समर-यात्रा
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ ५ से – १६ तक

 

जेल


मृदुला मैजिस्ट्रेट के इजलास से जनाने जेल में वापस आई, तो उसका मुख प्रसन्न था। बरी हो जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनैतिक कैदियों के एक गिरोह ने घेर लिया और पूछने लगीं, कितने दिन की हुई ?

मृदुला ने विजय-गर्व से कहा-मैंने तो साफ़-साफ़ कह दिया, मैंने धरना नहीं दिया। यों आप जबर्दस्त हैं, जो फैसला चाहें, करें । न मैंने किसी को रोका, न पकड़ा, न धक्का दिया, न किसी से आरजू-भिन्नत ही की। कोई मेरे सामने आया ही नहीं। हाँ, मैं दूकान पर खड़ी ज़रूर थी।वहाँ कई वालंटियर गिरफ़्तार हो गये थे। जनता जमा हो गई थी। मैं भी खड़ी हो गई। बस, थानेदार ने आकर मुझे पकड़ लिया।

क्षमादेवी कुछ कानून जानती थीं। बोलीं-मैजिस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फैसला करेगा। मैं ऐसे कितने ही मुक़दमे देख चुकी।

मृदुला ने प्रतिवाद किया-पुलिसवालों को मैंने ऐसा रगड़ा कि वह भी याद करेंगे। मैं मुक़दमे की कारवाई में भाग न लेना चाहती थी, लेकिन जब मैंने उनके गवाहों को सरासर झूठ बोलते देखा, तो मुझसे जब्त न हो सका। मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोड़ा-सा कानून जानती हूँ! पुलिस ने समझा होगा, यह कुछ बोलेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेगे देंगे। जब मैंने जिरह शुरू की,तो सब बंगले झांकने लगे। मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया । उस समय जाने कैसे मुझे चोट सूझती गई। मैजिस्ट्रेट ने थानेदार को दो-तीन बार फटकार भी बताई। वह मेरे प्रश्नों का ऊल-जलूल जवाब देता था, तो मैजिस्ट्रेट बोल उठता था-वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो, फ़जूल की बातें क्यों करते हो। तब मियाँजी का मुँह ज़रा-सा निकल आता था। मैंने सबों का मुँह बन्द कर दिया। अभी साहब ने फैसला तो
नहीं सुनाया; लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी। मैं जेल से नहीं डरती; लेकिन बेवकूफ़ भी नहीं बनना चाहती। वहाँ हमारे मंत्रीजी भी थे और बहुत-सी बहनें थीं। सब यही कहती थीं, तुम छूट जाओगी।

महिलाएँ उसे द्वेषभरी आँखों से देखती हुई चली गईं। उनमें किसी की मियाद साल भर की थी, किसी की छः मास की। उन्होंने अदालत के सामने ज़बान ही न खोली थी। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था। मृदुला पुलीस से जिरह करके उनकी नज़रों में गिर गई थी। सज़ा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षमा हो सकता था; लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित्त ही न था।

दूर जाकर एक देवी ने कहा—इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं।

दूसरी महिला बोली—यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर है। गई तो थीं धरना देने, नहीं दूकान पर जाने का काम ही क्या था। वालेंटियर गिरफ्तार हुए थे, आपकी बला से। आप वहाँ क्यों गईं; मगर अब कहती हैं, मैं धरना देने गई ही नहीं। यह तो क्षमा माँगना हुआ, साफ़!

तीसरी देवी मुँह बनाकर बोलीं—जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। उस वक़्त तो वाह-वाह लूटने के लिए आ गईं, अब रोना आ रहा है। ऐसी स्त्रियों को तो राष्ट्रीय कामों के नगीच ही न आना चाहिए। आन्दोलन को बदनाम करने से क्या फ़ायदा।

केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल भर की सज़ा पाई थी। दूसरे ज़िले से एक महीना हुआ यहाँ आई थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाक़ी थे। यहाँ की पन्द्रह कैदियों में किसी से उनका दिल न मिलता था। ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव-सिंगार की चीज़ों के लिए लेडीवार्डरों की ख़ुशामदें करना, घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना उसे पसन्द न था। वही कुत्सा और कनफुसकियाँ जेल के भीतर भी थीं। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल क़ैदी में होना चाहिए, किसी में भी न था। क्षमा उन सबों
से दूर रहती थी। उसके जाति-प्रेम का वारापार न था। इस रंग में पगी हुई थी; पर अन्य देवियां उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थीं। मृदुला को हिरासत में आये आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे विशेष स्नेह हो गया था। मदुला में वह संकीर्णता और ईर्ष्या न थी, न निन्दा करने की आदत, न शृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। उसके हृदय में करुणा थी, सेवा का भाव था, देश का अनुराग था। क्षमा ने सोचा था, इसके साथ छः महीने आनन्द से कट जायँगे ; लेकिन दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा हुआ था। कल मृदुला यहाँ से चली जायगी। वह फिर अकेली हो जायगी। यहाँ ऐसा कौन है, जिसके साथ धड़ी भर बैठकर अपना दुःख-दर्द सुनायेगी, देश-चर्चा करेगी ; यहाँ तो सभी के मिजाज़ आसमान पर हैं।

मृदुला ने पूछा-तुम्हें तो अभी आठ महीने बाक़ी हैं, बहन !

क्षमा ने हसरत के साथ कहा-किसी न किसी तरह कट ही जायँगे। बहन; पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी। इसी एक सप्ताह के अन्दर तुमने मुझ पर न जाने क्या जादू कर दिया। जब से तुम आई हो, मुझे जेल; जेल न मालूम होता था। कभी-कभी मिलती रहना।

मृदुला ने देखा, क्षमा की आँखें डबडबाई हुई थीं। ढारस देती हुई बोली-ज़रूर मिलूँगी दीदी ! मुझसे तो ख़ुद न रहा जायगा। भान को भी लाऊँगी। कहूँगी-चल तेरी मौसी आई है, तुझे बुला रही है। दौड़ा हुआ आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहाँ किसी की याद थी, तो भान की। बेचारा रोया करता होगा। मुझे देखकर रूठ जायगा। तुम कहाँ चली गई। मुझे छोड़कर क्यों चली गई ? जाओ मैं तुमसे नहीं बोलता। तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन ! छन-भर निचला नहीं बैठता, सबेरे उठते ही गाता है-'भन्ना ऊँता लये अमाला','छोलाज का मंदिल देल में है।' जब एक झंडी कंधे पर रखकर कहता है-'ताली-छलाबं पीना हलाम है।' तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता है-तुम गुलाम हो। वह एक अंग्रेजी कम्पनी में हैं। बार-बार इस्तीफ़ा देने का विचार करके रह जाते हैं; लेकिन गुज़र-बसर के लिए कोई उद्यम

करना ही पड़ेगा। कैसे छोड़ें। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है; लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ, बेचारे कैसे दफ्तर जाते होंगे, कैसे भान को सँभालते होंगे। सासजी के पास तो रहता ही नहीं। वह बेचारी बूढी, उसके साथ कहाँ-कहाँ दौड़ें ! चाहती हैं कि मेरी गोद में दबककर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेंगी, बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आईं। कल अदालत में बाबूजी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा हैं। तीन दिन तक तो दाना-पानी छोड़े रहीं। इस छोकरी ने कुल-मरजाद डुबादी, ख़ानदान में दाग लगा दिया, कलमुँही, कुलच्छनी न जाने क्या-क्या बकती रहीं। मैं तो उनकी बातों को बुरा नहीं मानती। पुराने ज़माने की हैं। उन्हें कोई चाहे कि पाकर हम लोगों में मिल जाय, तो यह उसका अन्याय है। चलकर मनाना पड़ेगा। बड़ी मिन्नतों से मानेगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्मण खायेगे। बिरादरी जमा होगी। जेल का प्रायश्चित्त तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो-चार दिन रहकर तब जाना बदन ! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी।

क्षमा आनंद के इन प्रसंगों से वंचित है। वह विधवा है, अकेली है।जलियानवाला बाग़ में उसका सर्वस्व लुट चुका है, पति और पुत्र दोनों ही की आहुति दी जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं, जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणी-मात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति-सेवा में धैर्य और शान्ति खोज रहा है। जिन कारणों ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी, उन कारणों का अंत करने-उनको मिटाने-में वह जी-जान से लगी हुई थी। बड़े से बड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था। औरों के लिए जाति-सेवा सभ्यता का एक संस्कार हो, या यशो-पाजन का एक साधन; क्षमा के लिए तो यह तपस्या थी, और वह नारीत्व की सारी शक्ति और श्रद्धा की साधना मे लगी हुई थी; लेकिन आकाश में उड़ने वाले पक्षी को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है । क्षमा के लिए

वह श्राश्रय कहाँ था ? यही वह अवसर थे, जब क्षमा भी प्रात्म-समवेदना के लिए श्राकुल हो जाती थी। यहाँ मृदुला को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी ; पर यह छाँह भी इतनी जल्द हट गई !

