सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ७० ] हो गई। जानवर लेकर उसे लौटा दोगे तो क्या बात रह जायगी? यदि डिगबी साहब फेर भी लें तो यह उनके साथ कितना अन्याय है? वह बेचारे विलायत जानेके लिए तैयार बैठे है। उन्हें यह बात कितनी अखरेगी? नहीं, यह छोटी सी बात है, रुपये ले जाइये दे दीजिये, रुपया इन्हीं दिनों लिए जमा किया जाता है। मुझे इनकी कोई जरूरत नही है में सहर्ष दे रही हूं। यदि ऐसा ही है तो मेरे रूपये फेर दीजियेगा, ऋण समझकर लीजिये।

बात ही थी, पर जरा बदले हुए रूप में। शर्माजी ने प्रसन्न होकर कहा, हां, इस शर्तपर ले सकता हूँ, मासिक किस्त वाँवकर अदा करूँगा।

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प्राचीन ऋषियों ने इन्द्रियों का दमन करने के दो साधन बताये हैं-—एक राग दूसरा वैराग। पहला साधन अत्यन्त कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार्ग को ग्रहण किया है। उसने गृहस्थों को कीचड़ का कमल बताना चाहा है।

जीवनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वासनाओं का प्राबल्य रहता है। बचपन मिठाइयों का समय है, बुढ़ापा लोभ का, यौवन प्रेम और लालसाओं का समय है। इस अवस्था में मीनाबाजार की सैर मन में विप्लव मचा देती है। जो सुदृढ हैं, लज्जाशील वा भाव-शून्य वह सँभल जाते है। शेष फिसलते है और गिर पड़ते है।

शराब की दुकानों को हम बस्ती से दूर रखने का यत्न करते हैं, जुएखाने में भी हम घृणा करते है, लेकिन वेश्याओं की दुकानों को हम सुसज्जित कोठों पर चौक बाजारी में ठाट से सजाते है। यह पापोत्तेजना नहीं तो और क्या है?

बाजार की साधारण वस्तुओं में कितना आकर्षण है! हम उनपर लट्टू हो जाते है और कोई आवश्यकता न होनेपर भी उन्हें ले लेते है। [ ७१ ] तब वह कौन-सा हृदय है जो रूपराशि जैसे अमूल्य रत्न पर मर न मिटेगा? क्या हम इतना भी नही जानते?

विपक्षी कहता है, यह व्यर्थ की शंका है। सहस्रों युवक नित्य शहरों में घूमते रहते है,किन्तु उनमें से विरला ही कोई बिगड़ता है। वह मानव-पतन का प्रत्यक्ष प्रमाण चाहता है। किन्तु उसे मालूम नही कि वायु की भाँति दुर्बलता भी एक अदृश्य वस्तु है, जिसका ज्ञान उसके कर्म से ही हो सकता है। हम इतने निर्लज्ज, इतने साहसरहित क्यों हैंं? हममें आत्मगौरव का इतना अभाव क्यों है? हमारी निर्जीविता का क्या कारण है? वह मानसिक दुर्बलता के लक्षण है।

इसलिए आवश्यक है कि इन विषभरी नागिनों को आबादी से दूर, किसी पृयक् स्थान मे रखा जाय। तब उन निन्द्य स्थानों की ओर सैर करने को जाते हुए हमें संकोच होगा। यदि वह आबादी से दूर हो और वहाँ घूमने के लिए किसी बहाने की गुजाइश न हो तो ऐसे बहुत कम बेहया आदमी होगे जो इस मीनाबाजार में कदम रखने का साहस कर सकें।

कई महीने बीत गये। वर्षाकाल आ पहुँचा। मेलों-ठेलों की धूम मच गई। सदन बाकी सजधज बनाये मनचले घोड़ेपर चारों ओर घुमा करता। उसके हृदयमे प्रेम लालसा की एक आग-सी जलती रहती अब वह इतना नि:शक हो गया था कि दालमण्डी में घोड़े से उतरकर तम्बोलियों की दूकान पर पान खाने बैठ जाता। वह समझते, यह कोई बिगडा हुआ रईसजादा है। उससे रूप हाटकी नई-नई घटनाओं का वर्णन करते। गाने में कौन अच्छी है और कौन सुन्दरता में अद्वितीय है, इसकी चर्चा छिड़ जाती। इस बाजार में नित्य यह चर्चा रहती। सदन इन बातों को चाव से सुनता। अबतक वह कुछ रसज्ञ हो गया था। पहले जो गजलें निरर्थक मालूम होती थी उन्हें सुनकर अव उसके हृदय का एक एक तार सितार की भाँति गूजने लगता था। संगीत के मधुर स्वर उसे उन्मत्त कर देते, बडी कठिनता से वह अपने को कोठों पर चढने से रोक सकता।

