समर यात्रा/क़ानूनी कुमार
(मि० क़ानूनी कुमार, एम्० एल्० ए० अपने आफ़िस में समाचार-पत्रों,पत्रिकाओं, रिपोर्टों का एक ढेर लिये बैठे हैं, देश की चिन्ताओं से उनकी देह स्थूल हो गई है। सदैव देशोद्धार की फ़िक्र में पड़े रहते हैं। सामने पाक है। उसमें कई लड़के खेल रहे हैं, कुछ परदेशवाली स्त्रियाँ हैं, फ़ेंसिंग के सामने बहुत-से भिखमंगे बैठे हुए हैं, एक चायवाला एक वृक्ष के नीचे चाय बेच रहा है।)
क़ानूनी कुमार––(आप ही आप) देश की दशा कितनी ख़राब होती चली जाती है। गवर्नमेंट कुछ नहीं करती। बस, दावतें खाना और मौज उड़ाना उसका काम है। (पार्क की ओर देखकर) आह! यह कोमल कुमार सिगरेट पी रहे हैं। शोक, महाशोक कोई कुछ नहीं कहता, कोई कुछ नहीं कहता, कोई इसको रोकने को कोशिश नहीं करता। तम्बाकू कितनी ज़हरीली चीज़ है, बालकों को इससे कितनी हानि होती है, यह कोई नहीं जानता। (तम्बाकू की रिपोर्ट देखकर) ओफ़! रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जितने बालक अपराधी होते हैं, उनमें ७५ प्रति सैकड़ा सिगरेटबाज़ होते हैं। बड़ी भयंकर दशा है। हम क्या करें! लाख स्पीचें दो, कोई सुनता ही नहीं। इसको क़ानून से रोकना चाहिए, नहीं तो अनर्थ हो जायगा। (काग़ज़ पर नोट करता है) तंबाकू-बहिष्कार-बिल पेश करूँगा। कौंसिल खुलते ही यह बिल पेश कर देना चाहिए।
(एक क्षण के बाद फिर पार्क की ओर ताकता है, और परदेदार महिलाओं को घास पर बैठे देखकर लम्बी साँस लेता है।)
ग़ज़ब है, ग़ज़ब है, कितना घोर अन्याय! कितना पाशविक व्यवहार! यह कोमलांगी सुन्दरियाँ चादर में लिपटी हुई कितनी भद्दी, कितनी फूहड़ मालूम होती है, जभी तो देश का यह हाल हो रहा है। (रिपोर्ट देखकर) स्त्रियों की मृत्यु-संख्या बढ़ रही है। भीषण गति से बढ़ रही है। तपेदिक
उछलता चला आता है, प्रसूति की बीमारी आँधी की तरह चढ़ी आती है,और हम हैं कि आखें बन्द किये खड़े हैं। बहुत जल्द ऋषियों की यह भूमि, यह वीर-प्रसविनी जननी, रसातल को चली जायगी, इसका कहीं निशान भी न रहेगा। गवर्नमेन्ट को क्या फ़िक्र। लोग कितने पाषाण हो गये हैं। आँखों के सामने यह अत्याचार देखते हैं और ज़रा भी नहीं चौंकते। यह मृत्यु का शैथिल्य है। यहाँ भी कानून की ज़रूरत है। एक ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिससे कोई स्त्री परदे में न रह सके। अब समय आ गया है कि इस विषय में सरकार क़दम बढ़ावे। क़ानून की मदद के बग़ैर कोई सुधार नहीं हो सकता, और यहाँ क़ानूनी मदद की जितनी ज़रूरत है, उतनी और कहाँ हो सकती है। माताओं पर देश का भविष्य अवलम्बित है। परदा-इटाव-बिल पेश होना चाहिए। जानता हूँ बड़ा विरोध होगा; लेकिन गवर्नमेंट को साहस से काम लेना चाहिए, ऐसे नपुंसक विरोध के भय से उद्धार के कार्य में बाधा नहीं पड़नी चाहिए। (काग़ज पर नोट करता है) यह बिल भी असेंबली खुलते ही पेश कर देना होगा। बहुत
विलंब हो चुका, अब विलंब की गुंजाइश नहीं है, वरना मरीज़ का अंत हो जायगा।
(मसौदा बनाने लगता है-हेतु और उद्देश्य...)
