समर-यात्रा
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ २९ से – ४१ तक

 

पत्नी से पति

मिस्टर सेठ को सभी हिन्दुस्तानी चीज़ों से नफ़रत थी और उनकी सुन्दरी पत्नी गोदावरी को सभी विदेशी चीज़ों से चिढ़। मगर धैर्य और विनय भारत की देवियों का आभूषण है। गोदावरी दिल पर हज़ार ज़ब्र करके पति की लाई हुई विदेशी चीज़ों का व्यवहार करती थी, हालाँकि भीतर ही भीतर उसका हृदय अपनी परवशता पर रोता था। वह जिस वक्त अपने छज्जे पर खड़ी होकर सड़क पर निगाह दौड़ाती और कितनी ही महिलाओं खो खद्दर की साड़ियाँ पहने गर्व से सिर उठाये चलते देखती, तो उसके भीतर की वेदना एक ठंडी आह बनकर निकल जाती थी। उसे ऐसा मालूम होता था कि मुझसे ज्यादा बदनसीब औरत संसार में नहीं है। मैं अपने स्वदेशवासियों की इतनी भी सेवा नहीं कर सकती! शाम को मिस्टर सेठ के आग्रह करने पर वह कहीं मनोरंजन या सैर के लिए जाती, तो विदेशी कपड़े पहिने हुए निकलते शर्म से उसकी गर्दन झुक जाती थी। वह पत्रों में महिलाओं के जोश भरे व्याख्यान पढ़ती, तो उसकी आँखें जगमगा उठतीं, थोड़ी देर के लिए वह भूल जाती कि मैं यहाँ बन्धनों से जकड़ी हुई हूँ।

होली का दिन था, आठ बजे रात का समय। स्वदेश के नाम पर बिके हुए अनुरागियों का जुलूस आकर मिस्टर सेठ के मकान के सामने रुका और उसी चौड़े मैदान में विलायती कपड़ों की होलियाँ लगाने की तैयारियाँ होने लगीं। गोदावरी अपने कमरे में खिड़की पर खड़ी यह समारोह देखती थी और दिल मसोसकर रह जाती थी। एक वह हैं, जो यों ख़ुश-ख़ुश, आज़ादी के नशे से मतवाले, गर्व से सिर उठाये होली लगा रहे हैं, और एक मैं हूँ कि पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह फड़फड़ा रही हूँ। इन तीलियों को कैसे तोड़ दूँ? उसने कमरे में निगाह दौड़ाई। सभी चीज़ें विदेशी थीं। स्वदेश का एक सूत भी न था। यही चीज़ें वहाँ जलाई जा रही थीं और वही चीज़ें यहाँ उसके हृदय में संचित ग्लानि की भाँति संदूकों में रखी हुई थीं। उसके जी में एक लहर उठ रही थी कि इन चीज़ों को उठाकर उसी होली में डाल दे। उसकी सारी ग्लानि और दुर्बलता जलकर भस्म हो जाय; मगर पति की अप्रसन्नता के भय ने उसका हाथ पकड़ लिया। सहसा मि॰ सेठ ने अन्दर पाकर कहा––ज़रा इन सिरफिरों को देखो, कपड़े जला रहे हैं। यह पागलपन, उन्माद और विद्रोह नहीं तो और क्या है। किसी ने सच कहा है, हिन्दुस्तानियों को न अक्ल आई है, न आयेगी। कोई कल भी तो सीधी नहीं।

गोदावरी ने कहा––तुम भी हिन्दुस्तानी हो।

सेठ ने गर्म होकर कहा––हाँ; लेकिन मुझे इसका हमेशा खेद रहता है कि ऐसे अभागे देश में क्यों पैदा हुआ। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे हिंदुस्तानी कहे या समझे। कम से कम मैंने आचार-व्यवहार, वेश-भूषा, रीति-नीति, कर्म-वचन, में कोई ऐसी बात नहीं रखी, जिससे हमें कोई हिंदुस्तानी होने का कलंक लगाये। पूछिए, जब हमें आठ आने गज़ में बढ़िया कपड़ा मिलता है, तो हम क्यों मोटा टाट खरीदें। इस विषय में हर एक को पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए। न जाने क्यों गवर्नमेन्ट ने इन दुष्टों को यहाँ जमा होने दिया। अगर मेरे हाथ में अधिकार होता, तो सबों को जहन्नुम रसीद कर देता। तब आटे-दाल का भाव मालूम होता।