क्षमा ने व्यथित कंठ से कहा-यहाँ से जाकर भूल जाओगी मृदुला !तुम्हारे लिए तो यह रेलगाड़ी का परिचय और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी कहीं भेंट हो जायगी, तो या तो पहचानोगी ही नहीं, या ज़रा मुसकिराकर नमस्ते करती हुई अपनी राह चली जाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टो ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योंकर रोये। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ नहीं थी, मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थीं। मगर अपने प्रियजनों में बैठकर कभी-कभी इस अभागिनी को ज़रूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी भर घाटा ही बहुत है।

दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुला बरी हो गई। संध्या समय वह सब बहनों से गले मिलकर, रोकर-रुलाकर, चली गई, मानो मैके से विदा हुई हो।

( २ )

तीन महीने बीत गये ; पर मदुला एक बार भी न आई। और कैदियों से मिलनेवाले आते रहते थे, किसी-किसी के घर से खाने-पीने की चीज़ और सौगातें आ जाती थीं, लेकिन क्षमा का पूछनेवाला कौन बैठा था ? हर महीने के अंतिम रविवार को वह प्रातःकाल से ही मृदुला की बाट जोहने लगती। जब मुलाकात का समय निकल जाता, तो ज़रा देर रोकर मन को समझा लेती; जमाने का यही दस्तूर है !

एक दिन शाम को क्षमा संध्या करके उठी थी कि देखा, मदुला सामने चली आ रही है। न वह रूप-रंग है न वह कांति। दौड़कर उसके गले से लिपट गई और रोती हुई बोली-यह तेरी क्या दशा है मृदुला ! सूरत ही बदल गई। क्या बीमार है क्या ?

मदुला की आँखों से आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी। बोली-बीमार तो नहीं हूँ बहन ! विपत्ति से बिंधी हुई हूँ। तुम मुझे ख़ ब कोस रही होगी।
उन सारी निठुराइयों का प्रायश्चित्त करने आई हूँ। और सब चिन्ताओं से मुक्त होकर आई हूँ।

क्षमा काँप उठी। अंतस्तल की गहराइयों से एक लहर-सी उठती हुई जान पड़ी, जिसमें उसका अपना अतीत जीवन टूटी हुई नौकाओं की भांति उतराता हुआ दिखाई दिया। रूँधे हुए कण्ठ से बोली -- कुशल तो है बहन, इतनी जल्द तुम यहाँ फिर क्यों आ गई ? अभी तो तीन महीने भी नहीं हुए।

मृदुला मुसकिराई; पर उसकी मुसकिराहट में रुदन छिपा हुआ था। फिर बोली -- अब सब कुशल है बहन, सदा के लिए कुशल है। कोई चिन्ता ही नहीं रही। अब यहाँ जीवन-पर्यत रहने को तैयार हूँ। तुम्हारे स्नेह और कृपा का मूल्य अब समझ रही हूँ।

