साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ १ से – ४४ तक

 

साहित्य का उद्देश्य


सज्जनो,

यह सम्मेलन हमारे साहित्य के इतिहास में एक स्मरणीय घटना है। हमारे सम्मेलनों और अंजुमनों में अब तक आम तौर पर भाषा और उसके प्रचार पर ही बहस की जाती रही है। यहाँ तक कि उर्दू और हिन्दी का जो आरम्भिक साहित्य मौजूद है, उसका उद्देश्य विचारों और भावों पर असर डालना नहीं, केवल भाषा का निर्माण करना था। वह भी एक बड़े महत्व का कार्य था। जब तक भाषा एक स्थायी रूप न प्राप्त कर ले, उसमें विचारों और भावों को व्यक्त करने की शक्ति ही कहाँ से आयेगी? हमारी भाषा के 'पायनियरों' ने-रास्ता साफ करने वालों ने-हिन्दुस्तानी भाषा का निर्माण करके जाति पर जो एहसान किया है, उसके लिए हम उनके कृतज्ञ न हों तो यह हमारी कृतघ्नता होगी।

भाषा साधन है, साध्य नहीं। अब हमारी भाषा ने वह रूप प्राप्त कर लिया है कि हम भाषा से आगे बढ़कर भाव की ओर ध्यान दें और इस पर विचार करें कि जिस उद्देश्य से यह निर्माण कार्य प्रारम्भ किया गया था, वह क्योंकर पूरा हो। वही भाषा, जिसमें आरम्भ में 'बागोबहार' और 'बैताल-पचीसी' की रचना ही सबसे बड़ी साहित्य-सेवा थी, अब इस योग्य हो गयी है कि उसमें शास्त्र और विज्ञान के प्रश्नों की भी विवेचना की जा सके और यह सम्मेलन इस सचाई की स्पष्ट स्वीकृति है।

भाषा बोल-चाल की भी होती है और लिखने की भी। बोल-चाल; की भाषा तो मीर अम्मन और लल्लूलाल के जमाने मे भी मौजूद थी पर उन्होंने जिस भाषा की दाग बेल डाली, वह लिखने की भाषा थी और वही साहित्य है। बोल-चाल से हम अपने करीब के लोगो पर अपने विचार प्रकट करते है— अपने हर्ष-शोक के भावों का चित्र खींचते है। साहित्यकार वही काम लेखनी-द्वारा करता है। हाँ, उसके श्रोताओं की परिधि बहुत विस्तृत होती है, और अगर उसके बयान मे सचाई है, तो शताब्दियों और युगों तक उसकी रचनाएँ हृदयो को प्रभावित करती रहती है।

परन्तु मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि जो कुछ लिख दिया जाय, वह सब का सब साहित्य है। साहित्य उसी रचना को कहेगे जिसमे कोई सचाई प्रकट की गयी हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित एव सुन्दर हो और जिसमे दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो। और साहित्य मे यह गुण पूर्ण रूप से उसी अवस्था मे उत्पन्न होता है, जब उसमे जीवन की सचाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गयी हों। तिलस्माती कहानियों, भूत-प्रेत की कथाओं ओर प्रेम-वियोग के आख्यानों से किसी जमाने मे हम भले ही प्रभावित हुए हो; पर अब उनमें हमारे लिए बहुत कम दिलचस्पी है। इसमे सन्देह नहीं कि मानव-प्रकृति का मर्मज्ञ साहित्यकार राजकुमारों की प्रेम-गाथाओं और तिलस्माती कहानियों मे भी जीवन की सचाइयाँ वर्णन कर सकता है, और सौन्दर्य की सृष्टि कर सकता है, परन्तु इससे भी इस सत्य की पुष्टि ही होती है कि साहित्य मे प्रभाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन की सचाइयों का दर्पण हो। फिर आप उसे जिस चौखटे मे चाहे, लगा सकते है— चिड़े की कहानी और गुलोबुलबुल की दास्तान भी उसके लिए उपयुक्त हो सकती है।

साहित्य की बहुत-सी परिभाषाएँ की गयी है; पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा 'जीवन की आलोचना' है। चाहे वह निबन्ध के रूप में हो, चाहे कहानियों के, या काव्य के, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।

हमने जिस युग को अभी पार किया है, उसे जीवन से कोई मतलब न था। हमारे साहित्यकार कल्पना की एक सृष्टि खड़ी करके उसमें मनमाने तिलस्म बाँधा करते थे। कहीं फिसानये अजायब की दास्तान थी, कहीं बोस्ताने ख़याल की और कहीं चन्द्रकान्ता-सन्तति की। इन आख्यानों का उद्देश्य केवल मनोरञ्जन था और हमारे अद्भुत-रस-प्रेम की तृप्ति, साहित्य का जीवन से कोई लगाव है, यह कल्पनातीत था। कहानी कहानी है, जीवन जीवन। दोनों परस्पर-विरोधी वस्तुएँ समझी जाती थीं। कवियों पर भी व्यक्तिवाद का रंग चढ़ा हुआ था। प्रेम का आदर्श वासनाओं को तृप्त करना था, और सौन्दर्य का आँखों को। इन्ही श्रृङ्गारिक भावो को प्रकट करने मे कवि-मंडली अपनी प्रतिभा और कल्पना के चमत्कार दिखाया करती थी। पद्य मे कोई नयी शब्द-योजना, नयी कल्पना का होना दाद पाने के लिए काफी था— चाहे वह वस्तुस्थिति से कितनी ही दूर क्यों न हो। आशियाना और कफस, बर्क और खिरमन की कल्पनाएँ, विरह दशाओं के वर्णन में निराशा और वेदना की विविध अवस्थाएँ, इस खूबी से दिखायी जाती थीं कि सुनने वाले दिल थाम लेते थे। और आज भी इस ढंग की कविता कितनी लोक-प्रिय है, इसे हम और आप खूब जानते हैं।

निस्सन्देह, काव्य और साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढाना है, पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरुष-प्रेम का जीवन नहीं है। क्या वह साहित्य, जिसका विषय श्रृङ्गारिक मनोभावों और उनसे उत्पन्न होनेवाली विरह व्यथा निराशा आदि तक ही सीमित हो— जिसमें दुनिया और दुनिया की कठिनाइयों से दूर भागना ही जीवन की सार्थकता समझी गयी हो, हमारी विचार-और भाव-सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है? श्रृङ्गारिक मनोभाव मानव-जीवन का एक अंग मात्र है, और जिस साहित्य का अधिकांश इसी से सम्बन्ध रखता हो, वह उस जाति और उस युग के लिए गर्व करने की वस्तु नहीं हो सकता और न उसकी सुरुचि का ही प्रमाण हो सकता है।

क्या हिन्दी और क्या उर्दू-कविता में दोनो की एक ही हालत थी। उस समय साहित्य और काव्य के विषय में जो लोक-रुचि थी, उसके प्रभाव से अलिप्त रहना सहज न था। सराहना और कद्रदानी की हवस तो हर एक को होती है । कवियों के लिए उनकी रचना ही जीविका का साधन थी । और कविता की कद्रदानी रईसों और अमीरों के सिवा और कौन कर सकता है ? हमारे कवियो को साधारण जीवन का सामना करने और उसकी सचाइयों से प्रभावित होने के या तो अवसर ही न थे, या हर छोटे-बड़े पर कुछ ऐसी मानसिक गिरावट छायी हुई थी कि मानसिक और बौद्धिक जीवन रह ही न गया था ।

हम इसका दोष उस समय के साहित्यकारों पर ही नहीं रख सकतें। साहित्य अपने काल का प्रतिबिम्ब होता है । जो भाव और विचार लोगों के हृदयो को स्पन्दित करते हैं, वही साहित्य पर भी अपनी छाया डालते हैं । ऐसे पतन के काल में लोग या तो आशिकी करते हैं, या अध्यात्म और वैराग्य में मन रमाते हैं । जब साहित्य पर संसार की नश्वरता का रंग चढ़ा हो, और उसका एक एक शब्द नैराश्य में डूबा हो, समय की प्रतिकूलता के रोने से भरा हो और शृङ्गारिक भावों का प्रतिबिम्ब बन गया हो, तो समझ लीजिये कि जाति जड़ता और हास के पंजे मे फंँस चुकी है और उसमें उद्योग तथा संघर्ष का बल बाकी नही रहा ; उसने ऊँचे लक्ष्यों की ओर से ऑखें बन्द कर ली है और उसमें से दुनिया को देखने- समझने की शक्ति लुप्त हो गयी है।

परन्तु हमारी साहित्यिक रुचि बड़ी तेजी से बदल रही है। अब साहित्य केवल मन-बहलाब की चीज नहीं है, मनोरञ्जन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग- वियोग की कहानी नहीं सुनाता; किन्तु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है, और उन्हे हल करता है । अब वह स्फूर्ति या प्रेरणा के लिए अद्भुत आश्चर्यजनक घटनाएँ नही ढूँढ़ता और न अनुप्रास का अन्वे- षण करता है; किन्तु उसे उन प्रश्नों से दिलचस्पी है, जिनसे समाज या व्यक्ति प्रभावित होते हैं। उसकी उत्कृष्टता की वर्तमान कसौटी अनुभूति की वह तीव्रता है, जिससे वह हमारे भावों और विचारों में गति पैदा करता है।

नीति-शास्त्र और साहित्य-शास्त्र का लक्ष्य एक ही है— केवल उप- देश की विधि मे अन्तर है । नीति-शास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है, साहित्य ने अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है । हम जीवन मे जो कुछ देखते है, या जो कुछ हम पर गुजरती है, वही अनुभव और वही चोटे कल्पना में पहुँचकर साहित्य सृजन की प्रेरणा करती हैं । कवि या साहित्यकार मे अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, उसकी रचना उतनी ही आकर्षक और ऊँचे दर्जे की होती है । जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौन्दर्य-प्रेम न जाग्रत हो-जो हममे सच्चा सङ्कल्प और कठिनाइयो पर विजय पाने की सच्ची दृढता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहाने का अधिकारी नहीं ।

पुराने जमाने में समाज की लगाम मजहब के हाथ में थी। मनुष्य की आध्यात्मिक और नैतिक सभ्यता का आधार धार्मिक आदेश था और वह भय या प्रलोभन से काम लेता था-पुण्य-पाप के मसले उसके साधन थे।

अब साहित्य ने यह काम अपने जिम्मे ले लिया है और उसका साधन सोन्दर्य-प्रेम है । वह मनुष्य में इसी सौन्दर्य प्रेम को जगाने का यत्न करता है । ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमे सौन्दर्य की अनुभूति न हो । साहित्यकार में यह वृत्ति जितनी ही जाग्रत और सक्रिय होती है, उसकी रचना उतनी ही प्रभावमयी होती है। प्रकृति-निरीक्षण और अपनी अनुभूति की तीक्ष्णता की बदौलत उसके सौन्दर्य-बोध में इतनी तीव्रता आ जाती है कि जो कुछ असुन्दर है,अभद्र है, मनुष्यता से रहित है, वह उसके लिए असह्य हो जाता है । उस पर वह शब्दों और भावों की सारी शक्ति से वार करता है । यो कहिये कि वह मानवता, दिव्यता और भद्रता का बाना बॉंधे होता है । जो दलित है, पीड़ित है, वञ्चित है- चाहे वह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत और वकालत करना उसका फर्ज है । उसकी अदालत समाज है। इसी अदालत के सामने वह अपना इस्तगासा पेश करता है और उसकी न्याय-वृत्ति तथा सौन्दर्य-वृत्ति को जाग्रत करके अपना यत्न सफल समझता है।

पर साधारण वकीलों की तरह साहित्यकार अपने मुवक्किल की ओर से उचित-अनुचित सब तरह के दावे नहीं पेश करता, अति- रञ्जना से काम नहीं लेता, अपनी ओर से बातें गढ़ता नही। वह जानता है कि इन युक्तियों से वह समाज की अदालत पर असर नहीं डाल सकता। उस अदालत का हृदय-परिवर्तन तभी सम्भव है, जब ‌आप सत्य से तनिक भी विमुख न हों, नहीं तो अदालत की धारणा आपकी ओर से खराब हो जायगी और वह आपके खिलाफ फैसला सुना देगी । वह कहानी लिखता है, पर वास्तविकता का ध्यान रखते हुए; मूर्ति बनाता है पर ऐसी कि उसमे सजीवता हो और भावव्यञ्जकता भी— वह मानव-प्रकृति का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करता है, मनो- विज्ञान का अध्ययन करता है और इसका यत्न करता है कि उसके पात्र हर हालत में और हर मौके पर इस तरह आचरण करे, जैसे रक्त मांस का बना मनुष्य करता है। अपनी सहज सहानुभूति और सौन्दर्य-प्रेम के कारण वह जीवन के उन सूक्ष्म स्थानों तक जा पहुँचता है, जहाँ मनुष्य अपनी मनुष्यता के कारण पहुचने मे असमर्थ होता है।