गोदावरी ने अपने शब्दों में तिक्ष्ण तिरस्कार भरके कहा––तुम्हें अपने भाइयों का जरा भी ख्याल नहीं आता? भारत के सिवा और भी कोई देश है, जिसपर किसी दूसरी जाति का शासन हो? छोटे-छोटे राष्ट्र भी किसी दूसरी जाति के गुलाम बनकर नहीं रहना चाहते। क्या हिन्दुस्तान के लिए यह लज्जा की बात नहीं है कि वह अपने थोड़े-से फ़ायदे के लिए सरकार का साथ देकर अपने ही भाइयों के साथ अन्याय करे?

सेठ ने भौंहें चढ़ाकर कहा––मैं इन्हें अपना भाई नहीं समझता।

गोदावरी––आख़िर तुम्हें सरकार जो वेतन देती है, वह इन्हीं की जेब से आता है।

सेठ––मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मेरा वेतन किसकी जेब से आता है। मुझे जिसके हाथ से मिलता है, वह मेरा स्वामी है। न जाने इन दुष्टों को क्या सनक सवार हुई है। कहते हैं भारत आध्यात्मिक देश है। क्या अध्यात्म का यही आशय है कि परमात्मा के विधानों का विरोध किया जाय? जब यह मालूम है कि परमात्मा की इच्छा के विरुद्ध एक पत्ती भी नहीं हिल सकती, तो यह कैसे मुमकिन है कि यह इतना बड़ा देश परमात्मा की मर्जी बग़ैर अँगरेज़ों के अधीन हो? क्यों इन दीवानों को इतनी अक्ल नहीं आती कि जब तक परमात्मा की इच्छा न होगी, कोई अँगरेज़ों का बाल भी बाँका न कर सकेगा।

गोदावरी––तो फिर क्यों नौकरी करते हो? परमात्मा की इच्छा होगी, तो आप ही आप भोजन मिल जायगा। बीमार होते हो, तो क्यों दौड़े वैद्य के घर जाते हो? परमात्मा उन्हीं की मदद करता है, जो अपनी मदद आप करते हैं।

सेठ––बेशक करता है; लेकिन अपने घर में आग लगा देना, घर की चीज़ों को जला देना, ऐसे काम हैं, जिन्हें परमात्मा कभी पसन्द नहीं कर सकता।

गोदावरी––तो यहाँ के लोगों को चुपचाप बैठे रहना चाहिए?

सेठ––नहीं, रोना चाहिए। इस तरह रोना चाहिए, जैसे बच्चे माता के दूध के लिए रोते हैं।

सहसा होली जली, आग की शिखाएँ आसमान से बातें करने लगीं, मानो स्वाधीनता की देवी अग्नि-वस्त्र धारण किये हुए आकाश के देवताओं से गले मिलने जा रही हो।

दीनानाथ ने खिड़की बन्द कर दी, उनके लिए यह दृश्य भी असह्य था।

गोदावरी इस तरह खड़ी रही, जैसे कोई गाय कसाई के खूँटे पर खड़ी हो। उसी वक्त किसी के गाने की आवाज़ आई।

'वतन की देखिए तक़दीर कब बदलती है।'

गोदावरी के विषाद से भरे हुए हृदय में एक चोट लगी। उसने खिड़की खोल दी और नीचे की तरफ़ झाँका। होली अब भी जल रही थी और वहीं एक अन्धा लड़का अपनी खंजरी बजाकर गा रहा था––

'वतन की देखिए तक़दीर कब बदलती है।'