( सहसा एक भिक्षुक सामने आकर पुकारता है-जय हो सरकार की,लक्ष्मी फूल-फूले,,..)
क़ानूनी-हट जाओ, यू सुअर, कोई काम क्यों नहीं करता ?
भिक्षुक-बड़ा धर्म होगा सरकार, मारे भूखों के आँखों तले अँधेरा...
क़ानूनी-चुप रहो सुअर, हट जाओ सामने से, अभी निकल जाओ,बहुत दूर निकल जाओ।
( मसौदा छोड़कर फिर आप ही आप)
यह ऋषियों की भूमि आज भिक्षुकों की भूमि हो रही है। जहाँ देखिए वहाँ खेड़-के-खेड़ और दल-के-दल भिखारी! यह गवर्नमेंट की लापरवाही की बरकत है। इगलैंड में कोई भिक्षुक भीख नहीं मांग सकता। पुलीस पकड़कर कालकोठरी में बंद कर दे। किसी सभ्य देश में इतने भिखमंगे
नहीं हैं। यह पराधीन, गुलाम भारत है, जहाँ ऐसी बातें इस बीसवीं सदी में भी संभव हैं। उफ़ ! कितना शक्ति का अपव्यय हो रहा है। (रिपोर्ट निकालकर ) ओह ! ५० लाख आदमी केवल भिक्षा मांगकर गुज़र करते हैं। और क्या ठीक है कि संख्या इनकी दुगुनी न हो। यह पेशा लिखना कौन पसंद करता है। एक करोड़ से कम भिखारी इस देश में नहीं हैं। यह तो उन भिखारियों की बात हुई, जो द्वार-द्वार झोली लिये घूमते हैं। इसके उपरान्त टीकाधारी, कोपीनधारी और जटाधारी समुदाय भी तो है, जिसकी
संख्या कम से कम दो करोड़ होगी। जिस देश में इतने हरामख़ोर मुफ्त का माल उड़ानेवाले, दूसरों की कमाई पर मोटे होने वाले प्राणी हों, उसकी दशा क्यों न इतनो हीन हो। आश्चर्य यही है कि अब तक यह देश ज़ीवित कैसे है ( नोट करता है ) एक बिल की सख्त ज़रूरत है, तुरंत पेश करना चाहिए-नाम हो'भिखमंगा-बहिष्कार-बिल !' खूब जूतियाँ चलेंगी, धर्म के सूत्रधार खूब-खूब नाचेंगे, खूप गालियां देंगे, गवर्नमेंट भी कन्नी काटेगी; मगर सुधार का मार्ग तो कंटकाकीर्ण है हो । तीनों बिल मेरे ही नाम से हों,
फिर देखिए कैसी खलबली मचती है।
(आवाज़ आती है-चाय गरम ! चाय गरम !! मगर ग्राहकों की संख्या बहुत कम है। कानूनी कुमार का ध्यान चायवाले की ओर आकर्षित हो जाता है)
कानूनी-(आप-ही-आप) चायवाले की दुकान पर एक भी ग्राहक
नहीं, क्या मूर्ख देश है! इतनी बलवर्धक वस्तु और ग्राहक कोई नहीं! सभ्य देशों में पानी की जगह चाय पो जाती है। (रिपोर्ट देखकर ) केवल इंगलैंड में ५ करोड़ पौंड की चाय जाती है । इंगलैंडवाले मूर्ख नहीं हैं। उनका आज संसार पर आधिपत्य है, इसमें चाय का कितना बड़ा भाग है, कौन इसका अनुमान कर सकता है। और, यहाँ बेचारा चायवाला खड़ा है, और कोई
उसके पास नहीं फटकता। चीनवाले चाय पी-पीकर स्वाधीन हो गये ; मगर हम चाय न पीयेंगे। क्या अक़ल है ! गवर्नमेंट का सारा दोष है। कीटों से भरे हुए दूध के लिए इतना शोर मचता है। मगर चाय को कोई नहीं पूछता, जो कीटों से ख़ाली,उत्तेजक और पुष्टिकारक है। सारे देश की मति
मारी गई है। ( नोट करता है ) गवर्नमेंट से प्रश्न करना चाहिए । असेंबली खुलते ही प्रश्नों का तांँता बांँध दूंँगा।
प्रश्न--क्या गवर्नमेंट बतायेगी कि गत पांँच सालों में भारतवर्ष में चाय की खपत कितनी बढ़ी है और उसका सर्वसाधारण में प्रचार करने के लिए गवर्नमेंट ने क्या कदम लिये हैं ?