आधुनिक साहित्य में वस्तु-स्थिति-चित्रण की प्रवृत्ति इतनी बढ़ रही है कि आज की कहानी यथासम्भव प्रत्यक्ष अनुभवों की सीमा के बाहर नहीं जाती। हमें केवल इतना सोचने से ही सन्तोष नहीं होता कि मनोविज्ञान की दृष्टि से सभी पात्र मनुष्यों से मिलते-जुलते है, बल्कि हम यह इत्मीनान चाहते हैं कि वे सचमुच के मनुष्य हैं, और लेखक ने यथासम्भव उनका जीवन-चरित्र ही लिखा है क्योंकि कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में हमारा विश्वास नहीं है : उनके कार्यों और विचारों से हम प्रभावित नही होते । हमे इसका निश्चय हो जाना चाहिये कि लेखक ने जो सृष्टि की है, वह प्रत्यक्ष अनुभवो के आधार पर की गई है और अपने पात्रों की जबान से वह खुद बोल रहा है।

इसीलिए साहित्य को कुछ समालोचको ने लेखक का मनोवैज्ञानिक जीवन चरित्र कहा है।

एक ही घटना या स्थिति से सभी मनुष्य समान रूप में प्रभावित नहीं होते । हर आदमी की मनोवृत्ति और दृष्टिकोण अलग है। रचना कौशल इसी मे है कि लेखक जिस मनोवृत्ति या दृष्टिकोण से किसी बात को देखें, पाठक भी उसमें उससे सहमत हो जाय । यही उसकी सफलता है। इसके साथ ही हम साहित्यकार से यह भी आशा रखते हैं कि वह अपनी बहुज्ञता और अपने विचारों की विस्तृति से हमें जाग्रत करे, हमारी दृष्टि तथा मानसिक परिधि को विस्तृत करे- उसकी दृष्टि इतनी सूक्ष्म, इतनी गहरी और इतनी विस्तृत हो कि उसकी रचना से हमें आध्यात्मिक आनन्द और बल मिले ।

सुधार को जिस अवस्था में वह हो, उससे अच्छी अवस्था पाने की प्रेरणा हर आदमी मे मौजूद रहती है । हममे जो कमजोरियों है वह मर्ज की तरह हमसे चिमटी हुई है। जैसे शारीरिक स्वास्थ्य एक प्राकृ- तिक बात है और रोग उसका उलटा उसी तरह नैतिक और मानसिक स्वास्थ्य भी प्राकृतिक बात है और हम मानसिक तथा नैतिक गिरावट से उसी तरह सन्तुष्ट नहीं रहते, जैसे कोई रोगी अपने रोग से सन्तुष्ट नहीं रहता। जैसे वह सदा किसी चिकित्सक की तलाश मे रहता है, उसी तरह हम भी इस फिक्र में रहते हैं कि किसी तरह अपनी कमजोरियों को परे फेंककर अधिक अच्छे मनुष्य बने । इसीलिए हम साधु-फकीरों की खोज में रहते है, पूजा-पाठ करते हैं, बड़े-बूढ़ो के पास बैठते हैं, विद्वानों के व्याख्यान सुनते हैं और साहित्य का अध्ययन करते हैं।

और हमारी सारी कमजोरियों की जिम्मेदारी हमारी कुरुचि और प्रेम-भाव से वञ्चित होने पर है। जहाँ सच्चा सौन्दर्य-प्रेम है, जहाँ प्रेम की विस्तृति है, वहाँ कमजोरियों कहाँ रह सकती है ? प्रेम ही तो आध्यात्मिक भोजन है और सारी कमजोरियॉ इसी भोजन के न मिलने, अथवा दूषित भोजन के मिलने से पैदा होती हैं। कलाकार हममें सौन्दर्य की अनुभूति उत्पन्न करता है और प्रेम की उष्णता। उसका एक वाक्य, एक शब्द, एक संकेत, इस तरह हमारे अन्दर जा बैठता है कि हमारा अन्तःकरण प्रकाशित हो जाता है । पर जब तक कलाकार खुद सौन्दर्य-प्रेम से छककर मस्त न हो और उसकी आत्मा स्वयं इस ज्योति से प्रकाशित न हो, वह हमें यह प्रकाश क्योकर दे सकता है ?

प्रश्न यह है कि सौन्दर्य है क्या वस्तु ? प्रकटतः यह प्रश्न निरर्थक सा मालूम होता है क्योंकि सौन्दर्य के विषय मे हमारे मन मे कोई शंका-सन्देह नहीं। हमने सूरज का उगना और डूबना देखा है, ऊषा और सन्ध्या की लालिमा देखी है, सुन्दर सुगन्धि-भरे फूल देखे हैं, मीठी बोलियों बोलनेवाली चिड़ियाँ देखी हैं, कल-कल निनादिनी नदियों देखी हैं, नाचते हुए झरने देखे है— यही सौन्दर्य है।

इन दृश्यो को देखकर हमारा अन्तःकरण क्यो खिल उठता है ? इसलिए कि इनमे रंग या ध्वनि का सामंजस्य है। बाजों का स्वर- साम्य अथवा मेल ही संगीत की मोहकता का कारण है । हमारी रचना ही तत्त्वो के समानुपात में सयोग से हुई है। इसलिए हमारी आत्मा सदा उसी साम्य तथा सामंजस्य की खोज मे रहती है । साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौन्दर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं । वह हममे वफादारी, सचाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता और ममता के भावो की पुष्टि करता है। जहाँ ये भाव हैं, वहीं दृढ़ता है और जीवन है, जहाँ इनका अभाव है वहीं फूट, विरोध, स्वार्थपरता है— द्वेष, शत्रुता और मृत्यु है । यह बिलगाव, विरोध, प्रकृति-विरुद्ध जीवन के लक्षण हैं, जैसे रोग प्रकृति-विरुद्ध आहार- विहार का चिह्न है। जहाँ प्रकृति से अनुकूलता और साम्य है, वहाँ सकीर्णता और स्वार्थ का अस्तित्व कैसे सम्भव होगा ? जब हमारी आत्मा प्रकृति के मुक्त वायुमण्डल में पालित-पोषित होती है, तो नीचता-दुष्टता के कीड़े अपने आप हवा और रोशनी से मर जाते है । प्रकृति से अलग होकर अपने को सीमित कर लेने से ही ये सारी मानसिक और भावगत बीमारियों पैदा होती हैं । साहित्य हमारे जीवन को स्वाभाविक और स्वाधीन बनाता है। दूसरे शब्दो में, उसी की बदौलत मन का संस्कार होता है । यही उसका मुख्य उद्देश्य है।

'प्रगतिशील लेखक-संघ', यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है । अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। उसे अपने अन्दर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। अपनी कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वच्छन्दता की जिस अवस्था मे देखना चाहता है, वह उसे दिखाई नहीं देती। इसलिए, वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है । वह इन अप्रिय अवस्थाओं का अन्त कर देना चाहता है, जिससे दुनिया में जीने और मरने के लिये इससे अधिक अच्छा स्थान हो जाय । यही वेदना और यही भाव उसके हृदय और मस्तिष्क को सक्रिय बनाये रखता है । उसका दर्द से भरा हृदय इसे सहन नहीं कर सकता कि एक समुदाय क्यों सामाजिक नियमों और रूढ़ियों के बन्धन में पड़कर कष्ट भोगता रहे ? क्यो न ऐसे सामान इकट्ठा किये जाये कि वह गुलामी और गरीबी से छुटकारा पा जाय ? वह इस वेदना को जितनी बेचैनी के साथ अनुभव करता है, उतना ही उसकी रचना में जोर और सचाई पैदा होती है । अपनी अनुभूतियों को वह जिस क्रमानुपात में व्यक्त करता है, वही उसकी कला-कुशलता का रहस्य है । पर शायद इस विशेषता पर जोर देने की जरूरत इसलिए पड़ी कि प्रगति या उन्नति से प्रत्येक लेखक या ग्रन्थकार एक ही अर्थ नहीं ग्रहण करता । जिन अवस्थाओं को एक समुदाय उन्नति समझ सकता है, दूसरा समुदाय असन्दिग्ध अवनति मान सकता है, इसलिए कि यह साहित्यकार अपनी कला को किसी उद्देश्य के अधीन नहीं करना चाहता। उसके विचारो में कला केवल मनोभावों के व्यक्तीकरण का नाम है, चाहे उन भावों से व्यक्ति या समाज पर कैसा ही असर क्यों न पड़े।

उन्नति से हमारा तात्पर्य उस स्थिति से है, जिससे हममें दृढ़ता और कर्म-शक्ति उत्पन्न हो, जिससे हमें अपनी दुःखावस्था की अनुभूति हो, हम देखें कि किन अन्तर्बाह्य कारणों से हम इस निर्जीवता और ह्रास की अवस्था को पहुँच गये, और उन्हें दूर करने की कोशिश करे।

हमारे लिए कविता के वे भाव निरर्थक हैं, जिनसे संसार की नश्वरता का आधिपत्य हमारे हृदय पर और दृढ हो जाय, जिनसे हमारे हृदयों मे नैराश्य छा जाय । वे प्रेम-कहानियों, जिनसे हमारे मासिक-पत्रों के पृष्ठ भरे रहते हैं, हमारे लिए अर्थहीन है, अगर वे हममें हरकत और गरमी नहीं पैदा करतीं। अगर हमने दो नवयुवको की प्रेम-कहानी कह डाली, पर उससे हमारे सौन्दर्य-प्रेम पर कोई असर न पड़ा और पड़ा भी तो केवल इतना ही कि हम उनकी विरह व्यथा पर रोये, तो इसमे हममे कौन-सी मानसिक या रुचि सम्बन्धी गति पैदा हुई ? इन बातों से किसी जमाने में हमें भावावेश हो जाता रहा हो तो हो जाता रहा हो पर आज के लिए वे बेकार हैं । इस भावोत्तेजक कला का अब जमाना नहीं रहा । अब तो हमे उस कला की आवश्यकता है, जिसमें कर्म का सन्देश हो । अब तो हजरते इकबाल के साथ हम भी कहते हैं-

रम्जे हयात जोई जुज़दर तपिश नयाबी,
दरकुलजुम आरमीदन नगस्त आबे जूरा ।

ब आशियाॅ न नशीनम जे लज्ज़ैते परवाज,
गहे बशाखे गुलम गहे बरलबे जयम ।


[अर्थात्, अगर तुझे जीवन के रहस्य की खोज है, तो वह तुझे संघर्ष के सिवा और कहीं नहीं मिलने का— सागर मे जाकर विश्राम करना नदी के लिए लज्जा की बात है। आनन्द पाने के लिए मैं घोंसले मे कभी बैठता नहीं,-कभी फूलों की टहनियो पर, तो कभी नदी-तट पर होता हूँ।]

अतः हमारे पथ मे अहवाद अथवा अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को प्रधानता देना वह वस्तु है, जो हमे जड़ता, पतन और लापरवाही की ओर ले जाती है और ऐसी कला हमारे लिए न व्यक्ति-रूप मे उपयोगी है और न समुदाय-रूप मे ।

मुझे यह कहने मे हिचक नहीं कि मै और चीजो की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तोलता हूँ । निस्सन्देह कला का उद्देश्य सौन्दर्य-वृत्ति की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनन्द की कुञ्जी है; पर ऐसा काई रुचिगत मानसिक तथा आध्यात्मिक आनन्द नहीं, जो अपनी उपयोगिता का पहलु न रखता हो । आनन्द स्वतः एक उपयोगिता-युक्त वस्तु है और उपयोगिता की दृष्टि से एक ही वस्तु से हमे सुख भी होता है, और दुःख भी । आसमान पर छायी लालिमा निस्सन्देह बड़ा सुन्दर दृश्य है, परन्तु आषाढ में अगर आकाश पर वैसी लालिमा छा जाय, तो वह हमें प्रसन्नता देनेवाली नही हो सकती। उस समय तो हम आसमान पर काली-काली घटाएँ देखकर ही आनन्दित होते हैं । फूलों को देखकर हमें इसलिए आनन्द होता है कि उनसे फलों की आशा होती है । प्रकृति से अपने जीवन का सुर मिलाकर रहने में हमे इसीलिए आध्यात्मिक सुख मिलता है कि उससे हमारा जीवन विकसित और पुष्ट होता है। प्रकृति का विधान वृद्धि और विकास है, और जिन भावो, अनुभूतियो और विचारो से हमे अनन्द मिलता है वे इसी वृद्धि और विकास के सहायक है। कलाकार अपनी कला से सोन्दर्य की सृष्टि करके परिस्थिति को विकास के उपयोगी बनाता है।