वह खिड़की के सामने पहुँचा, तो गोदावरी ने पुकारा––ओ अन्धे! खड़ा रह।

अंधा खड़ा हो गया। गोदावरी ने संदूक खोला; पर उसमें उसे एक पैसा मिला। नोट और रुपये थे; मगर अंधे फ़कीर को नोट या रुपये देने का तो सवाल ही न था। पैसे अगर दो-चार मिल जाते, तो इस वक्त वह ज़रूर दे देती; पर वहाँ एक ही पैसा था, वह भी इतना घिसा हुआ था कि कहार बाज़ार से लौटा लाया था। किसी दूकानदार ने न लिया था। अन्धे को वह पैसा देते हुए गोदावरी को शर्म आ रही थी। वह ज़रा देर तक पैसे को हाथ में लिये असमंजस में खड़ी रही। तब अंधे को बुलाया और पैसा दे दिया।

अंधे ने कहा––माताजी, कुछ खाने को दीजिए। आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।

गोदावरी––दिन भर माँगता है, तब भी तुझे खाने को नहीं मिलता?

अंधा––क्या करूँ माता, कोई खाने को नहीं देता।

गोदावरी––इस पैसे का चबैना लेकर खा ले।

अंधा––खा लूँगा माताजी, भगवान् आपको ख़ुशी रखे। अब यहीं सोता हूँ।

(२)

दूसरे दिन प्रातःकाल कांग्रेस की तरफ़ से एक आम जलसा हुआ। मिस्टर सेठ ने विलायती टूथ पाउडर, विलायती ब्रुश से दाँतों पर मला, विलायती साबुन से नहाया, विलायती चाय विलायती प्यालियों में पी, विलायती बिसकुट विलायती मक्खन के साथ खाया, विलायती दूध पिया। फिर विलायती सूट धारण करके विलायती सिगार मुँह में दबाकर घर से निकले, और अपनी मोटर-साइकिल पर बैठकर फ़्लावर शो देखने चले गये।

गोदावरी को रात भर नींद नहीं आई थी, दुराशा और पराजय की कठिन यंत्रणा किसी कोड़े की तरह उसके हृदय पर पड़ रही थी। ऐसा मालूम होता था कि उसके कंठ में कोई कड़वी चीज़ अटक गई है। मिस्टर सेठ को अपने प्रभाव में लाने की उसने वह सब योजनाएँ की, जो एक रमणी कर सकती है; पर उस भले आदमी पर उसके सारे हाव-भाव, मृदु-सुस्कान और वाणी-विलास का कोई असर न हुआ। ख़ुद तो स्वदेशी वस्त्रों के व्यवहार करने पर क्या राज़ी होते, गोदावरी के लिए एक खद्दर की साड़ी लाने पर भी सहमत न हुए। यहाँ तक कि गोदावरी ने उनसे कभी कोई चीज़ माँगने की क़सम खा ली।

क्रोध और ग्लानि ने उसकी सद्‌भावनाओं को इस तरह विकृत कर दिया, जैसे कोई मैली वस्तु निर्मल जल को दूषित कर देती है। उसने सोचा, जब यह मेरी इतनी-सी बात भी नहीं मान सकते, तब फिर मैं क्यों इनके इशारों पर चलूँ, क्यों इनकी इच्छाओं की लौंडी बनी रहूँ? मैंने इनके हाथ कुछ अपनी आत्मा नहीं बेची है। अगर आज ये चोरी या ग़बन करें, तो क्या मैं सजा पाऊँगी? उसकी सज़ा ये खुद झेलेंगे। उसका अपराध इनके ऊपर होगा। इन्हें अपने कर्म और वचन का अख़्तियार है, मुझे अपने कर्म और वचन का अख़्तियार। यह अपनी सरकार की गुलामी करें, अँगरेज़ों की चौखट पर नाक रगड़ें, मुझे क्या गरज़ है कि उसमें इनका सहयोग करूँ। जिसमें आत्माभिमान नहीं, जिसने अपने को स्वार्थ के हाथों बेच दिया, उसके प्रति अगर मेरे मन में भक्ति न हो तो मेरा दोष नहीं। यह नौकर हैं या गुलाम? नौकरी और गुलामी में अन्तर है, नौकर कुछ नियमों के अधीन अपना निर्दिष्ट काम करता है, वह नियम स्वामी और सेवक दोनों ही पर लागू होते हैं; स्वामी अगर अपमान करे, अपशब्द कहे तो नौकर उसको सहन करने के लिए मज़बूर नहीं। गुलाम के लिए कोई शर्त नहीं, उसकी दैहिक गुलामी पीछे होती है, मानसिक गुलामी पहले ही हो जाती है। सरकार ने इनसे कब कहा है कि देशी चीज़ें न ख़रीदो। सरकारी टिकटों पर तक यह शब्द लिखे होते हैं 'स्वदेशी चीज़ें ख़रीदो।' इससे विदित है कि सरकार देशी चीज़ों का निषेध नहीं करती, फिर भी यह महाशय सुर्खरू बनने की फ़िक्र में सरकार से भी दो अंगुल आगे बढ़ना चाहते हैं।

