साहित्यालाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

पटना: खड्‍गविलास प्रेस, पृष्ठ २४७ से – ३१५ तक

 

१६ वक्तव्य

कानपुर के तेरहवें साहित्य सम्मेलन की स्वागतकारिणी समिति के सभापति की हैसियत से किया गया भाषण ]

तद्दिव्यमव्ययं धाम सारस्वतमुपास्महे ।

यत्प्रसादात्प्रलीयन्ते मोहान्धतमसश्छटाः॥१॥

करबदरसदृशमखिलं भुवनतलं यत्प्रसादतः कवयः ।

पश्यन्ति सूक्ष्ममतयः सा जयति सरस्वती देवी॥२॥

औपचारिक

प्यारे भाइयो,

कानपुर-नगर के निवासियों ने आपका स्वागत करने के लिए मेरी योजना की है। मुझे आशा दी गई है कि मैं आपका स्वागत करू। अतएव मैं आपका स्वागत करता हू; हृदय से स्वागत करता हूं; बड़े हर्ष, बड़े आदर और बड़े प्रेम से स्वागत करता हूं-

स्वागतं वो महाभागाः स्वागतं वोऽस्तु सज्जनाः

स्वागतं वो बुधश्रेष्ठाः स्वागतं वः पुनः पुनः

अनेक कष्ट और अनेक असुविधाये सहन करके आपने अपने दर्शन से हम लोगों को जो कृतार्थ किया है उसके लिए हम, कानपुर के नागरिक, आपके अत्यन्त कृतज्ञ हैं । हमारे प्रणयानुरोध की रक्षा के लिए, आपने यहां पधारने की जो कृपा की है तदर्थ हम आपको हार्दिक धन्यवाद देते हैं । मैं ही क्यों, इस श्रेयोवर्धक काम के लिए चुना गया, इसका कारण मैं क्या बताऊं। बताना चाहें तो वही महाशय बता सकते हैं जिन्हों ने इस निमित्त मेरी नियुक्ति की है। जो इस नगर का निवासी नहीं; रहने के लिए जिस के अधिकार में निज की एक फूस की कुटिया तक नहीं; वाहन के नाम से जिसके पास अपने दो शक्तिहीन, निर्बल और कृश पैरों के सिवा और कुछ भी नहीं-वह आपका स्वागत करके आपको आराम से कैसे रख सकता है? आप का आतिथ्य करने और आपको आराम से रखने की लौकिक सामग्री यद्यपि मेरी पहुंच के बाहर है, तथापि मेरे पास एक वस्तु की कमी नहीं। वह है आपके ठहरने के लिए स्थान। भगवान् मधुसूदन का हृदय इतना विशाल है कि युगान्त में समस्त लोक, विस्तार सहित, उसमें समा जाते हैं। परन्तु जब तपोधन नारदजी उनको दर्शन देने आये तब भगवान् के उस उतने विशाल हृदय में भी, मुनिवर के आगमन से उत्पन्न, आनन्द न समा सका; वह छलक कर बाहर बह निकला-

युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो जगन्ति यस्यां सविकाशमासत।
तनौ ममुस्तत्रन कैटभद्विपस्तपोधनाभ्यागमसम्भवा मुदः॥

परन्तु, विश्वास कीजिए, आपको ठहराने के लिए मैंने अपने हृदयस्थल को भगवान् के हृदय से भी अधिक विशाल बना लिया है। आप वहां सुख से रह सकते हैं। मेरे जिस हृदय में आपके सम्बन्ध का मेरा भक्ति-भाव, अपनी समस्त सेना साथ लिए हुए, मुद्दतों से डेरा डाले पड़ा है वहां जगह

की कमी नहीं। वहां तो आपको ठहराने के लिए सब तरह की तैयारी बहुत पहले ही से हो चुकी है।

मैं एक व्यक्तिगत निवेदन करने के लिए आपको आशा चाहता हूं। हिन्दी का यह तेरहवां साहित्य-सम्मेलन है । इसके पहले एक को छोड़ कर और किती सम्मेलन में अभाग्यवश मैं नहीं उपस्थित हो सका। अस्वस्थता के सिवा इसका और कोई कारण नहीं । मैं दूर की यात्रा नहीं कर सकता और बाहर बहुत कम रह सकता हूं। परन्तु मेरे सुनने में आया है कि कुछ लोगों ने मेरी अनुपस्थिति का कुछ और ही कारण कल्पित किया है। वे समझते हैं कि मेरे उपस्थित न होने का कारण है मेरा ईर्ष्या-द्वेष, मेरा मद और मत्सर, मेरा गर्व और पाखण्ड । अतएव मैं चाहता था कि सम्मेलन के प्रधान कार्यकर्ता मुझे कोई ऐसा काम देते जिससे मुझ पर गुप्त रीति से किये गये इन निर्मूल दोषारोपणों का आपही आप परिहार हो जाता । मेरी हार्दिक इच्छा थी कि सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए समागत सज्जनों की सेवा का काम मुझे दिया जाता। तो मैं आपको अपना इष्टदेव समझ कर पादप्रक्षालन से प्रारम्भ करके आप की षोडशोपचार पूजा करता। ऐसा करने से मेरा पूर्णनिर्दिष्ट दोषारोपजात धब्बा भी धुल जाता, सम्मेलन के विषय में मेरे भावों का भी पता लग जाता और साथ ही इस जराजीर्ण अशक्त शरीर से पुण्य का सम्पादन भी कुछ हो जाता परन्तु इस पवित्र काम से मैं वञ्चित रक्खा गया और अनुरक्ति के वशीभत होने से इस वञ्चना को भी मैंने अपने सोभाग्य का

सूचक ही समझा । तथापि मन मेरा फिर भी नहीं मानता। अतएव मैं आपकी मानसिक अर्चना करता हूं; आप भी कृपा कर के उसे उसी भाव से ग्रहण कीजिए। आसन अपना तो आपके लिए मैंने पहलेही छोड़ दिया है । स्वागत भी मैं आपका कर चुका । आनन्दवाष्पों से मैं अब आपके पैर धोता हूं। मेरी इन उक्लियों में प्रयुक्त वर्णों में यदि कुछ भी माधुर्य हो तो मैं उसी को मधुपर्क मान कर आपको अर्पण करता हूं । विनीत वचनों ही को फूल समझ कर आप पर चढ़ाता हूं, और नम्रशिरस्क होकर प्रार्थना करता हूं-

वन्दे भवन्तं भगवन प्रसीद

आपके आतिथ्य और आप के स्वागत के लिए जो प्रबन्ध किया गया है वह, मैं जानता हूं, अनेक अंशों में त्रुटिपूर्ण है। उसमें बहुत तरह की न्यूनतायें हैं । पर उन त्रुटियों और न्यूनताओं का कारण कर्त्तव्य की अवहेलना नहीं। उनका कारण कुछ तो असामर्थ्य, कुछ अवान्तर बातें और कुछ अनुभव की कमी है। परन्तु त्रुटियों और न्यूनताओं के होने पर भी, मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि आपके विषय में कानपुर-नगर के निवासियों के हृदयों में हार्दिक भक्तिभाव और प्रेम की कमी नहीं, श्रद्धा और समादर की कमी नहीं, सेवा और शुश्रूषैषणा की कमी नहीं । आशा है, आप हमारे आन्तरिक भावों से अनुप्राणित होकर हमारी त्रुटियों पर ध्यान न देंगे, क्योंकि-

भक्त यैव दुष्यन्ति महानुभावाः

आपके आतिथ्य के लिए किया गया प्रबन्ध यदि आप

को कुछ भी सन्तोषजनक और कुछ भी सुभीते का हो तो उसका श्रेय स्वागत-समिति के कार्यकर्ताओं, सम्मेलन के सहायकों और स्वयंसेवकों को है। रहीं त्रुटियां और न्यूनतायें सो उनका एकमात्र उत्तरदाता, अतएव सब से बड़ा अपराधी मैं हूं। उसके लिए जो दण्ड आप मुझे देना चाहे, निःसङ्कोच दें। क्योंकि अपनी असमर्थता को जानकर भी मैंने इस कार्य भार को अपने ऊपर ले लिया है । और जान बूझकर अपराध करनेवाला औरों की अपेक्षा दण्ड का अधिक अधिकारी होता है।

२-कानपुर की स्थिति ।

जिस नगर में आप पधारे हैं वह अभी कल का बच्चा है। न वह बम्बई और कलकत्ते की बराबरी कर सकता है, न लाहौर और लखनऊ की, न काशी और प्रयाग की, न भागलपुर और जबलपुर की । सौ डेढ़ सौ वर्ष पहले तो इस का अस्तित्व तक न था। १८०१ ईस्वी में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवध के नवाब वज़ीर से कुछ ज़िले पाये, जब उसने यहां पर एक मिलिटरी पोस्ट (Military Post) कायम किया-उसने इस जगह को अपनी छावनी बनाया- और कुछ फ़ोज यहां रख दी, तब से इसका नाम कम्पू पड़ा और वही कालान्तर में कानपुर हो गया। इस नगर के आस-पास जो मौजे थे अथवा हैं उनमें सीसामऊ सब से अधिक पुराना है और अब तक बना हुआ है । आठ सौ वर्ष से भी अधिक समय हुआ, कानपुर के आसपास का भू-भाग

कन्नौज के राजा जयचन्द्र के पितामह गोविन्दचन्द्र के अधिकार में था। वह कोटि नाम के परगने या तअल्लुक़ो के अन्तर्गत था। इसका पता एक दानपत्र से लगा है, जो कुछ समय पूर्व, इसी जिले के छत्रपुर नामक गांव में मिला था। उस में लिखा है कि ससईमऊ ( अर्थात् वर्तमान सीसामऊ ) गांव को गोविन्द-चन्द्रदेव ने साहुल शर्मा नाम के एक ब्राह्मण को विक्रम संवत, ११७७ में दे डाला था।

तब से इस प्रान्त में क्या क्या परिवर्तन हुए, इसका विश्वसनीय ऐतिहासिक वर्णन मेरे देखने में नहीं आया। जो कुछ ज्ञात है वह इतना ही कि जब से अँगरेजी छावनी यहां क़ायम हुई तभी से इस नगर की नोव पड़ी। नया होने पर भी व्यापार और व्यवसाय में यद्यपि इस नगर ने बड़ो उन्नति की है तथापि आज से कोई तीस पैंतीस वर्ष पूर्व, यहां दो चार मनुष्यों को छोड़ कर और कोई हिन्दी भाषा और हिन्दी-साहित्य का नाम तक शायद न जानता था । इस भाषा और इस भाषा के साहित्य के बीजवपन का श्रेय परलोकवासी पण्डित प्रताप नारायण मिश्र को है । उन्हीं के पुण्यप्रताप से आज कानपुर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि हिन्दी-साहित्य की अभिवृद्धि के साधनों पर विचार करने के लिए आपने, मुड़िया-लिपि के इस दुर्भेद्य दुर्ग में, पधारने की कृपा की है।

यहां पर हिन्दो-साहित्य का बीज-वपन हुए यद्यपि थोड़ा ही समय दुआ तथापि मातृभाषा-भक्तों और साहित्य-सेवियां की कृपा से वह अङ्क,रित होकर शीघ्र ही पल्लवित होने के

लक्षण दिखा रहा है। जिसकी रक्षा का भार मनुष्यरूप में गणेश और शिव, कृष्ण और कौशिक, राम और रमा, तथा नारायण आदि अपने ऊपर लें, और फूलों के उद्गन की आशा से जिसका सिञ्चन और भी कितने ही देवोपम सजन स्नेहपूर्वक करें उस के किसी समय फूलने फलने में क्या सन्देह ? खेद इतना ही है कि जिस पुरुष-रत्न ने अपनी साधना के बल से हिन्दी-साहित्य की प्राण-प्रतिष्ठा इस नगर में की थी वह सौभाग्यशाली साहित्यसेवी इस समय यहां उपस्थित नहीं। भगवान उसका कल्याण करे ।

इस नगर के आधुनिक होने पर भी, यहां हिन्दी-साहित्य की उन्नति के साधनों की कमी नहीं। आशा है, आप की हित-चिन्तना और आपके परामर्श से उनकी संख्या और भी बढ़ जायगी और हिन्दी-साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए नये गये उपायों की योजना हो जायगी। जो लोग यहां अपने बहीखाते का सारा काम मुड़िया लिपि में करते हैं उन में भी कितने हो उदारहृदय सज्जन हिन्दी से प्रेम रखते हैं और उसके साहित्य की समुन्नति के लिए बहुत कुछ दत्त-चित्त रहते हैं। हिन्दी के कवियों को, समय समय पर, जो पारितोषिक दिये जाते हैं और सस्ते मूल्य पर जो अच्छी अच्छी पुस्तकें निकाली जा रही हैं वह भी इन्हीं के कृपाकटाक्ष का फल है। अतएव कई प्रकार की त्रुटियां होने पर भी, इस नये नगर में भी, ऐसी अनेक बातें हैं जो यह आशा दिलाती हैं कि आप के उत्साहदान और सदनुष्ठान से साहित्य-सेवा का बहुत कुछ काम यहां भी हो सकता है। यही सब बातें ध्यान में रखकर, उच्च

आकांक्षाओं की प्रेरणा से, आप यहां पर आदरपूर्वक आमन्त्रित किये गये हैं । भगवती, वाग्देवी उन आकांक्षाओं को फलवती करें।

३-मातृभाषा की महना।

जिस निमित्त यह अनुष्ठान किया गया है और आज तेरह वर्षों से बराबर होता आ रहा है उसकी महत्ता बनाने की विशेष आवश्यकता नहीं । क्योंकि मेरी अपेक्षा आपको उसका ज्ञान अधिक है । इसलिए मैं दो ही चार विशेष विशेष बातों पर आप से कुछ निवेदन करूंगा।

सभ्य और शिक्षित संसार में, आज तक आव्रत्मस्तम्भपर्यंत ज्ञान का कितना और किस प्रकार सञ्चय हुआ है, और वह सञ्चय किन किन भाषाओं और किन किन ग्रन्थमालाओं में निबद्ध हुआ है, इसका विवेचन करने की शक्ति मुझ में नहीं। हिन्दी की माता कौन है ? मातामही कौन है ? प्रमातामही कौन है ? किस समय उसका उद्भव हुआ ? कैसे कैसे विकास होते हुए उसे उसका आधुनिक रूप मिला ? इस सब के विवेचन का भी सामर्थ्य मुझ में नहीं । हिन्दी के कौन कवि, लेखक या उन्नायक कब हुए ? उन्होंने उसकी कितनी सेवा या उन्नति की ? कब कौन ग्रन्थ उन्होंने लिखे ? उन से हिन्दी-साहित्य को कितना लाभ पहुंचा ? इसके निरूपण को भी योग्यता मुझ में नहीं। और, इन सब बातों की चर्चा करने की आवश्यकता भी मैं नहीं समझता। क्योंकि इस विषय की बहुत कुछ चर्चा सम्मेलन के भूतपूर्व अधिवेशनों में हो चुकी है

अब भी यदि इसकी आवश्यकता होगी तो इस अधिवेशन के अधिष्ठाता महाशय इस विषय में आपको अपना महत्वपूर्ण वक्तव्य सुनावेंहींगे और यह भी बतावेंगे कि राष्ट्र से राष्ट्र-भाषा का क्या सम्बन्ध है।

मैं तो केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि मनुष्य की मातृभाषा उतनी ही महत्ता रखती है जितनी कि उसकी माता और मातृभूमि रखती है। एक माता जन्म देती है; दूसरी खेलने-कूदने, विचरण करने और सांसारिक जावननिर्वाह के लिए स्थान देती है, और तीसरी मनोविचारों और मनोगत भावों को दूसरों पर प्रकट करने की शक्ति देकर मनुष्य-जीवन को सुखमय बनाती है । क्या ऐसी मातृभाषा का हम पर कुछ भी ऋण नहीं ? क्या ऐसी मातृभाषा की विपन्नावस्था देखकर जानकार जनों की आंखों से आंसू नहीं टपकते ? क्या ऐसी मातृभाषा से अधिकांश लोगों को पराङ्मुख होते और उसका परित्याग करते देख मातृभाषाभिमानियों का हृदय विदीर्ण नहीं होता ? जो अपनी भाषा का आदर नहीं करता, जो अपनी भाषा से प्रेम नहीं करता, जो अपनी भाषा के साहित्य की पुष्टि नहीं करता, वह अपनी मातृभूमि की कदापि उन्नति नहीं कर सकता। उसके स्वराज्य का स्वप्न, उसके देशोद्धार का संकल्प, उसकी देश-भक्ति की दुहाई बहुत कुछ निःसार है। उसकी प्रतिज्ञायें और उसके प्रचारण और आस्फालन बहुत ही थोड़ा अर्थ रखते हैं । मातृभाषा की उन्नति करके एकता,जातीयता और राष्ट्रीयता के भावों को जब तक आप झोपड़ियों

