सेवासदन/१६
विट्ठलदास-यह तो मुश्किल है।
सुमन-तो क्या आप मुझसे चक्की पिसाना चाहते है? मैं ऐसी सन्तोषी नही हूँ।
विट्ठलदास (झेंपकर) विधवाश्रम में रहना चाहो तो उसका प्रबन्ध कर दिया जाय।
सुमन-(सोचकर) मुझे यह भी मंजूर है, पर वहां ने स्त्रियों को अपने सम्बन्ध में कानाफूसी करते देखा तो पलभर न ठहरूंगी।
विट्ठलदास-यह टेढ़ी शर्त है, मैं किस किसकी जबान को रोकूँगा। लेकिन मेरी समझमें सभा वाले तुम्हे लेने पर राजी भी न होगे।
सुमन ने तान से कहा, तो जब आपकी हिन्दू जाति इतनी ह्दयशून्य है। तो उसकी मर्यादा पालन के लिए क्यों कष्ट भोगूँ, क्यों जान दूँ। जब आप मुझे अपनाने के लिए जाति को प्रेरित नहीं कर सकते, तब जाति आप ही लज्जाहीन है तो मेरा क्या दोष है। मैं आपसे केवल एक प्रस्ताव और करूंगी और यदि आप उसे भी पूरा न कर सकेंगे तो फिर मैं आपको और कष्ट न दूंगी। आप पं पद्मसिंह को एक घंटे के लिए मेरे पास बुला लाइये, में उनसे एकान्त में कुछ कहना चाहती हूं। उसी घड़ी में यहां से चली जाऊंगी। मैं केवल यह देखना चाहती हूं कि जिन्हें आप जाति के नेता कहते हैं, उनकी दृष्टि में मेरे पश्चाताप का कितना मूल्य है। विट्ठलदास खुश होकर बोले, हाँ, यह में कर सकता हूँ, बोलो किस दिन?
सुमन--जब आपका जी चाहें।
विठ्ठलदास-फिर तो न जाओगी?
सुमन—अभी इतनी नीच नही हुई हूँ?
१६
महाशय विठ्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हे कोई सम्पत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुँह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी के पास नहीं गये थे। यथाशक्ति उनकी निन्दा करने में कोई बात उठा न रक्खी थी, जिस पर कदाचित् अब वह मन से लज्जित थे, तिस पर भगे शर्माजी के पास जाने में उन्हे जरा भी सकोच न हुआ। उनके घर की ओर चले। रात के दस बजे गये थे। अकाशमे बादल उमड़े हुए थे, घोर अन्धकार छाया हुआ था। लेकिन राग-रंग का बाजार पूरी रौनकपर था। अट्टालिकाओ से प्रकाश की किरणे छिटक रही थी। कही सुरीली तानें सुनाई देती थी, कही मधुर हास्य की ध्वनि, कही आमोदप्र-मोदकी बातें। चारो ओर विषय-वासना अपने नगन रूप मे दिखाई दे रही थी। दालमण्डी से निकलकर विट्ठलदास को ऐसा जान पड़ा मानों वह किसी निर्जन स्थान में आ गये। रास्ता अभी बन्द न हुआ था। विट्ठलदास को ज्योंही कोई परिचित मनुष्य। मिल जाता, वह उसे तुरन्त अपनी सफलता की सूचना देते। आप कुछ-समझते हैं, कहाँ से आ रहा हूँ? सुमनबाई की सेवा में गया था। ऐसा मन्त्र पढ़ा कि सिर न उठा सकी, विधवाश्रम में जाने पर तैयार है। काम करनेवाले यों काम किया करते है।
पद्मसिंह चारपाई पर लेटे हुए निद्रादेव की आराधना कर रहे थे कि इतनेमें विट्ठलदास ने आकर आवाज दी। जीतन कहार अपनी कोठरी में बैठा हुआ दिन भर की कमाई का हिसाब लगा रहा था कि यह आवाज कान में आई। बडी फुरतीसे पैसे समेट कर कमर में रख लिए और बोला, कौन है?