मिस्टर सेठ ने कुछ झेंपते हुए कहा––कल फ्लावर शो देखने चलोगी?

गोदावरी ने विरक्त मन से कहा––नहीं।

'बहुत अच्छा तमाशा है।'

'मैं काँग्रेस के जलसे में जा रही हूँ।'

मिस्टर सेठ के ऊपर यदि छत गिर पड़ी होती या उन्होंने बिजली का तार हाथ से पकड़ लिया होता, तो भी वह इतने बदहवास न होते। आँखे फाड़कर बोले––तुम काँग्रेस के जलसे में जाओगी?

'हाँ, ज़रूर जाऊँगी।'

'मैं नहीं चाहता कि तुम वहाँ जाओ।'

'अगर तुम मेरी परवाह नहीं करते, तो मेरा धर्म नहीं कि तुम्हारी हरएक आज्ञा का पालन करूँ।'

मिस्टर सेठ ने आँखों में विष भरकर कहा––नतीजा बुरा होगा।

गोदावरी मानो तलवार के सामने छाती खोलकर बोली--इसकी चिन्ता नहीं, तुम किसी के ईश्वर नहीं हो।

मिस्टर सेठ खूब गर्म पड़े, धमकियाँ दीं, आख़िर मुँह फेरकर लेट रहे। प्रातःकाल फ़्लावर शो जाते समय भी उन्होंने गोदावरी से कुछ न कहा।

(३)

गोदावरी जिस समय कांग्रेस के जलसे में पहुँची, तो कई हज़ार मर्दों और औरतों का जमाव था। मन्त्री ने चन्दे की अपील की थी और कुछ लोग चन्दा दे रहे थे। गोदावरी उस जगह खड़ी हो गई जहाँ और स्त्रियाँ जमा थीं और देखने लगी कि लोग क्या चन्दा देते हैं। अधिकांश लोग दो-दो चार-चार आना ही दे रहे थे। वहाँ ऐसा धनवान था ही कौन। उसने अपनी जेब टटोली, तो एक रुपया निकला। उसने समझा यह काफ़ी है। इस इन्तज़ार में थी कि झोली सामने आये तो उसमें डाल दूँ। सहसा वही अंधा लड़का, जिसे उसने एक पैसा दिया था, न जाने किधर से आ गया और ज्यों ही चंदे की झोली उसके सामने पहुँची, उसने उसमें कुछ डाल दिया। सबकी आँखें उसकी तरफ़ उठ गई। सबको कुतूहल हो रहा था कि इस अंधे ने क्या दिया? कहीं एक-आध पैसा मिल गया होगा। दिन भर गला फाड़ता है, तब भी तो उस बेचारे को रोटी नहीं मिलती। अगर यही गाना पिश्वाज और साजके साथ किसी महफ़िल में होता, तो रूपये बरसते; लेकिन सड़क पर गानेवाले अंधे की कौन परवाह करता है।

झोली में पैसा डालकर अंधा वहाँ से चल दिया और कुछ दूर जाकर गाने लगा।

'वतन की देखिए तक़दीर कब बदलती है।'