(एक रमणी का प्रवेश---कटे हुए केश, आड़ी मांग, पारसी रेशमी साड़ी, कलाई पर घड़ी, आँखों पर ऐनक, पाँव में ऊँची एड़ी के लेडी शू, हाथ में एक बटुवा लटकाये हुए, साड़ी में ब्रूव है, गले में मोतियों का हार।)
क़ानूनी---( हाथ बढ़ाकर ) हल्लो मिसेज़ बोस ! आप खूब आई, कहिए-किधर की सैर हो रही है ? अबकी तो 'आलोक' में आपकी कविता बड़ी सुन्दर थी। मैं तो पढ़कर मस्त हो गया। इस नन्हे-से हृदय में इतने भाव कहाँ से आ जाते हैं ! मुझे आश्चर्य होता है। शब्द-विन्यास की तो आप रानी हैं। ऐसे-ऐसे चोट करनेवाले भाव आपको कैसे सूझ जाते हैं ?
मिसेज़ बोस---दिल जलता है, तो उसमें आप से आप धुएँ के बादल निकलते हैं। जब तक स्त्री-समाज पर पुरुषों का यह अत्याचार रहेगा, ऐसे भावों की कमी न रहेगी।
क़ानूनी---क्या इधर कोई नई बात हो गई ?
बोस---रोज़ ही होती रहती है। मेरे लिए डाक्टर बोस की याज्ञा नहीं कि किसी के घर मिलने जाओ, या कहों सैर करने जाओ। अबकी कैसी गरमी पड़ी है कि सारा रक्त जल गया ; पर मैं पहाड़ों पर न जा सकी। मुझसे यह अत्याचार, यह गुलामी नहीं सही जाती।
क़ानूनी---डाक्टर बोस खुद भी तो पहाड़ों पर नहीं गये।
बोस---वह न जायँ, उन्हें धन की हाय-हाय पड़ी है। मुझे क्यों अपने साथ जलाते हैं। वह अगर अभागे हैं, तो अपने भाग्य को रोयें, मुझे क्यों अपने साथ लिये मरते हैं ? वह क्लब जाना नहीं चाहते, उनका समय रुपए उगलता है, मुझे क्यों रोकते हैं। वह खद्दर पहनें, मुझे क्यों अपने पसन्द के कपड़े पहनने से रोकते हैं ? वह अपनो माता और भाइयों के गुलाम बने रहें, मुझे क्यों उनके साथ रो-रोकर दिन काटने पर मजबूर करते हैं ?
