सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ८० ] रोक सके। यथा में वह सुमन की रक्षा करना चाहते थे, लेकिन गुप्तरीति से। बोले, उसकी और भी तो शर्त है?

विठ्ठल—जो हाँ, है तो, लकिन आपमें उन्हे पूरा करने की सामर्थ्य है? वह गुजारे लिये ५० मासिक मॉगती है, आप दे सकते है?

शर्माजी-५०) नही, लेकिन २०) देने को तैयार हूँ।

विठ्ठल-शर्माजी बातें न बनाइये। एक जरा सा कष्ट तो आपसे उठाया नही जाता, आप २० मासिक देगे!

शर्माजी—मैं आपको वचन देता हूँ कि २०) मासिक दिया करेगा और अगर मेरी आमदनी कुछ भी बढ़ी तो पूरी रकम दे दूंगा। हां, इस समय विवश हैं। यह २०) भी घोडागाड़ी बेचने से बच सकेंगे मालूम नही क्यों इन दिनों मेरा बाजार गिरा जा रहा है।

विट्ठल—अच्छा, आपने २०) दे ही दिये तो शेष कहाँ से आयेंगे? औरों का तो हाल आप जानते ही है, विधवाश्रमके चन्दे ही कठिनाईसे वसूल होते है। में जाता हूँ यथाशक्ति उद्योग करेगा, लेकिन यदि कार्य सिद्ध न हुआ तो उसका दोप आपके सिर पड़ेगा।

१७

सन्ध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छजो और खिड़कियो की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहीं आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न किसी बहाने जरा देर के लिए अवश्य ठहर जाता है। इस नव-कुसुम ने उसकी प्रेमलाल सा को ऐसा उत्तेजित कर दिया है कि अब उसे किसी पल चैन नही पड़ता। उसके रूप-लावण्य में एक प्रकार की मनोहारिणी सरलता है जो उसके हृदय को बलात्अ पनी ओर खींचती है। वह इस सरल सौंदर्यमूर्ति को अपना प्रेम अर्पण करने का परम अभिलाषी है, लेकिन उसे इसका कोई अवसर नही मिलता, सुमन के यहाँ रसिकों का नित्य जमघट रहता है। सदन को यह भय होता कि इनमे कोई चचा की जान-पहचान का मनुष्य न हो। इसलिये उसे ऊपर [ ८१ ] जाने का साहस नहीं होता। अपनी प्रबल आकांक्षा को हृदय में छिपाये वह नित्य इसी तरह निराश होकर लौट जाता है। लेकिन आज उसने मुलाकात करने का निश्चय कर लिया है, चाहे कितनी देर क्यों न हो जाय। विरह का दाह अब उससे नही सहा जाता। वह सुमन के कोठे के सामने पहुंचा। श्यामकल्याण की मधुर ध्वनि आ रही थी। आगे बढा और दो घंटे तक पार्क और मैदान में चक्कर लगाकर नौ बजे फिर दालमंडी की ओर चला।

आश्विन के चन्द्र की उज्ज्वल किरणों न दालमंडी की ऊँची छतों पर रुपहली चादर-सी बिछा दी थी। वह फिर सुमन के कोठे सामने रुका। संगीत ध्वनि बन्द थी, कुछ बोलचाल न सुनाई दी। निश्चय हो गया कि कोई नही है। घोडे से उतरा उसे नीचे की दूकान के एक खम्भे से बॉध दिया और सुमन के द्वार पर खड़ा हो गया। उसकी सॉस बड़े वेग से चल रही थी और छाती जोर से धड़क रही थी।

सुमन का मुजरा अभी समाप्त हुआ था, और उसके मन पर वह शिथिलता छाई हुई थी जो आँधी के पीछे आनेवाले सन्नाटे के समान आमोद-प्रमोद का प्रतिफल हुआ करती है। यह एक प्रकार की चेतावनी होती है जो आत्मा की ओर से भोगविलास में लिप्त मन को मिलती है। इस दशा में हमारा हृदय पुरानी स्मृतियों का क्रीड़ा क्षेत्र बन जाया करता है। थोडी देर के लिए हमारे ज्ञानचक्षु खुल जाते है। सुमन का ध्यान इस समय सुभद्रा की ओर लगा हुआ था। वह मन उससे अपनी तुलना कर रही थी। जो शान्तिमय सुख उसे प्राप्त है, क्या वह मुझे मिल सकता है? असभव! यह तृष्णासागर है, यहाँ शान्तिसुख कहाँ? जब पद्मसिंह के कचहरी से आने का समय होता तो सुभद्रा कितनी उल्लसित होकर पान के वीड़े लगाती थी, ताजा हलवा पकाती थी। जब वह घर आते थे तो वह कैसी प्रेम विह्वल होकर उनसे मिलने दौड़ती थी। आह! मैंने उनका प्रेमालिंगन भी देखा है कितना भाव समय में कितना सच्चा। मुझे वह सुख कहाँ? यहाँ तो अन्धे आते है, या बातों के वीर। कोई अपने धन का जाल बिछाता है, कोई अपनी चिकनी चुपडी बातो का। उनके हृदय भावशून्य, शुष्क ओर ओछेपन से भरे हुए होते है। [ ८२ ]इतने में सदन ने कमरे में प्रवेश किया। सुमन चौंक पड़ी। उसने सदन को कई दिन देखा था। उसका चेहरा उसे पद्मसिंह के चेहरे से मिलता हुआ मालूम होता था। हाँ उस गंभीरता की जगह एक उदंडता झलकती थी? वह काइयाँपन, वह क्षुद्रता, जो इस माया नगर के प्रेमियों का मुख्य लक्षण है, वहाँ नामको भी न थी। वह सीधासादा, सहज स्वभाव, सरल नवयुवक मालूम होता था। सुमन ने आज उसे कोठों का निरीक्षण करते देखा था। उसने ताड़ लिया था कि कबूतर अब पर तौल रहा है, किसी छतरी उतरना चाहता है। आज उसे अपने यहाँ देखकर उसे गर्वपूर्ण आनन्द हुआ जो दंगल में कुश्ती मारकर किसी पहलवान को होता है। वह उठी और मुस्कुराकर सदन की ओर हाथ बढाया।