पद्मसिंह सदन को फैशनेबुल तो बनाना चाहते थे, लेकिन उसका [ ७२ ]यहां चली आई। जब हिन्दू जाति को खुदही लाज नही है तो फिर हम जैसी अबलाएँ उसकी रक्षा कहाँ तक कर सकती है।

विट्ठलदास—सुमन, तुम सच कहती हो, बेशक हिन्दू जाति अधोगति को पहुँँच गई, और अब तक वह कभी भी नष्ट हो गई होती, पर हिन्दू स्त्रियों ही ने अभी तक उसकी मर्यादा की रक्षा की है। उन्ही के सत्य और सुकीर्ति ने उसे बचाया है। केवल हिन्दुओं की लाज रखने के लिए लाखों स्त्रियाँ आग में भस्म हो गई है। यही वह विलक्षण भूमि है जहाँ स्त्रियाँ नाना प्रकार के कष्ट भोगकर, अपमान और निरादर सहकर पुरुषों की अमानुषीय क्रूरताओं को चित्त में न लाकर हिन्दू जाति का मुख उज्ज्वल करती थी। यह साधारण स्त्रियों का गुण था और ब्राह्मणियों का तो पूछना ही क्या? पर शोक है कि वही देवियाँ अब इस भाँति मर्यादा का त्याग करने लगी। सुमन, मैं स्वीकार करता हूँ कि तुमको घर पर बहुत कष्ट था, माना कि तुम्हारा पति दरिद्र था, क्रोधी था, चरित्रहीन था, माना कि उसने तुम्हें अपने घर से निकाल दिया था, लेकिन ब्राह्मणी अपनी जाति और कुलके नामपर यह सब दुख झेलती है, आपत्तियों का झेलना और दुरवस्था में स्थिर रहना यही सच्ची ब्राह्मणियों का धर्म है, पर तुमने वह किया जो नीच जाति की कुलटायें किया करती है, पति से रूठकर मैके भागती, और मैके में निबाह न हुआ तो चकलेकी राह लेती है। सोचो तो कितने खेद की बात हैकि जिस अवस्था मे तुम्हारी लाखों बहन हंसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही है, वही अवस्था तुम्हें इतनी असह्य हुई कि तुमने लोकलाज, कूल-मर्यादा को लात मार कर कुपथ ग्रहण किया। क्या तुमने ऐसी स्त्रियाँ नही देखी जो तुमसे कही दीन, हीन, दरिद्र, दुखी है? पर ऐसे कुविचार उनके पास नहीं फटकने पाते, नही आज यह स्वर्गभूमि नरक के समान हो जाती। सुमन, तुम्हारे इस कर्मने ब्राह्मण जाति का नही, समस्त हिन्दू जाति का मस्तक नीचा कर दिया।

सुमन की आँख सजल थी। लज्जा से सिर न उठा सकी। विट्ठलदास फिर बोले! इसमें सन्देह नहीं कि यहाँ तुम्हें भोग विलास की सामग्रियां [ ७३ ] खूब मिलती है, तुम एक ऊँचे, सुसज्जित भवन में निवास करती हो, नर्म कालीनों पर बैठती हो, फूलों की सेजपर सोती हो; भॉति भॉति के पदार्थ खाती हो; लेकिन सोचो तो तुमने यह सामग्रियाँ किन दामों मोल ली हैंं? अपनो मान मर्यादा बेचकर। तुम्हारा कितना आदर था, लोग तुम्हारी पदरज माथे पर चढ़ाते थे, लेकिन आज तुम्हे देखना भी पाप समझा जाता है.............

सुमन ने बात काट कर कहा, महाशय, यह आप क्या कहते है? मेरा तो यह अनुभव है कि जितना आदर मेरा अब हो रहा है उसका शतांश भी तब नही होता था।एक बार में सेठ चिम्मनलाल के ठाकुर द्वारे में झूला देखने गई थी, सारी रात बाहर खडी भीगती रही, किसी ने भीतर न जाने दिया, लेकिन कल उसी ठाकुर द्वारे में मेरा गाना हुआ तो ऐसा जान पड़ता था मानों मेरे चरणो से वह मन्दिर पवित्र हो गया।