परन्तु सौन्दर्य भी और पदार्थों की तरह स्वरूपस्थ और निरपेक्ष नहीं, उसकी स्थिति भी सापेक्ष है। एक रईस के लिए जो वस्तु सुख का साधन है, वही दूसरे के लिए दुःख का कारण हो सकती है। एक रईस अपने सुरभित सुरम्य उद्यान में बैठकर जब चिड़ियों का कल गान सुनता है तो उसे स्वर्गीय सुख की प्राप्ति होती है, परन्तु एक दूसरा सज्ञान मनुष्य वैभव की इस सामग्री को घृणिततम वस्तु समझता है।

बन्धुत्व और समता,सभ्यता तथा प्रेम सामाजिक जीवन के प्रारम्भ से ही, आदर्शवादियों का सुनहला स्वप्न रहे हैं । धर्म-प्रवर्तकों ने धार्मिक, नैतिक ओर आध्यात्मिक बंधनों से इस स्वप्न को सचाई बनाने का सतत किन्तु निष्फल यत्न किया है। महात्मा बुद्ध, हजरत ईसा, हजरत मुहम्मद आदि सभी पैगम्बरों और धर्म प्रवर्तकों ने नीति की नीव पर इस समता की इमारत खड़ी करनी चाही, पर किसी को सफलता न मिली और छोटे-बड़े का भेद जिस निष्ठुर रूप मे आज प्रकट हो रहा है, शायद कभी न हुआ था।

'आजमाये को आजमाना मूर्खता है', इस कहावत के अनुसार यदि हम अब भी धर्म और नीति का दामन पकड़कर समानता के ऊँचे लक्ष्य पर पहुॅंचना चाहे, तो विफलता ही मिलेगी। क्या हम इस सपने को उत्तेजित मस्तिष्क की सृष्टि समझकर भूल जायें ? तब तो मनुष्य की उन्नति और पूर्णता के लिए कोई आदर्श ही बाकी न रह जायगा । इससे कहीं अच्छा है कि मनुष्य का अस्तित्व ही मिट जाय । जिस आदर्श को हमने सभ्यता के आरम्भ से पाला है, जिसके लिए मनुष्य ने, ईश्वर जाने कितनी कुरबानियों को हैं, जिसकी परिणति के लिए धर्मों का आवि- र्भाव हुआ, मानव-समाज का इतिहास जिस आदर्श की प्राप्ति का इति- हास है, उसे सर्वमान्य समझकर, एक अमिट सचाई समझकर, हमे उन्नति के मैदान में कदम रखना है। हमे एक ऐसे नये संघटन को सर्वाङ्गपूर्ण बनाना है, जहाँ समानता केवल नैतिक बन्धनों पर आश्रित न रहकर अधिक ठोस रूप प्राप्त कर ले। हमारे साहित्य को उसी आदर्श को अपने सामने रखना है।

हमे सुन्दरता की कसौटी बदलनी होगी। अभी तक यह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी। हमारा कलाकार अमीरों का पल्ला पकड़े रहना चाहता था, उन्हीं की कद्रदानी पर उसका अस्तित्व अवल- म्बित था और उन्ही के सुख-दुःख, आशा-निराशा, प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता की व्याख्या कला का उद्देश्य था । उसकी निगाह अन्तःपुर और बॅगलो की ओर उठती थी । झोपड़े और खंँडहर उसके ध्यान के अधिकारी न थे । उन्हे वह मनुष्यता की परिधि के बाहर समझता था । कभी इनकी चर्चा करता भी था, तो इनका मजाक उड़ाने के लिए, ग्रामवासी की देहाती वेश भूषा ओर तौर-तरीके पर हँसने के लिए । उसका शीन-काफ दुरुस्त न होना या मुहाविरों का गलत उपयोग उसके व्यंग्य- विद्रूप की स्थायी सामग्री थी । वह भी मनुष्य है, उसके भी हृदय है, और उसमे भी आकाक्षाएँ है,— यह कला की कल्पना के बाहर की बात थी।

कला नाम था और अब भी है, संकुचित रूप-पूजा का, शब्द योजना का, भाव-निबन्धन का । उसके लिए कोई आदर्श नहीं है, जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है,— भक्ति, वैराग्य, अध्यात्म और दुनिया से किनारा- कशी उसकी सबसे ऊँची कल्पनाएँ है। हमारे उस कलाकार के विचार से जीवन का चरम लक्ष्य यहीं है । उसकी दृष्टि अभी इतनी व्यापक नहीं कि जीवन-संग्राम में सौदर्य का परमोत्कर्ष देखे । उपवास और नम्रता में भी सौदर्य का अस्तित्व सम्भव है, इसे कदाचित् वह स्वीकार नहीं करता। उसके लिए सौन्दर्य सुन्दर स्त्री में है— उस बच्चोंवाली गरीब रूप-रहित स्त्री मे नहीं, जो बच्चे को खेत की मेड़ पर सुलाये पसीना बहा रही है । उसने निश्चय कर लिया है कि रँगे होठों, कपोलों और भौंहों में निस्सन्देह सुन्दरता का वास है, उसके उलझे हुए बालों, पपड़ियाँ पड़े हुए होठों और कुम्हलाये हुए गालों मे सौन्दर्य का प्रवेश कहाँ ? ।

पर यह सकीर्ण दृष्टि का दोष है । अगर उसकी सौन्दर्य देखने- वाली दृष्टि में विस्तृति आ जाय तो वह देखेगा कि रँगे होंठों और कपोलों की आड़ मे अगर रूप-गर्व और निष्ठुरता छिपी है, तो इन मुर- झाये हुए होंठों और कुम्हलाये हुए गालों के ऑसुओ मे त्याग, श्रद्धा और कष्ट-सहिष्णुता है। हॉ, उसमे नफासत नहीं, दिखावा नहीं, सुकुमारता नहीं।

हमारी कला यौवन के प्रेम में पागल है और यह नही जानती कि जवानी छाती पर हाथ रखकर कविता पढने, नायिका की निष्ठुरता का रोना रोने या उसके रूप-गर्व और चोचलों पर सिर धुनने मे नहीं है। जवानी नाम है आदर्शवाद का, हिम्मत का, कठिनाई से मिलने की इच्छा का, आत्म-त्याग का । उसे तो इकबाल के साथ कहना होगा-

अज़ दस्ते जुनूने मन जिब्रील जबूँ सैदे,
यज़दॉ बकमन्द आवर ऐ हिम्मते मरदाना।


[अर्थात् मेरे उन्मत्त हाथों के लिए जिबील एक घटिया शिकार है। ऐ हिम्मते मरदाना, क्यों ने अपनी कमन्द मे तू खुदा को ही फॉस लाये ?]

अथवा

चूँ मौज साजे बजूदम जे सैल बेपरवास्त,
गुमा मबर कि दरी बहर साहिले जोयम ।

[अर्थात् तरंग की भॉति मेरे जीवन की तरी भी प्रवाह की ओर से बेपरवाह है, यह न सोचों कि इस समुद्र में मैं किनारा ढूंँढ रहा हूँ ।।]

और यह अवस्था उस समय पैदा हागी, जब हमारा सौंदर्य व्यापक हो जायगा, जब सारी सृष्टि उसकी परिधि मे आ जायगी | वह किसी विशेष श्रेणी तक ही सीमित न होगा, उसकी उड़ान के लिए केवल बाग की चहारदीवारी न होगी, किन्तु वह वायु-मण्डल होगा जो सारे भूमडल को घेरे हुए है। तब कुरुचि हमारे लिए सह्य न होगी, तब हम उसकी जड़ खोदने के लिए कमर कसकर तैयार हो जायँगे। हम जब ऐसी व्यवस्था को सहन न कर सकेंगे कि हजारों आदमी कुछ अत्याचारियों की गुलामी करे, तभी हम केवल कागज के पृष्ठों पर सृष्टि करके ही सन्तुष्ट न हो जायँगे, बल्कि उस विधान की सृष्टि करेंगे, जो सौन्दर्य, सुरुचि, आत्मसम्मान और मनुष्यता का विरोधी न हो।

साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरञ्जन का सामान जुटाना नहीं है—उसका दरजा इतना न गिराइये। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाला सचाई है।

हमें अकसर यह शिकायत होती है कि साहित्यकारों के लिए समाज में कोई स्थान नहीं,—अर्थात् भारत के साहित्यकारों के लिए। सभ्य देशों में तो साहित्यकार समाज का सम्मानित सदस्य है, और बड़े-बड़े अमीर और मन्त्रि-मंडल के सदस्य उससे मिलने में अपना गौरव समझते हैं, परन्तु हिन्दुस्तान तो अभी मध्य-युग की अवस्था में पड़ा हुआ है। यदि साहित्य ने अमीरों का याचक बनने को जीवन का सहारा बना लिया हो, और उन आन्दोलनों, हलचलों और क्रान्तियों से बेखबर हो जो समाज मे हो रही है—अपनी ही दुनिया बनाकर उसमें रोता और हँसता हो, तो इस दुनिया में उसके लिए जगह न होने में कोई अन्याय नहीं है। जब साहित्यकार बनने के लिए अनुकूल रुचि के सिवा और कोई कैद नही रही, जैसे महात्मा बनने के लिए किसी प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता नही, आध्यात्मिक उच्चता ही काफी है, तो महात्मा लोग दरदर फिरने लगे, उसी तरह साहित्यकार भी लाखों निकल आये।

इसमें शक नहीं कि साहित्यकार पैदा होता है, बनाया नहीं जाता, पर यदि हम शिक्षा और जिज्ञासा से प्रकृति की इस देन को बढ़ा सकें, तो निश्चय ही हम साहित्य की अधिक सेवा कर सकेंगे। अरस्तू ने और दूसरे विद्वानो ने भी साहित्यकार बननेवालों के लिए कड़ी शर्तें लगायी है और उनकी मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक और भावगत सभ्यता तथा शिक्षा के लिए सिद्धान्त और विधियाँ निश्चित कर दी है। मगर आज तो हिन्दी में साहित्यकार के लिए प्रवृत्तिमात्र अलम् समझी जाती है, और किसी प्रकार की तैयारी की उसके लिए आवश्यकता नही। वह राजनीति, समाज-शास्त्र या मनोविज्ञान से सर्वथा अपरिचित हो, फिर भी वह साहित्यकार है।

साहित्यकार के सामने आजकल जो आदर्श रखा गया है, उसके अनुसार ये सभी विद्याएँ उसका विशेष अग बन गयी है और साहित्य की प्रवृत्ति अहंवाद या व्यक्तिवाद तक परिमित नहीं रही, बल्कि वह मनो- वैज्ञानिक और सामाजिक होता जाता है । अब वह व्यक्ति को समाज से अलग नहीं देखता, किन्तु उसे समाज के एक अंग-रूप मे देखता है । इसलिए नहीं कि वह समाज पर हुकूमत करे, उसे अपने स्वार्थ-साधन का औजार बनाये, मानो उसमें और समाज में सनातन शत्रुता है, बल्कि इसलिए कि समाज के अस्तित्व के साथ उसका अस्तित्व कायम है और समाज से अलग होकर उसका मूल्य शून्य के बराबर हो जाता है।

हममे से जिन्हे सर्वोत्तम शिक्षा और सर्वोत्तम मानसिक शक्तियों मिली है, उन पर समाज के प्रति उतनी ही जिम्मेदारी भी है। हम उस मानसिक पूंजीपति को पूजा के योग्य समझेगे, जो समाज के पैसे से ऊँची शिक्षा प्राप्त कर उसे स्वार्थ साधन मे लगाता है ? समाज से निजी लाभ उठाना ऐसा काम है, जिसे कोई साहित्यकार कभी पसन्द न करेगा। उस मानसिक पूँजीपति का कर्तव्य है कि वह समाज के लाभ को अपने निजी लाभ से अधिक ध्यान देने योग्य समझे— अपनी विद्या और योग्यता से समाज को अधिक से अधिक लाभ पहुंचाने की कोशिश करे। वह साहित्य के किसी भी विभाग में प्रवेश क्यो न करे, उसे उस विभाग से विशेषतः और सब विभागों से सामान्यतः परिचय हो।

अगर हम अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यकार-सम्मेलनों की रिपोर्ट पढ़ें, तो हम देखेंगे कि ऐसा कोई शास्त्रीय, सामाजिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक प्रश्न नहीं है, जिस पर उसमें विचार-विनिमय न होता हो । इसके विरुद्ध, हम अपनी ज्ञानसीमा को देखते है तो हमे अपने अज्ञान पर लज्जा आती है। हमने समझ रखा है कि साहित्य रचना के लिए आशुबुद्धि और तेज कलम काफी है । पर यही विचार हमारी साहित्यिक अवनति का कारण है। हमे अपने साहित्य का मान- दण्ड ऊँचा करना होगा जिसमें वह समाज की अधिक मूल्यवान् सेवा कर सके, जिसमे समाज मे उसे वह पद मिले जिसका वह अधिकारी है, जिसमें वह जीवन के प्रत्येक विभाग की आलोचना- विवेचना कर सके और हम दूसरी भाषाओं तथा साहित्यों का जुठा खाकर ही सन्तोष न करे, किन्तु खुद भी उस पूँजी को बढ़ाये ।