उसने एक ठंढी साँस ली और सजल नेत्रों से बोली -- तुम्हें बाहर की खबरें क्या मिली होंगी। परसों शहर में गोलियाँ चलीं। देहातों में आजकल संगीनों की नोक से लगान वसूल किया जा रहा है। किसानों के पास रुपए हैं नहीं, दें तो कहाँ से दें। अनाज का भाव दिन-दिन गिरता जाता है। पौने दो रुपए में मन भर गेहूँ आता है। मेरी उम्र ही अभी क्या है, अम्माजी भी कहती हैं कि अनाज इतना सस्ता कभी नहीं था। खेत की उपज से बीजों तक के दाम नहीं आते। मेहनत और सिंचाई इसके ऊपर। ग़रीब किसान लगान कहाँ से दें। उस पर सरकार का हुक्म है कि लगान कड़ाई के साथ वसूल किया जाय। किसान इस पर भी राज़ी हैं कि हमारी जमा-जत्था नीलाम कर लो, घर कुक कर लो, अपनी ज़मीन ले लो; मगर यहाँ तो अधिकारियों को अपनी कारगुज़ारी दिखाने की फ़िक्र पड़ी हुई है। वह चाहे प्रजा को चक्की में पीस ही क्यों न डालें, सरकार उन्हें मना न करेगी। मैंने सुना है कि वह उलटे और शह देती है। सरकार को तो अपने कर से मतलब है। प्रजा मरे या जिये, उससे कोई प्रयोजन नहीं। अकसर ज़मींदारों ने तो लगान वसूल करने से इन्कार कर दिया है। अब पुलीस उनकी मदद पर भेजी गई है। भैरोगंज का सारा इलाका लूटा जा रहा है। मरता क्या न करता, किसान भी घर-बार छोड़-छोड़कर भागे जा रहे हैं। एक किसान के घर में घुसकर कई कांसटेबलों ने उसे पीटना शुरू किया। बेचारा बैठा मार खाता रहा। उसकी

स्त्री से न रहा गया। शामत की मारी कांसटेबलों को कुवचन कहने लगी। बस, एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया। क्या कहूँ बहन, कहते शर्म आती है। हमारे ही भाई इतनी निर्दयता करें, इससे ज्यादा दुःख और लज्जा की और क्या बात होगी ? अब किसान से ज़ब्त न हुआ। कभी पेट भर गरीबों को खाने को तो मिलता नहीं, इस पर इतना कठोर परिश्रम ! न देह में बल है, न दिल में हिम्मत, पर मनुष्य का हृदय ही तो ठहरा। बेचारा बेदम पड़ा हुआ था। स्त्री का चिल्लाना सुनकर उठ बैठा और उस दुष्ट सिपाही को धक्का देकर ज़मीन पर गिरा दिया। फिर दोनों में कुश्तम-कुश्ती होने लगी। एक किसान किसी पुलीस के आदमी के साथ इतनी बेअदब करे, इसे भला वह कहीं बरदाश्त कर सकती है। सब कांसटेबलों ने ग़रीब को इतना मारा कि वह मर गया।

क्षमा ने कहा -- गाँव के और लोग तमाशा देखते रहे होंगे ?

मृदुला तीव्र कंठ से बोली -- वहन, प्रजा की तो हर तरह से मरन है। अगर दस-बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलीस कहती, हमसे लड़ने आये हैं। डण्डे चलाने शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता, तो गोलियाँ चला देती। दस-बीस आदमी भुन जाते। इसी लिए लोग जमा नहीं होते ; लेकिन जब वह किसान मर गया, तो गाँव-वालों को तैश आ गया। लाठियाँ ले-लेकर दौड़ पड़े और कांसटेबलों को घेर लिया। संभव है, दो-चार आदमियों ने लाठियाँ चलाई भी हों। कांसटेबलों ने गोलियां चलानी शुरू की। दो-तीन सिपाहियों के हलकी चोटें आई। उसके बदले में बारह आदमियों की जान ले ली गई और कितनों ही के अंगभंग कर दिये गये। इन छोटे-छोटे आदमियों को इसी लिए तो इतने अधिकार दिये गये हैं कि वे उनका दुरुपयोग करें। आधे गाँव का क़त्लेआम करके पुलिस विजय के नगाड़े बजाती हई लौट गई। गाँववालों की फ़रियाद कौन सुनता। ग़रीब हैं, बेकस हैं, अपंग हैं, जितने आदमियों को चाहो, मार डालो। अदालत और हाकिमों से तो उन्होंने न्याय की आशा करना ही छोड़ दिया। आख़िर सरकार ही ने तो कांस्टेबलों को यह मुहीम सर करने के लिए भेजा था। वह किसानों की फ़रियाद क्यों सुनने लगी। मगर आदमी का

