सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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बाल-शिक्षण

जनवरी १८९७में मैं जब डरबन उतरा तब मेरे साथ तीन बालक थे। एक मेरा १० सालका भानजा, दूसरे मेरे दो लड़के-एक नौ सालका और दूसरा पांच सालका। अब सवाल यह पेश हुआ कि इनकी पढ़ाई-लिखाईका क्या प्रबंध करें।

गोरोंकी पाठशालामें मैं अपने बच्चोंको भेज सकता था; पर वह उनकी मेहरबानीसे और बतौर छूटके। दूसरे हिंदुस्तानियोंके लड़के उनमें नहीं पढ़ सकते थे। हिंदुस्तानी बच्चोंको पढ़ानेके लिए ईसाई-मिशनके मदरसे थे। उनमें अपने बच्चोंको पढ़ानेके लिए में तैयार न था। वहां की शिक्षा-दीक्षा मुझे पसंद
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न थी । और गुजराती के द्वारा भला वहां पढ़ाई कैसे हो सकती थी ? या तो अंग्रेजी द्वारा हो सकती थी, या बहुत प्रयास करने पर टूटी-फूटी तमिल या हिंदी के द्वारा । इन तथा दूसरी त्रुटियों को दर-गुजर करना मेरे लिए मुश्किल था ।

मैं खुद बच्चों को पढ़ाने की थोड़ी-बहुत कोशिश करता; परंतु पढ़ाई नियमित रूप से न चलती । इधर गुजराती शिक्षक भी मैं अपने अनुकूल न खोज सका !

मै सोच में पड़ा । मैंने एक ऐसे अंग्रेजी शिक्षक के लिए विज्ञापन दिया, जो मेरे विचारों के अनुसार बालकों को शिक्षा दे सके । सोचा कि इस तरह जो शिक्षक मिल जायगा, उससे कुछ तो नियमित पढ़ाई होगी और कुछ मैं खुद जिस तरह बन पड़ेगा काम चलाऊंगा । सात पौंड वेतन पर एक अंग्रेज महिला को रक्खा और किसी तरह काम आगे चलाया ।

मैं बालकों से गुजराती में ही बातचीत करता । इससे उन्हें कुछ गुजराती का ज्ञान हो जाता था । उन्हें देस भेज देने के लिए मैं तैयार न था । उस समय भी मेरा यह विचार था कि छोटे बच्चों को मां-बाप से दूर न रखना चाहिए । सुव्यवस्थित घर में बालक जो शिक्षा अपने-आप पा लेते हैं वह छात्रालयों में नहीं पा सकते हैं । अतएव अधिकांश में वे मेरे ही पास रहे । हां, भानजे और बड़े लड़के को मैंने कुछ महीनों के लिए देस के जुदा-जुदा छात्रालयों में भेज दिया था; पर शीघ्र ही वापस बुला लिया । बाद को मेरा बड़ा लड़का, वयस्क हो जाने पर अपनी इच्छा से अहमदाबाद के हाईस्कूल में पढ़ने के लिए दक्षिण अफ्रीका से चला आया । भानजे के बारे में तो मेरा खयाल है कि जो शिक्षण में दे रहा था उससे उसे संतोष था । वह कुछ दिन बीमार रहकर भर-जवानी में इस लोक को छोड़ गया । शेष तीन लड़के कभी किसी पाठशाला में पढ़ने न गये । सिर्फ सत्याग्रह के सिलसिले में स्थापित पाठशाला में उन्होंने नियमित रूप से कुछ पढ़ा था ।

मेरे ये प्रयोग अपूर्ण थे । जितना में चाहता था उतना समय बालकों को न दे सकता था । इस तथा अन्य अनिवार्य अड़चनों के कारण मैं जैसा चाहता था वैसा अक्षर-ज्ञान उन्हें न दे सका । मेरे तमाम लड़कों को थोड़ी मात्रा में यह शिकायत मुझसे रही है; क्योंकि जब-जब वे 'बी० ए०' 'एम० ए०' अथवा 'गैट्रिक्युलेटकि भी समागम में आते हैं तब-तब वे अपने अंदर स्कूल मैं न पढ़ने की [ २२१ ]
कर्मी को अनुभव करते हैं ।

इतना होते हुए भी मेरा अपना यह मत है कि जो अनुभव-ज्ञान उन्हें मिला हैं, माता-पिता का जो सहवास वे प्राप्त कर सके हैं, स्वतंत्रता का जो पदार्थपाठ सीख पाये हैं--यह सब वे न प्राप्त कर सकते, यदि मैंने उनकी रुचि के अनुसार उन्हें स्कूल में भेजा होता । उनके संबंध में जितना निश्चिन्त मैं आज हूं, उतना न हुआ होता और जो सादगी और सेवा-भाव आज उनके अंदर दिखाई देता है उसे वे न सीख पाते यदि मुझसे अलग रहकर विलायत में अथवा अफ्रीका में कृत्रिम शिक्षा उन्होंने पाई होती । बल्कि उनकी कृत्रिम रहन-सहन शायद मेरे देशकार्य में भी बाधक हो जाती ।

