साहित्यालाप/१७—विचार-विपर्य्यय
१७—विचार-विपर्य्यय।
(१)
सम्पर्क के कारण पास-पड़ोस की भाषाओं का प्रभाव अन्य
भाषाओं पर अवश्य ही पड़ता है । उन्नत भाषाओं के सम्पर्क
(२)
धन्य रे अनुकरण ! तू बड़ा मायावी है । अपने मायाजाल में तूने बड़े-बड़ों तक को फँसा लिया है । अच्छा, बतला तो सहो-संसार कितने हैं ? मगर इस प्रश्न का उत्तर देते समय मदरसे में पढ़ाई गई नई और पुरानी दुनिया की बात भूल जाना । असल में हमारी दुनिया एक ही है; उसके एक अंश नया और दूसरे का पुराना होना उसको केवल विशेषता है। अच्छा तो ससार, जगत्, दुनिया, वर्ल्ड ( World ) एक ही है न ? इसमें तो मोन-मेष के लिए जगह नहीं ? क्या कहा ? --"नहीं" तो यह तेरी सरासर भूल है । तुझे मालूम नहीं, कुछ समय से सृष्टि की रचना का काम ब्रह्मा ने हिन्दीलेखकों के हाथों में सौंप दिया है । अतएव अपनी लेखनी के बल पर उन्होंने अनेक संसारों की सृष्टि कर डाली है-यथा हिन्दी-संसार, उर्दू संसार, बँगला-संसार, मराठी-संसार आदि इतने ही नहीं, उन्होंने और भी कितने ही संसार, बना डाले हैं-यथा साहित्य-संसार, सम्पादक-संसार पाठक-संसार आदि । संसार-सृष्टि की इस वृद्धि को अभी विराम नहीं। यह न समझना चाहिए कि यह जनन-क्रिया अब बन्द हो गई या बन्द होनेवाली है । वह बन्द न होगी; क्योंकि अभो पुस्तक-संसार, पृष्ठ-संसार, वाक्य-संसार और शब्द-संसार आदि की उत्पत्ति होना बाकी है । ये सभी संसार, और शायद कुछ और भी, अभी गर्भस्थ हैं । लेखकों की बहु-प्रसूता लेखनो देवो, क्रम क्रम से, उनको भी प्रसव किये बिना न रहेगी । बात यह है कि ये
लोग साहित्य प्रेमी नहीं, साहित्य-सेवी नहीं, साहित्य-शास्त्री भी नहीं । ठहरे ये साहित्यिक ! क्या कहना है ! कितनी श्रुति सुखद, कितनी सरल और कितनी मनोरम शब्द-सृष्टि है ! पर
क्या परवा ? समुन्नत बँगला भाषा के लेखकों ने इसे अपना जो
लिया है। फिर भला हम क्यों न उनका अनुकरण करें ? अंँगरेज़ी भाषा के "Literary World" की बदौलन जब हमने अनेक संसारों की सृजना कर डाली, भद्र बँगला की बदौलत यदि हम अपनी भाषा में, मधु और मिश्री से भी अधिक मीठे एक नये शब्द "साहित्यिक" की सृष्टि कर डाले तो हर्ज ही क्या है ?
३
पराया माल भला हो या बुरा: घर आ जायगा तो कभी न कभी काम ही देगा। कुछ दाम तो देने पड़ते ही नहीं, जो कबूल करते, खरींदते या चुराते वह अच्छे या बुरे की जांच करने बैठे। औरों का चाहे जो मत हो, अपने राम तो जांच-पड़ताल के मुतलक कायल नहीं । मुफ्त में मिलता हो तो औरों के कूड़े-करकट से भी हम अपना घर पाट दें।कभी हमारे नाती पोते खेती करेंगे तो वही कूड़ा-करकट खाद का काम देगा। इसीसे, भाई, हमने तो फ़ारसी भाषा के "मारे आस्तीन" को पकड़ कर अपनी कोठरी में क़ैद कर रक्खा है । अगर कोई हमसे पूछता है कि-रामजी, इसमें क्या है । तो हम कहते हैं-आस्तीन का सांप । फ़ारसी ही के क्यो, हम तो किसी भी भाषा के मुहावरे हज़म कर जाना रखा समझते हैं।
और अपने पेट में रखकर, ज़रूरत पड़ने पर, धिना ज़रा भी