दिल फ़रियाद किये बगैर नहीं मानता। गांववालों ने अपने शहर के भाइयों से फ़रियाद करने का निश्चय किया। जनता और कुछ नहीं कर सकती,हमदर्दी तो करती है। दुःख-कथा सुनकर श्रीसू तो बहाती है। दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। अगर आस-पास के गांवों के लोग जमा होकर उनके साथ रो लेते, तो गरीबों के आँसू पुछ जाते;किन्तु पुलीस ने उस गांव की नाकेबन्दी कर रखी थी, चारों सीमाओं पर पहरे बिठा दिये गये थे। यह घाव पर नमक था। मारते भी हो और रोने भी नहीं देते। आखिर लोगों ने लाशें उठाई और शहरवालों की अपनी विपत्ति की कथा सुनाने चले। इस हंगामे की खबर पहले ही शहर में पहुँच गई थी। इन लाशों को देखकर जनता उत्तेजित हो गई और जब पुलोस के अध्यक्ष ने इन लाशों का जुलूस निकालने की अनुमति न दी, तो लोग और भी झल्लाये। बहुत बड़ा जमाव हो गया। मेरे बाबूजी भी इसी दल में थे। मैंने उन्हें रोका-मत जाओ, आज का रंग अच्छा नहीं है। तो कहने लगे-मैं किसी से लड़ने थोड़े हो जाता हूँ। जब सरकार की प्राज्ञा के विरुद्ध जनाज़ा चला तो पचास हज़ार आदमी साथ थे। उधर पांच सौ सशस्त्र पुलीस रास्ता रोके खड़ी थी-सवार, प्यादे, सारजन्ट-पूरी फ़ौज थी। हम निहत्थों के सामने इन नामों को तलवारें चमकाते और झंकारते शर्म भी नहीं आती! जब बार-बार पुलीस की धम.कियों पर भी लोग न भागे, तो गोलियां चलाने का हुक्म हो गया। घण्टे भर बराबर फैर होते रहे,पूरे घण्टे भर तक! कितने मरे,कितने घायल हुए,कौन जानता है। मेरा मकान सड़क पर है। मैं छज्जे पर खड़ी, दोनों हाथों से दिल को थामे, कापती थी। पहली बाढ़ चलते ही भगदड़ पड़ गई। हजारों श्रादमी बदहवास भागे चले आ रहे थे। बहन! वह दृश्य अभी तक आँखों के सामने है। कितना भीषण, कितना रोमांचकारी और कितना लज्जास्पद ! ऐसा जान पड़ता था कि लोगों के प्राण प्रांखों से निकले पड़ते हैं; मगर इन भागनेवालों के पोछे वोर-व्रतधारियों का दल था, जो पर्वत की भौति अटल खड़ा छातियों पर गोलियां खा रहा था और पीछे हटने का नाम न लेता था। बन्दूकों की आवाजें साफ़ सुनाई देती थीं और हरेक धायँ-धायँ के बाद हज़ारों गलों से 'जय' की गहरी गगन-भेदी धनि निकलती थी। उस

ध्वनि में कितनी उत्तेजना थी! कितना आकर्षण! कितना उन्माद ! बस यही जी चाहता था कि जाकर गोलियों के सामने खड़ी हो जाऊँ और हँसते-हँसते मर जाऊँ। उस समय ऐसा भास होता था कि मर जाना कोई खेल है।अम्माजी कमरे में भान को लिये मुझे बार-बार भीतर बुला रही थीं। जब मैं न गई, तो वह भान को लिये हुए छज्जे पर आ गई। उसी वक्त दस-बारह आदमी एक स्ट्रेचर पर हृदयेश की लाश लिये हुए द्वार पर आये।अम्मा की उन पर नज़र पड़ी। समझ गई। मुझे तो सकता-सा हो गया। अम्मा ने जाकर एक बार बेटे को देखा, उसे छाती से लगाया, चूमा,आशीर्वाद दिया और उन्मत्त दशा में चौरस्ते की तरफ़ चलो, जहाँ से अब भी घाय और जय को ध्वनि बारी-बारी से आ रही थी। मैं हतबुद्धि-सी खड़ीकभी स्वामी की लाश को देखती थी, कभी अम्मा को। न कुछ बोली, न जगह से हिली, न रोई, न घबड़ाई। मुझमें जैसे स्पन्दन ही न था। चेतना जैसे लुप्त हो गई हो।

क्षमा--तो क्या अम्मा भी गोलियों के स्थान पर पहुँच गई ?