मुझसे यह बरदाश्त नहीं हो सकता। अमेरिका में एक कटु वचन कहने पर संबन्ध-विच्छेद हो जाता है। पुरुष ज़रा देर से घर आया और स्त्री ने तलाक दिया। वह स्वाधीनता का देश है, वहां लोगों के विचार स्वाधीन हैं। यह गुलामों का देश है, यहाँ हर एक बात में उसी गुलामी की छाप है। मैं अब डाक्टर बोस के साथ नहीं रह सकती। नाकों दम आ गया। इसका उत्तरदायित्व उन्हीं लोगों पर है, जो समाज के नेता और व्यवस्थापक बनते हैं।अगर आप चाहते हैं कि स्त्रियों को गुलाम बनाकर स्वाधीन हो जायँ, तो यह
अनहोनी बात है। जब तक तलाक़ का क़ानून न जारी होगा आपका स्वराज्य आकाश-कुसुम ही रहेगा। डाक्टर बोस को आप जानते हैं, धर्म में उनकी कितनी श्रद्धा है। ख़ब्त कहिए। मुझे धर्म के नाम से घृणा है। इसी जम ने स्त्री-जाति को पुरुष की दासी बना दिया है। मेरा बस चले, तो मैं सारे धर्म की पोथियों को उठाकर परनाले में फेंक दूंँ।
(मिसेज़ ऐयर का प्रवेश। गोरा रंग, ऊँचा कद, ऊँचा गाउन, गोल हाड़ी की-सी टोपी, आँखों पर ऐनक, चेहरे पर पाउडर, गालों और ओठों पर सुखें पेंट, रेशमो जुर्राबें और ऊँची एड़ी के जूते ।)
कानूनी---( हाथ बढ़ाकर ) हल्लो मिसेज़ ऐयर! आप खूब आई, कहिए किधर की सैर हो रही है ? 'आलोक' में अबको आपका लेख अत्यन्त सुन्दर था, मैं तो पढ़कर दंग रह गया।
मिसेज़ ऐयर---(मिसेज़ बोस की ओर मुसकिराकर ) दंग ही तो रह गये,या कुछ किया भी ? हम स्त्रियाँ अपना कलेजा निकालकर रख दें; लेकिन पुरुषों का दिल न पसीजेगा।
मिसेज़ बोस---सत्य ! बिलकुल सत्य ।
ऐयर---मगर इस पुरुष-राज का बहुत जल्द अन्त हुआ जाता है। स्त्रिया अब कैद में नहीं रह सकती। मि० ऐयर की सूरत मैं नहीं देखना चाहती।
(मिसेज़ बोस मुँह फेर लेती हैं )
क़ानूनी ( मुसकिराकर) मि० ऐयर तो खूबसूरत आदमी हैं।
लेडी ऐयर---उनकी सूरत उन्हें मुबारक रहे। मैं खूबसूरत पराधीनता
चाहती, बद-सूरत स्वाधीनता चाहती हूँ। वह मुझे अबकी ज़बरदस्ती पहाड़ पर ले गये। वहाँ की शीत मुझसे नहीं सही जाती, कितना कहा कि मुझे मत ले जाओ मगर किसी तरह न माने । मैं किसी के पीछे-पीछे कुतिया की तरह नहीं चलना चाहती।
(मिसेज़ बोस उठकर खिड़की के पास चली जाती हैं।)
कानूनी-अब मुझे मालूम हो गया कि तलाक का बिल असेम्बली में पेश करना पड़ेगा।
ऐयर-खैर, आपको मालूम तो हुआ । मगर शायद कयामत में? कानूनी-नहीं मिसेज़ ऐयर, अबकी छुट्टियों के बाद ही यह बिल पेश होगा और धूम-धाम के साथ पेश होगा। बेशक पुरुषों का अत्याचार बढ़ रहा है। जिस प्रथा का विरोध आप दोनों महिलाएँ कर रही हों, वह अवश्य हिन्दू समाज के लिए घातक है ; अगर हमें सभ्य बनना है तो सभ्य देशों के पदचिन्हों पर चलना पड़ेगा। धर्म के ठीकेदार चिल्ल-पों मचायेंगे, कोई परवाह नहीं। उनकी ख़बर लेना आप दोनों महिलाओं का काम होगा। ऐसा बनाना कि मुंह न दिखा सकें।
लेडी ऐयर–पेशगी धन्यवाद देती हूँ। ( हाथ मिलाकर चली जाती है।)
मिसेज़ बोस-(खिड़की के पास आकर ) आज इसके घर में घी का चिराग जलेगा। यहां से सीधे बोस के पास गई होगी। मैं भी जाती हूँ।
(चली जाती है)
(कानूनी कुमार एक कानून की किताब उठाकर उसमें तलाक की व्यवस्था देखने लगता है कि मि० आचार्या आते हैं। मुँह साफ, एक आँख पर ऐनक,खाकी आधा बाँह का शर्ट, निकर, ऊनी मोजे, लंबे बूट। पीछे एक छोटा टेरियर कुत्ता भी है।)
कानूनी-हल्लो मि० आचार्या, आप खूब आये, आज किधर की सैर हो रही है ? होटल का क्या हाल है ?