सभापति ने कहा––मित्रो, देखिए, यह वह पैसा है, जो एक गरीब अन्धा लड़का इस झोली में डाल गया है। मेरी आँखों में इस एक पैसे की कीमत किसी अमीर के एक हज़ार रुपये से कम नहीं। शायद यही इस गरीब की सारी विसात होगी। जब ऐसे गरीबों की सहानुभूति हमारे साथ है, तो मुझे सत्य के विजय में कोई सन्देह नहीं मालूम होता। हमारे यहाँ क्यों इतने फ़कीर दिखाई देते हैं? या तो इसलिए कि समाज में इन्हें कोई काम नहीं मिलता या दरिद्रता से पैदा हुई बीमारियों के कारण यह अब इस योग्य ही नहीं रह गये कि कुछ काम करें। या भिक्षावृत्ति ने इनमें कोई सामर्थ्य ही नहीं छोड़ी। स्वराज्य के सिवा इन गरीबों का अब-उद्धार कौन कर सकता है। देखिए वह गा रहा है––

'वतन की देखिए तक़दीर कब बदलती है।'

इस पीड़ित हृदय में कितना उत्सर्ग है! क्या अब भी कोई सन्देह कर सकता है कि हम किसकी आवाज हैं? (पैसा ऊपर उठाकर) आपमें कौन इस रत्न को खरीद सकता है?

गोदावरी के मन में जिज्ञासा हुई, क्या यह वही पैसा तो नहीं है, जो रात मैंने उसे दिया था? क्या उसने सचमुच रात को कुछ नहीं खाया?

उसने जाकर समीप से पैसे को देखा, जो मेज़ पर रख दिया गया था। उसका हृदय धक् से हो गया। यह वही घिसा हुआ पैसा था।

उस अन्धे की दशा, उसके त्याग का स्मरण करके गोदावरी अनुरक्त हो उठी। काँपते हुए स्वर में बोली––मुझे आप यह पैसा दे दीजिए, मैं पांच रुपए दूँगी।

सभापति ने कहा––एक बहन इस पैसे के दाम पाँच रुपए दे रही हैं।

दूसरी आवाज़ आई, दस रुपए।

तीसरी आवाज़ आई, बीस रुपए।

गोदावरी ने इस अन्तिम व्यक्ति की ओर देखा। उसके मुख पर आत्माभिमान झलक रहा था, मानो कह रहा हो कि यहाँ कौन है, जो मेरी बराबरी कर सके। गोदावरी के मन में स्पर्धा का भाव जाग उठा। चाहे कुछ हो जाय, इसके हाथ में यह पैसा न जाय। समझता है, इसने बीस रुपए क्या कह दिये, सारे संसार को मोल ले लिया।

गोदावरी ने कहा––चालीस रुपए।

उस पुरुष ने तुरन्त कहा––पचास रुपए।

हज़ारों आँखें गोदावरी की ओर उठ गईं। मानो कह रही हों, अब हमारी लाज रखिए।

गोदावरी ने उस आदमी की ओर देखकर धमकी से मिले हुए स्वर में कहा––सौ रुपए।

धनी आदमी ने भी तुरन्त कहा––एक सौ बीस रुपए।

लोगों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। समझ गये इसके हाथ विजय रही। निराश आँखों से गोदावरी की ओर ताकने लगे; मगर ज्यों ही गोदावरी के मुँह से निकला, डेढ़ सौ कि चारों तरफ़ से तालियाँ पड़ने लगी, मानो किसी दंगल के दर्शक अपने पहलवान की विजय पर मतवाले हो गये हों।

उस आदमी ने फिर कहा––पौने दो सौ।

गोदावरी बोली––दो सौ।

फिर चारों तरफ से तालियाँ पड़ीं। प्रतिद्वन्द्वी ने अब मैदान से हट जाने ही में अपनी कुशल समझी।

गोदावरी विजय के गर्व पर नम्रता का पर्दा डाले हुए खड़ी थी और हज़ारों शुभ कामनाएँ उस पर फूलों की तरह बरस रही थीं।

(४)

जब लोगों को मालूम हुआ कि यह देवी मिस्टर सेठ की बीबी हैं, तो उन्हें एक ईर्ष्यामय आनन्द के साथ उस पर दया भी आई।

मिस्टर सेठ अपनी फ्लावर शो में ही थे कि एक पुलीस के अफ़सर ने उन्हें यह घातक संवाद सुनाया। मिस्टर सेठ सकते में आ गये, मानो सारी देह शून्य पड़ गई हो। फिर दोनों मुट्ठियाँ बाँध लीं। दाँत पीसे, ओठ चबाये और उसी वक्त घर चले। उनकी मोटर-साइकिल कभी इतनी तेज़ न चली थी।

घर में कदम रखते ही उन्होंने चिनगारियाँ-भरी आँखों से देखते हुए कहा––क्या तुम मेरे मुँह में कालिख पुतवाना चाहती हो?