हमे अपनी रुचि और प्रवृत्ति के अनुकूल विषय चुन लेने चाहिए और विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना चाहिए। हम जिस आर्थिक अवस्था मे जिन्दगी बिता रहे है, उसमे यह काम कठिन अवश्य है, पर हमारा आदर्श ऊँचा रहना चाहिए । हम पहाड़ की चोटी तक न पहुँच सकेगे, तो कमर तक तो पहुँच ही जायेंगे, जो जमीन पर पड़े रहने से कहीं अच्छा है। अगर हमारा अन्तर प्रेम की ज्योति से प्रकाशित हो और सेवा का आदर्श हमारे सामने हो, तो ऐसी कोई कठिनाई नहीं जिस पर हम विजय न प्राप्त कर सके ।

जिन्हे धन-वैभव प्यारा है, साहित्य-मन्दिर में उनके लिए स्थान नहीं है । यहाँ तो उन उपासकों की आवश्यकता है, जिन्होने सेवा को ही अपने जीवन की सार्थकता मान लिया हो, जिनके दिल मे दर्द की तड़प हो और मुहब्बत का जोश हो । अपनी इज्जत तो अपने हाथ है । अगर हम सच्चे दिल से समाज की सेवा करेंगे तो मान, प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि सभी हमारे पॉव चूमेगी। फिर मान-प्रतिष्ठा की चिन्ता हमे क्यों सताये ? और उसके न मिलने से हम निराश क्यो हो ? सेवा मे जो आध्यात्मिक आनन्द है, वही हमारा पुरस्कार है-हमे समाज पर अपना बड़प्पन जताने, उस पर रोब जमाने की हवस क्यों हो ? दूसरो से ज्यादा आराम के साथ रहने की इच्छा भी हमे क्यो सताये ?हम अमीरों की श्रेणी में अपनी गिनती क्यो कराये ? हम तो समाज के झण्डा लेकर चलनेवाले सिपाही है और सादी जिन्दगी के साथ ऊँची-निगाह-हमारे जीवन का लक्ष्य है। जो आदमी सच्चा कलाकार है, वह स्वार्थमय जीवन का प्रेमी नही हो सकता । उसे अपनी मनस्तुष्टि के लिए दिखावे की आव- श्यकता नहीं— उससे तो उसे घृणा होती है । वह तो इकबाल के साथ कहता है-

मर्दम आजादम आगूना रायूरम कि मरा,
मीतवा कुश्तव येक जामे जुलाले दीगरा ।

[अर्थात् मै आजाद हूँ और इतना हयादार हूँ कि मुझे दूसरों के निथरे हुए पानी के एक प्याले से मारा जा सकता है। ]

हमारी परिषद् ने कुछ इसी प्रकार के सिद्धान्तों के साथ कर्म-क्षेत्र में प्रवेश किया है । साहित्य का शराब-कबाब और राग-रग का मुखापेक्षी बना रहना उसे पसन्द नहीं । वह उसे उद्योग और कर्म का सन्देश- वाहक बनाने का दावेदार है । उसे भाषा से बहस नहीं । आदर्श व्यापक होने से भाषा अपने-आप सरल हो जाती है । भाव-सौन्दर्य बनाव-सिंगार से बेपरवाही ही दिखा सकता है । जो साहित्यकार अमीरों का मुंह जोहने- वाला है, वह रईसी रचना-शैली स्वीकार करता है; जो जन-साधारण का है वह जन-साधारण की भाषा मे लिखता है। हमारा उद्देश्य देश में ऐसा वायु-मण्डल उत्पन्न कर देना है, जिसमे अभीष्ट प्रकार का साहित्य उत्पन्न हो सके और पनप सके । हम चाहते हैं कि साहित्य केन्द्रों मे हमारी परिषदे स्थापित हों और वहाँ साहित्य की रचनात्मक प्रवृत्तियो पर नियम- पूर्वक चर्चा हो, निबध पढ़े जाये, बहस हो, आलोचना-प्रत्यालोचना हो । तभी वह वायु-मंडल तैयार होगा। तभी साहित्य में नये युग का आविर्भाव होगा।

हम हर एक सूबे में, हर एक जबान में, ऐसी परिषदे स्थापित कराना चाहते हैं, जिसमे हर एक भाषा में हम अपना सन्देश पहुॅचा सकें। यह समझना भूल होगी कि यह हमारी कोई नयी कल्पना है । नहीं, देश के साहित्य-सेवियों के हृदयों में सामुदायिक भावनाएँ विद्यमान है। भारत की हर एक भाषा में इस विचार के बीज प्रकृति और परिस्थिति ने पहले से बो रखे हैं, जगह-जगह उसके अँकुए भी निकलने लगे हैं। उसको सींचना एव उसके लक्ष्य को पुष्ट करना हमारा उद्देश्य है।

हम साहित्यकारों में कर्मशक्ति का अभाव है। यह एक कड़वी सचाई है; पर हम उसकी ओर से ऑखे नही बन्द कर सकते। अभी तक हमने साहित्य का जो आदर्श अपने सामने रखा था, उसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी, कर्माभाव ही उसका गुण था क्योकि अक- सर कर्म अपने साथ पक्षपात और सकीर्णता को भी लाता है। अगर कोई आदमी धार्मिक होकर अपनी धार्मिकता पर गर्व करे, तो इससे कहीं अच्छा है कि वह धार्मिक न होकर 'खाओ पियो मोज करो', का कायल हो। ऐसा स्वच्छन्दचारी तो ईश्वर की दया का अधिकारी हो भी सकता है; पर धार्मिकता का अभिमान रखने वाले के लिए इसकी संभावना नहीं ।

जो हो, जब तक साहित्य का काम केवल मनबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियॉ गा-गाकर सुलाना, केवल ऑसू बहाकर जी हलका करना था, तब तक उसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। वह एक दीवाना था जिसका गम दूसरे खाते थे । मगर हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते । हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमे उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो-जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नही क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है ।†

१९३६]

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†लखनऊ मे होने वाले प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधि- वेशन मे सभापति आसन से दिया गया भाषण ।

जीवन में साहित्य का स्थान

 

साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती है, उसकी अटारियाँ, मीनार और गुम्बद बनते हैं; लेकिन बुनियाद मिट्टी के नीचे दबी पड़ी है। उसे देखने को भी जी नहीं चाहेगा। जीवन परमात्मा की सृष्टि है; इसलिए अनन्त है, अबोध है, अगम्य है। साहित्य मनुष्य की सृष्टि है; इसलिए सुबोध है, सुगम है और मर्यादाओं से परिमित है। जीवन परमात्मा को अपने कामों का जवाबदेह है या नहीं, हमें मालूम नहीं, लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह है। इसके लिए कानून है जिनसे वह इधर-उधर नहीं हो सकता। जीवन का उद्देश्य ही आनन्द है। मनुष्य जीवनपर्यन्त आनन्द ही की खोज में पड़ा रहता है। किसी को वह रत्न-द्रव्य मे मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में, किसी को लम्बे-चौड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य में। लेकिन साहित्य का आनन्द, इस आनन्द से ऊँचा है, इससे पवित्र है, उसका आधार सुन्दर और सत्य है। वास्तव मे सच्चा आनन्द सुन्दर और सत्य से मिलता है। उसी आनन्द को दर्साना, वही आनन्द उत्पन्न करना, साहित्य का उद्देश्य है। ऐश्वर्य या भोग के आनन्द में ग्लानि छिपी होती है। उससे अरुचि भी हो सकती है, पश्चात्ताप भी हो सकता है; पर सुन्दर से जो आनन्द प्राप्त होता है, वह अखंड है, अमर है।

साहित्य के नौ रस कहे गये हैं। प्रश्न होगा, वीभत्स में भी कोई आनन्द है? अगर ऐसा न होता, तो वह रसों में गिना ही क्यों जाता।
हॉ, है । वीभत्स में सुन्दर और सत्य मौजूद है। भारतेन्दु ने श्मशान का जो वर्णन किया है, वह कितना वीभत्स है । प्रेतो और पिशाचो का अधजले मास के लोथडे नोचना, हड्डियो को चटर-चटर चबाना, चीभत्स की पराकाष्ठा है। लेकिन वह वीभत्स होते हुए भी सुन्दर है, क्योकि उसकी सृष्टि पीछे आनेवाले स्वर्गीय दृश्य के आनन्द को तीव्र करने के लिए ही हुई है। साहित्य तो हर एक रस मे सुन्दर खोजता है-राजा के महल मे, रंक की झोपडी मे, पहाड़ के शिखर पर, गंदे नालो के अदर, उषा की लाली मे, सावन-भादो की अँधेरी रात मे । और यह आश्चर्य की बात है कि रक की झोपडी मे जितनी आसानी से सुन्दर मूर्तिमान दिखाई देता है उतना महलो मे नहीं। महलो मे तो वह खोजने से मुश्किलों से मिलता है । जहाँ मनुष्य अपने मौलिक, यथार्थ अकृत्रिम रूप मे है, वहीं अानन्द है । आनन्द कृत्रिमता और आडम्बर से कोसों भागता है। सत्य का कृत्रिम से क्या सम्बन्ध । अतएव हमारा विचार है कि साहित्य मे केवल एक रस है और वह शृङ्गार है । कोई रस साहित्यिक-दृष्टि से रस नहीं रहता और न उस रचना की गणना साहित्य में की जा सकती है जो शृङ्गार-विहीन और असुन्दर हो। जो रचना केवल वासना-प्रधान हो, जिसका उद्देश्य कुत्सित भावो को जगाना हो, जो केवल वाह्य जगत् से सम्बन्ध रखे, वह साहित्य नहीं है। जासूसी उपन्यास अद्भुत होता है । लेकिन हम उसे साहित्य उसी वक्त कहेगे, जब उसमे सुन्दर का समावेश हो, खूनी का पता लगाने के लिए सतत उद्योग, नाना प्रकार के कष्टों का झेलना, न्याय-मर्यादा की रक्षा करना, ये भाव रहे, जो इस अद्भुत रस की रचना को सुन्दर बना देते है।

सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है । एक जिज्ञासा का सम्बन्ध है, दूसरा प्रयोजन का सम्बन्ध है और तीसरा आनन्द का । जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है और साहित्य का विषय केवल आनन्द का सम्बन्ध है । सत्य

जहाँ आनन्द का स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। जिज्ञासा का सम्बन्ध विचार से है, प्रयोजन का सम्बन्ध स्वार्थ-बुद्धि से। आनन्द का सम्बन्ध मनोभावों से है। साहित्य का विकास मनोभावों द्वारा ही होता है । एक दृश्य या घटना या काड को हम तीनो ही भिन्न- भिन्न नजरो से देख सकते है । हिम से ढंके हुए पर्वत पर ऊषा का दृश्य दार्शनिक के गहरे विचार की वस्तु है, वैज्ञानिक के लिए अनुसन्धान की, और साहित्यिक के लिए विह्वलता की। विह्वलता एक प्रकार का आत्म-समर्पण है। यहाँ हम पृथक्ता का अनुभव नही करते । यहाँ ऊँच-नीच, भले-बुरे का भेद नहीं रह जाता। श्रीरामचन्द्र शवरी के जूठे बेर क्यो प्रेम से खाते है, कृष्ण भगवान विदुर के शाक को क्यो नाना व्यञ्जनो से रुचिकर समझते है ? इसीलिए कि उन्होंने इस पार्थक्य को मिटा दिया है। उनकी आत्मा विशाल है। उसमे समस्त जगत् के लिए स्थान है । आत्मा अात्मा से मिल गयी है। जिसकी आत्मा जितनी ही विशाल है, वह उतना ही महान पुरुष है। यहाँ तक कि ऐसे महान् पुरुष भी हो गये हैं, जो जड जगत् से भी अपनी आत्मा का मेल कर सके है।

आइये देखें, जीवन क्या है ? जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना नहीं है । यह तो पशुत्रो का जीवन है। मानव-जीवन मे भी यह सभी प्रवृत्तियाँ होती हैं , क्योकि वह भी तो पशु है। पर इनके उपरान्त कुछ और भी होता है। उनमे कुछ ऐसी मनोवृत्तियाँ होती हैं, जो प्रकृति के साथ हमारे मेल मे बाधक होती है, कुछ ऐसी होती हैं, जो इस मेल मे सहायक बन जाती है। जिन प्रवृत्तियो मे प्रकृति के साथ हमारा सामजस्य बढ़ता है, वह वाछनीय होती है, जिनसे सामंजस्य मे बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित है। अहङ्कार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्ति है । यदि हम इनको बेरोक-टोक चलने दे, तो निस्सदेह वह हमे नाश और पतन की ओर ले जायेंगी, इसलिए हमे उनकी लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिसमे वे अपनी