तक में रहनेवाले भारतवासियों के हृदयों में जागृत न कर देंगे तबतक आपके राजनैतिक मनोऽभिलाष पूरे तौर पर कदापि सफल होने के नहीं । क्या इस पृथ्वी की पीठ पर एक भी देश ऐसा है जहां शासनसम्बन्धी स्वराज्य तो है, पर मातृभाषा-सम्बन्धी स्वराज्य नहीं ? विजित देशों पर विजेता क्यों अपनी भाषा का भार लादते हैं ? प्रास्ट्रिया के जिन प्रान्तों पर इटली का अधिकार हो गया है वहां छल, बल और कौशल से क्यों इटालियन भाषा ठूंसो जा रही है ? जर्मनी क्यों अपने दलित देशों या प्रान्तों में अपनी ही भाषा का प्रभुत्व स्थापित करने का प्रचण्ड प्रयत्न कर चुका है ? क्यों अभी उसने उस दिन जर्मन अफ़सरों और कर्मचारियों को यह आज्ञा दी थी कि रूर-प्रान्त में फांसवालों के कहने से, खबरदार, अपनी भाषा छोड़ कर फ्रांस की भाषा का कदापि व्यवहार न करना ? मुंँह से जो शब्द निकालना जर्मन भाषा ही के निकालना । इसका एक मात्र कारण स्वराज्य और स्वभाषा का घना सम्बन्ध है। यदि भाषा गई तो अपनी जातीयता और अपनी सत्ता भी गई ही समझिए । बिना अपनी भाषा की नीव दृढ़ किये स्वराज्य की नीव नहीं दृढ़ हो सकती। जो लोग इस तत्व को समझते हैं वे मर मिटने तक अपनी भाषा नहीं छोड़ते । दक्षिणी आफरिक़ा में अपने अस्तित्वनाश का अवसर आ जाने पर भी, बोरों ने अपनी भाषा को अपने से अलग न किया ; हजार प्रयत्न करने पर भी उन्होंने वहां विदेशी भाषा के पैर नहीं जमने दिये, जिन में राष्ट्रीयता का भाव जागृत है, जो जातीयता

के महत्व को समझते हैं, जो एकता के जादू को जानते हैं वे प्राण रहते कभी अपनी भाषा का त्याग नहीं करते; कभी उसके पोषण और परिवर्तन के काम से पीछे नहीं हटते; कभी दूसरों की भाषा को अपनी भाषा नहीं बनाते । जिन्दा देशों में यही होता है । मुर्दा और पराधीन देशों की बात मैं नहीं कहता; उन अभागे देशों में तो ठीक इसका विपरीत ही दृश्य देखा जाता है।

४-मातृभाषा के स्वराज्य की आवश्यकता।

इस समय इस देश में स्वराज्यप्राप्ति के लिए सर्वत्र चेष्टा हो रही है। जिधर देखिए उधर ही स्वराज्य, स्वराज्य का घण्टा-नाद सुनाई दे रहा है। भारत के वर्तमान प्रभुओं ने भी थोड़ा थोड़ा करके स्वराज्य दे डालने की प्रतिज्ञा न सही, घोषणा तो ज़रूर ही कर डाली है। अब कल्पना कीजिए कि यदि इसा साल भारत के शासनकर्ता यहां से चल दें और कह दें कि लो अपना स्वराज्य, हम जाते हैं; तो ऐसा अवसर उपस्थित होने पर, बताइए, नवीन शासन में कितनी कठिनाइयां उपस्थित हो जायंगी। क्योंकि, भाषा के स्वराज्य की प्राप्ति का कुछ भी उपाय अब तक नहीं किया गया। और बिना इस स्वराज्य के शासन-व्यवस्था का विधान कभी सुचारु रूप से नहीं चल सकता। बिना भाषा के स्वराज्य के क्या पद पद पर विश्टङ्खलता न उपस्थित होगी? क्या उस समय भी अँगरेज़ी ही भाषा की तूती बोलेगी ? कितने परिताप की बात है कि इस इतनी महत्वपूर्ण बात की और आज तक बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया है । क्या इस धरातल पर कोई भी देश
BARSIDHA M STRA
ऐसा है जहां शासन-सम्बन्धी स्वराज्य तो है, पर भाषा- सम्बन्धी स्वराज्य नहीं? स्वराज्य पाकर भी क्या कोई देश विदेश की भाषा के द्वारा शासनकार्य का सम्पादन कर सकता है ? भाइयो, स्वराज्यप्राप्ति की चेष्टा के साथ ही साथ, हमें मातृभाषा के स्वराज्य की प्राप्ति के लिए भी सचेत होना चाहिये । स्वराज्य पाने के लिए तो हमें किसी हद तक परमुखापेक्षण और परावलम्बन की भी आवश्यकता है, पर भाषा के स्वराज्य के लिए नहीं । उसकी स्थापना तो सर्वथा हमारे ही हाथ में है । मानसिक स्वराज्य मातृभाषा ही के आधार पर प्राप्त हो सकता है और बिना इस आधार के शासनविषयक स्वराज्य मिल जाने पर भी, वह सफलतापूर्वक नहीं सञ्चालित हो सकता। जातीय जीवन को एक सूत्र में बाँधने के लिए भी सबसे श्रेष्ठ उपाय मातृभाषा का स्वराज्य ही है । उससे स्वधर्म की भी रक्षा हो सकती है, ऐक्य की भी वृद्धि हो सकती है और परम्परागत ज्ञान की उपलब्धि भी, थोड़े ही श्रम से, हो सकती है। यदि हमें अपने धर्म-कर्म, सदाचार, इतिहास, वेद, शास्त्र, पुराण, विज्ञान,समाजनीति,राजनीति आदि सभी विषयों का ज्ञान अपनी ही भाषा के द्वारा होने लगे, अन्य भाषाओं का मुंह न ताकना पड़े, तो समझना चाहिए कि हमें स्वभाषा का स्वराज्य प्राप्त हो गया। भगवान् करे, आप इस अधिवेशन में ऐसा शङ्ख फूंके जिसकी तुमुल ध्वनि सुन कर

आलस्यग्रस्त जन जाग पड़े और स्वभाषा के स्वराज्य की प्राप्ति के साधन प्रस्तुत करने में तन, मन से लग जायं !

५-एक व्यापक भाषा की आवश्यकता ।

जिस तरह अपनी भाषा के स्वराज्य की आवश्यकता है उसी तरह अपने देश में एक प्रधान भाषा के सार्वत्रिक प्रचार की भी आवश्यकता है। भारत देश नहीं, महादेश है । उसके भिन्न भिन्न प्रान्तों की भाषायें भी भिन्न भिन्न हैं। उसके प्रान्त, प्रान्त नहीं। उनमें से कितने ही योरोप के छोटे छोटे देशों से भी बहुत बड़े हैं । भारत की कुछ प्रान्तीय भाषाओं में थोड़ा बहुत पारस्परिक मेल अवश्य है, पर कुछ में बिलकुल नहीं। ये भाषायें चिरकाल से अपनी अपनी भिन्नता स्थापित किये हुए ही चली आ रही हैं । इन सभी ने अपने अपने साहित्य को जुदा जुदा सृष्टि की है । इन भाषाओं के अन्तस्तल तक में इनके प्रान्तवासियों की जातीयता प्रविष्ट हो गई है । अतएव इनका परित्याग न तो सम्भव है और न श्रेयस्करही है । ये सब बनी रहे। इनकी समुन्नति होती जाय; इनके साहित्य की श्री सम्पन्नता बढ़ती जाय-देश का कल्याण इसी में है। परन्तु साथ ही एक ऐसी भी भाषा को आवश्यकता है,और बहुत बड़ी आवश्यकता है, जिसकी सहायता से सभी प्रान्तों के वाली अपने विचार अन्य प्रान्तवासियों पर प्रकट कर सकें। सारे देश की विचार-परम्परा को एकही धारा में बहाने-परस्पर एक दूसरे के सुख-दुःखों और इच्छा-आकांक्षाओं को व्यक्त करने-के लिए इसके सिवा और कोई साधन ही नहीं । सारे देश को एक सूत्र में बांधने, ऐक्य की स्थापना करने और जातीयता का भाव जागृत रखने की सबसे बढ़ कर शक्ति भाषा ही की

क ता में है। इसी से दूरदर्शी और महामान्य महात्मा गांधी हिन्दी को व्यापक भाषा बनाने पर इतना ज़ोर देते हैं। क्योंकि इस देश में यदि कोई भाषा सार्वदेशिक हो सकती है तो वह हिन्दी ही है । इस बात को अब प्राय: सभी विज्ञ जनों ने मान लिया है। अतएव इस विषय में वाद-विवाद या बहस के लिए अब जगह नहीं । इसने तो अब गृहीत सिद्धान्त का स्वरूप धारण कर लिया है। जिन प्रान्तों की मातृ-भाषा हिन्दी नहीं उनमें भी अब हिन्दी के स्कूल और क्लासें खुल रही हैं; सैकड़ों हज़ारों शिक्षित पुरुष और कहीं कहीं स्त्रियां भी हिन्दी सीख रही हैं । इसका बहुत कुछ श्रेय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन को भी है।

एक और दृष्टि से भी भारत में एक व्यापक भाषा की आवश्यकता है और उस दृष्टि से, यिना एक ऐसी भाषा के, देश का काम ही किसी तरह नहीं चल सकता । वह दृष्टि राजनैतिक-अथवा हिन्दी के किसी किसी वैयाकरण की सम्मति में राजनीतिक है । स्वराज्य-प्राप्ति के विषय में, ऊपर एक जगह, एक कल्पना की जा चुकी है । अब, आप एक क्षण के लिए, एक और भी वैसी ही कल्पना कर लीजिए । मान लीजिए कि आपको स्वराज्य मिल गया या दे दिया गया, या आप ही ने ले लिया; और इस देश में प्रजासत्तात्मक या प्रतिनिधिसत्तात्मक राज्य की व्यवस्था हो गई। ऐसा होने पर-भारतीय संयुक्तराज्यों की स्थापना हो चुकने पर आपने प्रान्त प्रान्त में प्रतिनिधि-सत्तात्मक कौंसिलों की योजना कर

से और शासन का प्रबन्ध भी आपने अलग अलग कर दिया। फिर सारे देश के शासन की एकसूत्रता के सम्पादनार्थ आपने एक बड़े कौंसिल या कार्यनिर्वाहक सभा और मन्त्रिमणडल की सृष्टि करके, उसमें हर प्रान्त के थोड़े थोड़े प्रतिनिधियों का समावेश किया। इस दशा में प्रान्तीय कौंसिलों और मन्त्रिमण्डलों का कार्य-निर्वाह तो प्रान्तिक भाषाओं के द्वारा हो सकेगा। पर, आप ही बताइए, बड़े कौंसिल और मन्त्रिमण्डल का काम किस भाषा में होगा ? अँगरेज़ी भाषा का तो नाम ही न लीजिए; उस दशा में उस भाषा का प्रयोग तो सर्वथा ही असम्भव होगा। क्योंकि प्रान्तिक प्रजा के ऐसे अनेक प्रतिनिधि वहां पहुंच सकेंगे जो अपनी भाषा छोड़ कर अन्य भाषा न समझ सकते होंगे और न बोल सकते होंगे।

अब मान लीजिए कि अकस्मात् कोई बड़े ही महत्व का और बड़ा ही आवश्यक काम आ गया और महामन्त्रियों को सारे देश के प्रतिनिधियों की सम्मति की आपेक्षा हुई । इस निमित्त बड़ी सभा या कौंसिल का एक विशेष अधिवेशन किया गया। उसमें महामात्य या सभापति कूटाक्षभट्ट, मन्त्रिप्रवर मङ्गलमूर्ति, ऐडमिरल बैनर्जी, फील्ड मार्शल फतेहजङ्ग, कमांडर-इन-चीफ बूटासिंह, ऐडजुटंट जनरल विक्रमादित्य, शिक्षा-सचिव नासिरी परराष्ट्र-सचिव आयंगर, वाणिज्य-मन्त्री रानडे और कानूनी मन्त्री देसाई आदि के साथ भिन्न भिन्न प्रान्तों के प्रतिनिधि मन्त्रणा करने बैठे। ऐसा दृश्य उपस्थित

होने पर, एक व्यापक भाषा के अभाव में, गोखले की बात आइयर न समझेंगे और गोखले आइयर की! देशपाण्डे का मुंह ताकते बरुवा रह जायंगे और बरुवा का देशपाण्डे ! चैटर्जी का वक्तव्य सुनकर भी देसाई बहरे बने बैठे रहेंगे और देसाई का वक्तव्य सुनकर चैटर्जी ! ऐसी दशा में प्रत्येक भाषा के ज्ञाता जुदाजुदा दुभाषिये नियत करने से भी क्या आपका काम चल सकेगा? ऐसे कितने दुभाषिये आप रखेंगे ? हर वक्तात या हर बात का अनुवाद किसी एक भाषा में यदि आप कराने बैठेंगे तो घण्टों का काम हप्तों में भी ख़तम न होगा । तब तक यदि मन्त्रणा किसी छिड़नेवाले युद्ध के विषय में हुई तो शायद शत्रु को गोला-बारी और बम-वर्षा भी देश की किसी सीमा पर होने लगे। अतएव इस प्रकार का अस्वाभाविक आडम्बर एक दिन भी न चल सकेगा। परन्तु यदि आप किसी एक ऐसी भाषा को सीख लेंगे जिसे सब जानते हों और ऐसे मौकों पर उसीमें अपने विचार व्यक्त करेंगे तो आपका सब काम चुटकी बजाते हो जायगा और विश्रृंखलता पास न फटकेगी।

अतएव सारे देश में एक प्रधान भाषा का प्रचार अब भी अत्यन्त आवश्यक है और आगे भी अत्यन्त आवश्यक होगा; और वह भाषा हिन्दी के सिवा और कोई नहीं हो सकती। यह बात अब सर्वसम्मत और सर्वमान्य सी हो चुकी है।

६-साहित्य की महत्ता।

ज्ञान-राशि के सञ्चित कोष ही का नाम साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखनेवाली और निदोष होने पर भी यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती तो वह, रूपवती भिखारिनी कदापि आदरणीय नहीं हो सकती। उसकी शोभा ,उसकी श्रीसम्पन्नता, उसकी मान-मर्यादा उसके साहित्य ही पर अवलम्बित रहती है। जाति-विशेष के उत्कर्षपकर्ष का ,उसके उच्च-नीच भावों का, उसके धार्मिक विचारों और सामाजिक संघटन का, उसके ऐतिहासिक घटनाचक्रों और राजनैतिक स्थितियों का प्रतिविम्ब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उसके ग्रन्थ-साहित्य हो में मिल सकता है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशक्ति या निर्जीवता और सामाजिक सभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य है। जिस जाति-विशेष में साहित्य का अभाव या उसकी न्यूनता आपको देख पड़े, आप यह निसन्दह निश्चीत समझिए कि वह जाति असभ्य किंवा अपूर्णसभ्य है। जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है उसका साहित्य भी ठीक वैसा ही होता है। जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उनके साहित्यरूपी आईने ही में मिल सकती है। इस आइन के सामन जाते ही हमें यह तत्काल मालूम हो जाता है कि अमुक जाति की जीवनी शक्ति इस समय कितनी या कैसी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी। आप भोजन करना बन्द कर दीजिए या कम कर दीजिए, आपका शरीर क्षीण हो जायगा और अचिंराते

नाशोन्मुख होने लगेगा । इसी तरह आप साहित्य के रसास्वादन से अपने मस्तिष्क को वञ्चित कर दीजिए, वह निष्कय होकर धीरे धीरे किसी काम का न रह जायगा । बात यह है कि शरीर के जिस अङ्ग का जो काम है वह उससे यदि न लिया जाय तो उसकी वह काम करने की शक्ति नष्ट हुए बिना नहीं रहती। शरीर का खाद्य भोजनीय पदार्थ है और मस्तिष्क का खाद्य साहित्य । अतएव यदि हम अपने मस्तिष्क को निष्क्रिय और कालान्तर में निर्जीव सा नहीं कर डालना चाहते तो हमें साहित्य का सतत सेवन करना चाहिए और उसमें नवीनता तथा पौष्टिकता लाने के लिए उसका उत्पादन भी करते जाना चाहिए । पर, याद रखिए, विकृत भोजन से जैसे शरीर रुग्ण होकर बिगड़ जाता है उसी तरह विकृत साहित्य से मस्तिष्क भी विकारग्रस्त होकर रोगी हो जाता है । मस्तिष्क का बलवान् और शक्तिसम्पन्न होना अच्छे ही साहित्य पर अवलम्बित है । अतएव यह बात निम्रान्त है कि मस्तिष्क के यथेष्ट विकास का एकमात्र साधन अच्छा साहित्य है। यदि हमें जीवित रहना है और सभ्यता की दौड़ में अन्य जातियों की बराबरी करना है तो हमें श्रमपूर्वक, बड़े उत्साह से,सत्साहित्य का उत्पादन और प्राचीन साहित्य की रक्षा करनी चाहिए । और, यदि हम अपने मानसिक जीवन की हत्या करके अपनी वर्तमान दयनीय दशा में पड़ा रहना ही अच्छा समझते हों तो आज ही इस साहित्य-सम्मेलन के आडम्बर का विसर्जन कर डालना चाहिए।
आंख उठाकर ज़रा और देशों तथा और जातियों की ओर तो देखिए ! आप देखेंगे कि साहित्य ने वहां की सामाजिक और राजकीय स्थितियों में कैसे कैसे परिवर्तन कर डाले हैं; साहित्य ही ने वहां समाज को दशा कुछ की कुछ कर दी है; शासन-प्रबन्ध में बड़े बड़े उथल-पुथल कर डाले हैं ; यहां तक कि अनुदार धार्मिक भावों को भी जड़ से उखाड़ फेंका है । साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है वह तोप, तलवार और बम के गालों में भी नहीं पाई जाती। योरप में हानिकारिणी धार्मिक रूढ़ियों का उत्पाटन साहित्य ही ने किया है ;जातीय स्वातन्त्र्य के बीज उसीने बोये हैं; व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य के भावों को भी उसीने पाला, पोसा और बढ़ाया है; पतित देशों का पुनरुत्थान भी उसीने किया है। पोप की प्रभुता को किसने कम किया है ? फांस में प्रजा की सत्ता का उत्पादन और उन्नयन किसने किया है ? पादाक्रान्त इटली का मस्तक किसने ऊँचा उठाया है ?