आचार्या-कुत्ते की मौत मर रहा है। इतना बढ़िया भोजन, इतना
साफ़-सुथरा मकान, ऐसी रोशनी, इतना आराम, फिर भी मेहमानों का< br>
दुर्भिक्ष। समझ में नहीं आता, अब कितना निर्ख घटाऊँ। इन दामों अलग घर में मोटा खाना भी नसीब नहीं हो सकता। उसपर सारे जमाने की झंझट,कभी नौकर का रोना, कभी दूधवाले का रोना, कभी धोबी का रोना, कभी मेहतर का रोना। यहाँ सारे जंजाल से मुक्ति हो जाती है ; फिर भी आधे कमरे खाली पड़े हैं।
क़ानूनी -- यह तो आपने बुरी खबर सुनाई ।
आचार्या-पच्छिम में क्यों इतना सुख और शान्ति है, क्यों इतना प्रकाश और धन है, क्यों इतनी स्वाधीनता और बल है ! इन्हीं होटलों के प्रसाद से। होटल पच्छिमी गौरव का मुख्य अंग है, पच्छिमी सभ्यता का प्राण है। अगर आप भारत को उन्नति के शिखर पर देखना चाहते हैं, तो होटल-जीवन का प्रचार कीजिए। इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है। जब तक छोटी-छोटी घरेलू चिन्ताओं से मुक्त न हो जायेंगे, आप उन्नति कर ही नहीं सकते । राजों, रईसों को अलग घरों में रहने दीजिए, वह एक की जगह दस ख़र्च कर सकते हैं। मध्यम श्रेणीवालों के लिए होटल के प्रचार में ही सब कुछ है। हम अपने सारे मेहमानों की फिक्र अपने सिर पर लेने को तैयार हैं, फिर भी जनता की आँखे नहीं खुलतीं। इन मूखों की आँखें उस वक्त तक न खुलेगी, जब तक कानून न बन जायगा।
क़ानूनी-(गंभीर भाव से ) हाँ, मैं भी सोच रहा हूँ। जरूर कानून से मदद लेनी चाहिए। एक ऐसा कानून बन जाय कि जिन लोगों की आय ५०) से कम हो, वह होटलों में रहें। क्यों ? आचार्या-आप अगर यह कानून बनवा दें, तो आनेवाली संतान आप को अपना मुक्तिदाता समझेगी। आप एक कदम में देश को ५०० वर्ष की मंज़िल तय करा देंगे।
क़ानूनी-तो लो, अबकी यह कानून भी असेंबली खुलते ही पेश कर दूँगा। बड़ा शोर मचेगा। लोग देश-द्रोही और जाने क्या-क्या कहेंगे : पर इसके लिए तैयार हूँ। कितना दुःख होता है, जब लोगों को अहीर के द्वार पर लुटिया लिये खड़ा देखता हूँ। स्त्रियों का जीवन तो नरक-तुल्य हो रहा है। सुबह से दस-बारह बजे रात तक घर के धन्धों से फुरसत नहीं। कभी
बरतन मांजो, कभी भोजन बनाओ, कभी झाडू लगाओ ! फिर स्वास्थ्य कैसे बने, जीवन कैसे सुखी हो, सैर कैसे करें। जीवन के आमोद-प्रमोद का आनन्द कैसे उठायें। अध्ययन कैसे करें। आपने खूब कहा, एक कदम में ५०० सालों की मंजिल पूरी हुई जाती है।
आचार्या-तो अबकी बिल पेश कर दीजिएगा ?