सीमा से बाहर न जा सके । हम उन पर जितना कठोर सयम रख सकते हैं, उतना ही मगलमय हमारा जीवन हो जाता है ।

किन्तु नटखट लड़को से डॉटकर कहना-तुम बडे बदमाश हो, हम तुम्हारे कान पकड़कर उखाड लेगे-अक्सर व्यर्थ ही होता है, बल्कि उस प्रवृत्ति को और हठ की ओर ले जाकर पुष्ट कर देता है। जरूरत यह होती है, कि बालक मे जो सवृत्तियाँ है उन्हे ऐसा उत्तेजित किया जाय, कि दूषित वृत्तियों स्वाभाविक रूप से शान्त हो जायें। इसी प्रकार मनुष्य को भी आत्मविकास के लिए सयम की आवश्यकता होती है। साहित्य ही मनोविकारो के रहस्य खोलकर सदवृत्तियो को जगाता है । सत्य को रसो-द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते है, ज्ञान और विवेक द्वारा नही कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार-चुमकारकर बच्चो को जितनी सफलता से वश मे किया जा सकता है, डॉट-फटकार से सम्भव नहीं। कौन नहीं जानता कि प्रेम से कठोर-से-कठोर प्रकृति को नरम किया जा सकता है । साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है । जहाँ ज्ञान और उपदेश असफल होता है, वहाँ साहित्य बाजी ले जाता है । यही कारण है, कि हम उपनिपदो और अन्य धर्म-ग्रथो को साहित्य की सहायता लेते देखते है। हमारे धर्माचार्यों ने देखा कि मनुष्य पर सबसे अधिक प्रभाव मानव-जीवन के दुःख-सुख के वर्णन से ही हो सकता है और उन्होने मानव-जीवन की वे कथाएँ रची,जो आज भी हमारे आनंद की वस्तु है । बौद्धो की जातक-कथाएँ, तौरेह, कुरान, इखील ये सभी मानवी कथात्रो के सग्रहमात्र है। उन्हीं कथानो पर हमारे बडे-बडे धर्म स्थिर है । वही कथाएँ धर्मों की आत्मा है । उन कथाओ को निकाल दीजिए, तो उस धर्म का अस्तित्व मिट जायगा । क्या उन धर्म-प्रवर्तकों ने अकारण ही मानवी जीवन की कथाओ का आश्रय लिया १ नहीं, उन्होंने देखा कि हृदय द्वारा ही जनता की आत्मा तक अपना सन्देशा पहुँचाया जा सकता है। वे स्वय विशाल हृदय के मनुष्य थे। उन्होने मानव जीवन

से अपनी आत्मा का मेल कर लिया था। समस्त मानवजाति से उनके जीवन का सामञ्जस्य था, फिर वे मानव-चरित्र की उपेक्षा कैसे करते ?

अादि काल से मनुष्य के लिए सबसे समीप मनुष्य है । हम जिसके सुख दुःख, हंसने-रोने का मर्म समझ सकते है, उसी से हमारी आत्मा का अधिक मेल होता है । विद्यार्थी को विद्यार्थी-जीवन से,कृषक को कृषक- जीवन से जितनी रुचि है, उतनी अन्य जातियों से नहीं, लेकिन साहित्य- जगत् मे प्रवेश पाते ही यह भेद, यह पार्थक्य मिट जाता है। हमारी मानवता जैसे विशाल और विराट् होकर समस्त मानव-जाति पर अधि- कार पा जानी है। मानव-जाति ही नही, चर और अचर, जड़ और चेतन सभी उसके अधिकार में आ जाते हैं । उसे मानो विश्व की आत्मा पर साम्राज्य प्राप्त हो जाता है। श्री रामचन्द्र राजा थे; पर आज रंक भी उनके दुःख से उतना ही प्रभावित होता है, जितना कोई राजा हो सकता है । साहित्य वह जादू की लकड़ी है, जो पशुश्रो मे, ईट-पत्थरों मे, पेड-पौधों मे विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है । मानव हृदय का जगत् , इस प्रत्यक्ष जगत् जैसा नही है । हम मनुष्य होने के कारण मानव-जगत् के प्राणियो मे अपने को अधिक पाते है, उनके सुख-दु:ख, हर्ष और विषाद से ज्यादा विचलित होते है । हम अपने निकटतम बन्धु- बाधवों से अपने को इतना निकट नहीं पाते, इसलिए कि हम उनके एक एक विचार, एक-एक उद्गार को जानते हैं, उनका मन हमारी नजरो के सामने आईने की तरह खुला हुआ है । जीवन मे ऐसे प्राणी हमे कहाँ मिलते हैं, जिनके अन्तःकरण मे हम इतनी स्वाधीनता से विचर सकें। सच्चे साहित्यकार का यही लक्षण है कि उसके भावो मे व्यापकता हो, उसने विश्व की आत्मा से ऐसी Harmony प्राप्त कर ली हो कि. उसके भाव प्रत्येक प्राणी को अपने ही भाव मालूम हो ।

साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है । जब कोई लहर देश मे उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के

कष्टो से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता मे वह रो उठता है,पर उसके रुदन मे भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है । 'टाम काका की कुटिया' गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है; पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमे वह व्यापकता है कि हम लोग भी उसे पढकर मुग्ध हो जाते है। सच्चा साहित्य कभी पुराना नही होता । वह सदा नया बना रहता है । दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदले रहते हैं, पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव हृदय मे तबदीलियों नहीं होतीं । हर्ष और विस्मय, क्रोध और द्वेष, श्राशा और भय, आज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत हैं, जैसे आदिकवि वाल्मीकि के समय मे थे और कदाचित् अनन्त तक रहेगे । रामायण के समय का समय अब नहीं है। महाभारत का समय भी अतीत हो गया: पर ये ग्रन्थ अभी तक नये है। साहित्य ही सच्चा इतिहास है क्योंकि उसमे अपने देश और काल का जैसा चित्र होता है, वैसा कोरे इतिहास में नहीं हो सकता । घटनाप्रो की तालिका इतिहास नही है और न राजाश्रो की लडाइयाँ ही इतिहास है। इतिहास जीवन के विभिन्न अङ्गों की प्रगति का नाम है, और जीवन पर साहित्य से अधिक प्रकाश और कौन वस्तु डाल सकती है क्योंकि साहित्य अपने देश काल का प्रतिबिम्ब होता है ।

जीवन मे साहित्य की उपयोगिता के विषय मे कभी-कभी सन्देह किया जाता है। कहा जाता है, जो स्वभाव से अच्छे है, वह अच्छे ही रहेगे, चाहे कुछ भी पढ़ें । जो स्वभाव के बुरे हैं, वह बुरे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़े। इस कथन मे सत्य की मात्रा बहुत कम है । इसे सत्य मान लेना मानव-चरित्र को बदल लेना होगा । जो सुन्दर है, उसकी अोर मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है ।हम कितने ही पतित हो जायँ पर असुन्दर की ओर हमारा आकर्षण नहीं हो सकता । हम कर्म चाहे कितने ही बुरे करे पर यह असम्भव है कि करुणा और दया और प्रेम और भक्ति का हमारे दिलो पर असर न हो । नादिरशाह से ज्यादा निर्दयी मनुष्य और

कौन हो सकता है-हमारा आशय दिल्ली मे कतलाम करानेवाले नादिरशाह से है। अगर दिल्ली का कतलाम सत्य घटना है, तो नादिरशाह के निर्दय होने मे कोई सन्देह नही रहता । उस समय आपको मालूम है, किस बात से प्रभावित होकर उसने कतलाम को बन्द करने का हुक्म दिया था ? दिल्ली के बादशाह का वजीर एक रसिक मनुष्य था । जब उसने देखा कि नादिरशाह का क्रोध किसी तरह नही शान्त होता और दिल्लीवालो के खून की नदी बहती चली जाती है, यहाँ तक कि खुद नादिरशाह के मुंहलगे अफसर भी उसके सामने आने का साहस नहीं करते, तो वह हथेलियो पर जान रखकर नादिर- शाह के पास पहुंचा और यह शेर पढ़ा-

'कसे न मॉद कि दीगर ब तेगे नाज़ कुशी।

मगर कि जिन्दा कुनी खल्क रा व बाज़ कुशी।'

इसका अर्थ यह है कि तेरे प्रेम की तलवार ने अब किसी को जिन्दा न छोडा। अब तो तेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि तू मुर्दो को फिर जिला दे और फिर उन्हे मारना शुरू करे । यह फारसी के एक प्रसिद्ध कवि का शृङ्गार-विषयक शेर है; पर इसे सुनकर कातिल के दिल मे मनुष्य जाग उठा । इस शेर ने उसके हृदय के कोमल भाग को स्पर्श कर दिया और कतलाम तुरन्त बन्द करा दिया गया । नेपोलियन के जीवन की यह घटना भी प्रसिद्ध है, जब उसने एक अंग्रेज मल्लाह को झाऊ की नाव पर कैले का समुद्र पार करते देखा । जब फ्रासीसी अपराधी मल्लाह को पकड़कर, नेपोलियन के सामने लाये और उससे पूछा-तू इस भगुर नौका पर क्यो समुद्र पार कर रहा था, तो अपराधी ने कहा-इसलिए कि मेरी वृद्धा माता घर पर अकेली है, मै उसे एक बार देखना चाहता था । नेपोलियन की ऑखो मे ऑसू छलछला आये। मनुष्य का कोमल भाग स्पन्दित हो उठा। उसने उस सैनिक को फ्रासीसी नौका पर इगलैड भेज दिया। मनुष्य स्वभाव से देव तुल्य है। जमाने के छल प्रपञ्च और परिस्थितियो के वशीभूत
होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है । साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करता है-उपदेशो से नहीं, नसी- हतो से नहीं, भावो को स्पन्दित करके, मन के कोमल तारो पर चोट लगाकर, प्रकृति से सामजस्य उत्पन्न करके। हमारी सभ्यता साहित्य पर ही अाधारित है । हम जो कुछ है, साहित्य के ही बनाये है। विश्व की आत्मा के अन्तर्गत भी राष्ट्र या देश की एक श्रात्मा होती है । इसी श्रात्मा की प्रतिध्वनि है-साहित्य । योरप का साहित्य उठा लीजिए। श्राप वहाँ सघर्ष पायेगे । कही खूनी काडो का प्रदर्शन है, कही जाससी कमाल का । जैसे सारी संस्कृति उन्मत्त होकर मरु मे जल खोज रही है । उस साहित्य का परिणाम यही है कि वैयक्तिक स्वार्थ-परायणता दिन दिन बढती जाती है, अर्थ-लोलुपता की कही सीमा नहीं, नित्य दगे, नित्य लडाइयाँ । प्रत्येक वस्तु स्वार्थ के कॉटे पर तौली जा रही है । यहाँ तक कि अब किसी युरोपियन महात्मा का उपदेश सुनकर भी सन्देह होता है कि इसके परदे मे स्वार्थ न हो । साहित्य सामाजिक श्रादों का स्रष्टा है । जब अादर्श ही भ्रष्ट हो गया, तो समाज के पतन मे बहुत दिन नहीं लगते । नयी सभ्यता का जीवन डेढ सौ साल से अधिक नहीं पर अभी से संसार उससे तग आ गया है। पर इसके बदले मे उसे कोई ऐसी वस्तु नही मिल रही है, जिसे वहाँ स्थापित कर सके । उसकी दशा उस मनुष्य की-सी है, जो यह तो समझ रहा है कि वह जिस रास्ते पर जा रहा है, वह ठीक रास्ता नही है ; पर वह इतनी दूर पा चुका है, कि अब लौटने की उसमे सामर्थ्य नहीं है। वह आगे ही जायगा । चाहे उधर कोई समुद्र ही क्यो न लहरे मार रहा हो। उसमे नैराश्य का हिंसक बल है, अाशा की उदार शक्ति नहीं । भारतीय साहित्य का आदर्श उसका त्याग और उत्सर्ग है। योरप का कोई व्यक्ति लखपती होकर, जायदाद खरीदकर, कम्पनियो मे हिस्से लेकर, और ऊँची सोसायटी मे मिलकर अपने को कृतकार्य समझता है। भारत अपने को उस समय कृतकार्य समझता है, जब वह इस माया-बन्धन से मुक्त हो जाता है,
जब उसमे भोग और अधिकार का मोह नही रहता। किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैं। व्यास और चाल्मीकि ने जिन आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर ऊँचा किये हुए हैं। राम अगर वाल्मीकि के साँचे मे न ढलते, तो राम न रहते । सीता भी उसी सॉचे मे ढलकर सीता हुई। यह सत्य है कि हम सब ऐसे चरित्रो का निर्माण नही कर सकते; पर एक धन्वन्तरि के होने पर भी संसार मे वैद्यो की आवश्यकता रही है और रहेगी।