गोदावरी ने शांत भाव से कहा––कुछ मुँह से भी तो कहो या गालियाँ ही दिये जाओगे? तुम्हारे मुँह में कालिख लगेगी, तो क्या मेरे मुँह में न लगेगी। तुम्हारी जड़ खुदेगी, तो मेरे लिए दूसरा कौन-सा सहारा है।

मिस्टर सेठ––सारे शहर में तूफ़ान मचा हुआ है, तुमने मेरे रुपये दिये क्यों?

गोदावरी ने उसी शान्त भाव से कहा––इसलिए कि मैं उसे अपना ही रुपया समझती हूँ।

मिस्टर सेठ दाँत किटकिटाकर बोले––हरगिज़ नहीं, तुम्हें मेरा रुपया ख़र्च करने का कोई हक़ नहीं है।

गोदावरी––बिलकुल ग़लत, तुम्हारे रुपये ख़र्च करने का तुम्हें जितना अख़्तियार है, उतना ही मुझको भी है। हाँ, जब तलाक़ का कानून पास करा लोगे और तलाक़ दे दोगे, तब न रहेगा।

मिस्टर सेठ ने अपना हैट इतने ज़ोर से मेज़ पर फेंका कि वह लुढ़कता हुआ ज़मीन पर गिर पड़ा और बोले––मुझे तुम्हारी अक्ल पर अफ़सोस आता है। जानती हो तुम्हारी इस उद्दंडता का क्या नतीजा होगा? मुझसे जवाब तलब हो जायगा। बतलाओ, क्या जवाब दूँगा। जब यह ज़ाहिर है कि कांग्रेस सरकार से दुश्मनी कर रही है तो कांग्रेस की मदद करना सरकार के साथ दुश्मनी करना है।

'तुमने तो नहीं की कांग्रेस की मदद!'

'तुमने तो की!'

'इसकी सज़ा मुझे मिलेगी या तुम्हें? अगर मैं चोरी करूँ, तो क्या तुम जेल जाओगे?'

'चोरी की बात और है, यह बात और है।'

'तो क्या कांग्रेस की मदद करना चोरी या डाके से भी बुरा है?'

'हाँ, सरकारी नौकर के लिए चोरी या डाके से भी कहीं बुरा है।'

'मैंने यह नहीं समझा था।' 'अगर तुमने यह नहीं समझा था, तो तुम्हारी ही बुद्धि का भ्रम था। रोज़ अखबारों में देखती हो, फिर भी मुझसे पूछती हो। एक कांग्रेस का आदमी प्लेट-फ़ार्म पर बोलने खड़ा होता है, तो बीसियों सादे कपड़ेवाले पुलीस अफ़सर उसकी रिपोर्ट लेने बैठते हैं। कांग्रेस के सर्ग़नाओं के पीछे कई-कई मुखबिर लगा दिये जाते हैं, जिनका काम यही है कि उनपर कड़ी निगाह रखें। चोरों के साथ तो इतनी सख़्ती कभी नहीं की जाती। इसीलिए हज़ारों चोरियाँ और डाके और ख़ून रोज़ होते रहते हैं। किसी का कुछ पता नहीं चलता; न पुलीस इसकी परवाह करती है। मगर पुलीस को जिस मामले में राजनीति की गंध भी आ जाती है, फिर देखो पुलीस की मुस्तैदी। इन्स्पेक्टर जनलर से लेकर कांस्टेबिल तक एड़ियों तक का ज़ोर लगाते हैं। सरकार को चोरों से भय नहीं। चोर सरकार पर चोट नहीं करता। कांग्रेस सरकार के अख़्तियार पर हमला करती है; इसलिए सरकार भी अपनी रक्षा के लिए अपने अख़्तियार से काम लेती है। यह तो प्रकृति का नियम है।