सदन का मुख लज्जासे अरुणव हो गया। आँखे झुक गई। उस पर एक रोब-सा छा गया। मुख से एक शब्द भी न निकला।

जिसने कभी मदिरा का सेवन न किया हो, मदलालसा होने पर भी उसे मुँह से लगाते हुए वह झिझकता है।

यद्यपि सदन ने सुमनबाई को अपना परिचय ठीक नहीं दिया, उसने अपना नाम कुंवर सदनसिंह बताया, पर उसका भेद बहुत दिनों तक न छिप सका। सुमन ने हिरिया के द्वारा उसका पता भली भाँति लगा लिया और तभी से वह बड़े चक्कर में पड़ी हुई थी। सदन को देखे बिना उसे चैन न पड़ता, उसका हृदय दिनो दिन उसको ओर खिंचता जाता था। उसके बैंठे सुमन के यहाँ किसी बड़े से-रईस का गुजर होना भी कठिन था। किन्तु वह इस प्रेम को अनुचित और निषिद्ध समझती थी, इसे छिपाती थी। उसकी कल्पना किसी अव्यक्त कारण से प्रेमलालसा को भीषण विश्वासघात समझती थी? कही पद्मसिंह और सुभद्रा पर यह रहस्य खुल जाय तो वह मुझे क्या समझेगे? उन्हें कितना दु:ख होगा? में उनकी दृष्टि में कितनी नींव अीर घृणित हो जाऊंगी? जब कभी सदन प्रेमरहस्य की बात करने लगता तो सुमन बात को पलट देती जब कभी सदन की अँगुलियाँ ढिठाई करना चाहती तो वह उसकी और लज्जा युक्त नेत्रों से देखकर धीरे से उसका हाथ हटा देती। साथ ही, [ ८३ ] वह सदन को उलझाये भी रखना चाहती थी। इस प्रेम कल्पना से उसे जो आनन्द मिलता था, उसका त्याग करने में वह असमर्थ थी।

लेकिन सदन उसके भावों से अनभिज्ञ होने के कारण उसकी प्रेम शिथिलता को अपनी धनहीनता पर अवलबित समझता था। उसका निष्कपट हृदय प्रगाढ़ प्रेम में मग्न हो गया था। सुमन उसके जीवन का आधार बन गई थी। मगर विवित्रता यह थी कि प्रेमलालसा के इतने प्रबल होते हुए भी वह अपनी कुवासनाओं को दबाता था। उसका अक्खड़पन लुप्त हो गया था। वह वही करना चाहता था जो सुमन को पसन्द हो। वह कामातुरता जो कलुषित प्रेम में व्याप्त होती है, सच्चे अनुराग के आधीन होकर सहृदयता में परिवर्तित हो गई थी, पर सुमन की अनिच्छा दिनों दिन बढ़ती देखकर उसने अपने मन में यह निर्धारित किया कि पवित्र प्रेम की कदर यहाँ नही हो सकती। यहाँ के देवता उपासना से नही, भेंट से प्रसन्न होते है लेकिन भटके लिये रुपये कहाँ से आधे? मांगे किससे? निदान उसने पिता को एक पत्र लिखा कि यहाँ मेरे भोजन का अच्छा प्रबंध नही है, लज्जावश चाचा साहब से कुछ कह नही सकता, मुझे कुछ रुपये भेज दीजिये।

घरपर यह पत्र पहुँचा तो मामा ने पति को ताने देने शुरू किये इसी भाई का तुम्हें इतना भरोसा था, घमंड से धरती पर पाँव नहीं रखते थे। अब घमंड टूटा कि नहीं? वह भी चाचा पर बहुत फूला हुआ था, अब आंखें खुली होगी। इस काल में नेकी किसी को याद नही रहती, अपने दिन भूल जाते है। उसके लिये ने कौन-कौन सा यत्न नही किया, छाती से दूध भर नहीं पिलाया। उसी का यह बदला मिल रहा है। उस बेचारे का कुछ दोष नहीं, उसे में जानती हूँ, यह सारी करतूत उन्ही महारानी की है। अबकी भेंट हुई तो वह खरी खरी सुनाऊँ कि याद करे।

मदनसिंह को सन्देह हुआ कि सदन ने यह पाखंड रचा है। भाई पर उन्हें अखंड विश्वास था, लेकिन जब मामा ने रुपये भेजने पर जोर दिया तो उन्हें जमे पड़े। सदन रोज डाकघर जाता, डाकिये से बारबार पूछता। आखिर चौथे दिन २५) का मनीआर्डर आया। डाकियां उसे पहचानता था,