ऐसा महान् दायित्व जिस वस्तु पर है, उसके निर्माताओं का पद कुछ कम जिम्मेदारी का नहीं है । कलम हाथ मे लेते ही हमारे सिर बड़ी भारी जिम्मेदारी आ जाती है । साधारणतः युवावस्था मे हमारी निगाह पहले विध्वंस करने की अोर उठ जाती है। हम सुधार करने की धुन मे अंधाधुंध शर चलाना शुरू करते है । खुदाई फौजदार बन जाते है । तुरन्त अॉखे काले धब्बो की अोर पहुँच जाती है। यथार्थवाद के प्रवाह मे बहने लगते हैं। बुराइयों के नग्न चित्र खींचने मे कला की कृतकार्यता समझते है । यह सत्य है कि कोई मकान गिराकर ही उसकी जगह नया मकान बनाया जाता है। पुराने ढकोसलों और बन्धनो को तोड़ने की जरूरत है; पर इसे साहित्य नही कह सकते । साहित्य तो वही है, जो साहित्य की मर्यादात्रों का पालन करे । हम अक्सर साहित्य का मर्म समझे बिना ही लिखना शुरू कर देते है । शायद हम समझते है कि मजेदार, चटपटी और ओजपूर्ण भाषा लिखना ही साहित्य है। भाषा भी साहित्य का एक अंग है; पर साहित्य विश्वस नहीं करता, निर्माण करता है। वह मानव-चरित्र की कालिमाएँ नहीं दिखाता, उसकी उज्ज्वलताएँ दिखाता है । मकान गिरानेवाला इन्जीनियर नही कहलाता । इन्जीनियर तो निर्माण ही करता है। हममे जो युवक साहित्य को अपने जीवन का ध्येय बनाना चाहते है, उन्हें बहुत अात्म संयम की आवश्यकता है, क्योकि वह अपने
को एक महान् पद के लिए तैयार कर रहा है, जो अदालतों मे बहस करने या कुरसी पर बैठकर मुकदमे का फैसला करने से कहीं ऊँचा है। उसके लिये केवल डिग्रियाँ और ऊँची शिक्षा काफी नहीं । चित्त की साधना, संयम, सौन्दर्य, तत्व का ज्ञान, इसकी कहीं ज्यादा जरूरत है। साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए । भावो का परिमार्जन भी उतना ही वाछनीय है जब तक हमारे साहित्य-सेवी इस आदर्श नक न पहॅचेगे तब तक हमारे साहित्य से मंगल की आशा नही की जा सकती। अमर साहित्य के निर्माता विलासी प्रवृत्ति के मनुष्य नहीं थे। वाल्मीकि और व्यास दोनो तपस्वी थे । सूर और तुलसी भी विलासिता के उपासक न थे । कबीर भी तपस्वी ही थे। हमारा साहित्य अगर अाज उन्नति नहीं करता तो इसका कारण यह है कि हमने साहित्य-रचना के लिये कोई तैयारी नही की। दो-चार नुस्खे याद करके हकीम बन बैठे। साहित्य का उत्थान राष्ट्र का उत्थान है और हमारी ईश्वर से यही याचना है कि हममे सच्चे साहित्य सेवी उत्पन्न हो, सच्चे तपस्वी, सच्चे आत्मज्ञानी।


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साहित्य का आधार
 

साहित्य का सम्बन्ध बुद्धि से उतना नहीं जितना भावों से है। बुद्धि के लिए दर्शन है, विज्ञान है, नीति है। भावों के लिए कविता है, उपन्यास है, गद्यकाव्य है।

आलोचना भी साहित्य का एक अंग मानी जाती है, इसीलिए कि वह साहित्य को अपनी सीमा के अन्दर रखने की व्यवस्था करती है। साहित्य में जब कोई ऐसी वस्तु सम्मिलित हो जाती है, जो उसके रस प्रवाह में बाधक होती है, तो वहीं साहित्य में दोष का प्रवेश हो जाता है। उसी तरह जैसे संगीत मे कोई बेसुरी ध्वनि उसे दूषित कर देती है। बुद्धि और मनोभाव का भेद काल्पनिक ही समझना चाहिए। आत्मा में विचार, तुलना, निर्णय का अंश, बुद्धि और प्रेम, भक्ति, आनन्द, कृतज्ञता आदि का अश भाव है। ईर्ष्या, दम्भ, द्वेष, मत्सर आदि मनोविकार हैं। साहित्य का इनसे इतना ही प्रयोजन है कि वह भावों को तीव्र और आनन्दवर्द्धक बनाने के लिए इनकी सहायता लेता है, उसी तरह, जैसे कोई कारीगर श्वेत को और श्वेत बनाने के लिए श्याम की सहायता लेता है। हमारे सत्य भावों का प्रकाश ही आनन्द है। असत्य भावों में तो दुःख का ही अनुभव होता है। हो सकता है कि किसी व्यक्ति को असत्य भावों में भी आनन्द का अनुभव हो। हिंसा करके, या किसी के धन का अपहरण करके या अपने स्वार्थ के लिए किसी का अहित करके भी कुछ लोगों को आनन्द प्राप्त होता है, लेकिन यह मन की स्वाभाविक वृत्ति नही है। चोर को प्रकाश से अँधेरा कहीं अधिक प्रिय है। इससे प्रकाश की श्रेष्ठता में कोई बाधा नही पड़ती। हमारा जैसा मानसिक संगठन है, उसमें असत्य भावों के प्रति घृणामय दया ही का उदय होता है। जिन भावों द्वारा हम अपने को दूसरों में मिला सकते है, वही सत्य भाव है, प्रेम हमें अन्य वस्तुओं से मिलाता है, अहङ्कार पृथक् करता है। जिसमें अहङ्कार की मात्रा अधिक है वह दूसरों से कैसे मिलेगा? अतएव प्रेम सत्य भाव है, अहङ्कार असत्य भाव है। प्रकृति से मेल रखने में ही जीवन है। जिसके प्रेम की परिधि जितनी ही विस्तृत है, उसका जीवन उतना ही महान है।

जब साहित्य की सृष्टि भावोत्कर्ष द्वारा होती है, तो यह अनिवार्य है कि उसका कोई आधार हो। हमारे अन्तःकरण का सामञ्जस्य जब तक बाहर के पदार्थों या वस्तुओं या प्राणियों से न होगा, जागृति हो ही नहीं सकती। भक्ति करने के लिए कोई प्रत्यक्ष वस्तु चाहिए। दया करने के लिए भी किसी पात्र की आवश्यकता है। धैर्य और साहस के लिए भी किसी सहारे की जरूरत है। तात्पर्य यह है कि हमारे भावों को जगाने के लिए उनका बाहर की वस्तुओं से सामञ्जस्य होना चाहिए। अगर बाह्य प्रकृति का हमारे ऊपर कोई असर न पड़े, अगर हम किसी को पुत्र शोक में विलाप करते देखकर आँसू की चार बूँदें नहीं गिरा सकते, अगर हम किसी आनन्दोत्सव में मिलकर आनन्दित नहीं हो सकते, तो यह समझना चाहिए कि हम निर्वाण प्राप्त कर चुके हैं। उस दशा के लिए साहित्य का कोई मूल्य नहीं। साहित्यकार तो वही हो सकता है जो दुनिया के सुख-दुःख से सुखी या दुखी हो सके और दूसरों में सुख या दुःख पैदा कर सके। स्वयं दुःख अनुभव कर लेना काफी नहीं है। कलाकार में उसे प्रकट करने का सामर्थ्य होना चाहिए। लेकिन परिस्थितियाँ मनुष्य को भिन्न दिशाओं में डालती है। मनुष्य मात्र में भावों की समानता होते हुए भी परिस्थिातयों में भेद होता ही है। हमें तो मिठास से काम है, चाहे वह ऊख में मिले या खजूर में या चुकन्दर में। अगर हम किसानों में रहते हैं या हमें उनके साथ रहने के अवसर मिले है, तो स्वभावतः हम उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझने लगते हैं और उससे उसी मात्रा में प्रभावित होते हैं जितनी हमारे भावों में गहराई है। इसी तरह अन्य परिस्थितियो को भी समझना चाहिए। अगर इसका अर्थ यह लगाया जाय कि अमुक प्राणी किसानों का, या मजदूरों का या किसी आन्दोलन का प्रोपागेंडा करता है, तो यह अन्याय है। साहित्य और प्रोपागेंडा में क्या अन्तर है, इसे यहाँ प्रकट कर देना जरूरी मालूम होता है। प्रोपागेंडे में अगर आत्म-विज्ञापन न भी हो तो एक विशेष उद्देश्य को पूरा करने की वह उत्सुकता होती है जो साधनों की परवा नहीं करती। साहित्य शीतल, मन्द समीर है, जो सभी को शीतल और आनंदित करती है। प्रोपागेंडा आँधी है, जो आँखों में धूल झोंकती है, हरे-भरे वृक्षों को उखाड़ उखाड़ फेंकती है, और झोंपड़े तथा महल दोनों को ही हिला देती है। वह रस-विहीन होने के कारण आनन्द की वस्तु नहीं। लेकिन यदि कोई चतुर कलाकार उसमें सौन्दर्य और रस भर सके, तो वह प्रोपागेंडा की चीज न होकर सद्साहित्य की वस्तु बन जाती है। 'अकिल टॉम्स केबिन" दास प्रथा के विरुद्ध प्रोपागेंडा है, लेकिन कैसा प्रोपागेंडा है? जिसके एक एक शब्द में रस भरा हुआ है। इसलिए वह प्रोपागेंडा की चीज नहीं रहा। बर्नार्ड शा के ड्रामे, वेल्स के उपन्यास, गाल्सवर्दी के ड्रामे और उपन्यास, डिकेन्स, मेरी कारेली, रोमा रोला, टाल्स्टाय, चेस्टरटन, डास्टावेस्की, मैक्सिम गोर्की, सिंक्लेयर, कहाँ तक गिनायें। इन सभी की रचनाओ में प्रोपागेंडा और साहित्य का सम्मिश्रण है। जितना शुष्क विषय-प्रतिपादन है वह प्रोपागेंडा है, जितनी सौन्दर्य की अनुभूति है, वह सच्चा साहित्य है। हम इसलिए किसी कलाकार से जवाब तलब नहीं कर सकते कि वह अमुक प्रसंग से ही क्यों अनुराग रखता है। यह उसकी रुचि या परिस्थितियो से पैदा हुई परवशता है। हमारे लिए तो उसकी परीक्षा की एक ही कसौटी है: वह हमें सत्य और सुन्दर के समीप ले जाता है या नहीं? यदि ले जाता है तो वह साहित्य है, नहीं ले जाता तो प्रोपागेंडा या उससे भी निकृष्ट है। हम अकसर किसी लेखक की आलोचना करते समय अपनी रुचि से पराभूत हो जाते हैं। ओह, इस लेखक की रचनायें कौड़ी काम की नहीं, यह तो प्रोपागेन्डिस्ट है, यह जो कुछ लिखता है, किसी उद्देश्य से लिखता है, इसके यहाँ विचारों का दारिद्रय है। इसकी रचनाओं में स्वानुभूत दर्शन नहीं, इत्यादि। हमें किसी लेखक के विषय में अपनी राय रखने का अधिकार है, इसी तरह औरों को भी है, लेकिन सद्साहित्य की परख वही है जिसका हम उल्लेख कर आये हैं। उसके सिवा कोई दूसरी कसौटी हो ही नहीं सकती। लेखक का एक एक शब्द दर्शन में डूबा हो, एक एक वाक्य में विचार भरे हों, लेकिन उसे हम उस वक्त तक सद्साहित्य नहीं कह सकते, जब तक उसमें रस का स्रोत न बहता हो, उसमें भावों का उत्कर्ष न हो, वह हमें सत्य की ओर न ले जाता हो, अर्थात् ..बाह्य प्रकृति से हमारा मेल न कराता हो। केवल विचार और