हित्य ने, साहित्य ने, साहित्य ने । जिस साहित्य में इतनी राक्ति है, जो साहित्य मुदों को भी जिन्दा करनेवाली सञ्जीवनी औषधि का आकर है, जो साहित्य पतितों को उठानेवाला और उत्थितों के मस्तक को उन्नत करनेवाला है उसके उत्पादन और संवर्धन की चेष्टा जो जाति नहीं करती वह अज्ञानान्धकार के गर्त में पड़ी रहकर किसी दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठती है। अतएव समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्त्वशाली साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि नहीं करता अथवा उससे अनुराग नहीं रखता वह समाजद्रोही है, वह

देशद्रोही है, वह जातिद्रोही है, किंबहुना वह आत्मद्रोही और आत्महन्ता भी है।

कभी कभी कोई समृद्ध भाषा अपने ऐश्वर्या के बल पर दूसरी भाषाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेती है जैसा कि जर्मनी, रूस और इटली आदि देशों की भाषाओं पर फेंच भाषा ने बहुत समय तक कर लिया था । स्वयं अंगरेज़ी भाषा भी फ़ेच और लैटिन भाषाओं के दबाव में नहीं बच सकी। कभी कभी यह दशा राजनैतिक प्रभुत्व के कारण भी उपस्थित हो जाती है और विजित देशों की भाषाओं को जेता जाति की भाषा दबा लेती है । तब उनके साहित्य का उत्पादन यदि बन्द नहीं हो जाता तो उसकी वृद्धि की गति मन्द ज़रूर पड़ जाती है । पर यह अस्वाभाविक दबाव सदा नहीं बना रहता। इस प्रकार की दबी या अधःपतित भाषायें बोलनेवाले जब होश में आते हैं तब वे इस अनैसर्गिक आच्छादन को दूर फेंक देते हैं । जर्मनी, रूस, इटली और स्वयं इङ्गलैंड चिरकाल तक फ्रेंच और लेटिन भाषाओं के मायाजाल में फंसे थे। पर, बहुत समय हुआ, उस जाल को उन्होंने तोड़ डाला। अब वे अपनी ही भाषा के साहित्य की अभिवृद्धि करते हैं। कभी भूल कर भी विदेशी भाषाओं में ग्रन्थ-रचना करने का विचार तक नहीं करते। बात यह है कि अपनी भाषा का साहित्य ही स्वजाति और स्वदेश की उन्नति का साधक है। विदेशी भाषा का चड़ान्त ज्ञान प्राप्त कर लेने और उसमें महत्त्वपूर्ण

ग्रन्थ-रचना करने पर भी विशेष सफलता नहीं प्राप्त हो सकती और अपने देश को विशेष लाभ नहीं पहुंच सकता । अपनी माँ को निःसहाय, निरुपाय और निर्धन दशा में छोड़ कर जो मनुष्य दूसरे की माँ की सेवाशुश्रूषा में रत होता है उस अधम की कृतघ्नना का क्या प्रायश्चित्त होना चाहिए, इसका निर्णय कोई मनु, याज्ञवल्क्य या आपस्तम्ब ही कर सकता है।

मेरा यह मतलब कदापि नहीं कि विदेशी भाषायें सीखनी ही न चाहिए। नहीं ; आवश्यकता, अनुकूलता, अवसर और अवकाश होने पर हमें एक नहीं, अनेक भाषायें सीखकर ज्ञानार्जन करना चाहिए ; द्वेष किसी भी भाषा से न करना चाहिए ; ज्ञान कहीं भी मिलता हो उसे ग्रहण ही कर लेना चाहिए। परन्तु अपनी ही भाषा और उसीके साहित्य को प्रधानता देनी चाहिए, क्योंकि अपना, अपने देश का, अपनी जाति का उपकार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य को उन्नति से हो सकता है। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और राजनीति की भाषा सदैव लोकभाषा ही होनी चाहिए। अतएव अपनी भाषा के साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि करना, सभी दृष्टियों से, हमारा परम धर्म है।

७-इतिहास की महत्ता।

साहित्य की एक शाखा का नाम है इतिहास । यह शाखा बड़े ही महत्त्व की है। इसका महत्त्व स्वतन्त्रता और स्वराज्य के महत्त्व से कम नहीं। स्वतन्त्रता चाहे चली जाय, पर

इतिहास न जाना चाहिए। उसकी रक्षा जी जान से करनी चाहिए। क्योंकि इतिहास के रक्षित रहने से खोई हुई स्वतन्त्रता फिर भी प्राप्त की जा सकती है ; पर उसके नष्ट हो जाने पर, यदि स्वतन्त्रता प्राप्त भी हो सकती है तो बड़ी बड़ी कठिनाइयां झेलने पर ही प्राप्त हो सकती है। जो जातियां इतिहास में अपने पूर्व-पुरुषों के गारव को रक्षित नहीं रखती, जो उनके कारनामों को भूल जाती है, जो अपने भूतपूर्व बल और विक्रम को 'विस्मृत कर देती हैं, वे नष्ट हो जाती है और नहीं भी नष्ट होतीं तो परावलम्ब के पङ्क में पड़ी हुई नाना यातनायें सहा करती हैं। अतएव, भाइयो, आप कृपा करके किसी ऐसे मन्त्र के अनुष्ठान को योजना कर दीजिए, जिसके प्रभाव से हम अपने व्यास और वाल्मीकि, कालिदास और भारवि, यास्क और पाणिने, कणाद और गौतम, सायन और महीधर को न भूलें शकारि,विक्रमादित्य, दिग्विजयी समुद्रगुप्त और महामनस्वी प्रताप का विस्मरण न होने दें; राम और कृष्ण,भीष्म और द्रोण,भीम और अर्जुन को सदा आदर की दृष्टि से देखें। प्राचीन साहित्य को इस इतिहास-शाखा

का महत्त्व बता कर आप हमारे पूर्वार्जित गौरव को अज्ञान-सागर में डूबने से बचा लीजिए। क्योंकि जिस जाति का इतिहास नष्ट नहीं हुआ और जिसमें अपने पुण्य-पुरुषों का आदर बना हुआ है वही अपनी मातृभूमि के अधःपात से विदीर्णहृदय होकर, अनुकूल अवसर आने पर, फिर भी अपना नत मस्तक उन्नत कर सकती है।

८-पुरातत्व विषयक साहित्य की आवश्यकता ।

दुनियां में ऐसी कितनी ही जातियां विद्यमान हैं जिनका भूतकाल बहुत हो उज्ज्वल था, पर जो सभ्यता की दौड़ में पाछे रह जाने से, अन्धकार के आवरण से आच्छादित हो गई हैं। ऐसी जातियों को यदि इस बात का ज्ञान करा दिया जाय कि वे कौन हैं और उनके पूर्व-पुरुष कैसे थे तो उनके हृदय में फिर उठने की प्रेरणा का प्रादुर्भाव हो सकता है । परन्तु जो यही नहीं जानता कि उसका भी कोई समय था- वह भी कभी अपनी सत्ता रखता था-वह अपने पूर्वजों की कीर्ति का पुनरुद्धार करने की चेष्टा क्यों करेगा ? जिसकी दृष्टि में जो चीज़ कभी थी ही नहीं उसे पाने की तो इच्छा भी, बिना किसी प्रबल कारण के, उसके हृदय में उत्पन्न ही न होगी। यों तो अपने पूर्वजों के कोर्ति-कलाप की रक्षा करना सभी का धर्म है ; पर गिरी हुई जातियों के लिए तो वह सर्वथा अनिवार्य ही है। उन्हें तो उस कीर्तिकलाप का सतत ही स्मरण करना चाहिए। पुरातन-वस्तुओं की प्राप्ति और रक्षा से ही इस प्रकार का स्मरण हो सकता है। इस रक्षा का साधन साहित्य को इतिहास-नामक शाखा का ही एक अङ्ग है । उसका नाम है पुरातत्त्व अथवा पुरातन वस्तुओं का ज्ञान, विवरण और विवेचन । कितने दुःख, कितने परिताप, कितनी लज्जा की बात है कि इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण अङ्ग का हिन्दी में प्रायः सर्वथा ही अभाव है। इस अभाव ने हमारी बहुत बड़ी हानि की है। उसने तो हमें

अन्धा सा बना दिया है । हम अपने आपको भूल सा गये हैं;हमें अपने पूर्वजों के वल और विक्रम, विज्ञता और विद्वत्ता, कला-कुशलता और पौरुष आदि लोकोत्तर गुणों का विस्मरण सा हो गया है। घटना-चक्र में पड़ कर हम कुछ के कुछ हो गये हैं। हम हनीवाल और सीपियों के गुणगान करते हैं, हम‌ सीज़र और सलादीन की प्रभुता के पद्य सुनाते हैं ,हम ज़रक्सीज़ और अलेग्जांडर की चरितावली का कीर्तन करते है ! यहां तक कि हम गाँल और केल्ट, नार्मन और सैक्सनलागों की वंशावलियां तक कण्ठाग्र सुना सकते हैं । पर, हाय ! हम अपने चन्द्रगुप्त और अशोक के, हम अपने समुद्रगुप्त और स्कन्दगुप्त के, हम अपने शातकर्णी और पुलकेशी के, हम अपने हर्ष और अमोघवर्ष के इतिहास की मोटी मोटी बातें तक नहीं जानते । जिसके चलाये हुए संवत् का प्रयोग हम, प्रति दिन, करते हैं और जिसका उल्लेख हमें, धार्मिक कृत्य करते समय, सङ्कल्प तक में करना पड़ता है वह हमारा शकारि विक्रमादित्य कब हुआ और उसने इस देश के लिए क्या क्या किया, यह तक हम ठीक ठीक नहीं जानते ! इस आत्म-विस्मृति का भी कुछ ठिकाना है ! विदेशी बंशावलियां रटनेवाले हमारे हज़ारों नहीं, लाखों युवकों को यह भी मालूम नहीं कि इस कानपुर के आसपास का प्रान्त, हज़ार पांच सौ वर्ष पहले, किन किन नरेशों के शासन में रह चुका है। मौखरी वंश के महीपों की भी सत्ता कभी यहां थी, यह बात तो उनमें से शायद दो हो चार ने सूनी हो तो सुनी हो। फिर

भला इनसे कोई यह आशा कैसे कर सकता है कि ये शिशु-नाग और आन्ध्रभृत्य, चोल और पाण्ड्य, पाल और परमार, हैहय और चालुक्य-वंशों के इतिहास की कुछ भी विशेष बातें बता सकेंगे।

अतएव, भाइयो, इस बड़ी ही लजाजनक और हानिकारिणी त्रुटि को दूर करने के उपाय की कोई योजना कर दीजिये। पुरातत्व की खोज करने, आज तक जितनी खोज हुई है उसका ज्ञान-सम्पादन करने और प्रस्तुत सामग्री के आधार पर हिन्दी में इस विषय की पुस्तकों का प्रणयन करने की ओर सामर्थ्यवान सज्जनों का ध्यान आकृष्ट कर दीजिये । जो संस्कृत और अंँगरेज़ी का ज्ञान रखते हैं वे यदि चाहें तो इस काम को अच्छी तरह कर सकते हैं । आज तक हज़ारों शिला-लेख और दानपत्र प्राप्त हो चुके हैं; अनन्त प्राचीन सिक्कों का संग्रह हो चुका है; तुर्किस्तान के उजाड़ मरुस्थल तक में संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के सैकड़ों गड़े हुए ग्रन्थों के ढेर के ढेर हाथ लग चुके हैं; मूर्तियों, मन्दिरों और स्तूपों के समूह के समूह पृथ्वी के पेट से बाहर निकाले जा चुके हैं । उन सब के आधार पर भारत के पुरातन इतिहास के सूत्र-पात की बड़ी ही आवश्यकता है।

भारतीय पुरातत्व की जो यह इतनी सामग्री उपलब्ध हुई है उसके आविष्कार का अधिकांश श्रेय उन्हीं लोगों को है जिनके प्रायः दोष ही दोष हम लोग वहुधा देखा करते हैं । यदि सर विलियम जोन्स, चार्ल्स विलकिन्स, जेम्स प्रिंसेप, जेन--

रल कनिङ्गहम, डाक्टर बुकनन, वाल्टर इलियट, कोलबुक, टाड, टामस, बाथ, टेलर, बर्जेस और फर्गुसन आदि विद्वानों ने इस विषय की ओर ध्यान न दिया होता तो भारत की प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री बहुत करके पूर्ववत् ही अन्धकार में पड़ी रह जातो और जितनी प्राप्त हुई है उसका भी अधिकांश नष्ट हो जाता । अतएव इन पाश्चात्य पण्डितों ने हम पर जो यह इतना उपकार किया है तदर्थ हमें इन का हृदय से कृतज्ञ होना चाहिए । यद्यपि पुरातत्व के उद्धार के निमित्न भारत के वर्तमान शासकों ने एक महकमा ही अलग खाल रक्खा है और यद्यपि अब अनेक भारतवासी भी इस ओर दत्तचित्त हैं, पर इस की नीव डालनेवाले पूर्वनिदिष्ट विलायती विद्वान ही हैं। अब भी इगलैण्ड तथा योरप के अन्य देशों के विद्वान् ही इस विषय की खोज में अधिक मनोनिवेश कर रहे हैं, तथापि अनेक कारणों से उनके निर्णीत सिद्धान्तों में बहुधा त्रुटियां रह जाती हैं। विलायत के केम्ब्रिज-विश्वविद्यालय ने भारतीय इतिहास को ६ भागों में प्रकाशित करना आरम्भ किया है। उसके जिस पहले भाग में भारत का प्राचीन इतिहास है उस का मूल्य तो ३५) है, पर त्रुटियों की उसमें बड़ी ही भरमार है ! कुछ त्रुटियां तो असह्य हैं । उस दिन अँगरेज़ी के मासिक पत्र " माडर्न रिव्यू " में उसकी एक खण्डनात्मक आलोचना पढ़ कर हृदय पर कड़ी चोट लगी। विदेशियों के लिखे हुए इतिहास में भूलों और भ्रमों का होना आश्चर्यजनक और अस्वाभाविक नहीं। उनको दूर करने का एकमात्र उपाय यह है कि हम लोग

स्वयं ही इस विषय का अध्ययन करके अपने इतिहास का आपही निर्माण करें और जहां तक हो सके उसे अपनी ही भाषा के साँचे में ढालें । बिना ऐसा किये न तो अपने साहित्य की अभिवृद्धि ही होगी और न अपना सच्चा इतिहास ही अस्तित्व में आवेगा।

९--साहित्य की समृद्धि के उपाय ।

देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा का प्रचार बढ़ रहा है ! उनके गौरव का ज्ञान लोगों को धीरे धीरे होता जा रहा है।‌ कांग्रेस आदि बड़ी बड़ी राजनैतिक संस्थाओं में भी अब हिन्दी का प्रवेश हो गया है। विख्यात वक्ताओं तक को अब कभी‌ कभी इच्छापूर्वक, कभी कभी निरुपाय होकर, कभी कभी हवा का रुख बदला हुआ देख कर अनिच्छा से भी उसका आश्रय लेना पड़ता है। नये नये लेखकों और प्रकाशकों की कृपा से उस के साहित्य की भी वृद्धि हो रही है। यह सब होने पर भी, और और भाषाओं के साहित्य के साथ अपने साहित्य की तुलना करने पर, यह समस्त आयोजन वारिधि की पूर्ति के लिए एक वारि-बिन्दु ही के बराबर है । तथापि यह इतनी भी वृद्धि कुछ तो सन्तोषजनक अवश्य ही है-

श्लाघ्य मितापमपि किन्न मरौ सरश्चेत् ?