विट्ठलदासने कहा अजी में हैं, क्या पण्डितजी सो गये? जरा भीतर जाकर जगा तो दो, मेरा नाम लेना, कहना बाहर खड़े है, बड़ा जरूरी काम है, जरा चले आवे।
जीतन मन में बहुत झुंझलाया, उसका हिसाब अधूरा रह गया, मालूम नही अभी रुपया पूरा होने में कितनी कसर है। अलसाता हुआ उठा, किवाड़ खोले और पंडितजीको खबर दो। वह समझ गये कि कोई नया समचार होगा तभी यह इतनो रात गये आये है। पुरन्त बाहर निकल आये।
विट्ठल--आइये, मैंने आपको बहुत कष्ट दिया, क्षमा कीजियेगा। कुछ समझे, कहाँ से आ रहा हूँ सुमनबाई के पास गया था, आपका पत्र पाते ही दौड़ा कि बन पड़े तो उसे सीधी राह पर लाऊँ। इसमें उसी की बदनामी नहीं सारी जाति की बदनामी है। वहाँ पहुँचा तो उसके ठाट देखकर दंग रह गया। वह भोली-भाली स्त्री अब दालमंडी की रानी है; मालूम नहीं इतनी जल्दी वह ऐसी चतुर कैसे हो गई। कुछ देर तक तो चुपचाप मेरी बातें सुनती रही, फिर रोने लगी। मैने समझा, अभी लोहा लाल है, दो-चार चोटे और लगाई, बस आ गई पंजे में। पहले विधवाश्रम का नाम सुनकर घबराई। कहने लगी—मुझे ५०) महीना गुजर के लिये दिलवाइये। लेकिन आप जानते है यहाँ ५०) देन वाला कौन है? मैने हामी न भरी। अन्तमें कहते सुनते एक शर्त पर राजी हुई। उस शर्तको पूरा करना आपका काम है।
पद्मसिंह ने विस्मित होकर विट्ठलदासकी ओर देखा।
विट्ठलदास--घबराइये नही, बहुत सीधी-सी शर्त है, बस यही कि आप जरा देर के लिये उसके पास चले जाँय, वह आपसे कुछ कहना चाहती है। यह तो मुझे निश्चय था कि आपको इसमें कोई आपत्ति न होगी। यह शर्त मजूर कर लो, तो बताइये कब चलने का विचार है। मेरी समझ में सवरे चलें।
किन्तु पद्मसिह विचारशील मनुष्य थे। वह घण्टों सोच विचार के बिना कोई फैसला न कर सकते थे। सोचने लगे कि इस शर्तका क्या अभिप्राय है? वह मुझसे क्या कहना चाहती है? क्या बात पत्र द्वारा न हो सकती थी? इसमें कोई न कोई रहस्य अवश्य है। आज अबुल वफा ने मेरे बग्घी पर से कूद पड़ने का वृत्तांत उससे कहा होगा । उसने सोचा होगा; यह महाशय इस तरह नही आते तो यह चाल चलूँ, देखूँ कैसे नही आते। केवल मुझे नीचा दिखाना चाहती है। अच्छा अगर में जाऊंगा भी पीछ से वह अपना वचन पूरा न करे क्या होगा? यह युक्ति उन्हे अपना गला छुड़ाने के लिय उपयोगी मालूम हुई। बोले, अच्छा, अगर यह फिर जाय तो?
विट्ठल-फिर क्यो जायगी? ऐसा हो सकता है? पद्म---हाँ, ऐसा होना असभव नहीं।
विठ्ठल तो क्या आप कोई प्रतिज्ञा पत्र लिखवाना चाहते हैं?
पद्म-नहीं, मुझ सदेह यही है कि वह सुख-विलास छोड़कर विधवाश्रम मे क्यों जाने लगी और सभा वाले उसे लेना स्वीकार कब करेंगे?