दर्शन का आधार लेकर वह दर्शन का शुष्क ग्रन्थ हो सकता है, सरस साहित्य नहीं हो सकता। जिस तरह किसी आन्दोलन या किसी सामाजिक अत्याचार के पक्ष या विपक्ष में लिखा गया रसहीन साहित्य प्रोपागेंडा है, उसी तरह किसी तात्विक विचार या अनुभूत दर्शन से भरी हुई रचना भी प्रोपागेंडा है। साहित्य जहाँ रसों से पृथक् हुआ, वहीं वह साहित्य के पद से गिर जाता है और प्रोपागेंडा के क्षेत्र में जा पहुँचता है। आस्कर वाइल्ड या शा आदि की रचनायें जहाँ तक विचार प्रधान हो, वहाँ तक रसहीन हैं। हम रामायण को इसलिए साहित्य नहीं समझते कि उसमें विचार या दर्शन भरा हुआ है, बल्कि इसलिए कि उसका एक एक अक्षर सौन्दर्य के रस में डूबा हुआ है, इसलिए कि उसमें त्याग और प्रेम और बन्धुत्व और मैत्री और साहस आदि मनोभावों की पूर्णता का रूप दिखाने वाले चरित्र हैं। हमारी आत्मा अपने अन्दर जिस अपूर्णता का अनुभव करती है, उसकी पूर्णता को पाकर वह मानो अपने को पा जाती है और यही उसके आनन्द की चरम सीमा है। इसके साथ यह भी याद रखना चाहिए कि बहुधा एक लेखक की कलम से जो चीज प्रोपागेंडा होकर निकलती है, वही दूसरे लेखक की कलम से सद्साहित्य बन जाती है। बहुत कुछ लेखक के व्यक्तित्व पर मुनहसर है। हम जो कुछ लिखते हैं, यदि उसमें रहते भी हैं, तो हमारा शुष्क विचार भी अपने अन्दर आत्म प्रकाश का सन्देश रखता है और पाठक को उसमें आनन्द की प्राप्ति होती है। वह श्रद्धा जो हममें है, मानो अपना कुछ अंश हमारे लेखों में भी डाल देती है। एक ऐसा लेखक विश्व बन्धुत्व की दुहाई देता हो, पर तुच्छ स्वार्थ के लिये लड़ने पर कमर कस लेता हो, कभी अपने ऊँचे आदर्श की सत्यता से हमें प्रभावित नहीं कर सकता। उसकी रचना में तो विश्व बन्धुत्व की गन्ध आते ही हम ऊब जाते हैं, हमें उसमें कृत्रिमता की गन्ध आती है। और पाठक सब कुछ क्षमा कर सकता है, लेखक में बनावट या दिखावा या प्रशंसा की लालसा को क्षमा नहीं कर सकता। हाँ, अगर उसे लेखक में कुछ श्रद्धा है, तो वह उसके दर्शन, विचार, उपदेश, शिक्षा, सभी असाहित्यिक प्रसंगों में सौन्दर्य का आभास पाता है। अतएव बहुत कुछ लेखक के व्यक्तित्व पर निर्भर है। लेकिन हम लेखक से परिचित हों या न हों, अगर वह सौन्दर्य की सृष्टि कर सकता है, तो हम उसकी रचना में आनन्द प्राप्त करने से अपने को रोक नहीं सकते। साहित्य का आधार भावों का सौन्दर्य है, इससे परे जो कुछ है वह साहित्य नहीं कहा जा सकता।

कहानी-कला:१

 

गल्प, आख्यायिका या छोटी कहानी लिखने की प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। धर्म-ग्रन्थों में जो दृष्टान्त भरे पड़े हैं, वे छोटी कहानियाँ ही हैं, पर कितनी उच्च-कोटि की। महाभारत, उपनिषद्, बुद्ध जातक, बाइबिल, सभी सद्ग्रथों में जन-शिक्षा का यही साधन उपयुक्त समझा गया है। ज्ञान और तत्व की बातें इतनी सरल रीति से और क्योंकर समझायी जातीं? किन्तु प्राचीन ऋषि इन दृष्टान्तों द्वारा केवल आध्यात्मिक और नैतिक तत्वों का निरूपण करते थे। उनका अभिप्राय केवल मनोरञ्जन न होता था। सद्ग्रथों के रूपको और बाइबिल के Parables देखकर तो यही कहना पड़ता है कि अगले जो कुछ कर गये, वह हमारी शक्ति से बाहर है, कितनी विशुद्ध कल्पना, कितना मौलिक निरूपण, कितनी ओजस्विनी रचना-शैली है कि उसे देखकर वर्तमान साहित्यिक की बुद्धि चकरा जाती है। आजकल आख्यायिका का अर्थ बहुत व्यापक हो गया है। उसमें प्रेम की कहानियाँ, जासूसी किस्से, भ्रमण-वृत्तान्त, अद्भुत घटना, विज्ञान की बातें, यहाँ तक कि मित्रों की गप-शप भी शामिल कर दी जाती हैं। एक अंगरेजी समालोचक के मतानुसार तो कोई रचना, जो पन्द्रह मिनटों मे पढ़ी जा सके, गल्प कही जा सकती है। और तो और, उसका यथार्थ उद्देश्य इतना अनिश्चित हो गया है कि उसमें किसी प्रकार का उपदेश होना दूषण समझा जाने लगा है। वह कहानी सबसे नाकिस समझी जाता है, जिसमें उपदेश की छाया भी पड़ जाय।

आख्यायिकाओं द्वारा नैतिक उपदेश देने की प्रथा धर्मग्रंथों ही में नहीं, साहित्य-ग्रंथो में भी प्रचलित थी। कथा-सरित्सागर इसका उदाहरण
है।इसके पश्चात् बहुत-सी आख्यायिकाश्रो को एक शृङ्खला मे बाँधने की प्रथा चली । बैताल-पचीसी और सिंहासन-बत्तीसी इसी श्रेणी की पुस्तकें हैं। उनमे कितनी नैतिक और धार्मिक समस्याएँ हल की गयी है, यह उन लोगो से छिपा नही है, जिन्होने उनका अध्ययन किया है। अरबी मे सहस्र-रजनी-चरित्र इसी भॉति का अद्भुत संग्रह है; किन्तु उसमे किसी प्रकार का उपदेश देने की चेष्टा नहीं की गयी है। उसमे सभी रसो का समावेश है, पर अद्भुत रस ही की प्रधानता है, और अद्भुत रस मे उपदेश की गुञ्जाइश नहीं रहती। कदाचित् उसी आदर्श को लेकर इस देश मे शुक बहत्तरी के ढग की कथाएँ रची गयीं, जिनमे स्त्रियो की बेवफाई का राग अलापा गया है । यूनान मे हकीम ईसप ने एक नया ही ढङ्ग निकाला । उन्होने पशुपक्षियो की कहानियो द्वारा उपदेश देने का आविष्कार किया।

मध्यकाल काव्य और नाटक-रचना का काल था ; आख्यायिकाओं की ओर बहुत कम व्यान दिया गया । उस समय कहीं तो भक्ति-काव्य की प्रधानता रही, कही राजाश्रा के कीर्तिगान की । हॉ, शेखसादी ने फारसी मे गुलिस्तॉ-बोस्तॉ की रचना करके आख्यायिकाो की मर्यादा रखी । यह उपदेश-कुसुम इतना मनोहर और सुन्दर है कि चिरकाल तक प्रेमियो के हृदय इसके सुगन्ध से रञ्जित होते रहेगे। उन्नीसवीं शताब्दी मे फिर आख्यायिकानो की अोर साहित्यकारो की प्रवृत्ति हुई; और तभी से सभ्य-साहित्य मे इनका विशेष महत्व है। योरप की सभी भाषाश्रो मे गल्पो का यथेष्ट प्रचार है; पर मेरे विचार मे फ्रान्स और रूस के साहित्य मे जितनी उच्च-कोटि की गल्पे पायी जाती है, उतनी अन्य योरपीय भाषाओ मे नही । अगरेजी में भी डिकेस, वेल्स, हार्डी, किल्लिङ्ग, शालेंट ब्राटी आदि ने कहानियाँ लिखी है, लेकिन इनकी रचनाएँ गी द भोपासा, बालजक या पियेर लोती के टक्कर की नहीं । फ्रान्सीसी कहा- नियो मे सरसता की मात्रा बहुत अधिक रहती है । इसके अतिरिक्त

मोपासों और बालजक ने आख्यायिका के आदर्श को हाथ से नहीं जाने दिया है। उनमे आध्यात्मिक या सामाजिक गुत्थियों अवश्य सुलझायी गयी है । रूस मे सबसे उत्तम कहानियाँ काउंट टालस्टाय की है । इनमे कई तो ऐसी है, जो प्राचीन काल के दृष्टान्तो की कोटि की है । चेकाफ ने बहुत कहानियाँ लिखी है, और योरप मे उनका प्रचार भी बहुत है; किन्तु उनमे रूस के विलास प्रिय समाज के जीवन-चित्रों के सिवा और कोई विशेषता नही । डास्टावेस्की ने भी उपन्यासो के अतिरिक्त कहानियाँ लिखी है, पर उनमे मनोभावो की दुर्बलता दिखाने ही की चेष्टा की गयी है । भारत मे बंकिमचन्द्र और डाक्टर रवीन्द्रनाथ ने कहानियाँ लिखी हैं, और उनमे से कितनी ही बहुत उच्च-कोटि की है।

प्रश्न यह हो सकता है कि आख्यायिका और उपन्यास मे आकार के अतिरिक्त और भी कोई अन्तर है ? हॉ, है और बहुत बड़ा अन्तर है । उपन्यास घटनाओं, पात्रों और चरित्रों का समूह है, आख्यायिका केवल एक घटना है-अन्य बाते सब उसी घटना के अन्तर्गत होती है। इस विचार से उसकी तुलना ड्रामा से की जा सकती है । उपन्यास मे आप चाहे जितने स्थान लाये, चाहे जितने दृश्य दिखाये, चाहे जितने चरित्र खींचें, पर यह कोई आवश्यक बात नहीं कि वे सब घटनाएँ और चरित्र एक ही केन्द्र पर मिल जाये । उनमे कितने ही चरित्र तो केवल मनोभाव दिखाने के लिए ही रहते हैं, पर आख्यायिका मे इस बाहुल्य की गुञ्जाइश नहीं, बल्कि कई सुविज्ञ जनो की सम्मति तो यह है कि उसमे केवल एक ही घटना या चरित्र का उल्लेख होना चाहिए । उप- न्यास मे आपकी कलम मे जितनी शक्ति हो उतना जोर दिखाइये, राजनीति पर तर्क कीजिए, किसी महफिल के वर्णन मे दस-बीस पृष्ठ लिख डालिये; (भाषा सरस होनी चाहिए ) ये कोई दूषण नहीं । श्राख्यायिका मे श्राप महफिल के सामने से चले जायेंगे, और बहुत उत्सुक होने पर भी आप उसकी ओर निगाह नही उठा सकते । वहाँ तो एक शब्द, एक वाक्य भी ऐसा न होना चाहिए, जो गल्प के उद्देश्य को

स्पष्ट न करता हो । इसके सिवा,कहानी की भाषा बहुत ही सरल और सुबोध होनी चाहिए । उपन्यास वे लोग पढ़ते हैं, जिनके पास रुपया है; और समय भी उन्हों के पास रहता है, जिनके पास धन होता है। आख्यायिका साधारण जनता के लिए लिखी जाती है, जिनके पास न धन है, न समय । यहाँ तो सरलता पैदा कीजिए, यही कमाल है । कहानी वह ध्रुपद की तान है जिसमे गायक महफिल शुरू होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूरित कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।

हम जब किसी अपरिचित प्राणी से मिलते है, तो स्वभावतः यह जानना चाहते है कि यह कौन है । पहले उससे परिचय करना आवश्यक समझते हैं। पर अाजकल कथा भिन्न-भिन्न रूप से प्रारम्भ को जाती है। कहीं दो मित्रो की बातचीत से कथा प्रारम्भ हो जाती है, कहीं पुलिस- कोर्ट के एक दृश्य से। परिचय पीछे आता है। यह अँग्रेजी श्राख्यायिकानो की नकल है । इनसे कहानी अनायास ही जटिल और दुर्बोध हो जाती है। योरपवालों की देखा-देखी यन्त्रो-द्वारा, डायरी या टिप्पणियों द्वारा भी कहानियाँ लिखी जाती हैं। मैने स्वयं इन सभी प्रथाओं पर रचना की है; पर वास्तव मे इससे कहानी की सरलता मे बाधा पड़ती है । योरप के विज्ञ समालोचक कहानियो के लिए किसी अन्त की भी जरूरत नहीं समझते । इसका कारण यही है कि वे लोग कहानियाँ केवल मनोरंजन के लिए पढते है। आपको एक लेडी लन्दन के किसी होटल मे मिल जाती है। उसके साथ उसकी वृद्धा माता भी है। माता कन्या से किसी विशेष पुरुष से विवाह करने के लिए आग्रह करती है। लडकी ने अपना दूसरा वर ठीक कर रखा है। माँ बिगड़कर कहती है, मै तुझे अपना धन न दूंगी। कन्या कहती है, मुझे इसकी परवा नहीं। अन्त मे माता अपनी लड़की से रूठकर चली जाती है। लड़की निराशा की दशा मे बैठी है कि उसका अपना पसन्द किया युवक आता है। दोनों में बातचीत होती है। युवक का प्रेम सच्चा है। वह बिना धन के ही
विवाह करने पर राजी हो जाता है। विवाह होता है। कुछ दिनो तक स्त्री-पुरुष सुख-पूर्वक रहते है । इसके बाद पुरुष धनाभाव से किसी दूसरी धनवान् स्त्री की टोह लेने लगता है। उसकी स्त्री को इसकी खबर हो जाती है, और वह एक दिन घर से निकल जाती है। बस, कहानी समाप्त कर दी जाती है । क्योकि realists अर्थात् यथार्थवादियो का कथन है कि ससार मे नेकी-बदी का फल कहीं मिलता नजर नहीं आता; बल्कि बहुधा बुराई का परिणाम अच्छा और भलाई का बुरा होता है । आदर्शवादी कहता है, यथार्थ का यथार्थ रूप दिखाने से फायदा ही क्या, वह तो अपनी आँखों से देखते ही है। कुछ देर के लिए तो हमे इन कुत्सित व्यवहारो से अलग रहना चाहिए, नहीं तो साहित्य का मुख्य उद्देश्य ही गायब हो जाता है । वह साहित्य को समाज का दर्पण-मात्र नहीं मानता, बल्कि दीपक मानता है, जिसका काम प्रकाश फैलाना है। भारत का प्राचीन साहित्य आदर्शवाद ही का समर्थक है। हमे भी आदर्श ही की मर्यादा का पालन करना चाहिए । हॉ, यथार्थ का उसमे