क्योंकि राजपूताने के उत्तम वालुकामय मरुस्थल में एक अत्यल्प भी जलाशय शुष्क कण्ठ सींचने का काम कुछ तो देता ही है।

परन्तु यदि हमें और भाषाओं की समकक्षता करजा है-

यदि हमें और देशों के न सही, अपने ही देश के अन्य प्रान्तों के सामने अपने मस्तक को ऊंचा उठाना है-तो हमें अपनी भाषा के साहित्य की वृद्धि झपाटे से करना चाहिए। क्योंकि अभी वह अत्यन्त ही अनुन्नत दशा में है। अतएव जब तक अनेक मातृभाषा-प्रेमी समर्थ जन इस ओर न झुकेंगे तब तक हिन्दी-साहित्य की उन्नति नाम लेने योग्य कदापि न होगी। क्योंकि जब से जन-समुदाय में शानाङ्कर का उदय हुआ तब से आज तक नाना भाषाओं के साहित्य में अनन्त ज्ञानराशि सञ्चित हो चुकी है। इस दशा में उसी भाषा का साहित्य समृद्ध कहा जा सकता है जिसमें इस ज्ञान-राशि का सबसे अधिक सञ्चय हो। यह बात दस, बीस, पचास वर्षों में भी नहीं हो सकती। अतएव जब तक अनेकानेक लेखक चिरकाल तक इस काम में न लगे रहेंगे तब तक अपनी भाषा का साहित्य समृद्ध न होगा। यों तो समृद्धि का यह काम सीमारहित है, वह कभी बन्द ही नहीं हो सकता। क्योंकि ज्ञान की उन्नति दिन पर दिन होती ही जाती है;नई नई बातें ज्ञात होती ही जाती हैं। नये नये शास्त्रों, विज्ञानों, कलाओं और आविष्कारों का उद्भव होता ही जाता है। अतएव उन सबको अपनी भाषा के साहित्य-कोष में सञ्चित कर देने की आवश्यकता सदा ही बनी रहेगी। जब तक हिन्दी-भाषा का अस्तित्व रहेगा तब तक इस ज्ञान-सञ्चय के कार्य को जारी रखने की आवश्यकता भी रहेगी। ऐसा समय कभी आने ही का नहीं जब कोई यह कहने का साहस कर सके कि बस, अब समस्त ज्ञान-कोष

निःशेष हो गया। इस कारण साहित्य-वृद्धि का काम सतत जारी रखना पड़ेगा। इससे आप समझ जायँगे यह काम कितना गौरव-पूर्ण, कितना महत्वमय और कितना बड़ा है।

साहित्य ऐसा होना चाहिए जिसके आकलन से बहुदर्शिता बड़े, बुद्धि की तीव्रता प्राप्त हो, हृदय में एक प्रकार की सञ्जीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जायं, और आत्मगौरव की उद्भावना होकर वह पराकाष्ठा को पहुंच जाय । मनोरजन मात्र के लिए प्रस्तुत किये गये साहित्य से भी चरित्रगठन को हानि न पहुंचनी चाहिए। आलस्य,अनुद्योग, विलासिता का उद्बोधन जिस साहित्य से नहीं होता उसीसे मनुष्य में पौरुष अथवा मनुष्यत्व आता है। रसवती,ओजस्विनी, परिमार्जित और तुली हुई भाषा में लिखे गये ग्रन्थ ही अच्छे साहित्य के भूषण समझे जाते हैं।

साहित्य की समृद्धि के लिए किन किन विषयों के और कैसे कैसे ग्रन्थों की आवश्यकता है, यह निवेदन करने की‌ शक्ति मुझमें नहीं। जिस भाषा के साहित्य में, जिधर देखिये उधर ही, अभाव ही प्रभाव देख पड़ता है, उसकी उन्नति के निमित्त यह कहने के लिए जगह ही कहां कि यह लिखिए, वह लिखिए या यह पहले लिखिए वह पीछे । जो जिस विषय का ज्ञाता है अथवा जो विषय जिसे अधिक मनोरजक जान पड़ता है उसे उसी विषय की ग्रन्थ-रचना करनी चाहिए। साहित्य की जितनी शाखायें हैं-ज्ञानार्जन के जितने साधन हैं-सभी को अपनी भाषा में सुलभ करदेने

की चेष्टा करनी चाहिए। साहित्य की दा एक बहुत ही महत्वमयी शाखाओं को अस्तित्व में लाने के लिए ग्रन्थ प्रणयन के विषय में, ऊपर, मैं एक जगह प्रार्थना कर हो आया हूं। आप यह निश्चय समझिए, अपनी ही भाषा के साहित्य से जनता की यथेष्ट ज्ञानोन्नति हो सकती है। विदेशी भाषाओं के साहित्य से यह बात कदापि सम्भव नहीं। विदेशी साहित्य यदि हमारे साहित्य को दबा लेगा तो लाभ के बदले हानि ही होगी और इतनी हानि होगी जिसकी इयत्ता ही नहीं। हमारा इतिहास, हमारा विकास, हमारी सभ्यता बिलकुल ही भिन्न प्रकार की है। विदेशी साहित्य के उन्मुक्त द्वार से आई हुई सभ्यता हमारी सभ्यता को निरन्तर ही बाधा पहुचाती रहेगी। फल यह होगा कि हम अपने गौरव और अपने आत्म-भाव को भूल जायंगे। इससे हमारी जातीयता ही नष्ट हो जायगी। और, जो देश अपना इतिहास और जातीयता खो देता है उसके पास फिर रही क्या जाता है ? वह तो ज़िन्दा ही मुर्दा हो जाता है और क्रम क्रम से नामशेष होने के पास पहुंच जाता है। अतएव हमारा परम धर्म है कि हम अपने ही साहित्य की सृष्टि और उन्नति करें। एतदर्थ हमें चाहिए कि हम, हिन्दी के साहित्य-कोष में, अपने पूर्वपुरुषों के द्वारा अर्जित ज्ञान का भी सञ्चय करें और विदेशी भाषाओं के साहित्य में भी जो ज्ञान हमारे मतलब का हो उसे भी लाकर उसमें भर दें। विदेशी ज्ञान अरबी, फारसी, अगरेजी, फ्रेंच,जर्मन, चीनी, जापानी आदि किसी भी भाषा में क्यों न पाया

जाता हो, हमें निःसङ्कोच उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। हमारी सभ्यता पर सिक्खों, पारसियों, मुसलमानों, अंगरेजों, चीनियों और जापानियों तक की सभ्यता का प्रभाव पड़ा है। जैनों और बौद्धों की सभ्यता का तो कुछ कहना ही नहीं । अतएव इन जातियों और धर्मानुयायियों के साहित्यों से भी उपादेय अंश ग्रहण करके हमें अपने साहित्य की पूर्ति करनी चाहिए।

वैदिक और पौराणिक काल में निर्मित ग्रन्थों का जो अंश हमारे यहां बच रहा है वही इतना अधिक है कि अनेक लेखक सतत श्रम करने पर भी उसे, थोड़े समय में, हिन्दी का रूप नहीं दे सकते। अकेले जैनियों ही के ग्रन्थ-भाण्डारों में सैकड़ों नहीं, हज़ारों ग्रन्थ अब भी ऐसे विद्यमान हैं जिन का नाम तक हम लोग नहीं जानते। यह सारा साहित्य हमारे ही पूर्वजों की-हमारेही देशवासियों की--कृपा से अस्तित्व में आया है। अतएव वह भी हमारी सभ्यता का निदर्शक है। उसे छोड़ देने से हमारी सभ्यता और हमारी जातीयता के बोधक साधन पूर्णता को नहीं पहुंच सकते।

पुराणों को कुछ लोगों ने बदनाम कर रक्खा है। वे उन्हें गपोड़े समझते हैं। यही सही। पर क्या गपोड़े होने ही से वे त्याज्य हो गये ? क्या गपोड़े साहित्य का अंश नहीं ? क्या पुराण अपने समय की भारतीय सभ्यता के सूचक नहीं ? क्या बड़े होने पर हम अपनी दादी या नानी की कही हुई कहानियां याद करके आनन्दमग्न, और कोई कोई प्रेमविह्वल

तक, नहीं हो जाते ? क्या पुराण हमारे ही पूर्वजों की यादगार नहीं? वे कैसे हो क्यों न हों, हमारे तो वे आदर ही के पात्र हैं। जिन्होंने पुराण पढ़ हैं वे जानते हैं कि वे समूल ही निःसार नहीं। उनमें, और हमारे महाभारत तथा रामायण में, हमारी सभ्यता के आदर्श चित्र भरे पड़े हैं। उनमें दर्शन-शास्त्रों के तत्त्व हैं; उनमें ज्ञान-विज्ञान को बातें हैं ; उनमें ऐतिहासिक विवरण हैं; उनमें काव्य-रसों की प्रायः सभी सामग्री हैं। अतएव वे हेय नहीं। ज़रा श्रीमद्भागवत के सातवें स्कन्ध के दूसरे अध्याय ही को देख लीजिए । नीच योनि में उत्पन्न माने गये दैत्य हिरण्यकशिपु ने उसमें कितनी तत्वदर्शिता प्रकट की है-अपने गम्भीर ज्ञान की कैसी अद्भुत बानगी दिखाई है ! वह ज्ञानप्रदर्शन पुराणकार ही कामाल क्यो न मान लिया जाय; वह वहां विद्यमान तो है। इसी तरह विष्णुपुराण में आपको मगधनरेशों के कुछ ऐसे ऐतिहासिक वर्णन मिलेंगे जिनको असत्य ठहराने का साहस, आज कल, इस बोसवीं सदी के भी धुरन्धर इतिहासवेत्ता नहीं कर सकते।

मौलिक साहित्य-रचना की तो बड़ी ही आवश्यकता है। पर उसके साथ ही साथ, हमारी सभ्यता के सूचक प्राचीन साहित्य के हिन्दी-अनुवाद की तथा विदेशी भाषाओं के भी ग्रन्थरत्नों के अनुवाद की आवश्यकता है-फिर, व ग्रन्थ चाहे अंगरेज़ी भाषा के हों, चाहे अरबी, फ़ारसी के हों, चाहे और ही किसी भाषा के हों। विज्ञानाचार्य सर जगदीशचन्द्र बसु की विज्ञान-विचक्षणता और अद्भत
आविष्कियाओं ने भू-मण्डल के विज्ञानवेत्ताओं को चकित कर दिया है। उन्होंने विज्ञान-बल से यन्त्र-द्वारा यह बात प्रमाणित कर दी है कि हमारे उपनिषदों और वेदान्तादि शास्त्रों के सिद्धान्त निमूल नहीं। उनके अनुसार जो ब्रह्म या परमात्मांश प्राणिमात्रा में विद्यमान है वही उद्भिजों और जड़ पदार्थों तक में विद्यमान है। इस जड़-चेतनमयी सृष्टि में परमात्मा सर्वत्र ही व्याप्त है और सभी का पालन-पोषण, नियमन तथा नाश एक ही प्रकार के नियमों से होता है। सरस्वती नदी के तट पर, हज़ारों वर्ष पूर्व, हमारे ऋषियों, मुनियों और पूर्वजों ने जिस “सर्व खल्विदं ब्रह्म" के तत्व का उद्घाटन किया था, आचार्य बसु ने उसीकी सत्यता अपने आविष्कारों द्वारा प्रमाणित कर दी है। कितने परिताप की बात है कि उनके इस तत्व के निर्णायक ग्रन्थों में से, अब तक, किसी एकका भी अनुवाद हिन्दी में नहीं हुआ। हैकल नाम के नामी तत्ववेत्ता ने विकाशवाद, सृष्टिरचना आदि विषयों पर बड़े ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रचे हैं। उसके एक ग्रन्थ का नाम है विश्वरहस्य ( Riddle of the Universe )। उसने इस ग्रन्थ में इस बात का निरूपण किया है कि यह सारा विश्व एकरसात्मक है; वह एक ही अद्वितीय तत्त्व का प्रसार है; उसकी जड़ में एक ही परम-तत्त्व का अधिष्ठान है । उसीके अन्तर्गत किसी अनिर्वचनीय शक्ति की प्ररेणा से उसका काम यथानियम होता है। इस प्रकार इस अनात्मवादी वैज्ञानिक ने भी विश्व में किसी परम तत्व

की अवस्थिति को स्वीकार किया है और प्रकारान्तर से उपनिषदों ही के “एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म" संशक महावाक्य की सत्यता सिद्ध कर दिखाई है । क्योंकि आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व पृथक् न स्वीकार करने पर भी, उसका तत्त्वाद्ध तवाद किसी अखण्ड और अद्वितीय सत्ता की गवाही दे रहा है। काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा के प्रयत्न से हैकेल के इस ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी में हो गया, यह बहुत अच्छा हुआ। यदि अध्यापक बसु के ग्रन्थों का भी अनुवाद हो जाय तो हम लोगों में से अनभिज्ञों और सन्दिहानों को अपने स्वरूप का कुछ अधिक ज्ञान हो जाय। वे यह तो जान जायं कि हम किनकी सन्तान है; हमारे पूर्वजों ने ज्ञान की कितनी प्राप्ति की थी; ज्ञानोन्नति में किसी समय हमारा देश कहां तक पहुँचा था।

विदेशी भाषाओं में ऐसे सहस्रशः ग्रन्थ विद्यमान हैं जिनके अनुवाद से हमारी जाति और हमारे देश को अपरिमेय लाभ पहुँच सकता है। परन्तु, खेद की बात है, उस तरफ हमारा बहुत ही कम ध्यान है । जो समर्थ हैं और जो अंगरेज़ीदाँ बनकर, अनेक बातों में, अंगरेज़ों की नकल करना ही अपना परम धर्म समझते हैं उनको कृपा करके किसी तरह जगा दीजिए। उन्हें अपने साहित्य की उन्नति से होनेवाले लाभ बता दीजिए और उनको इस बात की प्रेरणा कीजिए कि वे अंगरेज़ी तथा अन्य भाषाओं के आदरणीय ग्रन्थों का अनुवाद करके अपनी भाषा के साहित्य की वृद्धि करें। साथ ही इस बात पर भी

ज़ोर दीजिए कि शक्ति, सामर्थ्य और योग्यता रखनेवाले विद्वान मौलिक ग्रन्थों की भी रचना करके अपनो विद्या और शिक्षा को सफल और सार्थक करें।

सज्ञान होकर भी जो मनुष्य अपने पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं करता, शिक्षित होकर भी जो मनुष्य अपनी भाषा का आदर नहीं करता, समर्थ होकर भी जो मनुष्य‌ अपने साहित्य की परिपुष्टि करके अपनी जाति और अपने देश को ज्ञानोन्नत नहीं करता वह अपने कर्तव्य से च्युत समझा जाता है। मातृभूमि और मातृभाषा दोनों ही के लिए उसका होना न होना एक ही सा है। अपनों का प्यार न करनेवाले-अपनों के सुख-दुःख में शामिल न होनेवाले–के लिए बस एक ही काम रह जाता है। वह है भिक्षापात्र लेकर दूसरोंके द्वार पर, हर बात के लिए, फेरी लगाना । जीवन्मृत या आत्महन्ता की संज्ञा का निर्माण ऐसेही मनुष्यों के लिए हुआ है। कृपा करके ऐसे पुरुषपुङ्गवों को इस संज्ञा-निर्देश से बचा लीजिए।