इस कारण, यध्यपि में जितना चाहता था उतना अक्षर-ज्ञान उन्हें न दे सका, तथापि जब मै अपने पिछले वर्षों का विचार करता हूं तो मुझे यह नहीं लगता कि मैंने उनके प्रति अपने धर्म का यथा-शक्ति पालन नहीं किया और न मुझे इस बात पर पश्चाताप ही होता हैं; बल्कि इसके विपरीत जब मैं अपने बड़े लड़के के दुःखद परिणाम देखता हूं तो मुझे बार-बार यह मालूम होता है कि वह मेरे अध कचरे पूर्व काल की प्रतिध्वनि हैं । वह मेरा एक तरह से मूर्च्छा-काल, वैभव काल था और उस समय उसकी उम्र इतनी थी कि उसे उसका स्मरण रह सकता था । अब वह कैसे मानेगा कि वह मेरा मूर्च्छा-काल था ? वह यह क्यों न मानेगा कि वह तो मेरा ज्ञान-काल था और बाद के ये परिवर्तन अनुचित और मोह-जन्य हैं ? वह क्यों न माने कि उस समय मैं जगत के राजमार्ग पर चल रहा था और इसलिए सुरक्षित था और उसके बाद किये परिवर्तन मेरे सूक्ष्म अभिमान और अज्ञान के चिह्न हैं ? यदि मेरे पुत्र बैरिस्टर इत्यादि पदवी पाये होते तो क्या बुरा था ? मुझे उनके पंख काटने का क्या अधिकार था ? मैंने उन्हें क्यों न ऐसी स्थिति में रक्खा, जिससे वे अपनी रुचि के अनुसार जीवन-मार्ग पसंद करते ? ऐसी दलीलें मेरे कितने ही मित्रों ने मेरे सामने पेश की हैं ।

पर मुझे इनमें जोर नहीं मालूम देता । अनेक विध्यार्थियों से मेरा साब का पड़ा हैं । दूसरे बालकों पर दूसरे प्रयोग भी मैंने किये हैं अथवा करने में सहायक हुआ हूं। उनके परिणाम भी मैंने देखे हैं । वे बालक और मेरे लड़के आज एक उम्र के है । पर मै नहि मानता कि वे मेरे लड़कों से मनुष्य्त्व में बढ़े-चढ़े है अथवा [ २२२ ]
मेरे लड़के उनसे बहुत-कुछ सीख सकते हैं ।

फिर भी मेरे प्रयोग का अंतिम परिणाम तो भविष्य ही बता सकता है । इस विषय की चर्चा यहां करने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य-जाति की उत्क्रांतिका का अध्ययन करने वाला मनुष्य इस बात का कुछ-कुछ अंदाज कर सके कि गृह-शिक्षा और स्कूल-शिक्षा के भेद का और अपने जीवन में किये माता-पिता के परिवर्तनों का बच्चों पर क्या असर होता है ।

इसके अलावा इस प्रकरण का यह भी तात्पर्य हैं कि सत्य का पुजारी देख सके कि सत्य की आराधना उसे किस हदतक ले जा सकती है और स्वतंत्रता देवी का उपासक यह देख सके कि वह कितना बलिदान मांगती है । हां, बालकों को अपने साथ रखते हुए भी उन्हें अक्षर-ज्ञान दिला सकता था, यदि मैंने आत्मसम्मान छोड़ दिया होता, यदि मैंने इस विचार को कि जो शिक्षा दूसरे हिंदुस्तानी बालकों को नहीं मिल सकती वह मुझे अपने बच्चों को दिलाने की इच्छा न करनी चाहिए, अपने हृदय में स्थान न दिया होता । पर उस अवस्था में वे स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का वह पदार्थ-पाठ न सीख पाते, जो आज सीख सके हैं। और जहां स्वतंत्रता और अक्षर-ज्ञान इनमें से किसी एक को पसंद करने का सवाल हो, वहां कौन कह सकता हैं कि स्वतंत्रता अक्षर-ज्ञान से हजार-गुना अच्छी नहीं है ?

१९२० में मैंने जिन नवयुवकों को स्वतंत्रता-घातक स्कूलों और कालेजों को छोड़ देने का निमंत्रण दिया और जिनसे मैंने कहा कि स्वतंत्रता के लिए निरक्षर रहकर सड़कों पर गिट्टी फोड़ना बेहतर हैं, बनिस्बत इसके कि गुलामी में रहकर अक्षर-ज्ञान प्राप्त करें, वे शायद अब मेरे इस कथन का मूल स्रोत देख सकेंगे ।