी इन लड़कों में भी हो जाने का प्रयत्न करने लगा।