मदुला--हाँ,यही तो विचित्रता है बहन ! बन्दूक की आवाज़ सुनकर कानों पर हाथ रख लेती थीं खून देखकर मूर्छित हो जातो थीं वही अम्मा वीर सत्याग्रहियों की सफ़ों को चीरती हुई सामने खड़ी हो गई और एक ही क्षण में उनकी लाश भी ज़मीन पर गिर पड़ी। उनके गिरते ही योद्धाओं का धैर्य टूट गया, व्रत का बन्धन टूट गया। सभी के सिरों पर ख न-सा सवार होगया। निहत्थे थे, अशक्त थे ; पर हरेक अपने अन्दर अपार शक्ति का अनुभव कर रहा था। पुलीस पर धावा कर दिया। सिपाहियों ने इस बाढ़ को आते देखा तो होश जाते रहे। जाने लेकर भागे; मगर भागते हुए भी गोलियांँ चलाते जाते थे। भान छज्जे पर खड़ा था, न जाने किधर से एक गोलि आ उसकी छाती में लगी। मेरा लाल वहीं पर गिर पड़ा, सांस तक न ली; मगर मेरी आँखों में अब भी आँसू न थे। मैंने प्यारे भान को गोद में उठा लिया। उसकी छाती से खून के फौवारे निकल रहे थे। मैंने उसे जो दूध पिलाया था, उसे वह ख़ून से अदा कर रहा था। उसके खून से तर कपड़े पहने हुए मुझे वह नशा हो रहा था, जो शायद उसके विवाह में गुलाल

से तर रेशमी कपड़े पहनकर भी न होता। लड़कपन, जवानी और मौत ! तीनों मंजिलें एक ही हिचकी में तमाम हो गई। मैंने बेटे को बाप की गोद में लेटा दिया। इतने ही में कई स्वयंसेवक अम्माजी को भी लाये। मालूम होता था, लेटी हुई मुसकिरा रही हैं। मुझे तो रोकती रहती थीं और खुद इस तरह जाकर आग में कूद पड़ीं मानो वह स्वर्ग का मार्ग हो। बेटे ही के लिए जीती थीं, बेटे को अकेला कैसे छोड़ती ?

जब नदी के किनारे तीनों लाशें एक ही चिता में रखी गई, तब मेरा सकता टूटा, होश आया। एक बार जी में पाया चिता में जा बैठूँ। सारा कुन्बा एक साथ ईश्वर के दरबार में जा पहुँचे; लेकिन फिर सोचा-तूने अभी ऐसा कौन काम किया है, जिसका इतना ऊँचा पुरस्कार मिले ? बहन ! चिता की लपटों में मुझे ऐसा मालूम हो रहा था कि अम्माजी सचमुच भान को गोद में लिये बैठी मुसकिरा रही हैं और स्वामी जी खड़े मुझसे कह रहे हैं, तुम जाओ और निश्चिन्त होकर काम करो। मुख पर कितना तेज था ! रक्त और अग्नि ही में तो देवता बनते हैं।

मैंने सिर उठाकर देखा। नदी के किनारे न जाने कितनी चिताएँ जल रही थीं। दूर से यह चितावली ऐसी मालूम होती थी, मानो देवता ने भारत का भाग्य गढ़ने के लिए भट्ठियो जलाई हों।

जब चिताएँ राख हो गई, तो हम लोग लौटे ; लेकिन उस घर में जाने की हिम्मत न पड़ी। मेरे लिए अब वह घर न था। मेरा तो अब यह है, जहाँ बैठी हूँ, या फिर वही चिता। मैंने घर का द्वार भी नहीं खोला। महिला आश्रम में चली गई। कल की गोलियों में कांग्रेस कमेटी का सफ़ाया हो गया था। यह संस्था बागी बना डाली गई थी। उसके दफ्तर पर पुलिस ने छापा मारा और उसपर अपना ताला डाल दिया। महिला-आश्रम पर भी हमला हुआ। उस पर भी ताला डाल दिया गया। हमने एक वृक्ष की छांह में अपना नया दफ्तर बनाया और स्वच्छन्दता के साथ काम करते रहे। यहाँ दीवारें हमें कैद न कर सकती थीं। हम भी वायु के समान मुक्त थे।