ऐसा सम्मिश्रण होना चाहिए कि सत्य से दूर न जाना पड़े ।
कहानी-कला:२
 

एक आलोचक ने लिखा है कि इतिहास में सब-कुछ यथार्थ होते हुए भी वह असत्य है, और कथा-साहित्य में सब-कुछ काल्पनिक होते हुए भी वह सत्य है।

इस कथन का आशय इसके सिवा और क्या हो सकता है कि इतिहास आदि से अन्त तक हत्या, संग्राम और धोखे का ही प्रदर्शन है, जो असुन्दर है, इसलिए असत्य है। लोभ की क्रूर से क्रूर, अहङ्कार की नीच से नीच, ईर्ष्या की अधम से अधम घटनाएँ आपको वहाँ मिलेंगी, और आप सोचने लगेंगे, 'मनुष्य इतना अमानुष है! थोड़े-से स्वार्थ के लिए भाई भाई की हत्या कर डालता है, बेटा बाप की हत्या कर डालता है और राजा असंख्य प्रजा की हत्या कर डालता है!' उसे पढ़कर मन में ग्लानि होती है, आनन्द नहीं। और जो वस्तु आनन्द नहीं प्रदान कर सकती वह सुन्दर नहीं हो सकती, और जो सुन्दर नहीं हो सकती वह सत्य भी नहीं हो सकती। जहाँ आनन्द है, वही सत्य है। साहित्य काल्पनिक वस्तु है; पर उसका प्रधान गुण है आनन्द प्रदान करना, और इसीलिए वह सत्य है।

मनुष्य ने जगत् में जो कुछ सत्य और सुन्दर पाया है और पा रहा है उसी को साहित्य कहते हैं, और कहानी भी साहित्य का एक भाग है।

मनुष्य-जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है। वह खुद अपनी समझ में नहीं आता। किसी-न-किसी रूप मे वह अपनी ही आलो
चना किया करता है-अपने ही मनोरहस्य खोला करता है । मानव- सस्कृति का विकास ही इसलिए हुअा है कि मनुष्य अपने को समझे । अध्यात्म और दर्शन की भॉति साहित्य भी इसी सत्य की खोज मे लगा हुआ है-अन्तर इतना ही है कि वह इस उद्योग मे रस का मिश्रण करके उसे अानन्दप्रद बना देता है, इसीलिए अध्यात्म और दर्शन केवल ज्ञानियों के लिए है, साहित्य मनुष्य-मात्र के लिए ।

जैसा हम ऊपर कह चुके है, कहानी या आख्यायिका साहित्य का एक प्रधान अग है, आज से नही, आदि काल से ही । हाँ, आजकल की आख्यायिका और प्राचीन काल की आख्यायिका मे समय की गति और रुचि के परिवर्तन से, बहुत-कुछ अन्तर हो गया है। प्राचीन आख्यायिका कुतूहल-प्रधान होती थी या अध्यात्म-विषयक । उपनिषद् और महाभारत मे आध्यात्मिक रहस्यों को समझाने के लिए आख्या- यिकात्रो का आश्रय लिया गया है । बौद्ध-जातक भी आख्यायिका को सिवा और क्या है ? बाइबिल मे भी दृष्टान्तो और आख्यायिकानो के द्वार ही धर्म के तत्व समझाये गये हैं। सत्य इस रूप मे श्राकर साकार हो जाता है और तभी जनता उसे समझती है और उसका व्यवहार करती है।

वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ और स्वाभाविक चित्रण को अपना ध्येय समझती है । उसमे कल्पना की मात्रा कम और अनुभूतियो की मात्रा अधिक होती है। इतना ही नहीं बल्कि अनुभूतियाँ ही रचनाशील भावना से अनुरञ्जित होकर कहानी बन जाती है।

मगर यह समझना भूल होगी कि कहानी जीवन का यथार्थ चित्र है । यथार्थ जीवन का चित्र तो मनुष्य स्वयं हो सकता है; मगर कहानी के पात्रो के सुख-दुःख से हम जितना प्रभावित होते है, उतना यथार्थ जीवन से नहीं होते-जब तक वह निजत्व की परिधि मे न आ जाय । कहानियों मे पात्रो से हमे एक ही दो मिनट के परिचय मे निजत्व हो

जाता है और हम उनके साथ हॅसने और रोने लगते है। उनका हर्ष और विषाद हमारा अपना हर्ष और विषाद हो जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि कहानी पढ़कर वे लोग भी रोते या हॅसते देखे जाते है, जिन पर साधारणतः सुख-दुःख का कोई असर नही पडता । जिनकी ऑखे श्मशान मे या कब्रिस्तान मे भी सजल नहीं होतीं, वे लोग भी उपन्यास के मर्म- स्पर्शी स्थलो पर पहुँचकर रोने लगते है ।

शायद इसका यह भी कारण हो कि स्थूल प्राणी सूक्ष्म मन के उतने समीप नहीं पहुँच सकते, जितने कि कथा के सूक्ष्म चरित्र के । कथा के चरित्रो और मन के बीच मे जड़ता का वह पर्दा नहीं होता, जो एक मनुष्य के हृदय को दूसरे मनुष्य के हृदय से दूर रखता है और अगर हम यथार्थ को हूबहू खींचकर रख दे, तो उसमे कला कहाँ है ? कला केवल यथार्थ की नकल का नाम नहीं है।

कला दीखती तो यथार्थ है; पर यथार्थ होती नहीं। उसकी खूबी यही है कि वह यथार्थ न होते हुए भी यथार्थ मालूम हो । उसका माप- दण्ड भी जीवन के माप-दण्ड से अलग है। जीवन मे बहुधा हमारा अन्त उस समय हो जाता है जब यह वाछनीय नहीं होता । जीवन किसी का दायी नही है; उसके सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण मे कोई क्रम, कोई सम्बन्ध नहीं ज्ञात होता–कम से कम मनुष्य के लिए वह अज्ञेय है । लेकिन कथा-साहित्य मनुष्य का रचा हुआ जगत् है और परिमित होने के कारण सम्पूर्णतः हमारे सामने आ जाता है, और जहाँ वह हमारी मानवी न्याय बुद्धि या अनुभूति का अतिक्रमण करता हुआ पाया जाता है, हम उसे दण्ड देने के लिए तैयार हो जाते हैं। कथा मे अगर किसी को सुख प्राप्त होता है तो इसका कारण बताना होगा, दुख भी मिलता है तो उसका कारण बताना होगा। यहाँ कोई चरित्र मर नहीं सकता, जब तक कि मानव-न्यायबुद्धि उसकी मौत न मोंगे। स्रष्टा को जनता की अदालत मे अपनी हर एक कृति के लिए जवाब
देना पड़ेगा। कला का रहस्य भ्रान्ति है, जिस पर यथार्थ का आवरण पड़ा हो ।

हमे यह स्वीकार कर लेने मे सकोच न होना चाहिए कि उपन्यासों ही की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पच्छिम से ली है-कम-से- कम इसका आज का विकसित रूप तो पच्छिम का है ही। अनेक कारणों से जीवन की अन्य धाराप्रो की तरह ही साहित्य में भी हमारी प्रगति रुक गयी और हमने प्राचीन से जौ-भर भी इधर-उधर हटना निषिद्ध समझ लिया। साहित्य के लिए प्राचीनो ने जो मर्यादाएँ बाँध दी थीं, उनका उल्लंघन करना वर्जित था । अतएव, काव्य, नाटक, कथा, किसी मे भी हम आगे कदम न बढ़ा सके । कोई वस्तु बहुत सुन्दर होने पर भी अरुचिकर हो जाती है, जब तक उसमे कुछ नवीनता न लायी जाय । एक ही तरह के नाटक, एक ही तरह के काव्य पढते-पढते आदमी ऊब जाता है और वह कोई नयी चीज चाहता है-चाहे वह उतनी सुन्दर और उत्कृष्ट न हो । हमारे यहाँ या तो यह इच्छा उठी ही नहीं, या हमने उसे इतना कुचला कि वह जड़ीभूत हो गयी। पश्चिम प्रगति करता रहा-उसे नवीनता की भूख थी, मर्यादाओं की बेडियों से चिढ़ । जीवन के हर एक विभाग मे उसकी इस अस्थिरता तथा असन्तोष की बेडियो से मुक्त हो जाने की छाप लगी हुई है । साहित्य मे भी उसने क्रान्ति मचा दी।

शेक्सपियर के नाटक अनुपम है; पर आज उन नाटकों का जनता के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं । अाज के नाटक का उद्देश्य कुछ और है, आदर्श कुछ और है, विषय कुछ और है, शैली कुछ और है । कथा- साहित्य मे भी विकास हुआ और उसके विषय मे चाहे उतना बड़ा परि- वर्तन न हुआ हो; पर शैली तो बिलकुल ही बदल गयी । अलिफलैला उस वक्त का आदर्श था उसमे बहुरूपता थी, वैचित्र्य था, कुतूहल था, रोमान्स था—पर उसमे जीवन की समस्याएँ न थी, मनोविज्ञान के रहस्य न थे, अनुभूतियों की इतनी प्रचुरता न थी, जीवन अपने सत्य
रूप मे इतना स्पष्ट न था । उसका रूपान्तर हुआ और उपन्यास का उदय हुआ, जो कथा और नाटक के बीच की वस्तु है। पुराने दृष्टान्त भी रूपान्तरित होकर कहानी बन गये।

मगर सौ बरस पहले यूरप भी इस कला से अनभिज्ञ था । बडे-बड़े उच्च कोटि के दार्शनिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक उपन्यास लिखे जाते थे; लेकिन छोटी-छोटी कहानियो की ओर किसी का ध्यान न जाता था। हॉ, परियो और भूतो की कहानियाँ लिखी जाती थीं। किन्तु इसी एक शताब्दी के अन्दर, या उससे भी कम मे समझिए, छोटी कहानियो ने साहित्य के और सभी अङ्गो पर विजय प्राप्त कर ली है, और यह कहना गलत न होगा कि जैसे किसी जमाने मे काव्य ही साहित्यिक अभिव्यक्ति का व्यापक रूप था, वैसे ही आज कहानी है । और उसे यह गौरव प्राप्त हुअा है यूरोप के कितने ही महान् कलाकारों की प्रतिभा से, जिनमे बाल- जक, मोपासॉ, चेखाफ, टॉल्स्टाय, मैक्सिम गोर्की आदि मुख्य हैं। हिन्दी मे पचीस-तीस साल पहले तक कहानी का जन्म न हुआ था । परन्तु अाज तो कोई ऐसी पत्रिका नहीं जिसमे दो-चार कहानियों न हो-यहाँ तक कि कई पत्रिकाओ मे केवल कहानियाँ ही दी जाती है।

कहानियों के इस प्राबल्य का मुख्य कारण आजकल का जीवन- संग्राम और समयाभाव है। अब वह जमाना नहीं रहा कि हम 'बोस्ताने खयाल' लेकर बैठ जाये और सारे दिन उसी की कुजो मे विचरते रहें । अब तो हम जीवन-सग्राम मे इतने तन्मय हो गये हैं कि हमे मनोरंजन के लिए समय ही नहीं मिलता, अगर कुछ मनोरञ्जन स्वास्थ्याके लिए अनिवार्य न होता, और हम विक्षिप्त हुए बिना नित्य अठारह घटे काम कर सकते, तो शायद हम मनोरञ्जन का नाम भी न लेते । लेकिन प्रकृति ने हमे विवश कर दिया है। हम चाहते है कि थोडे से थोड़े समय मे अधिक मनोरञ्जन हो जाय-इसीलिए सिनेमा-गृहो की संख्या दिन-दिन बढ़ती जाती है । जिस उपन्यास के पढने मे महीनों लगते, उसका अानद हम दो घटों में उठा लेते है। कहानी के लिए पन्द्रह-बीस मिनट ही काफी