१०--हिन्दी-भाषा के द्वारा उच्च शिक्षा ।

मातृभाषा के साहित्य का महत्त्व बहुत उच्च है। परन्तु इन प्रान्तों में उसीकी शिक्षा का बहुत कुछ अभाव देखकर हृदय में उत्कट वेदना उत्पन्न होती है। बड़ी कठिनता से हाई स्कूलों के आठवें दरजे तक तो हिन्दी को किसी तरह दाद मिल गयी है, पर आगे नहीं। बम्बई-विश्वविद्यालय में मराठी साहित्य की उच्च शिक्षा का प्रबन्ध है ; मदरास-विश्वविद्यालय

में तामील और तेलगू भाषाओं का निर्वाध प्रवेश रहे : कलकत्ता-विश्वविद्यालय में भी बङ्गला-भाषा का साहित्य उच्चासन पर आसीन है-उसमें तो हिन्दी-साहित्य के प्रवेश का भी द्वार खुल गया है-पर, जिन अभागे संयुक्त-प्रान्तों की भाषा हिन्दी अथवा हिन्दुस्तानी है उनके विश्वविद्यालय में वह अछूत जातियों की तरह अस्पृश्य मानी जाती है। उसके तो नाम ही से कुछ सदाशय देश-बन्धुओं के मुंह से “दुर दूर" की आवाज़ निकला करती है। उन्हें तो आठवें दरजे तक भी हिन्दी का प्रवेश खटकता है ; उनकी सम्मति में उसके प्रवेश से अगरेज़ी-भाषा की शिक्षा में विघ्न उपस्थित होता है । सुदूरवर्ती और द्राविड़-भाषा-भाषी मदरास-प्रान्त के माध्यमिक दर्जा ( Intermediate Classes ) में तो हिन्दी पढ़ाई जाय-ऐच्छिक विषयों में उसके अध्ययन की भी स्वीकृति वहां का विश्वविद्यालय दे दे-पर अपने ही घर में, अपने ही प्रान्त में, बेचारी हिन्दी धसने तक न पावे। अपनी भापा के साहित्य का इतना निरादर और उसके साथ इतना अन्याय क्या किसी और भी देश, अथवा इसी देश के क्या किसी और भी प्रान्त में देखा जाता है ? इलाहाबाद-विश्वविद्यालय के जिन सेनेटरों को इन प्रान्तों की भूमि अपने ऊपर धारण करती है और जिनके बूटों की ठोकरें खाया करती है उनकी इस उदारता के लिए उन्हें अनेक धन्यवाद ! जिस भाषा को उन्होंने अपनी माँ से सीखा, जिस की कृपा से ही वे अङ्गरेजी भाषा और अङ्गरेजी के साहित्य

के पारगामी पण्डित बने, और जिसकी बदौलत ही अब भी उनके गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी सारे काम चलते हैं उसीके साथ उनके इस सलूक का दृश्य मनस्वी मनुष्यों ही के नहीं, देवताओं के भी देखने योग्य है ! भगवान्, आप तो करुणासागर कहाते हैं। इन प्रान्तो ने ऐसा कौन सा घोर पाप किया है जो आप इन मातृभाषाझक्लों के हृदयों में आत्मगौरव और आत्माभिमान का न सही, करुणा तक का उद्रेक नहीं करते ? स्वराज्य का भाव जब आपने इनके हृदयों में जागृत कर दिया तब स्वभाषा के साहित्य की महत्ता का भाव क्यों न जागृत किया ? क्या इन दोनों में अन्योन्या-अयभाव नहीं ? क्या ये एक दूसरे के आश्रय बिना बहुत समय तक टिक सकते हैं ? देवताओ, तुम्हारा कारुण्य पारावार क्या बिलकुल ही सूख गया ? क्या किसी कुम्भजन्मा ने उसे समग्र ही पी लिया ? क्या उसके एक ही छींटे से हिन्दी-साहित्य का सन्ताप नहीं दूर हो सकता ?

तदुग्रतापव्ययसक्काशीकरः सुराः स व: केन पपे कृपार्णवः ?

उदेति बुद्धिहदि नाऽशुभेतरा किमाशु संकल्पकरणश्रमेण वः ?

भाइयो, यदि और कहीं से कुछ भी सहायता न मिले तो आप ही इलाहाबाद-विश्वविद्यालय के कर्णधारों की मोहनिद्रा भङ्ग करने की चेष्टा कीजिए । देखिए, उनके कर्तव्य पराङ्ग-मुख होने से अपनी कितनी हानि हो रही है। शेक्सपियर,शैली और बाइरन ही को नहीं, चासर तक को याद करते करते हम अपने सूर, तुलसी, बिहारी और केशव को भी

भूनते जा रहे हैं ! नार्मन और सैक्सन लोगों नक की भी पुरानी कथायें कहते कहते हम अपने यादवों, मो? और करावों का नाम तक विस्तृत करते जा रहे हैं। टेम्स और मिसीसिपी, डॉन और डेन्यूब को लम्बाई, चौड़ाई और गहराई नापते नापते हम यह भो जानने को ज़रूरत नहीं समझने लगे कि अपने ही प्रान्त अथवा अपने ही ज़िले की गोमती और घाघरा‌ बेतवा और सई, लोनी और रामगङ्गा कहां से निकलीं और कहां गिरो हैं तथा उनके तट पर कौन कौन प्रसिद्ध नगर और क़सबे हैं ! यदि छोटे दरजों में पढ़ाई जानेवाली किताबों में इन नदियों आदि का उल्लेख भो कहीं मिलता है तो यों ही उड़ते हुए दो चार शब्दों में ! हम को धिक् ! यदि अपनी भाषा और उस के साहित्य की पढ़ाई का पूरा प्रवन्ध होता तो क्या आज ऐसी दुर्व्यवस्था देखने का दिन आता ? क्या इस दशा में भी जातीयता के भावों की रक्षा हो सकती है?

मैं यह नहीं कहता कि अंगरेज़ी भाषा और उस के साहित्य की उच्च शिक्षा न दी जाय। नहीं, ज़रूर दी जाय । देश की वर्तमान स्थिति में बिना उ लकी शिक्षा के तो हमारा निस्तार ही नहीं। मैं तो यहां तक समझता हूँ कि स्थिति बदलने पर भी राजनैतिक कारणों का दबाव दूर होने पर भो -अँगरेजी भाषा और उसके साहित्य की शिक्षा की शायद फिर भी आवश्यकता बनी रहे। क्योंकि अन्य भाषायें-चाहे वे स्वदेशी हो चाहे विदेशी--हमें सभी की सहायता से अपनी ज्ञानवृद्धि करनी है। प्रान कहीं भी क्यों न हो, उसे ग्रहण

करना ही चाहिए । योरप और अमेरिका ही में नहीं, जापान तक में देखिए, विदेशी भाषाओं और उनके साहित्य को शिक्षा का यथेष्ट प्रबन्ध है। मेरा निवेदन इतना ही है कि अपने प्रान्त में, अँगरेज़ी-साहित्य को उच्च शिक्षा के साधनों के साथ ही साथ, अपनी भाषा के भी साहित्य को शिक्षा के साधन‌ सुलभ हो जाने चाहिए। बनारस और लखनऊ के विश्व-विद्यालयों ने इसका सूत्रपात कर दिया है, यह प्रसन्नता की बात है । एक महाशय ने इलाहाबाद-विश्वविद्यालय के विचारकों की सभा में भी विचार के लिए एक प्रस्ताव भेजा था । नहीं मालूम, उसका क्या नतीजा हुआ । पर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। एक नहीं, अनेक जनों को इस विषय में प्रयत्नशील होना चाहिए।

हिन्दी-साहित्य की शिक्षा के साधन यदि, अभी हाल में अनिवार्य रूप से सुलभ न कर दिये जाय, तो ऐच्छिक रूप ही से सही; कुछ तो सुभीता हो जायः सर्वाश में न हो तो अल्पांश ही में कलंक की यह कालिमा धुल तो जाय और तो भारत के लिए सौभाग्य का दिन तभी होगा जब हिन्दी भाषा के द्वारा सब प्रकार की उच्च शिक्षा देने के लिए विद्यमान विश्वविद्यालयों और कालेजों के साथ ही साथ, हिन्दी विश्वविद्यालयों और हिन्दी-कालेजों की भी स्थापना हो जायगी। क्या कभी ऐसा भी सुदिन आवेगा ? क्या कभी उच्च-शिक्षादान के विषय में हिन्दी-साहित्य का भी सुप्रभात

होगा ? कृपा करके एक बार कह तो दीजिए-"होगा"।

११- समाचारपत्रों की नीति ।

समाचारपत्र और सामयिक पुस्तकें भी साहित्य के अन्तर्गत हैं। अतएव उनके विषय में भी मुझे कुछ निवेदन करना है। अब वह समय आया है जब जन-समुदाय अपनेको राजा से बढ़कर समझता है । वह अपने ही को राजस्थानीय जानता है। उसका कथन है कि जनता की सत्ता से ही राजा की सत्ता है; जनता ही की आवाज़ राजा या राज-पुरुषों का आयोजन और नियन्त्रण करती है। इस दशा में राजनैतिक और सामाजिक विषयों में दखल देनेवाली सामयिक पुस्तकों और समाचारपत्रों को चाहिए कि वे अपनेको जनता का मुख, जनता का वकील, जनता का प्रतिनिधि समझे अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को भूल जायं। जो कुछ वे लिखें जनता ही के हित को लक्ष्य में रखकर लिखें; ईर्ष्याद्वष, वैमनस्य, स्वार्थ और व्यक्तिगत हानि लाभ की प्रेरणा के वशीभूत होकर एक सतर भी न लिखे। सत्यता के प्रकाशन को वे अपना परम धम्म समझे। जो समाचारपत्र जनता के हार्दिक भावों का प्रकाशन जान बूझ कर नहीं करते वे अपने ग्राहकों और पाठकों को धोखा देते हैं और अपने कर्तव्य से च्युत होते हैं। उनको चाहिए कि सत्यपरता से कभी विचलित न हो। जनसमुदाय से सत्य को छिपा रखना अपने व्यवसाय को कलङ्कित और सर्वसाधारण के साथ विश्वासघात करना है ।

सम्पादकीय लेखों और नोटों में सामयिक विषयों की
जो चर्चा की जाय उसमें अस्त्यता की तो बात ही नहीं, अतिरञ्जना भी न होनी चाहिए। समाचारपत्रों को अन्याय और अनुचित आलोचना को पाप समझना चाहिए। जो पत्र व्यक्तिगत आक्षेपों और कुत्सापूर्ण लेखों से अपने कलेवर को काला करते हैं वे अपने पवित्र व्यवसाय का दुरुपयोग करते हैं, और जनता की दृष्टि में अपनेको निन्द्य और उपहासास्पद बनाते हैं। उनके व्यर्थ के पारस्परिक विवादों में न पड़ना चाहिए। व्यापार-व्यवसाय से सम्बन्ध रखनेवाले और दूकानदारी के दाव-पेचों से पूर्ण विज्ञापनों को समाचारों और सम्पादकीय लेखों के आच्छादन में छिपा कर कभी प्रकाशित न करना चाहिए। विज्ञापन देनेवालों को अपने पत्र की प्रकाशित या वितरित कापियों की संख्या बढ़ा कर न बतानी चाहिए। आक्षेपयोग्य, अश्लील, धोखेबाज़ी से भरे हुए विज्ञापन कभी न छापना चाहिए। अनौचित्य का सन्देह होने पर, जांच करने के अनन्तर, इस बात का निश्चय कर लेना चाहिए कि विज्ञापन प्रकाशनीय है या नहीं। अपने हानि-लाभ को न देख कर, जहां तक बुद्धि और विवेक काम दे, सच्चे ही विज्ञापन लेने चाहिए। सौ बात की बात यह, कि कभी, किसी भी दशा में जान बूझ कर सत्य का अपलाप न करना चाहिए।

अतएव प्रार्थना है कि समाचारपत्रों के नियमन के लिए आप कोई ऐसी नीति या नियमावली निश्चित कर दीजिए जो उनका मार्गदर्शक हो। आप यदि कुछ नियामक नियम बना

देंगे तो, बहुत सम्भव है, उनका उल्लंघन करने पर आपके कशाघात के भय से, सत्य की हत्या होने से बच जाय ।

१२-हिन्दी भाषा की ग्राहिका शक्ति ।

हिन्दी-भाषा जीवित भाषा है। जो लोग उसे किसी परिमित सीमा के भीतर ही आबद्ध करना चाहते हैं वे मानों उसका उपचय-उसकी कलेवर-वृद्धि-नहीं चाहते। जीवित भाषाओं के विषय में इस प्रकार की चेष्टा, बहुत प्रयास करने पर भी, सफल नहीं हो सकती। संसार में शायद ऐसी एक भी भाषा न होगी जिसपर, सम्पर्क के कारण, अन्य भाषाओं का प्रभाव न पड़ा हो और अन्य भाषाओं के शब्द उसमें सम्मिलित न हो गये हों। अंगरेज़ी भाषा संसार की प्रसिद्ध और समृद्ध भाषाओं में है। उसीको देखिए। उसमें लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, जर्मन और सैक्सन आदि अनेक भाषाओं के शब्दों, भावो और मुहावरों का संमिश्रण है। यहां तक कि उसमें एक नहीं, अनेक शब्द संस्कृत-भाषा तक के कुछ थोड़े ही परिवर्तित रूप में, पाये जाते है । उदाहरणार्थ पाथ (Path) के रूप में हमारा पथ और ग्रास ( Grass ) के रूप में हमारा घास शब्द प्राय: ज्यों का त्यों विद्यमान है। बात यह है कि जिस तरह शरीर के पोषण और उपचय के लिए बाहर के खाद्य पदार्थों की आवश्यकता होती है वैसे ही सजीव भाषाओं की बाढ़ के लिए विदेशी शब्दों और भावों के संग्रह की आवश्यकता होती है। जो भाषा ऐसा नहीं करती या जिसमें ऐसा होना बन्द हो जाता है वह उपवास सी

करतो हुई, किसी दिन मुर्दा नहीं तो निर्जीव सी जरूर हो जाती है। दूसरी भाषाओं के शब्दों और भावों को ग्रहण कर लेने की शक्ति रखना ही सजीवता का लक्षण है। और जीवित भाषाओं का यह स्वभाव, प्रयत्न करने पर भी, परित्यक्त नहीं हो सकता, क्योंकि सजीव भाषायें नियन्त्रण करनेवालों की शक्ति की सत्ता के बाहर है।

हमारी हिन्दी सजीव भाषा है। इसीसे, सम्पर्क के प्रभाव से, उसने अरबी, फारसी और तुर्की भाषाओं तक के शब्द ग्रहण कर लिए हैं और अब अंगरेज़ी-भाषा के भी शब्द ग्रहण करती जा रही है। इसे दोष नहीं, गुण ही समझना चाहिए । क्योंकि अपनी इस ग्राहिका शक्ति के प्रभाव से हिन्दी अपनी वृद्धि ही कर रही है, हास नहीं । ज्यो ज्यों उसका प्रचार बढ़ेगा त्यों त्यो उसमें नये नये शब्दों का आगमन होता जायगा। क्या नियन्त्रण के किसी भी पक्षपाती में यह शक्ति है कि वह जातियों के पारस्परिक सम्बन्ध को तोड़ दे अथवा भाषाओं का सम्मिश्रण-क्रिया में रुकावट पैदा कर दे ? यह कभी सम्भव नहीं। हमें केवल यह देखते रहना चाहिए कि इस सम्मिश्रण के कारण कहीं हमारी भाषा अपनी विशेषता को तो नहीं खो रही-कहीं बीच बीच में अन्य भाषाओं के बेमेल शब्दों के योग से वह अपना रूप विकृत तो नहीं कर रही। मतलब यह कि दूसरोंके शब्द, भाव और मुहावरे ग्रहण करने पर भी हिन्दी हिन्दी ही बनी है या नहीं। बिगड़ कर कहीं वह और कुछ तो नहीं होता जा रही, बस। विदेशो भाव, शब्द और मुहावरे ग्रहण करने में केवल यह देखना चाहिए कि हिन्दी उन्हें हजम कर सकती है या नहीं, उनका प्रयोग खटकता तो नहीं; वे उसकी प्रकृति के प्रतिकूल तो नहीं। मकान, मिजाज, मालिक विदेशीभाषा के शब्द है; पर हिन्दी ने उन्हें आत्मसात् कर लिया है-उन्हें उसने हजम कर लिया है। उन्हें स्त्रियां और बच्चे तक, पढ़े लिखे और अपढ़, सभी बोलते हैं। इस कारण विदेशी होकर भी वे अब स्वदेशी हो गये हैं। उनको अव सर्वथा हिन्दी शब्द-मालिका के अन्तर्गत ही समझना चाहिए। इसी तरह नोट, नम्बर, बोतल और कौंसिल आदि शब्द भी विदेशी होकर भी स्वदेशी बन गये हैं। करने से भी, उन के वहिष्कार की चेष्टा कभी सफल नहीं हो सकती। अतएव विदेशी भाषाओं के जो शब्द अपनी भाषा में खप गये हैं वे सब हिन्दीं ही के हो गये हैं और आगे जो खपते जायंगे ये भी हिन्दी ही की मिलकीयत होते जायंगे। हिन्दो जीती जागती भाषा है। दूसरोंकी दी हुई चीज़ को ले लेने का अधिकार उसे स्वयं प्रकृति ही ने दे रक्खा है। उसे कोई छीन नहीं सकता। इस दशा में यह कहना कि यह शब्द हमारी भाषा का नहीं, इससे हम इसका वहिष्कार कर देंगे, प्रकृति के प्रबल प्रवाह को रोकने का व्यर्थ परिश्रम करना है।