विट्ठल---सभा वालो को मनाना तो मेरा काम है। न मानेगे तो में उसके गुजारे का और कोई प्रबंध करूंगा। रही पहली बात। मान लीजिये, वह अपने वचन को मिथ्या ही कर दे तो इसमें हमारी क्या हानि है? हमारा कर्तव्य तो पूरा हो जायगा।
पद्म-हाँ, यह सन्तोष चाहे हो जाये, लेकिन देख लीजियेगा वह अवश्य धोखा देगी।
विठ्ठलदास अधीर हो गये; झुंझलाकर बोले, अगर धोखा ही दे दिया तो आपका कौन छप्पन टका खर्च हुआ जाता है।
पद्म-आपके निकट मेरी कुछ प्रतिप्ठा न हो, लेकिन मैं अपने को इतना तुच्छ नही समझता।
विट्ठल---सारांश यह कि न जायगे?
पद्म-मेरे जानसे कोई लाभ नही है। हाँ, यदि मेरा मानमर्दन कराना ही अभीष्ट हो तो दूसरी बात है।
विटठल---कितने खेद की बात है कि आप एक ज़ातीय कार्य के लिये इतनी मीनमेष निकाल रहे है। शोक। आप ऑखो से देख रहे हैं कि हिन्दू जाति की स्त्री कुंए में गिरी हुई है, और आप उसी जाति के एक विचारवान पुरुष होकर उसे निकालने में इतना आगा-पीछा कर रहे है! बस, आप इसी काम के है कि मूर्ख किसानो और जमींदारो का रक्त चूसे। आपसे और कुछ न होगा।
शर्माजी ने इस तिरस्कार का उत्तर न दिया। वह मन में अपनी अकर्मण्यता पर स्वयं लज्जित थे और अपने को इस तिरस्कार का भागी समझते थे। लेकिन एक ऐसे पुरुष के मुँह से ये बातें अत्यंत अप्रिय मालूम हुई, जो इस बुराई का मूल कारण हो। वह बड़ी कठिनाई से प्रत्युत्तर देने के आवेग को रोक सके। यथा में वह सुमन की रक्षा करना चाहते थे, लेकिन गुप्तरीति से। बोले, उसकी और भी तो शर्त है?
विठ्ठल—जो हाँ, है तो, लकिन आपमें उन्हे पूरा करने की सामर्थ्य है? वह गुजारे लिये ५० मासिक मॉगती है, आप दे सकते है?
शर्माजी-५०) नही, लेकिन २०) देने को तैयार हूँ।
विठ्ठल-शर्माजी बातें न बनाइये। एक जरा सा कष्ट तो आपसे उठाया नही जाता, आप २० मासिक देगे!
शर्माजी—मैं आपको वचन देता हूँ कि २०) मासिक दिया करेगा और अगर मेरी आमदनी कुछ भी बढ़ी तो पूरी रकम दे दूंगा। हां, इस समय विवश हैं। यह २०) भी घोडागाड़ी बेचने से बच सकेंगे मालूम नही क्यों इन दिनों मेरा बाजार गिरा जा रहा है।
विट्ठल—अच्छा, आपने २०) दे ही दिये तो शेष कहाँ से आयेंगे? औरों का तो हाल आप जानते ही है, विधवाश्रमके चन्दे ही कठिनाईसे वसूल होते है। में जाता हूँ यथाशक्ति उद्योग करेगा, लेकिन यदि कार्य सिद्ध न हुआ तो उसका दोप आपके सिर पड़ेगा।
१७
सन्ध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छजो और खिड़कियो की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहीं आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न किसी बहाने जरा देर के लिए अवश्य ठहर जाता है। इस नव-कुसुम ने उसकी प्रेमलाल सा को ऐसा उत्तेजित कर दिया है कि अब उसे किसी पल चैन नही पड़ता। उसके रूप-लावण्य में एक प्रकार की मनोहारिणी सरलता है जो उसके हृदय को बलात्अ पनी ओर खींचती है। वह इस सरल सौंदर्यमूर्ति को अपना प्रेम अर्पण करने का परम अभिलाषी है, लेकिन उसे इसका कोई अवसर नही मिलता, सुमन के यहाँ रसिकों का नित्य जमघट रहता है। सदन को यह भय होता कि इनमे कोई चचा की जान-पहचान का मनुष्य न हो। इसलिये उसे ऊपर