सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ २२३ से – २२५ तक

 


देकर हटा देने को जी चाहा । उसे एक कमरे में रक्खा, उसके जन्म को धोया और उसकी शुश्रूषा की ।

किंतु यह कितने दिनों तक चल सकता था ? सदा के लिए उसे घर में रखने योग्य न सुविधा मेरे पास थी, न इतनी हिम्मत ही; अतः मैंने उसे गिरमिटियों के सरकारी अस्पताल भेज दिया ।

पर इससे मुझे तृप्ति न हुई । मन में यह हुआ करता कि यदि ऐसा कोई , शुश्रषा का काम सदा मिलता रहे तो क्या अच्छा हो ? डा० बुध सेंट एडम्स मिशन के अधिकारी थे । जो कोई आता उसे वह हमेशा मुफ्त दवा देते थे । बड़े भले आदमी थे; उनका हृदय स्नेहपूर्ण था । उनकी देख-रेख में पारसी रुस्तमजी के दान से एक छोटा-सा अस्पताल खोला गया था । इसमें नर्स के तौर पर काम करने की भुझे प्रबल इच्छा हुई । एक से लेकर दो घंटे तक उसमें दवा देने का काम रहता था । दवा बनाने वाले किसी वैतनिक या स्वयंसेवक की वहां जरूरत थी । मैंने इतना समय अपने काम में से निकाल कर इस काम को करने का निश्चय किया । वकालत संबंधी मेरा काम तो इतना ही था--दफ्तर में बैठे बैठे सलाह देना, दस्तावेजों के मसविदे बनाना और झगड़े सुलझाना। मजिस्ट्रेट के इजलास में थोड़-बहुत मुकदमे रहते । उसमें से अधिकांश तो अविवादास्पद होते थे । जब ऐसे मुकदमे होते तब मि० खान उनकी पैरवी कर देते हैं वह मेरे बाद आये थे और मेरे साथ ही रहते थे । इस तरह मैं इस छोटे-से अस्पताल में काम करने लगा ।

रोज सुबह वहां जाना पड़ता था । आने-जाने और वहां काम करने में । कोई दो घंटे लग जाते थे। इस काम से मेरे मन को कुछ शांति मिली । रोगी से हाल-चाल पूछकर डाक्टर को समझाना और डाक्टर जो दवा बतावे वह तैयार करके दे देना--यह मेरा काम था । इस कार्य से मैं दुखी हिंदुस्तानियों के प्रगाढ़ संबंध आने लगा । उनमें अधिक भाग तमिल और तेलगू अथवा हिंदुस्तानी गिरमिटियों का था ।

यह अनुभव मुझे भविष्य में बड़ा उपयोगी साबित हुआ । बोझ-युद्ध के ‘समय घायलों की शुश्रषा में तथा दूसरे रोगियों की सेवा-टल में मुझे उससे बड़ी सहायता मिली । अस्तु ।

इधर बालकों की परवरिश का : प्रश्न तो मेरे सामने था ही । दक्षिण
अफ़्रीका मैं मुझे दो लड़के और हुए । उनका लालन-पालन करने की समस्या को हल करने में मुझे इस काम से अच्छी सहायता मिली । मेरा स्वतंत्र स्वभाव मुझे बहुत तपाया करता था और अब भी तपाता है । हम दंपती ने निश्चय किया कि प्रसव-कार्य शास्त्रीय पद्धति के अनुसार ही होना चाहिए । इसलिए यद्यपि डाक्टर और नर्स का तो प्रबंध था ही, फिर भी मेरे मन में यह विचार आया कि यदि डाक्टर साहब समय पर न आ पावें और दाई कहीं चली जाय तो मेरा क्या हाल होगा ? दाई तो हिंदुस्तानी ही बुलाने वाले थे । शिक्षिता दाई हिंदुस्तान में ही मुश्किल से मिलती है तो फिर दक्षिण अफ्रीका की तो बात ही क्या ? इसलिए मैंने बाल पालन का अध्ययन किया । डा० त्रिभुवन दास लिखित 'माने शिखामण' नामक पुस्तक पढ़ी । उसमें कुछ घटा-बढ़ाकर अंतिम दोनों बालकों का लालन-पालन प्रायः मेने खुद किया । हर बार दाई की सहायता तो ली; पर दो मास से अधिक नहीं । सो भी प्रधानतः धर्म पत्नी की सेवा के लिए । बच्चों को नहलाने-धुलाने का काम शुरूआत में मैं ही करता था ।