हां, एक बात अवश्य है। वह यह कि जो भाव या जो मुहावरे हिन्दी में न खप सकते हों, अर्थात् जो खटकने वाले हों-जिन्हें हिन्दी हज़म न कर सकती हो-उनका प्रयोग

सहसा न करना चाहिए। उदाहरणार्थ-दृष्टिकोण, हाथ बटाना, लागू होना, नङ्गी प्रकृति इत्यादि भाव या मुहावरे बोलचाल की हिन्दी में नहीं खपते। इनका प्रयोग भी कुछ ही समय से होने लगा है। यही भाव विचार-दृष्टि, सहायता करना और घटित होना लिखने या बोलने से अच्छी तरह व्यक्त किये जा सकते हैं और खटकते नहीं। नङ्गो प्रकृति अंगरेज़ी मुहावरे "Naked Nature" का अनुवाद है। उस में इतना वैदेशिक भाव भरा हुआ है कि उससे मिलता जुलता मुहावरा हिन्दी की टकसाल में ढालना किल बड़े तजरुबेकार मिंट मास्टर ( Mint Master ) ही का काम है। अभी तो इस तरह के मुहावरे ज़रूर खटकते हैं; पर यदि इनका प्रचार बढ़ता ही गया तो किसी दिन यह खटक जाती रहेगी और ये भी हिन्दी ही के मुहावरे हो जायेंगे। क्योंकि बन्दूक का छर्रा यदि शरीर के भीतर बहुत समय तक रह जाता है तो उससे भी उत्पन्न कसक धीरे धीरे जाती रहती है। तथापि इस प्रकार के अप्राकृतिक प्रयोग इष्ट नहीं। उन की संख्या वृद्धि से हिन्दी की विशेषता को धक्का पहुँचने का डर है।

१३-हिन्दी-भाषा और व्याकरण ।

हिन्दी का घनिष्ट सम्बन्ध संस्कृत से है। कोई तो संस्कृत को उसकी माता या मातामही बताते हैं, कोई प्राकृत को। कुछ विद्वान उसके सम्बन्ध-सूत्र को खींच कर वैदिक संस्कृत तक पहुंचा देते हैं। अस्तु । संस्कृत, वैदिक संस्कृत

और प्राकृत चाहे उसकी माता हो चाहे मातामहो, चाहे और कुछ, इस निर्णय का अधिकारी मैं नहीं और न इसका निर्णय करने या इस विषय में शास्त्रार्थ करने की शक्ति ही मुझमें है। मेरा निवेदन तो इतना ही है कि संस्कृत और प्राकृत से घनिष्ट सम्बन्ध रखने पर भी, हिन्दी भिन्न भाषा है और भिन्न होने के कारण वह उन भाषाओं से अपनी निज की कुछ विशेषता रखती है। इससे संस्कृत या संस्कृत-व्याकरण के नियमों पर, आंख मूंद कर, चलने के लिए वह बाध्य नहीं।

जिस शब्द के साथ जिस विभक्ति का योग होता है वह उसीका अंश हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं। पर क्या इसी कारण से वैयाकरणों को यह हुक्म देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है कि विभक्तियों को शब्दों से जोड़ कर ही लिखा; उनके बीच ज़री भी कारी जगह, अर्थात् “स्पेस," न छोड़ो? क्या संस्कृत-व्याकरण में भी कोई नियम ऐसा है ? अनन्त काल से संस्कृत-भाषा लिखने में विभक्कियां ही नहीं, बड़े बड़े शब्द, वाक्य, श्लोक और सतरें की सतरे तक मिला कर ही लिखी जाती रही हैं और अब भी पुरानी चाल के पण्डितों के हाथ से लिखी जाती हैं। क्या इसके लिए भी संस्कृत-व्याकरण में कोई नियम है ? क्या इस तरह की संलग्नता से संस्कृत-भाषा में कुछ विशेषता आगई? क्या उसकी उन्नति और साहित्य-वृद्धि का कारण यह संलग्नता भी मानी जा सकती है? अथवा क्या इससे उसे कुछ हानि पहुंची? क्या उसका विकास या उन्नति बन्द हो गई ? यही हाल अरबी फ़ारसी और उर्दू का भी है। यह तो कोई व्याकरण की बात नहीं ; केवल सुभीते या परिपाटी की बात है।

संस्कृत में भ्याम्, भ्यः (भ्यस् ), भिः (भिस् ) आदि विभक्तियां लगने पर, शब्दों में कई प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते हैं, उनका रूप कुछ का कुछ हो जाता है ; विभक्तियां उनका अंश हो जाती हैं ; वे उनसे पृथक् रही नहीं सकती। इस कारण संलग्नता की बात संस्कृत के लिए तो ठीक ही है; पर हिन्दी को भी उसी नियम से जकड़ने की क्या आवश्यकता ? संस्कृत के कोष आप ढूढ़ डालिए । भ्याम्, भ्यः आदि विभक्तियां उनमें, पृथक् शब्दों के रूप में, कहीं न मिलेगी। वे पृथक् शब्द नहीं मानी गई। पर हिन्दी का कोई भी प्रतिष्ठित कोष-पादरी वेट तक का-आप उठा लीजिए। उसमें को, के, से, में आदि का निर्देश आपको, स्वतन्त्र शब्दों की तरह किया गया, मिलेगा। अतएव यदि कुछ लेखक, हिन्दी में, विभक्तियों को अलग लिखे तो क्या कोई बहुत बड़ो अभावनीय या अस्वाभाविक बात हो जाय ? क्या ऐसा करने से हिन्दी की उन्नति में बाधा उपस्थित हो सकती है? यह व्याकरण का विषय नहीं, यह तो रूढ़ि का परिपाटी का, लिखने के ढंँग का---विषय है। शब्द अलग अलग होने से पढ़ने में सुभीता होता है; भ्रम की सम्भावना कम रह जाती है। जिनको यह ढंँग पसन्द न हो वे विभक्तियों ही को नहीं, शब्दों को भी परस्पर मिलाकर लिख सकते

हैं। साट सत्तर वर्ष पूर्व छपी हुई हिन्दी पुस्तकों में भी, संस्कृत ही के सदृश, लम्बो शब्द-संलग्नता विद्यमान है । अनेक नई बाजा़रू पुस्तकों में, अब भी, उसके दर्शन होते हैं । बताइए, इस संलग्नता ने हिन्दी-साहित्य की कितनी उन्नति की ? अथवा शताब्दियों से प्रचलित शब्द-संलग्नता अरबी और फ़ारसी भाषाओं की भी कितनी उन्नति और श्रीवृद्धि का कारण हुई ? संलग्नता और असंलग्नता की बात तो अभी चार दिन की है। उसकी उद्भावना का कारण पुस्तकों आदि का टाइप द्वारा छपना है । उसके पहले तो यह बात किसीके ध्यान में भी न आई होगी; क्योंकि स्पेस देने, अर्थात् शब्दों के बीच में जगह छोड़ने के उत्पादक "स्पेस" ही हैं । अतएव जो संलग्नता के पक्षपाती है अथवा जो कागज़ के खर्च में कुछ बचत करना चाहते हैं वे, मराठीभाषा के लेखकों की तरह, खुशी से विभक्तियों को शब्दों के साथ मिला कर ल़िखें । परन्तु जो उनकी इस प्रणाली के अनुयायी नहीं उनपर आक्षेप करने और उनकी हंसी उड़ाने के लिए व्याकरण उन्हें शरण नहीं दे सकता । जो प्रणाली अधिक सुभोते की होगी या जिसका आश्रय अधिक लेखक लेंगे वह आप ही चल जायगी और उसकी विपरीत प्रणाली परित्यक्त हो जायगी। लिपि की सादृश्य-रक्षा के ख्याल से यदि इस विवाद की नींव डाली गई हो तो बलवत् कोई किसीकी रुचि या आदत को नहीं बदल सकता । जिन्हें विभक्तियां अलग लिखना ही अच्छा लगता है और जो जान बूझकर वैसा लिखना नहीं छोड़ते, दुर्वाक्यों का प्रयोग उन्हें
उनके निश्चय से नहीं विचलित कर सकता; उलटा वह उसे और दृढ़ अवश्य कर सकता है।

जीती जागती भाषा होने के कारण, हिन्दी का उपचय हो रहा है । उसमें नये नये शब्द, नये नये भाव, नये नये मुहावरे आते जाते हैं । यह कोई अस्वाभाविक या अचम्भे की बात नहीं । सभी सजीव भाषाओं में यह होता है । पर, इस बात की और विशेष ध्यान न देकर, लिङ्ग-निर्देश के विषय में, कभी कभी बड़ा विवाद-नहीं, वितण्डा-वाद तक खड़ा हो जाता है और यदा कदा वह कुत्सा और विकत्थना का भी रूप धारण कर लेता है।

श्याम-शब्द संस्कृत भाषा का है। उसमें तालव्य श् है । वह ज्यों का त्यों हिन्दी में आ गया है, अर्थात् वह सत्सम शब्द है। अब कल्पना कीजिए कि श्याममनोहर नाम के किसी एक लेखक ने, अपने नाम के पूर्वार्ध श्याम में, तालव्य श् के बदले दन्त्य स् लिख दिया । यह देखकर हिन्दी के समालोचक बिगड़ उठे और लगे उसकी खबर लेने । उन्होंने दन्त्य स् का प्रयोग अशुद्ध ठहराया। उनकी यह पकड़ सर्वथा उचित है । और भी यदि दो चार भूले-भटके लेखक इस शब्द में दन्त्य स् का प्रयोग करें तो उनका भी वह प्रयोग अवश्य ही अशुद्ध माना जायगा। परन्तु यदि श्याममनोहर के सैकड़ों अनुयायी उत्पन्न हो जायँ और वे भी, जान बूझकर,तालव्य के स्थान में दन्त्य ही स् लिखने लगें तो क्या हो ? तो क्या वह शब्द तब भी अशुद्ध ही माना जा सकेगा ? यदि माना जाय तो कहना पड़ेगा कि हिन्दी

मर गई ! तो यही समझना होगा कि वाग्धारा का प्रवाह सेवक है और व्याकरण उसका स्वामी । परन्तु यह बात नितान्त अस्वाभाविक और बेजड़ है। व्याकरण तो बाग्धारा का दास है। स्वामित्व उसके भाग्य में कहां ?

व्याकरण का काम सिर्फ इतना ही है कि लोग जैसी भाषा बोलें या लिखें उसका वह सङ्गति-मात्र लगादेः उसके नियम-मात्र वह बता दे। उसे यह कहने का कोई अधिकार नहीं कि तुम इसी तरह बोलो, या इसी तरह लिखो, या इस शब्द का प्रयोग इसी लिङ्ग में करो। इस तरह का विधान करनेवाला व्याकरण कौन है ? उसे तो शिष्ट लेखकों और वक्ताओं को आशा के पालन-मात्र का काम सौंपा गया है। उसे वह करे। यदि वह उसके आगे जायगा तो आज्ञोलड़्घन का अपराधी होगा। दो आशाओं के पेंच में पड़ने पर उसका कर्तव्य केवल इतना ही है कि दोनों प्रकार के प्रयोगों को वह साधु प्रयोग माने - वह कहे कि श्याम भी ठीक है और स्याम भी। अपप्रयोग तभी तक माना जा सकता है जब तक भ्रम या अज्ञान के वशवर्ती होकर, कुछ ही जन किमी शब्द, वाक्य, मुहावरे आदि को, प्रचलित रीति के प्रतिकूल, बोलते या लिखते हैं। परन्तु यदि धीरे धीरे सैकड़ों मनुष्य उसे उसी तरह लिखने लगते हैं तब वह अपप्रयोग नहीं रह जाता; तब तो वह भी साधु प्रयोग हो जाता है।

हिन्दी में दही-शब्द पुल्लिङ्ग (संस्कृत, पुल्लिंग) माना जाता है। क्योंकि अधिकतर बोलने और लिखनेवाल उसे उसा

लिङ्ग में व्यवहार करते हैं। परन्तु यदि ज़िले के ज़िले और प्रान्त के प्रान्त उसे स्त्री-लिङ्ग में व्यवहार करें-और मैं सुनता हूं कि बिहार-प्रान्त में हज़ारों आदमी ऐसा करते भी हैं-तो वह उभय-लिङ्गी हो जायगा। न तो देहली, आगरे, लखनऊ, कानपुर और बनारसवालों ही को भगवती वाग्देवी ने इस बात का इजारा दे रक्खा है कि लिङ्गनिश्चय करने के वही अधिकारी हैं, और न किसी वैयाकरण ही को इस तरह का कोई अनुशासन-पत्र उससे मिला है। जिस शब्द का प्रयोग जिस लिङ्ग में लोग करेंगे वह उसी लिङ्ग का समझा जायगा। यदि दोनों लिङ्गों में वह बोला जाता होगा तो वह उभयलिङ्गी हो जायगा।

जितनी भाषायें हैं सब अपनी अपनी विशेषता रखती हैं। उनके शिष्ट लेखक जिस शब्द को जिस लिङ्ग का मान लेते हैं वही लिङ्ग उसका हो जाता है। Moon अर्थात् चन्द्रमा में क्या किसीने स्त्रीत्व का कोई चिह्न देखा है? फिर वह अंगरेज़ी-भाषा में क्यों स्त्री-लिङ्ग हो गया? अमेरिका, फ्रांस, इँगलैंड, जर्मनी आदि देशों और महादेशों में क्या स्त्रियां ही स्त्रियां रहती हैं? फिर वे स्त्री-लिङ्ग कैसे हो गये? इस तरह की विलक्षणता से शायद कोई भी भाषा खाली न होगी। संस्कृत-भाषा तो विलक्षणताओं की खान ही है। देखिए-

(१) पत्ति-शब्द पुल्लिङ्ग भी है और स्त्रीलिङ्ग भी। (२) दिव्य-शब्द विशेषण भी है, पुल्लिङ्ग भी है और क्लीव लिङ्ग भी।

(३) साधु-शब्द विशेषण भी है, अव्यय भी है, पुल्लिङ्ग भी है और स्त्री-लिङ्ग भी।

संस्कृत-भाषा के कुछ शब्द तो वाग्धारा के और भी अधिक विभागों में घुस गये हैं। कुछ शब्द तो ऐसे हैं जिनकी विलक्षणता का ठिकाना ही नहीं।

संस्कृत में एक शब्द है दार। वह जब दर्ज या छेद के अर्थ में आता है तब तो पुलिङ्ग होता ही है; पर जब स्त्री या पत्नी के अर्थ में आता है तब भी पुल्लिङ्ग ही बना रहता है और इतनी विशेषता या विलक्षणता और भी धारण कर लेता है कि बहुवचन बनकर वह दाराः हो जाता है। इस दशा में चाहे वह एक ही पत्नी का बोधक क्यों न हो, अपना बहुत्व वह नहीं छोड़ता। अब, कहिए, वैयाकरण बेचारे किस किस शब्द के लिङ्ग-निर्देश की भूलें बतावेंगे। सच तो यह है कि ये भूले नहीं। बोलने और लिखनेवालों ने जिस शब्द का प्रयोग जिस लिङ्ग में जिस तरह किया है वैयाकरणों ने केवल उसका उल्लेख कर दिया है-केवल उन प्रयोगों को सङ्गति लगा कर उन्हें नियमबद्ध कर दिया है।