संध्या समय हमने एक जुलूस निकालने का फैसला किया । कल के रक्तपात की स्मृति, हर्ष और मुबारकबाद में जुलूस निकलना आवश्यक था।
लोग कहते हैं, जुलूस निकालने से क्या होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं हैं। हमें अपने हार न माननेवाले आत्माभिमानं का प्रमाण देना था। हमें यह दिखाना था कि हम गोलियों और अत्याचारों से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटनेवाले नहीं और हम उस अवस्था का अन्त करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थपरता और ख़ून पर है। उधर पुलिस ने भी जुलूस को रोककर अपनी शक्ति और विजय का प्रमाण देना आवश्यक समझा। शायद जनता को धोखा हो गया हो कि कल की दुर्घटना ने नौकरशाही के नैतिक ज्ञान को जाग्रत कर दिया है। इसधोखे को दूर करना उसने अपना कर्त्तव्य समझा। वह यह दिखा देना चाहती थी कि हम तुम्हारे ऊपर शासन करने आये हैं और शासन करेंगे। तुम्हारी खुशी या नाराज़ी की हमें परवाह नहीं है। जुलूस निकालने कीमनाही हो गई। जनता को चेतावनी दे दी गई कि ख़बरदार, जुलूस में न आना, नहीं दुर्गति होगी। इसका जनता ने वह जवाब दिया, जिसने अधि-कारियों की आंखें खोल दी होगी। संध्या समय पचास हज़ार आदमी जमा हो गये। आज का नेतृत्व मुझे सौंपा गया था। मैं अपने हृदय में एक विचित्र बल और उत्साह का अनुभव कर रही थी। एक अबला स्त्री, जिसे संसार का कुछ भी ज्ञान नहीं, जिसने कभी घर से बाहर पांव नहीं निकाला, आज अपने प्यारों के उत्सर्ग की बदौलतं उस महान् पद पर पहुँच गई थी, जो बड़े-बड़े अफ़सरों को भी, बड़े से बड़े महाराजा को भी प्राप्त नहीं-मैं इस समय जनता के हृदय पर राज कर रही थी। पुलिस अधिकारियों की इसी लिए गुलामी करती है कि उसे वेतन मिलता है। पेट की गुलामी उससे सब कुछ करवा लेती है। महाराजा का हुक्म लोग इसलिए मानते हैं कि उससे उपकार की आशा या हानि का भय होता है। यह अपार जन-समूह क्या मुझसे किसी फ़ायदे की आशा रखता था, या उसे मुझसे किसी हानि का भय था? कदापि नहीं। फिर भी वह मेरे कड़े से कड़े हुक्म को मानने के लिए तैयार था।इसी लिए कि जनता मेरे बलिदानों का आदर करती थी; इसी लिए कि उनके दिलों में स्वाधीनता की जो तड़प थी, गुलामी के जंजीरों को तोड़ देने की जो बेचैनी थी, मैं उस तड़प और बेचैनी की सजीव मूर्ति समझी जा रही

थी। निश्चित समय पर जुलूस ने प्रस्थान किया। उसी वक्त पुलीस ने मेरी गिरफ्तारी का वारंट दिखाया। वारंट देखते ही तुम्हारी याद आई। पहले तुम्हें मेरी ज़रूरत थी। अब मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। उस वक्त तुम मेरी हमदर्दी की भूखी थीं। अब मैं सहानुभूति की भिक्षा मांग रही हूँ। मगर मुझमें अब लेशमात्र भी दुर्बलता नहीं है। मैं चिन्ताओं से मुक्त हूँ। मैजिस्ट्रेट जो कठोर से कठोर दण्ड प्रदान करे, उसका स्वागत करूँगी। अब मैं पुलीस के किसी आक्षेप या असत्य आरोपण का प्रतिवाद न करूँगी : क्योंकि मैं जानती हूँ, मैं जेल के बाहर रहकर जो कुछ कर सकती हूँ, जेल के अन्दर रहकर उससे कहीं ज़्यादा कर सकती हूँ। जेल के बाहर भूलों की सम्भावना है, बहकने का भय है, समझौते का प्रलोभन है, स्पर्धा की चिन्ता है। जेल सम्मान और भक्ति की एक रेखा है, जिसके भीतर शैतान क़दम नहीं रख सकता। मैदान में जलता हुआ अलाव वायु में अपनी उष्णता को खो देता है; लेकिन इंजिन में बन्द होकर वही भाग संचालन-शक्ति का अखण्ड भण्डार बन जाती है।

अन्य देवियां भी आ पहुँची और मृदुला सबसे गले मिलने लगी। फिर'भारत माता की जय'--ध्वनि जेल की दीवारों को चीरती हुई आकाश में जा पहुँची।