रहो-बदल किये, उन्हें हम फिर भी बाहर निकाल सकते हैं। कम से कम हमारे धर्मशास्त्र में तो इस हड़पाहड़पी की कहीं भी मुमानियत नहीं । देखिए, अँगरेज़ी भाषा में एक मुहावरा है-" He was caught red handed "-उसे आत्मसात्क रके हिन्दी में हमने इस तरह उद्गीर्ण किया है---
"वह रंगे हाथों पकड़ लिया गया"
क्या इस तरह के नये नये और अनोखे मुहावरों की आमदनी से हमारी भाषा का कोष न बढ़ेगा? ज़रूर बढ़ेगा। उर्दू शाही ज़बान है। वह अँगरेज़ी गवर्नमेंट की कचहरियों के अहलकारों की दिलम्बा भी है । उसके तज़ बयान, उसके क़ायदे और उसकी फ़साहत का क्या कहना है ! इससे हमने तो उसपर भी धावा बोल दिया है । हिन्दी के आचार्य लिखते हैं-
"वह मारा गया"
छिः, कितना अशुद्ध वाक्य है ! मगर इसकी अशुद्धता किसी हिन्दी-लेखक के ध्यान में न आई । आई तो ज़बांदानी का दावा करनेवाले उर्दू ही के लेखकों के । यही कारण है जो वे इस वाक्य को सुधार कर इस तरह लिखने लगे हैं-
उसको मारा गया"
इसी तर्ज़ पर और इसी कायदे के मुताबिक, "उसको बुलाया गया" और "उसको धमकाया गया" आदि प्रयोग भी उन्होंने प्रचलित कर दिये हैं। उनकी राय है कि कर्मवाच्य
और कर्तृवाच्य तथा सकर्मक और अकम्र्मक क्रियात्रा में भेद रखना भाषा की रफ्तार में रुकावट पदा करता है । इसलिए इस भेद-भाव को दूर कर देना चाहिए । भाषा का उन्नत करने का यह तरीका बहुत ही बढ़िया है। इसीसे हम लोग भी अब, कुछ समय से, इस तरह के प्रयोगों का अनुकरण हिन्दी में धड़ाधड़ करने लगे हैं । इसका फल भी बहुत हो मीठा और बहुत ही ज़ायकेदार हुआ है। इसी तरह के अनुकृत प्रयोगों के कृगकटाक्ष से अब हमारे यहां सुप्रमान और उष:काल के बदले "नूर का तड़का" होने लगा है और "सङ्गठन का शोराजा" भी बिखरने लगा है।
४
हिन्दी के पुराने लेखक एक बड़ी भारी भूल कर रहे है । वे पहले भी समझते थे और अब भा समझते हैं कि "आज" कहने से दिन का बोध होता है । अतएव दिन के अर्थ में वे उसका प्रयोग बराबर करते चले जा रहे हैं । "आज-कल" का मुहावरा सदा ही उनकी ज़बान पर रहता है। वे "आज" के भी भीतर "दिन" का अन्तभुत समझते हैं और "कल" के भी भीतर । मगर उनकी यह भूल अब कहीं जाकर पकड़ी गई है । इसे पकड़ा है बी० ए०-एम० ए० पास, वकालत-पास, समालोचकों के सरताज, हिन्दी के अभिनव नामी लेखकों ने । उनका सिद्धान्त है कि "आज" और "कल" से घड़ो, घण्टे, पक्ष, मास, वर्ष, युग और कल्प आदि का अर्थ चाहे भले ही निकले; परन्नु दिन का अर्थ नहीं निकलता । उसका अर्थ
निकालने के लिए "आज" शब्द के आगे “दिन" शब्द और जोड़ देना चाहिए । उदाहरणार्थ---
"आज-दिन हिन्दी साहित्य-संसार में हास्य-रस की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है"।
अभी तो "आज-दिन" ही को गयज करने की चेष्टा की गई है । आगे चल कर कभी शायद "कल-दिन" को भी दाद मिल जाय । हाँ, इस अवतरण में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है। "आकृष्ट” कहने से बहुत लोग शायद यह समझते कि ध्यान आप ही आप भी किसी ओर खिँच सकता है । मगर इस तरह का अर्थ यदि कोई निकाले तो वह होगा सरासर ग़लत ! कहीं ध्यान भी आप ही आप किसी तरफ़ जा सकता है ? जाने के लिए किसी और के द्वारा उसके खीचे जाने की ज़रूरत होती है । अतएव "आकर्षित" हुआ शुद्ध प्रयोग और "आकृष्ट" है अपप्रयोग!