हिन्दी के कुछ हितैषी चाहते हैं कि क्रियाओं के रूपों में सादृश्य रहे। वे किसी न किसी नियम के अधीन जरूर रहें। एक उदाहरण लीजिए। वे कहते हैं कि जाना-धातु का, भूत-काल में, पुल्लिङ्ग-रूप होता है "गया"। अतएव स्त्रीलिङ्ग में

वह होना चाहिए "गयी" अर्थात् उस गई में अकेली ई-कारही न रहे, य् अर्थात् य-कार को भी वह अपने साथ रक्खे। "गया" का उद्भव हुआ है "जाना" धातु से। उस "जाना" में न ग-कारही है और न य-कार ही। सो "गया" में "जाना" धातु के दोनों वर्ण का सर्वथा लोप हो जाना तो उन्हें सह्य है; पर "गया" के स्त्री-लिङ्ग में यदि य-कार का लोप कर दिया जाय तो वह उन्हें सह्य नहीं! कुछ लोग तो इसके भी आगे जाते हैं। वे "लिया" और "दिया" के रूप, स्त्री-लिङ्ग में, "ली" और "दी" न लिख कर "लिई" और "दिई" लिखने की सलाह देते हैं। और एक सज्जन ने तो, कुछ समय तक, इस सलाह को कार्य में परिणत भी कर दिखाया है। यह बात इतनी ही नहीं; इसके भी बहुत आगे बढ़ गई है। सरलता के कुछ पक्षपातियों को राय तो यह है कि क्रियाओं को लिङ्ग-भेद के झमेले से एकदम ही मुक्त कर देना चाहिए, जिससे बङ्गालियों, मदरासियों और महाराष्ट्र-देश के वासियों को हिन्दी सीखने में सुभीता हो और महीने ही दो महीने में वे हमारी भाषा के सुपण्डित हो जायं।

इन महाशयों के बाद, विवाद, शास्त्रार्थ, तर्क और कभी कभी कुतर्क भी सुन कर इन्द्र, चन्द्र, शाकटायन और पाणिनि आदि की आत्मायें क्या कहती होंगी, सोतो भगवान हो जानें। हां, इतना तो वे ज़रूर ही कहती होंगी कि भला जीती-जागती भाषाओं की वाग्धारा का प्रवाह भी किसी वैयाकरण या भाषावेत्ता या लेखकोत्तंस के रोकने से रुक

सकता है ? सिन्धु या ब्रह्मपुत्र का प्रवाह क्या दो चार पृले तृण डाल देने से बन्द हो सकता है ? यदि ऐसा होता तो हम लोगों को जगह जगह पर विभाषा और विकल्प की दुहाई क्यों देनी पड़ती ? जगह जगह पर क्यों हमें अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों की शरण जा कर यह कहना पड़ता कि अतुक आचार्य इस प्रयोग या इस शब्द के इस रूप को भी शुद्ध मानता है और अमुक उस रूप को भी क्यों हमें अनेक वार इस बात का निर्देश करना पड़ता कि पूर्ववाले इस तरह बोलते या लिखते हैं और पश्चिमवाले इस तरह ? सौ बात की बात यह कि वक्ताओं का मुंह और लेखकों की लेखनी वेयाकरण नहीं बन्द कर सकते।

एक शब्द या एक पद दो तरह भी लिखा जा सकता है और यदि दोनों रूपों के आश्रयदाता शिष्ट जन हैं तो वे दोनों ही प्रवलित हो जाते हैं और दोनों ही शुद्ध माने जाते हैं। इसमें न तर्क काम देता है, न व्याकरण, न कोष । संस्कृत-शब्द कोसल दन्त्य स से भी लिखा जाता है और तालव्य श् भी। स्वयं कोष शब्द को मूर्धन्य ष् और तालव्य श् दोनों को आश्रय देना पड़ा है।

धातु-रूपों का भी यही हाल है। उनमें भी सभी कहीं नियमों का एकाधिकार नहीं। श्री और स्त्री शब्द दोनों शदृश हैं। दोनों का वजन भी एक ही सा है । पर कर्तृ-कारक, प्रथमा-विभक्ति, में स्त्री तो स्त्री ही रह जाती है, श्री के आगे विसर्ग कूद पड़ते हैं और वह श्रीः में परिवर्तित हे

जाती है। अब उलटी विचित्रता देखिए । द्वितीया-विभक्ति के योग में श्री-शब्द का एक-वचनान्त रूप होता है श्रियम् और वहुवचनान्त श्रियः । इसी तरह स्त्री-शब्द के भी रूप होते हैं-स्त्रियम् और स्त्रियः । परन्तु जिस ज़माने में संस्कृत बोल-चाल की भाषा थी उस ज़माने में कुछ लोग वैसे ही बिगड़े-दिल थे जैसे आज कल “ गया" के स्त्रीलिङ्ग में‌ य-कार का वहिष्कार कर के केवल ई-कार का स्वीकार करने वाले हैं। वे स्त्रियम् और स्त्रियः के बदले " स्त्रीम" और “ स्त्रीः" लिखते और बोलते रहे । नतीजा यह हुआ कि वैयाकरणों को भखमार कर उनके स्वीकृत रूपों को भी शुद्ध ही मानना पड़ा।

संस्कृत-भाषा में क्रियायों के रूपों की विलक्षणताओं के उदाहरण देकर इस वक्तव्य को मैं जटिल नहीं बनाना चाहता। इससे उन्हें छोड़ता हूं।

निष्कर्ष यह कि वाग्धारा का प्रवाह रोका नहीं जा सकता। एक शब्द या एक पद दो रूपों में प्रचलित हो सकता है और प्रचलित हो जाने से वैयाकरणों को अपने व्याकरणों में दोनों ही को स्थान देना पड़ता है। कोई लेखक भ्रमवश किसी शब्द का विरूप प्रयोग करे तो वह अवश्य अशुद्ध है। पर शिष्ट लेखकों के द्वारा जान बूझ कर किये गये ऐसे प्रयोग अशुद्धि की कोटि से निकल कर शुद्धि की कोटि में चले जाते हैं । इस विभिन्नता या इस दृश्य को देख कर किसीका उपहास करना स्वयं अपने को उपहास्य बनाना है। हाथी के लिए यदि कोई यह

कह दे कि वह पाती है तो हिन्दी के वेयाकरण उसका मज़ाक ज़रूर उड़ावें । पर हाथीही का पर्यायवाची शब्द करेगु, संस्कृत में, पुल्लिङ्ग भी है और स्त्री-लिङ्ग भी !

इस निवेदन से मेरा यह मतलब नहीं कि हिन्दी-रचना और देवनागरी लिपि में अनाचार या कामचार से काम लिया जाय । मैं गदर का पक्षपाती नहीं । गदर मचानेवालों की तो कहीं भी गुज़र नहीं। पकड़े जाने पर उन्हें अवश्य ही दण्ड दिया जाय । उनका निग्रह होनाही चाहिए । पर शिष्ट लेखकों के अनुगामी लोग बागी या अपराधी न समझे जायें ।

१४-कविता की भाषा ।

अभी कुछ समय पहले तक जो लोग कविता या पद्यरचना में बोल-चाल की भाषा काम में लाते थे उनकी बेतरह खबर ली जाती थी। वे शाखामृग और लम्बकर्ण आदि उपाधियों से विभूपि त किये जाते थे । इन उपाधिदाताओं की आवाज़ अब बहुत ही विरल और धीमी पड़ गई है । पर अब भी, कभी कभी, उसे सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है । तथापि समय ने दिखा दिया है कि उनकी युक्तियों और विभीषिकाओं में कितना सार था और उनकी दी हुई उन उदारतासूचक उपाधियों के पात्र कौन हैं । अतएव इस विषय में और कुछ कहने सुनने की आवश्यकता नहीं।

मेरा यह वक्तव्य आवश्यकता से अधिक लम्बा हो गया। इससे, सम्भव है, आप सभापति महोदय के विद्वत्तापूर्ण और महत्तामय भाषण सुनने के लिए उतावाले हो रहे होंगे। अत-

अतएव अब मैं कुछ थोड़ा ही सा और निवेदन करके इस पँवारे को पूर्ति करना चाहता हूं। अतरव दो चार मिनट का समय मुझे और देने को उदारता दिखाई जाय ।

१५---मुंडिया-लिपि के दोष ।

जिस लिपि में उर्दू लिखी जाती है वह अरबी या फ़ारसी लिपि है। कुछ समय पहले इस लिपि में बड़े बड़े दोष दिखाये जाते थे। उसका मज़ाक उड़ाया जाता था और यह कह कर उसका उपहास किया जाता था कि इस लिपि में किश्ती का कसबी और हिल्म का चिलम पढ़ा जासकता है । एक महाशय ने तो इस विषय की एक पुस्तक तक लिख डाली है। नाम शायद उसका है-उर्दू बेगम । निवेदन यह है कि दोषः ढूढ़ने ही के लिए यदि पैनी बुद्धि का कोई मनुष्य लिपियों की आलोचना करे तो ऐसी लिपि शायद ही कोई निकले जो सर्वथा निर्दोष हो। बात यह है कि प्रत्येक भाषा और प्रत्येक लिपि को प्रकृति जुदा जुदा है; वह अपने ही देशजन्य भावों और शब्दों को अच्छी तरह प्रकट कर सकती है। तथापि वह निर्दोषता का दावा नहीं कर सकती। अपनी जिस देवनागरी-लिपि को हम सबसे अच्छी लिपि समझते हैं वह भी तो निर्दोष नहीं मानी जाती। उसकी सदोषता विदेशी ही नहीं,ऐसे स्वदेशी विद्वान् भी दिखाने और उसे दूर करने के उपाय बताने लगे हैं जो उसके उपासक हैं। परन्तु इस बात को जाने दीजिए। विचार इस बात का कीजिए कि जब हम औरों की लिपि के दोष दिखाने के लिए पुस्तकें तक लिख डालने

ONESIA
का श्रम उठाते हैं तब अपनी निज की महाजनी-लिपि की सदोषता की और हमारा ध्यान क्यों नहीं जाता? इसका कारण मनुष्य-स्वभाव के सिवा और कुछ नहीं। उसे अपने दोष नहीं दिखाई देते।

महाजनी-लिपि से मेरा अभिप्राय उस लिपि से है जो मुंँड़िया कहाती है और जिसकी तृती इस कानपुर नगर के बाज़ार बाज़ार, महल्ले महल्ले, गली गली और दुकान दूकान बोल रही है। इस लिपि में लिखा गया-अजमेर गया--क्या " आज मर गया" नहीं पढ़ा जाता ? कलट्टर-गञ्ज-क्या " कोलटार-गञ्ज" या " कलट्टरी-गाज" नहीं हो जाता ? हालसो रोड-क्या "हलसा रोड़ा" या "दुलसी राँड़" नहीं बन जाता ? पर इतनी सदोषता होने पर भी हम लोगों ने कभी उसके परित्याग के लिए न सही, सुधार के लिए भी तो प्रयत्न नहीं किया ! यह कोई विदेशी-लिपि नहीं : यह तो देवनागरी लिपि ही का कटा-छँटा अमात्रिक रूप है। भाइयो, दूसरोंके दोष देखने के पहले नहीं, तो पीछे हो, अपने दोषों पर नज़र डालिए। कहा जा सकता है कि मात्राओं का झंझट न होने के कारण यह लिपि शीघ्रता से लिखी जाती है। इसीसे इसका प्रचार है। यदि यह उज़ ठीक भी हो, तो भी क्या इस इतने सुभीते के लिए इतनी दोषपूर्ण लिपि को आश्रय देना बुद्धिमानो का काम है ? यदि देवनागरी लिपि प्राय: निर्दोष हो, यदि उसको

आश्रय देने से मातृभाषा-प्रेम जागृत होता हो और यदि उसे अपनाने से जातीयता, देशभक्ति और धार्मिकता की वृद्धि होती हो तो मुंँड़िया का स्थान क्या देवनागरी को न दे देना चाहिए ? अभ्यास बढ़ने से देवनागरी भी शीघ्रता से लिखी जा सकती है। पर यदि न भी लिखी जा सके तो भी क्या हमें अपनी जातीय लिपि का व्यवहार न करना चाहिए ? चीनी और जापानी लिपियों के ज्ञाता कहते हैं कि उनसे बढ़कर दोषपूर्ण और देर में लिखी जानेवाली लिपियां संसार में और नहीं ! पर क्या चीनी और जापानी महाजन और व्यवसायी उनका व्यवहार नहीं करते ? जिस अरबी-लिपि में तुर्की और फ़ारसी भाषायें लिखी जाती हैं उसका व्यवहार क्या मिश्र, अरब, फ़ारसी, सीरिया, तुर्की और अफ़गानिस्तान के व्यवसायियों ने छोड़ दिया है ? अतएव इस सम्मेलन में उपस्थित सज्जन यदि इस विषय में और कुछ न करना चाहें तो इतना ही मानलेने की कृपा कर दें कि मुँड़िया के बदले,धीरे धीरे, देवनागरी-लिपि का प्रयोग करना हा उचित है। लिपि-परिचय हो जाने से हिन्दी भाषा की अच्छी अच्छी पुस्तकें पढ़ने की ओर प्रवृत्ति हो सकती है। उपन्यास और काव्य पढ़ने से मनोरञ्जन हो सकता है; धार्मिक पुस्तकें पढ़ने से धर्म-ज्ञान बढ़ सकता है ; समाचारपत्र पढ़ने से विशेषज्ञता प्राप्त हो सकती है। व्यापार-विषयक पुस्तके पढ़ने से व्यापार-कौशल की वृद्धि हो सकती है।

भाइयो, ज्ञानार्जन का सब से बड़ा साधन पुस्तकें हैं । जो

मनुष्य इस साधन से वञ्चित हैं वे इस ज़माने में अपनी यथेष्ट उन्नति कदापि नहीं कर सकते। अब कहिए, क्या यह साधन केवल मुँड़िया-लिपि जाननेवालों को भी सुलभ है ? नहीं है। 'अतएव इस लिपि का व्यवहार करनेवालों का कर्तव्य है कि वे इसके बदले देवनागरी लिपि से काम ले और यदि, किसी कारण से, यह न कर सके तो अपनी जातीय लिपि, न जानते हो तो, सीख तो ज़रूर ही लें। सन्तोष की बात है कि इस नगर के अनेक महाजन, व्यवसायी और दुकानदार देवनागरी लिपि अच्छी तरह जानते हैं और उससे हार्दिक प्रेम भी रखते हैं। जैसा कि एक जगह पहले मैं निवेदन कर पाया है, हिन्दी-कवियों को सैकड़ों रुपये पुरस्कार देनेवाले और सम्मेलन के इस अधिवेशन को विशेष सहायता पहुंचानेवाले भी वही हैं।

१६-उर्द के विषय में विचार ।

अभी-अभी मैं उस लिपि की सदोषता का उल्लेख कर चुका हूं जिसमें अरबी, फारसी और तुर्की भाषायें लिखी जाती हैं। उर्दू भी उसी में लिखी जाती है। पर उसके दोषपूर्ण होने के कारण हमें उसका उपहास न करना चाहिए और घृणा तो उससे कभी करनी ही न चाहिए। हिन्दू और मुसलमान इस देशरूपी शरीर की दो आंखें हैं। एक आंख के विकृत होने से क्या कोई उसे निकाल बाहर करता है ? क्या कोई उससे नफ़रत करता है ? इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी ही हमारी जातीय भाषा और देवनागरी ही हमारी जातीय लिपि है अथवा हो सकती है। दिन पर दिन इनके विस्तार की वृद्धि