मिस्टर सेठ आज दफ़्तर चले, तो उनके क़दम पीछे रहे जाते थे। न-जाने आज वहाँ क्या हाल हो! रोज़ की तरह दफ्तर में पहुँचकर उन्होंने चपरासियों को डाँटा नहीं; क्लर्कों पर रोब नहीं जमाया; चुपके से जाकर कुर्सी पर बैठ गये। ऐसा मालूम होता था, कोई तलवार सिर पर लटक रही है। साहब की मोटर की आवाज़ सुनते ही उनके प्राण सूख गये। रोज़ वह अपने कमरे में बैठे रहते थे। जब साहब आकर बैठ जाते थे, तब आध घंटे के बाद मिसलें लेकर पहुँचते थे। आज वह बरामदे में खड़े थे, साहब उतरे, तो झुककर उन्होंने सलाम किया। मगर साहब ने मुँह फेर लिया।

लेकिन वह हिम्मत नहीं हारे, आगे बढ़कर पर्दा हटा दिया, साहब कमरे में गये, तो सेठ साहब ने पंखा खोल दिया; मगर जान सूखी जाती थी कि देखें कब सिर पर तलवार गिरती है। साहब ज्यों ही कुर्सी पर बैठे, सेठ ने लपककर सिगार-केस और दियासलाई मेज पर रख दी।

एकाएक उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो आसमान फट गया हो। साहब गरज रहे थे, तुम दग़ाबाज़ आदमी है!

सेठ ने इस तरह साहब की तरफ़ देखा, जैसे उनका मतलब नहीं समझे।

साहब ने फिर गरजकर कहा––तुम दग़ाबाज़ आदमी है।

मिस्टर सेठ का ख़ून गर्म हो उठा, बोले––मेरा तो ख़याल है कि मुझसे बड़ा राजभक्त इस देश में न होगा।

साहब––तुम नमकहराम आदमी है।

मिस्टर सेठ के चेहरे पर सुर्खी आई––आप व्यर्थ ही अपनी ज़बान ख़राब कर रहे हैं।

साहब––तुम शैतान आदमी है।

मिस्टर सेठ की आँखों में सुर्खी आई––आप मेरी बेइज़्ज़ती कर रहे हैं। ऐसी बातें सुनने की मुझे आदत नहीं है।

साहब––चुप रहो, यू, ब्लैडी। तुमको सरकार पाँच सौ रुपये इसलिए नहीं देता कि तुम अपने वाइफ़ के हाथ से कांग्रेस का चन्दा दिलवाये। तुमको इसलिए सरकार रुपया नहीं देता।

मिस्टर सेठ को अब अपनी सफ़ाई देने का अवसर मिला। बोले––मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरी वाइफ़ ने सरासर मेरी मर्जी के ख़िलाफ़ रुपये दिये हैं। मैं तो उस वक्त फ़्लावर शो देखने गया था, जहाँ मैंने मिस फ्रांक का गुलदस्ता पांच रुपये में लिया। वहाँ से लौटा, तो मुझे यह ख़बर मिली।

साहब––ओ! तुम हमको बेवकूफ़ बनाता है?

यह बात अग्नि-शिखा की भाँति ज्यों ही साहब के मस्तिष्क में घुसी, उनके मिजाज़ का पारा उबाल के दर्जे तक पहुँच गया। किसी हिन्दुस्तानी की इतनी मज़ाल कि उन्हें बेवकूफ़ बनाये। वह, जो हिन्दुस्तान के बादशाह हैं, जिनके पास बड़े-बड़े तालुकेदार सलाम करने आते हैं, जिनके नौकरों को बड़े-बड़े रईस नज़राना देते हैं। उन्हीं को कोई बेवकूफ़ बनाये। उसके लिए यह असह्य था। रूल उठाकर दौड़ा।

लेकिन मिस्टर सेठ भी मज़बूत आदमी थे। यों वह हर तरह की ख़ुशामद किया करते थे; लेकिन यह अपमान स्वीकार न कर सके। उन्होंने रूल को तो हाथ पर लिया और एक डग आगे बढ़कर ऐसा घूँसा साहब के मुँह पर रसीद किया कि साहब की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वह इस मुष्टिप्रहार के लिए तैयार न थे। उन्हें कई बार इसका अनुभव हो चुका था कि नेटिव बहुत शान्त, दब्बू और गमख़ोर होता है। विशेषकर साहबों के सामने तो उसकी ज़बान तक नहीं खुलती। कुर्सी पर बैठकर नाक का खून पोंछने लगा। फिर मिस्टर सेठ से उलझने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी; मगर दिल में सोच रहा था, इसे कैसे नीचा दिखाऊँ।