(आचार्या हाथ मिलाकर चला जाता है।)
क़ानूनी कुमार खिड़की के सामने खड़ा होकर 'होटल-प्रचार बिल' का मसविदा सोच रहा है। सहसा पार्क में एक स्त्री सामने से गुजरती है। उसकी गोद में एक बच्चा है, दो बच्चे पीछे-पीछे चल रहे हैं और उदर के उभार से मालूम होता है कि स्त्री गर्भवती भी है। उसका कृश शरीर, पीला मुख और मन्दगति देखकर अनुमान होता है कि उसका स्वास्थ्य बिगड़ा हुआ है,और इस भार का वहन करना उसे कष्टप्रद है।
क़ानूनी कुमार-(आप ही आप) इस समाज का, इस देश का और इस जीवन का सत्यानाश हो, जहाँ रमणियों को केवल बच्चा जनने की मशीन समझा जाता है। इस बेचारी को जीवन का क्या सुख !कितनी ही ऐसी बहनें इसी जंजाल में फँसकर ३०-३५ की अवस्था में, जब कि वास्तव में जीवन को सुखी होना चाहिए, रुग्ण होकर संसारयात्रा समाप्त कर देती हैं। हा भारत ! यह विपत्ति तेरे सर से कब टलेगी! संसार में ऐसे-ऐसे पाषाण-हृदय मनुष्य पड़े हुए हैं, जिन्हें इन दुखियारियों पर ज़रा भी दया नहीं पाती। ऐसे अन्धे, ऐसे पाषाण, ऐसे पाखण्डी समाज को, जो स्त्री को अपनी वासनाओं की वेदी पर बलिदान करता है, कानून के सिवा और किस विधि से सचेत किया जाय। और कोई उपाय नहीं है। नर-हत्या का जो दण्ड है, वही दण्ड ऐसे मनुष्यों को मिलना चाहिए। मुबारक होगा वह दिन, जब भारत में इस नाशिनी प्रथा का अन्त हो जायगा-स्त्री का मरण, बच्चों का मरण, और जिस समाज का जीवन ऐसी सन्तानों पर आधारित हो उसका मरण ! ऐसे बदमाशों को क्यों न दण्ड दिया जाय। कितने अन्धे लोग हैं । बेकारी का यह हाल कि आधी जन-संख्या मक्खियाँ मार रही है, आमदनी का यह हाल कि भरपेट किसी को रोटियां नहीं मिलतीं, बच्चों को दूध स्वप्न
में भी नहीं मिलता और यह अन्धे हैं कि बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाते हैं। संतान-निग्रह-बिल' की इस समय देश को जितनी ज़रूरत है उतनी और किसी कानून की नहीं। असेंबली खुलते ही यह बिल पेश करूँगा। प्रलय हो जायगा, यह जानता हूँ। पर और उपाय ही क्या है। दो बच्चे से ज्यादा जिसके हों उसे कम से कम पांच वष की कैद, उसमें पांच महीने से कम
काल-कोठरी न हो। जिसकी आमदनी १००) से कम हो उसे संतानोत्पत्ति का अधिकार ही न हो। ( मन में उस बिल के बाद की अवस्था का आनन्द लेकर ) कितना सुखमय जीवन हो जायगा ! हाँ, एक दफा यह भी रहे कि एक सन्तान के बाद कम से कम ७ वर्ष तक दूसरी सन्तान न आने पाये। तब इस देश में सुख और सन्तोष का साम्राज्य होगा, तब स्त्रियों और बच्चों
के मुंह पर खून की सुखी नज़र आयेगी, तब मज़बूत हाथ-पांव और मज़बूत दिल-जिगर के पुरुष उत्पन्न होंगे।
(मिसेज़ क़ानूनी कुमार का प्रवेश)
कानूनी कुमार जल्दी से रिपोर्टो और पत्रों को समेट देता है और एक उपन्यास खोलकर बैठ जाता है।
मिसेज़ -- क्या कर रहे हो? वही धुन !