देख कर वे लोग भी इनकी उपयोगिता और देशव्यापक होने की योग्यता के कायल होते जारहे हैं, जिनका सम्बन्ध इनसे बहुत दूर का है अथवा है ही नहीं। तथापि, जहां तक हो सके हमें अपने मुसल्मान भाइयों की भाषा और लिपि भी सीखनी चाहिए। बिना ऐसा किये पारस्परिक प्रेम, ऐक्य और घनिष्टता की संस्थापना नहीं हो सकती। जब हम हज़ारों कोस दूर रहनेवाले विदेशियों की-अंगरेज़, फ्रेंच और जर्मन लोगों की-भाषायें सीखते हैं तब कोई कारण नहीं कि हम उनकी भाषा और लिपि न सीखें जो हमारे पड़ोसी हैं, जिनका और हमारा भाग्य एक ही सूत्र से बँधा हुआ है और जिनका और हमारा चोलो-दामन का साथ है। मेरा तो यह विचार है कि हमें उर्दू, फ़ारसी ही नहीं, हो सके तो अरबी भाषा का भी ज्ञान-सम्पादन करना चाहिए, क्योंकि उसके साहित्य में अनन्त ज्ञान-राशि भरी हुई है और ज्ञान चाहे जहां मिलता हो उसकी प्राप्ति प्रयत्नपूर्वक करना ही मनुष्य का कर्तव्य है। परन्तु इससे यह मतलब नहीं कि हम अपनी भाषा और अपनी लिपि सीखने और उसे उन्नत करने के कर्तव्य की अवहेलना करें। नहीं, हमें पहले उनको आयत्त करके तब अन्य भाषायें सीखनी चाहिए। चूकि हिन्दी ही भारत की व्यापक भाषा हो सकती है और अपने प्रान्तों के निवासियों में अधिक संख्या उसीके ज्ञाताओं की है, इसलिए उस का प्रचार बढ़ाने और सरकारी दफ्त़रों में उसी की प्रवेशप्राप्ति के लिए चेष्टा भी करनी चाहिए।

यद्यपि कुछ मुसल्मान भाइयों की प्रवृत्ति हिन्दी भी सीखने

की ओर होरही है-कुछ इने गिने सजनों ने तो संस्कृत का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया है-तथापि, बड़े खेद की बात है, वे साधारणत: हमारी भाषा और हमारी लिपि का और पूर्ववत्ही उदासीन हैं। अधिकांश तो उसके प्रचार और उसकी उन्नति के मार्ग में विघ्न-बाधाये तक उपस्थित करने हैं, विरोध करना तो कुछ बात ही नहीं। परन्तु यदि वे अनुचित पक्षपात छोड़ कर, अपने जन-समुदाय और अपने देश के हानि-लाभ का विचार करेंगे तो उन्हें ज्ञात हो जायगा कि इस विषय में उनकी उदासीनता और उनका विरोधभाव हम दोनों हा के हित का विधातक है। वे अपनी लिपि और जिसे वे अपनी भाषा कहते है उसकी उन्नति खुशी से करें: पर साथ ही हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को भी यथाशक्ति सीखना उन्हें अपना कर्तव्य समझना चाहिए। सैकड़ों साल से लाग्यों हिन्दु उर्द ही नहीं, फ़ारसी तक पढ़ते और लिखते चले आ रहे हैं और अब भी पढ़ते लिखते हैं। इस दशा में क्या उनका भी यह कर्तव्य न होना चाहिए कि वे हमारी भाषा और हमारी लिपि सीखें ?यदि वे, अभाग्यवश, अपने इस कर्तव्य-पालन से पराङ्मुख रहने ही में अपना कल्याण समझे तो भी हमें उनकी लिपि का परित्याग न करना चाहिए। उससे घृणा तो कदापि करनी

ही न चाहिए। उनकी उर्दू कोई जुदा भाषा नहीं। वह भी हिन्दी ही है। यदि कुछ अन्तर है तो केवल इतना ही कि उसमें अरबी, फ़ारसी के शब्दों का संमिष्टण कहीं कम और कहीं अधिक रहता है। बस, और कुछ नहीं।

१७-रामन-लिपि के भावी माक्रमण से भय

जिस फारसी-लिपि में उर्दू लिखी जाती है वह और देवनागरी लिपि इस देश में सैकड़ों वर्षों से प्रचलित हैं और जब तक हिन्दुओं और मुसलमानों का अस्तित्व है तब तक शायद प्रचलित रहेगी। उनके पक्षपातियों में पारस्परिक विरोध न होना चाहिए और यदि दुदैववश हो भी जाय तो उससे विशेष भय नहीं। भय एक और ही लिपि के आक्रमण से है और दोनों ही को है-हिन्दुओं को भी और मुसल्मानों को भी। इस आक्रमण का सूत्रपात भी हो गया है। यह लिपि रोमन-लिपि है।

जिस तरह हमारे वर्ण-विभाग, हमारे जाति-भेद, हमारे आचार-विचार आदि में कुछ लोगों को---और इन लोगों में हमारे दो चार स्वदेशी सपूत भी शामिल हैं-दोष ही दोष देख पड़ते हैं वैसे ही उन्हें हमारी देवनागरी लिपि में भी दोष ही दोष देख पड़ते हैं, गुण एक भी नहीं। वे कहते हैं कि हमारी लिपि किसी काम की नहीं। वह सुडौल और सुन्दर नहीं ; वह जगह बहुत घेरती है ; वह शाघ्रतापूर्वक लिखी नहीं जाती। उसमें अक्षरों की अनावश्यक अधिकता है । ह्रस्व-दीर्घ की, संयुक्ताक्षरो की, षत्व और णत्व की जटिलता के कारण वह और भी क्लिष्ट हो गई है। फल यह हुआ है कि छोटे छोटे बच्चों को उसे सीखने में बहुत कष्ट मिलता है; महीनों का काम वर्षों में होता है ; शिक्षा-सम्पादन में बहुत विघ्न आता है। यदि उसका बहिष्कार कर दिया जाय और
उसकी जगह रोमन लिपि को दे दी जाय हो सारी मुसीबतें हल हो जायें। इन उदारहृदयों और परदुःश्वकातरों की दलीलों की असारता एक नहीं अनेक बार खाल कर दिखाई जा चुकी है और इनकी प्रत्येक युक्ति का खण्डन किया जा चुका है। पर हम लोगों के ये अकारण-हिताकांक्षी फिर भी अपना राग आलापना बन्द नहीं करते । अब इनके इम आलाप को ध्वनि बङ्गाल की गवर्नमेंट के कानों तक भी पहुँची है और उसने इन्हें दाद देने का भी विचार किया है।

कुछ दिन हुए, कलकत्ता-गैजट में एक मन्तव्य प्रकाशित करके बङ्गाल की गवर्नमेंट ने बङ्गवालियों से पूछा है कि तुम्हारे सदोष वङ्गाक्षरों का बहिष्कार करके यदि प्रारम्भिक पाठशालाओं में रोमन अक्षरों का प्रचार कर दिया जाय तो तुम्हें कोई एतराज तो न होगा। इस पर वे लोग क्या कहेंगे या क्या‌ राय देंगे, इस बात को जाने दीजिए। विचार केवल इस बात का कीजिए कि वङ्गाक्षरों की उत्पत्ति देवनागरीही अक्षरों से है। जब उनपर रोमन-लिपि के आक्रमण का सूत्रपात हो‌ रहा है तब देवनागरी-लिपि भी कब तक अपनी और मना सकेगी और फ़ारसी-लिपि भी क्या उसके आक्रमण से बच सकेगी? इसीसे मेरा निवेदन है कि इन दोनों हो लिपियों को रोमन के आक्रमण से एक सा भय है।

इस चढ़ाई का समाचार सुन कर हमें सजग हा जाना चाहिए और भावी भय से अपनी जातीय लिपि को बचाने का उपाय यथाशक्ति करना चाहिए। सरकार तो एक हिसाब से
रोमन-लिपि को अपना थोड़ा बहुत आश्रय दे भी चुकी है। पर उसको खबर हम लोगों में से बहुतों को शायद न होगी। देशी फौजों के लिए क़वायद, परेड वगैरह की जो पुस्तके प्रकाशित होती हैं उनमेसे कुछ पुस्तके रोमन-लिपि में भी छपती हैं। अब यदि यह बात यहीं तक रहे तो भी ग़नीमत समझिए। अँगरेज़ी भाषा ने अपने देश की भाषाओं को बहुत कुछ दबा ही लिया है। यदि रोमन-लिपि हमारी लिपियों पर भी आक्रमण कर के प्रारम्भिक पाठशालाओं में पहुँच जायगी तो रोग असाध्य नहीं, तो कष्टसाध्य जरूर हो जायगा। भगवान् न करे कभी ऐसा दिन आवे ; पर यदि दुर्भाग्य से आ ही जाय तो हमारी और हमारी जातीयता की अपरिमेय हानि हो जायगी । अतएव हमें अभीसे सावधान हो जाना चाहिए और प्रतिकार का उद्योग करना चाहिए।


१८-उपसंहार।

हिन्दी की उन्नति के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। सच तो यह है कि उसके उन्नति-सम्बन्धी कार्य की सीमा ही नहीं ; वह तो निःसीम है। क्योंकि ऐसा समय कभी पाने ही का नहीं जब यह कहा जा सके कि हिन्दी-साहित्य उन्नति की चरम सीमा को पहुंच गया; और अधिक उन्नति के लिए अब जगह ही नहीं। बात यह है कि शान अनन्त है। उसकी पूर्णता को प्राप्त कर लेना क्षुद्र मनुष्य के बुद्धि-वैभव और पहुँच की मर्यादा के बाहर है।
तथापि मनुष्य श्रम,खाज, अनुभव, अध्ययन और चिन्तन के द्वारा ज्ञान का उपार्जन, दिन पर दिन, अधिकाधिक कर सकता है। संसार की समस्त भाषाओं में आज तक ज्ञान का जितना सञ्चय हुआ है वह इसी तरह धीरे धीरे हुआ है। यदि यह समस्त ज्ञान-राशि हिन्दी-भाषा के साहित्य में भर दी जाय तो भी भावी ज्ञानार्जन के सन्निवेश की आवश्यकता बनी ही रहेगी। इस दशा में, हिन्दीही के नहीं, किसी भी भाग के साहित्य की उन्नति का काम प्रलयपर्यन्त बराबर जारी रह सकता है। ज्ञानार्जन की इस अनन्त मर्यादा की ओर बढ़ने के बड़े बड़े काम बड़े बड़े ज्ञानियों, विज्ञानियों, ग्रन्थकारों और साहित्य-सेवियों को करने दीजिए। वह काम उन्हीं का है। पर साथ ही, परिमित विद्या, बुद्धि, योग्यता और शक्ति के आधार, साधारण जनों का भी तो कुछ कर्तव्य होना चाहिए । अपनी मातृ-भाषा का जो ऋण उनपर है उससे उद्धार होने के लिए उन्हें भी तो कुछ करना चाहिए ।

अच्छा, तो आइए, हम जैसे परिमित-शक्तिशाली जन यह प्रण करें कि आज से हम अपने कुटुम्बियों, अपने मित्रों और इतर ऐसे लोगों के साथ जो हिन्दी लिख-पढ़ सकते हैं, बिना विशेष कारण के, कभी किसी अन्य भाषा में पत्र-व्यवहार न करेंगे और बातचीत में कभी, बीच बीच, अँगरेज़ी भाषा के शब्दों का अकारण प्रयोग करके अपनी भाषा को न बिगाड़ेंगे-उसे वर्णसङ्करी, उसे दोगली, न बनायेंगे। कितने परिताप और कितनी लज्जा की बात है कि पिता अपने पुत्र

को, भाई अपने भाई को, चचा अपने भतीजे को और मित्र अपनेही देशवासी, अपनेही प्रान्तवासी, अपनेही नगरवासी मित्र को अपनी मातृभाषा में पत्र न लिख कर, किसी विदेशी भाषा में पत्र लिखे। ऐसा अस्वाभाविक दृश्य, इस अभागे भारत को छोड़ कर, धरातल पर क्या किसी और भी देश में देखा जाता है ? क्या कभी कोई जापानी अन्य जापानी को अंगरेज़ी भाषा में अथवा क्या कभी कोई अंगरेज़ किसी अन्य अंगरेज़ को रूसी, तुर्की या फ्रांस की भाषा में पत्र लिखकर अपने विचार प्रकट करता है ? अनुन्नत होने पर भी क्या अपनी हिन्दी-भाषा इतनी दरिद्र है कि सब प्रकार के साधारण विचार प्रकट करने के लिए उसमें यथेष्ट शब्दसामग्रीही नहीं? यदि यह बात नहीं तो फिर क्यों हम हिन्दी, उर्दू या हिन्दुस्तानी बोलते समय, बीच बोच में, अंगरेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग करें और क्यों घरेलू पत्रव्यवहार में भी उसी भाषा का मुंह ताके ? आफ़रीका के असभ्य हबशियों तक के समस्त जावन-व्यापार जब उन्हींकी नितान्त समृद्धिहीन बोलियों और भाषाओं से चल सकते हैं तब क्या हमारी भाषा उनसे भी अधिक कङ्गालिनी है जो हम उससे काम नहीं लेते ? यह और कुछ नहीं। यह केवल हमारे अज्ञान, हमारे अविवेक, हमारी अदूरदर्शिता का विजृम्भण है। यदि हममें आत्मगौरव की, यदि हममें स्वदेश-प्रेम की, यदि हममें मातृभाषामणि की यथेष्ट मात्रा विद्यमान होती तो ऐसे अस्वाभाविक व्यापार से हम सदा दूर रहते। यदि हम चाहते हों कि हमारा कल्याण

हो तो अब हमें अपनो इस बुरी आदत को एकदम ही छोड़ देना चाहिए।

मेरा यह कदापि मतलब नहीं कि आप विदेशी भाषायें न सीखिए । विदेशी भाषाओं के द्वारा अपने विचार न प्रकट कीजिए ; विदेशी भाषाओं में पत्र न लिखिए । अंगरेज़ीही नहीं, आप अरबी, फ़ारसी तुर्कीं, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक और हेब्रू आदि, ज़िन्दा या मुर्दा, जितनी भाषायें चाहे सीख कर उनमें निबद्ध शान-राशि का अर्जन कीजिए। जो लोग अपनी भाषा नहीं जानते उनसे, आवश्यकता पड़ने पर, उन्हीं की भाषा में बातचीत भी कीजिए और उन्हीं की भाषा में पत्र-व्यवहार भी। अपना रोब दिखाने और योग्यता या प्रभुता की धाक जमाने के लिए भी, यदि आपसे रहाही न जाय तो,क्षण भर, अँगरेज़ी या अन्य विदेशी भाषाओं में अपने मानसिक विचार प्रकट कीजिए। पर, परमेश्वर के लिए-अपने और अपने देश के हित के लिए.-बोलचाल में, अपनी भाषा के पावन क्षेत्र में, वर्ण-साङ्कर्य का अपावन बीज न बोइर और

अपने आत्मीयों आदि के साथ, अकारणही, विदेशी भाषाओं में पत्रव्यवहार न कीजिए। अपनी मातृभाषा के सम्बन्ध के इस इतने भी कर्तव्य का पालन यदि हम न करेंगे ते मुझे खेद के साथ यही कहना पड़ेगा कि उस अभागिनी की उन्नति की अभी विशेष आशा नहीं-अथवा मिस्टर माँटेगू और लार्ड हार्डिंग के द्वारा उद्धत की गई फ़ारसी की पुरानी मसल के अनुसार "हनोज़ देहली दूरस्त" ।

१६-अपनी व्यक्तिगत अन्तिम प्रार्थना ।

अब आप मुझे अपनी व्यक्तिगत अन्तिम प्रार्थना के लिए क्षमा प्रदान करें।

इस वक्तव्य के प्रारम्भ में मैं आपकी मानसिक पूजा कर चुका हूं। पूजान्त में साधक अपने इष्टदेव से कुछ माँगता भी है-वह अपनी अभिलषित वान्छा की पूर्ति के लिए कुछ प्रार्थना भी करता है। पूजा के इस अङ्ग का उल्लेख करना मैं वहां भूल गया हूं। उस भूल की मार्जना कर डालने की अनुमति, अब मैं अन्त में, आप से चाहता हूं। मुम अपुण्यकम्र्मा ने अपनी आयु के कोई ६० वर्ष अधिकतर तिल, तण्डुल, लवण और इन्धनही की चिन्ता में बिता दिये । अपनी मातृभाषा हिन्दी की उन्नति के लिए जो जो काम करने का सङ्कल्प मैंने किया था वे सब मैं नहीं कर सका। यह जन्म तो मेरा अब गया । आप उदारता और दयालुतापूर्वक मेरे लिए परमात्मा से अब यह प्रार्थना कर दीजिए कि जन्मान्तर ही में वह किसी तरह वे काम कर सकने का सामर्थ्य मुझे दे। वह मुझपर ऐसी कृपा करे कि मेरे हृदय में‌ मातृ-भाषा का आदर सदा बना ही न रहे, वह बढ़ता भी रहे,और जिस भाषा में मेरी माँ ने मुझे अम्मा और बप्पा कहना सिखाया था उसी में हरि-हर-स्मरण करते हुए-

प्राणाः प्रयान्तु मम नाथ तव प्रसादात्

मार्च १९२३