विट्ठलदास—लेकिन तुमने यह भी सोचा है कि वह किस आचरण के लोग है।

सुमन—उनके आचरण चाहे जैसे हों, लेकिन वह काशी के हिन्दूसमाज के नेता अवश्य है। फिर उन्ही पर क्या निर्भर है? मै प्रातःकाल से सन्ध्या तक हजारों मनुष्यों को इसी रास्ते आते-जाते देखती हूँ। पढ़े-अपढ़, मूर्ख-विद्वान, धनी-गरीब सभी नजर आते है, तुरन्त सबको अपनी तरफ खुली या छिपी दृष्टि से ताकते पाती हूँ, उनमें कोई ऐसा नही मालूम होता जो मेरी कृपादृष्टि पर हर्ष से मतवाला न हो जाय। इसे आप क्या कहते है? सम्भव है,शहर में दो चार मनुष्य ऐसे हों जो मेरा तिरस्कार करते हो। उनमें से एक आप है, उन्ही में आपके मित्र पद्मसिह है, किन्तु जब संसार मेरा आदर करता है तो इने-गिने मनुष्यों के तिरस्कार की मुझे क्या परवाह है? पद्मसिंह को भी जो चिढ़ है वह मुझसे है, मेरे विरादरी से नही। मैने इन्हीं आँखों से उन्हे होली के दिन भोली से हँसते देखा था।

विट्ठलदास को कोई उत्तर न सूझता था। बुरे फँसे थे। सुमन ने फिर कहा, आप सोचते होगे कि भोगविलास की लालसा से कुमार्ग में आई हूँ, [ ७४ ] पर वास्तव में ऐसा नही है। में ऐसी अन्धी नहीं कि भले-बुरे की पहचान न कर सकूँ। मैं जानती हूंँ कि मैने अत्यन्त निकृष्ट कर्म किया है। लेकिन में विवश थी, इसके सिवा मेरे लिए और कोई रास्ता न था। आप अगर सुन सके तो मैं अपनी राम कहानी सुनाऊँ। इतना तो आप जानते ही है कि संसार में सबकी प्रकृति एक सी नहीं होती। कोई अपना अपमान सह सकता है, कोई नहीं सह सकता। मैं एक ऊँचे कुल की लडकी हूंँ, पिताकी नादानी से मेरा विवाह एक दरिद्र मूर्ख मनुष्य से हुआ, लेकिन दरिद्र होने पर भी मुझसे अपना अपमान न सहा जाता था। जिनका निरादर होना चाहिए उनका आदर होते देखकर मेरे हृदय में कुवासनाएँ उठने लगती थी। मगर मैं इस आग से मन ही मन जलती थी। कभी अपने भावों को किसी से प्रकट नहीं किया। सम्भव था कि कालान्तर में यह अग्नि आप ही आप शान्त हो जाती, पर पद्मसिंह के जलसे ने इस अग्नि को भड़का दिया। इसके बाद मेरी जो-दुर्गति हुई वह आप जानते ही है। पद्मसिंह के घर से निकलकर से भोली बाई की शरण में गई। मगर उस दशा में भी से इस मार्ग से भागती रही। मैने चाहा कि कपड़े सीकर अपना निर्वाह करूँ पर दुष्टों ने मुझे ऐसा तंग किया कि अन्त में मुझे इस कुएँ में कूदना पड़ा। यद्यपि इस काजल की कोठरी आकर पवित्र रहना अत्यन्त कठिन है, पर मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि अपने सत्य की रक्षा करूँगी, गाऊँगी, नाचूँगी पर अपने को भ्रष्ट न होने दूँगी।

विठ्ठल-तुम्हारा यहाँ बैठना ही तुम्हे भ्रष्ट करने के लिए काफी है।

सुमन-तो फिर और क्या कर सकती हूं। आप हो बताइये। मेरे लिए मुझे जीवन बिताने का और कौन-सा उपाय है।

बिठ्ठल—अगर तुम्हें यह आशा है कि यहाँ सुख से जीवन कटेगा तो तुम्हारी बड़ी भूल है। यदि अभी नहीं तो थोड़े दिनों में तुम्हे अवश्य मालूम हो जायगा कि यहां सुख नहीं है। सुख सन्तोष से प्राप्त होता है, बिलास से सुख कभी नही मिल सकता।

सुमन-—सुख न सही यहां पर मेरा आदर तो है। में किसी की गुलाम तो नहीं हूँ। [ ७५ ]विट्ठल—यह भी तुम्हारी भूल है। तुम यहाँ चाहे और किसी की गुलाम न हो, पर अपनी इन्द्रियों की गुलाम तो हो? इन्द्रियों की गुलामी उस पराधीनता से कही दु़:खदायिनी होती है। यहाँ तुम्हें न सुख मिलेगा, न आदर। हाँ, कुछ दिनों भोग विलास कर लोगी, पर अन्त में इससे भी हाथ धोना पड़ेगा। सोचो तो, थोडे दिनों तक इन्द्रियों को सुख देने के लिए तुम अपनी आत्मा और समाज पर कितना बड़ा अन्याय कर रही हो?