क़ानूनी -- एक उपन्यास पढ़ रहा हूँ।
मिसेज़-तुम सारी दुनिया के लिए कानून बनाते हो, एक कानन मेरे लिए भी बना दो, इससे देश का जितना बड़ा उपकार होगा, उतना और किसी कानून से न होगा; तुम्हारा नाम अमर हो जायगा और घर-घर तुम्हारी पूजा होगी।
कानूनी-अगर तुम्हारा ख़याल है कि मैं नाम और यश के लिए देश की सेवा कर रहा हूँ; तो मुझे यही कहना पड़ेगा कि तुमने मुझे रत्ती भर भी नहीं समझा।
मिसेज़-नाम के लिए काम करना कोई बुरा काम नहीं है और तुम्हें
यश की श्राकांक्षा हो, तो मैं उसकी निन्दा न करूँगी! भूलकर भी नहीं। मैं तुम्हें एक ही ऐसी तदबीर बता दूंगी, जिससे तुम्हें इतना यश मिलेगा कि
तुम ऊब जाओंगे। फूलों की इतनी वर्षा होगी कि तुम उसके नीचे दब जाओंगे ! गले में इतने हार पड़ेंगे कि तुम गरदन सीधी न कर सकोगे।.
कानूनी-(उत्सुकता को छिपाकर ) कोई मज़ाक की बात होगी। देखो मिन्नी, काम करनेवाले आदमी के लिए इससे बड़ी दूसरी बाधा नहीं है कि घरवाले उसके काम की निन्दा करते हों। मैं तुम्हारे इस व्यवहार से निराश हो जाता हूँ।
मिसेज़-तलाक का कानून तो बनाने जा रहे हो, अब क्या डर है।
कानूनी-फिर वही मज़ाक। मैं चाहता हूँ, तुम इन प्रश्नों पर गम्मीर विचार करो
मिसेज़---मैं बहुत गम्भीर विचार करती हूँ। सच मानो । मुझे इसका दुःख है कि तुम मेरे भावों को नहीं समझते। मैं इस वक्त तुमसे जो बात कहने जा रही हूँ, उसे मैं देश की उन्नति के लिए आवश्यक ही नहीं, पर आवश्यक समझती हूँ। मुझे इसका पक्का विश्वास है।
कानूनी-पूछने की हिम्मत तो नहीं पड़ती (अपनी झेप मिटाने के लिए हँसता है।)
मिसेज़ -- मैं तो खुद ही कहने आई हूँ। हमारा वैवाहिक जीवन कितना लजास्पद है, तुम खूब जानते हो। रात-दिन रगड़ा-झगड़ा मचा रहता है। कहीं पुरुष स्त्री पर हाथ साफ करता है, कहीं स्त्री पुरुष की मूछों के बाल नोचतो है। हमेशा एक-न-एक गुल खिला ही करता है। कहीं एक मुँह फुलाये बैठा है, कहीं दूसरा घर छोड़कर भाग जाने की धमकी दे रहा है। कारण जानते हो क्या है ? कभी सोचा है ? पुरुषों की रसिकता और कृपणता ! यही दोनों ऐब मनुष्यों के जीवन को नरक तुल्य बनाये हुए हैं। जिधर देखो अशान्ति है, विद्रोह है, बाधा है। साल में लाखों हत्याएँ इन्हीं बुराइयों के कारण हो जाती हैं, लाखों स्त्रियाँ पतित हो जाती हैं, पुरुष मद्यसेवन करने लगते हैं । बोलो, यह बात है या नहीं?