५
काल-वाचक शब्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में नव्य लेखकों ने एक और भी आविष्कार किया है। हिन्दी के अल्पज्ञ लेखक लिखते हैं-
जब मैं काशी जाऊँगा तब आपको भी बुलाऊँगा।
यहाँ, इस उदाहरण में, जल और तब ये दोनों ही शब्द काल-वाचक हैं । अतएव प्रयोक्ता जनों की राय में उनका यह वाक्य सर्वथा शुद्ध है । परन्तु हिन्दी के नवीन उन्नायकों की
राय में काल-वाचक शब्दा के प्राधिक्य को बड़ा आवश्यकता है। उनकी संख्या कुछ और बढ़ जाय तो हिन्दी भाषा की सम्पदा, अधिक नहीं, तो कम से कम मन दो मन तो अवश्यही वृद्धि को प्राप्त हो जाय । इसीसे यदि वे ऊपर के वाक्य को अपने ढंग पर लिखते हैं तो लिखते हैं---
जब मैं काशी जाऊँगा तो आपको भी बुलाऊंगा।
जब और तब का काम जो और तो से भी लेकर उन्हें भी वे काल-वाचक बना डालते हैं। क्योंकि अपने आविष्कार को कृपा से उन्हें अवगत होगया है कि जो और तो ये दोनों ही क्रम से जब और तब के पर्यायवाची, अतएव, स्थान-परिवर्तनीय हैं । कहिए, कितना महत्वपूर्ण आविष्कार है !
६
एक सम्माननीय समालोचक को सम्मति है कि किसी समय सरस्वती में जो समालोचनायें निकलती थीं वे कुछ विशेषता रखती थीं । यदि उनका यह " विशेषता' शब्द अपकृष्टता या हीनता का सूचक है तो हम उनसे सोलहो आने सहमत हैं । परन्तु यदि वह उत्कृष्टतासूचक है तो सहमत नहीं। क्योंकि सरस्वती में प्रकाशित समालोचनाओं में हमें कभी कोई उत्कृष्टता नहीं दिखाई दी। हाँ, अपकृष्टता के प्रमाण अवश्य ही अनेक मिल चुके हैं। उनमें से एक को हम,अभी, लगे हाथ ही, आपके सामने रक्खे देते हैं । कुछ लेखक-शिरोमणियों ने अथ से इतिपय्र्यन्त अन्य भाषाओं की पुस्तकों
का अनुवाद हिन्दी में कर डाला और टाइटिल पेज को अपने ही श्रीसम्पन्न नाम के सुन्दर वर्ण से समलकृत कर दिया, मूल पुस्तक के लेखक के नाम को अशुभङ्कर समझ कर उसका पूरा पूरा "बायकाट" कर डाला । ये सभी पुस्तके सरस्वती में
समालोचना के लिए आई, तो समालोचक ने जान बूझकर पाठकों को धोखा दिया। उसने यह तो लिख दिया कि वे अमुक अमुक भाषाओं को अमुक अमुक पुस्तकों के अनुवाद है; परन्तु यह न बताया कि अनुवादकों ने उन मूल पुस्तकों के कर्ताओं के नाम का बहिष्कार कर दिया है । इससे बड़ी हानि हुई। पाठक तो धोखे में रहे और चौर-चाणक्य अनुवादक मूँछों पर ताव देते हुए हिन्दी भाषा के उद्धारक बन बैठे। उनमें से एक आध तो “साहित्य-संसार" के सम्राट् तक बन गये और अवशिष्ट अनुवादक विद्वान (हाँ हाँ विद्वान ही नहीं, विद्वच्छिरोमणि) बने हुए हिन्दी के रिक्त
कोष को अपने ग्रन्थ-रत्नों से लबालब भरते चले जा रहे हैं । इन समालोचनाओं के लेखक की भीरुता को-नहीं. नहीं धूर्तता को--तो देखिए !उसने जान बूझ कर सव सर्व-साधारण के मतलब की सबसे बड़ी बात छिपा डाली । हमें तो ऐसी समालोचनाओं से सम्पूर्ण घृणा है। लीपापोती हमें ज़रा भी पसन्द नहीं। हमें ते! खरी समालोचनायें ही पसन्द हैं-ऐसी समालोचनायें जैसी कि इस समय कलकत्ते के एक साप्ताहिक पत्र में निकल रही हैं। वे समालोचनायें ही क्या, जिनको पढ़कर समालोचित ग्रन्थ के लेखक का प्रेरणा से गोरखों की पलटने, गढ़वालियों की
बटालियने और सिकों की सेनाये समालोचक पर सहसा टूट न पड़े। विशेषतापूर्ण उत्कृष्ट समालोचनायें वही कही जा सकती हैं, सरस्वती में प्रकाशित समालोचनायें नहीं। उन्हें तो सर्वथा अपकृष्ट और विशेषता हीन समझना चाहिए।
अगस्त १९२५