सुमन ने आजतक किसी से ऐसी बात न सुनी थी। वह इन्द्रियों के सुख को अपने आदर को जीवन का मुख्य उद्देश्य समझती आई थी उसे आज मालूम हुआ कि सुख सन्तोष से प्राप्त होता है और आदर सेवा से।

उसने कहा, मैं सुख और आदर दोनों ही को छोड़ती हूँ, पर जीवन-निर्वाह का तो कुछ उपाय करना पडेगा?

विट्ठलदास—अगर ईश्वर तुम्हे सुबुद्धि दे तो सामान्य रीति से जीवन-निर्वाह करने के लिए तुम्हे दालमण्डी में बैठने की जरूरत नही है। तुम्हारे जीवन-निर्वाह का केवल यही एक उपाय नही है। ऐसे कितने धन्धे है जो तुम अपने घर में बैठी हुई कर सकती हो।

सुमन का मन अब कोई बहाना न ढूँढ सका। विट्ठलदास के सदुत्साह ने उसे वशीभूत कर लिया। सच्चे आदमी को हम धोखा नही दे सकते। उंसकी सच्चाई हमारे हृदय में उच्च भावों को जागृत कर देती है। उसने कहा, मुझे यहाँ बैठते स्वतः लज्जा आती है। बताइये, आप मेरे लिए क्या प्रबन्ध कर सकते है? मै गाने में निपुण हूँँ। गाना सिखाने का काम कर सकती हूँ।

विट्ठलदास-ऐसी तो यहाँ कोई पाठशाला नहीं है।

सुमन-मैने कुछ विद्या भी पढ़ी है, कन्याओं को अच्छी तरह पढ़ा सकती हूँ।

विट्ठलदासने चिन्तित भाव से उत्तर दिया, कन्या पाठशालाएँ तो कई हैं, पर तुम्हें लोग स्वीकार करेंगे, इसमे सन्देह है।

सुमन-तो फिर आप मुझसे क्या करने को कहते है? कोई ऐसा हिन्दू जातिका प्रेमी है जो मेरे गुजारे के लिए ५०) मासिक देने पर राजी हो? [ ७६ ]विट्ठलदास-यह तो मुश्किल है।

सुमन-तो क्या आप मुझसे चक्की पिसाना चाहते है? मैं ऐसी सन्तोषी नही हूँ।

विट्ठलदास (झेंपकर) विधवाश्रम में रहना चाहो तो उसका प्रबन्ध कर दिया जाय।

सुमन-(सोचकर) मुझे यह भी मंजूर है, पर वहां ने स्त्रियों को अपने सम्बन्ध में कानाफूसी करते देखा तो पलभर न ठहरूंगी।

विट्ठलदास-यह टेढ़ी शर्त है, मैं किस किसकी जबान को रोकूँगा। लेकिन मेरी समझमें सभा वाले तुम्हे लेने पर राजी भी न होगे।

सुमन ने तान से कहा, तो जब आपकी हिन्दू जाति इतनी ह्दयशून्य है। तो उसकी मर्यादा पालन के लिए क्यों कष्ट भोगूँ, क्यों जान दूँ। जब आप मुझे अपनाने के लिए जाति को प्रेरित नहीं कर सकते, तब जाति आप ही लज्जाहीन है तो मेरा क्या दोष है। मैं आपसे केवल एक प्रस्ताव और करूंगी और यदि आप उसे भी पूरा न कर सकेंगे तो फिर मैं आपको और कष्ट न दूंगी। आप पं पद्मसिंह को एक घंटे के लिए मेरे पास बुला लाइये, में उनसे एकान्त में कुछ कहना चाहती हूं। उसी घड़ी में यहां से चली जाऊंगी। मैं केवल यह देखना चाहती हूं कि जिन्हें आप जाति के नेता कहते हैं, उनकी दृष्टि में मेरे पश्चाताप का कितना मूल्य है। विट्ठलदास खुश होकर बोले, हाँ, यह में कर सकता हूँ, बोलो किस दिन?

सुमन--जब आपका जी चाहें।

विठ्ठलदास-फिर तो न जाओगी?

सुमन—अभी इतनी नीच नही हुई हूँ?

१६

महाशय विठ्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हे कोई सम्पत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुँह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से