क़ानूनी -- बहुत-सी बुराइयां ऐसी हैं जिन्हें कानून नहीं रोक सकता।
मिसेज़ --(कहकहा मारकर ) अच्छा, क्या आप भी कानून की अक्षमता
स्वीकार करते हैं ? मैं यह न समझती थी। मैं तो क़ानून को ईश्वर से ज्यादा
'सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् समझती हूँ।
क़ानूनी--फिर तुमने मज़ाक शुरू किया।
मिसेज़--अच्छा लो कान पकड़ती हूँ। अब न हँतूंगी। मैंने उन बुरा- इयों को रोकने का एक नमूना सोचा है। उसका नाम होगा 'दम्पति-सुख- शान्ति-बिल' उसकी दो मुख्य धाराएं होंगी। और कानूनी बारीकियां तुम ठीक कर लेना। एक धारा होगी कि पुरुष अपनी श्रामदनी का आधा बिना कान-पूंछ हिलाये स्त्री को दे दे। अगर न दे, तो पांच साल कठिन कारा- वास और पांच महीने काल कोठरी। दूसरी धारा होगी पन्द्रह से पचास वर्ष तक के पुरुष घर के बाहर न निकलने पायें। अगर कोई निकले, तो दस साल कारावास और दस महीने काल कोठरी। बोलो मंजूर है ?
क़ानूनी--( गंभीर होकर ) असंभव ! तुम प्रकृति को पलट देना चाहती हो। कोई पुरुष घर में कैदी बनकर रहना स्वीकार न करेगा।
मिसेज़--वह करेगा और उसका बाप करेगा। पुलीस डंडे के ज़ोर से करायेगी। न करेगा तो चक्की पीसनी पड़ेगी। करेगा कैसे नहीं ? अपनी स्त्री को घर की मुर्गी समझना और दूसरी स्त्रियों के पीछे दौड़ना क्या खालाजी का घर है ? तुम अभी इस कानून को अस्वाभाविक समझते हो । मत घब- राओ। स्त्रियों का अधिकार होने दो। यह पहला कानन न बन जाये, तो कहना कोई कहता था। स्त्री एक-एक पैसे के लिए तरसे, और आप गुल- कर उड़ाये ! दिल्लगी है ! श्राधी आमदनी स्त्री को देनी पड़ेगी जिसका उससे कोई हिसाब न पूछा जा सकेगा।
क़ानूनी -- तुम मानव-समाज को मिट्टी का खिलौना समझती हो।
मिसेज -- कदापि नहीं। मैं यही समझती हूँ कि कानून सब कुछ कर सकता है। मनुष्य का स्वभाव भी बदल सकता है।
क़ानूनी -- कानून यह नहीं कर सकता।
मिसेज़ कर सकता है।
क़ानूनी नहीं कर सकता।
मिसेज़-कर सकता है। अगर वह ज़बरदस्ती लड़कों को स्कूल
भेज सकता है, अगर वह ज़बरदस्ती विवाह की उम्र नियत कर सकता है, अगर वह ज़बरदस्ती बच्चों को टीका लगवा सकता है, तो वह ज़बरदस्ती पुरुष को घर में बन्द भी कर सकता है, उनकी आमदनी का आधा स्त्रियों को दिला भी सकता है। तुम कहोगे पुरुष, को कष्ट होगा। ज़बरदस्ती जो काम कराया जाता है, उसमें करनेवाले को कष्ट होता है। तुम उस कष्ट का अनुभव नहीं करते ; इसी लिए वह तुम्हें नहीं अखरता। मैं यह नहीं कहती कि सुधार ज़रूरी नहीं है। मैं भी शिक्षा का प्रचार चाहता हूँ, मैं भी बाल-विवाह बंद करना चाहती हूँ, मैं भी चाहती हूँ, बीमारियां न फैलें; लेकिन कानून बनाकर दस्ती यह सुधार नहीं करना चाहती। लोगों में शिक्षा और जागृति फैलाओ, जिसमें क़ानूनी भय के बगैर यह सुधार हो जाय। आपसे कुरसी तो छोड़ी जाती नहीं, घर से निकला जाता नहीं, शहरों की विलासिता को एक दिन के लिए भी नहीं त्याग सकते और सुधार
करने चले हैं श्राप देश का। इस तरह सुधार न होगा, हाँ, पराधीनता की बेड़ी और कठोर हो जायगी।
(मिसेज़ कुमार चली जाती हैं और क़ानूनी कुमार अव्यवस्थित- चित्त-सा कमरे में टहलने लगता है ।)