पर अंतिम बालक के जन्म के समय मेरी पूरी-पूरी आजमाइश हो गई । प्रसव-वेदना एका एक शुरू हुई। डाक्टर मौजूद नहीं था | मैं दाई को बुलाने वाला था; पर वह यदि नजदीक होती भी तो प्रसव न करा पाती । अतएव प्रसवकालीन सारा काम खुद मुझे करना पड़ा । सौभाग्य से मैंने यह विषय माने शिखामण' में अच्छी तरह पढ़ लिया था; इससे घबराया नहीं ।

मैंने देखा कि माता-पिता यदि चाहते हों कि उनके बच्चों की परवरिश अच्छी तरह हो तो दोनों को बाल-पालन आदि का मामूली ज्ञान अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए । इसके संबंध में जितनी चिता मैने रक्खी है उसका लाभ मुझे कदम-कदम पर दिखाई दिया है । मेरे लड़कों की तंदुरुस्ती जो आज आम-तौरपर अच्छी है, वह अच्छी नहीं रही होती, यदि मैंने बालकों के लालन-पालन का आवश्यक ज्ञान प्राप्त न किया होता और उसका पालन न किया होता । हम लोगों में यह एक बहम प्रचलित है कि पहले पांच साल तक बच्चों को शिक्षा देने की जरूरत नहीं है । परंतु सच्ची बात यह है कि बालक प्रथम पांच वर्षों में जितना सीखता है उतना बाद को हरगिज नहीं । मैं अनुभव से यह कह सकता हूं कि बालक की शिक्षा की शुरूआत तो माना के उदर से ही शुरू हो जाती है। गर्भाधान के समय की गाता
पिता की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का प्रभाव बच्चे पर अवश्य पड़ता है । माता की गर्भ-कालीन प्रकृति, माता के आहार-विहार के अच्छे-बुरे फल को विरासत में पाकर बच्चा जन्म पाता है । जन्म के बाद वह माता-पिता का अनुकरण करने लगता हैं । वह खुद तो असहाय होता है, इसलिए उसके विकास का दारोमदार माता-पिता पर ही रहता है ।

जो समझदार दंपती इतना विचार करेंगे वें तो कभी दंपति-संग को विषय-वासना की पूर्ति का साधन न बनावेंगे । वे तो तभी संग करेंगे, जब उन्हें संतति की इच्छा होगी । रति-सुख का स्वतंत्र अस्तित्व हैं, यह मानना मुझे तो घोर अज्ञान ही दिखाई देता हैं । जनन-क्रिया पर संसार के अस्तित्व का अवलंबन है । संसार ईश्वर की लीला-भूमि है, उसकी महिमा का प्रतिबिंब है । जो शख्स यह मानता है कि उसकी सुव्यवस्थित बुद्धि के लिए ही रति-क्रिया निर्माण हुई है, वह विषय-वासना को भगीरथ प्रयत्न के द्वारा भी रोकेगा । और रति-भोग के फलस्वरूप जो संतति उत्पन्न होगी उसकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रक्षा करने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करके अपनी प्रजा को उससे लाभान्वित करेगा !

ब्रह्मचर्य-१

अब ब्रह्मचर्य के संबंध में विचार करने का समय आया है । एक पत्नीव्रत ने तो विवाह के समय से ही मेरे हृदय में स्थान कर लिया था । पत्नी के प्रति मेरी वफ़ादारी मेरे सत्यव्रत का एक अंग था, परंतु स्वपत्नी के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करने की आवश्यकता मुझे दक्षिण अफ्रीका में ही स्पष्टरूप से दिखाई दी । किस प्रसंग से अथवा किस पुस्तक के प्रभाव से यह विचार मेरे मन में पैदा हुआ, यह इस समय ठीक याद नहीं पड़ता; पर इतना स्मरण होता है कि इसमें रायचंदभाई का प्रभाव प्रधानरूप से काम कर रहा था ।

उनके साथ हुआ एक संवाद मुझे याद है । एक बार मैं मि० ग्लैडस्टन के प्रति मिसेज ग्लैडस्टन के प्रेम की स्तुति कर रहा था । मैंने पढ़ा था कि हाउस

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