मिस्टर सेठ भी अपने कमरे में आकर इस परिस्थिति पर विचार करने लगे। उन्हें बिलकुल खेद न था; बल्कि वह अपने साहस पर प्रसन्न थे। इसकी बदमाशी तो देखो कि मुझ पर रूल चला दिया। जितना दबता था, उतना ही दबाये जाता था। मेम यारों को लिये घूमा करती है, उससे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती। मुझसे शेर बन गया। अब दौड़ेगा कमिश्नर के पास। मुझे बरख़ास्त कराये बग़ैर न छोड़ेगा। यह सब कुछ गोदावरी के कारण हो रहा है। बेइज्ज़ती तो हो ही गई। अब रोटियों को भी मुहताज़ होना पड़ा। मुझसे तो कोई पूछेगा भी नहीं, बरख़ास्तगी का परवाना आ जायगा। अपील कहाँ होगी? सेक्रेटरी हैं हिन्दुस्तानी; मगर अँगरेज़ों से भी ज़्यादा अँगरेज़। होम मेम्बर भी हिन्दुस्तानी हैं; मगर अँगरेज़ों के गुलाम। गोदावरी के चन्दे का हाल सुनते ही उन्हें जूड़ी चढ़ आयेगी। न्याय की किसी से आशा नहीं। अब यहाँ से निकल जाने में ही कुशल है।

उन्होंने तुरन्त एक इस्तीफ़ा लिखा और साहब के पास भेज दिया। साहब ने उस पर लिख दिया, 'बरख़ास्त'।

(५)

दोपहर को जब मिस्टर सेठ मुँह लटकाये हुए घर पहुँचे, तो गोदावरी ने पूछा––आज जल्दी कैसे आ गये?

मिस्टर सेठ दहकती हुई आँखों से देखकर बोले––जिस बात पर लगी थीं, वह हो गई। अब रोओ, सिर पर हाथ रखके!

गोदावरी––बात क्या हुई, कुछ कहो भी तो?

सेठ––बात क्या हुई, उसने आँखें दिखाईं। मैंने चाँटा जमाया और इस्तीफ़ा देकर चला आया।

गोदावरी––इस्तीफ़ा देने की क्या जल्दी थी?

सेठ––और क्या सिर के बाल नुचवाता? तुम्हारा यही हाल है, तो आज नहीं कल अलग होना ही पड़ता।

गोदावरी––ख़ैर जो हुआ अच्छा ही हुआ। आज से तुम भी कांग्रेस में शरीक हो जाओ।

सेठ ने ओठ चबाकर कहा––लजाओगी तो नहीं, ऊपर से घाव पर नमक छिड़कती हो।

गोदावरी––लजाऊँ क्या, मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारी बेड़ियाँ कट गईं।

सेठ––आखिर कुछ सोचा है, काम कैसे चलेगा?

गोदावरी––सब सोच लिया है, मैं चलाकर दिखा दूँगी। हाँ, मैं जो कुछ कहूँ, वह तुम किये जाना। अब तक मैं तुम्हारे इशारों पर चलती थी, अबसे तुम मेरे इशारे पर चलना। मैं तुमसे किसी बात की शिकायत न करती थी; तुम जो कुछ खिलाते थे, खाती थी, जो कुछ पहनाते थे, पहनती थी। महल में रखते, महल में रहती। झोंपड़ी में रखते, झोपड़ी में रहती। उसी तरह तुम भी रहना। जो काम करने को कहूँ, वह करना। फिर देखूँ, कैसे काम नहीं चलता। बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट में नहीं है। जिसकी आत्मा पवित्र हो, वही ऊँचा है। आज तक तुम मेरे पति थे, आज से मैं तुम्हारी पति हूँ।

सेठजी उसकी ओर स्नेह की आँखों से देखकर हँस पड़े।