सत्य के प्रयोग
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सत्यके प्रयोग अथवा
लेखक
मोहनदास करमचंद गांधी
°
अनुवादक
हरिभाऊ उपाध्याय
°
१९४८
सस्ता साहित्य मंडल
नई दिल्ली
प्रकाशक
मार्तंड उपाध्याय, मंत्री,
सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली
नवीं बार : १९४८
सजिल्द
मूल्य साढे़ चार रुपये
मुद्रक
दिल्ली प्रेस
नई दिल्ली
सातवें संस्करण के बारे में
आजसे कोई अठारह साल पहले मैंने 'आत्मकथा' का हिन्दी अनुवाद किया था। उसके बाद यह पहला मौका हैं जब कि मैं उसे दुहरानेका समय निकाल पाया हूं। हिंदी में अबतक इसके छ: संस्करण निकल चुके हैं। कुछ मित्रोंने इस बातकी ओर ध्यान भी दिलाया कि मैं एक बार फिर मूल गुजरातीसे मिलाकर अनुवादको देख जाऊं तो अच्छा रहे। मेरे पास इस समय गुजराती 'आत्मकथा'की छठी आवृत्ति है, जो १९४० में प्रकाशित हुई थी। उससे मिलाकर, इसमें जहां कहीं कसर या त्रुटि मालूम हुई हैं मैंने उसे ठीक करने का प्रयास किया है। अपना ही लिखा हम जब-जब देखते हैं तब-तब कुछ-न-कुछ सुधार करनेकी इच्छा हो जाती है, तो फिर १८ साल पहलेका अनुवाद देखनेसे मुझे यों भी शब्दों व भाषा-संबंधी कई सुधार सूझना स्वाभाविक था। मैंने इसमें कंजूसीसे काम नहीं लिया है।
पूज्य बापूकी इस पवित्र कथा और अनमोल प्रयोगोंको फिरसे एक बार अच्छी तरह पढ़नेका जो सुअवसर मिला उससे मेरी आत्माको भी अच्छी खुराक मिली; कई पुरानी भावनाएं नये सिरेसे जाग उठीं, उनके प्रकाशमें अपनी कमियों व कमजोरियोंको भी देखने व परखनेका मौका मिला; यह अमिट छाप फिरसे हृदय पर पड़ी कि बापूकी यह 'आत्मकथा' उसके प्रतिक्षण विकासशील दिव्य जीवनकी तरह, पाठकोंको वास्तवमें नित नई सत्यकी प्रेरणा व प्रकाश देने वाली है और सत्यकी शोधके इतिहासमें इसका अमर स्थान है। क्या अच्छा हो कि बापू अपने अब तकके सत्यके और भी महान् प्रयोग व अनुभवोंकी कथा और लिख डालें। मुझे विश्वास है कि सत्यके इस निडर उपासकके अगले अनुभव अधिक दिव्य व अद्भुत होंगे और उनसे संसारको एक नई रोशनी मिलेगी।
गांधी-आश्रम, हटूंडी (अजमेर) शीतला सप्तमी, २००२ वि० |
-हरिभाऊ उपाध्याय |
(प्रथम संस्करण)
यह मेरा अहोभाग्यहै कि महात्माजीकी 'आत्मकथा' के हिन्दी अनुवादका अवसर मुझे मिला। 'नवजीवन'में आत्म-कथाके प्रकाशित होनेके पहले ही मैं ‘हिन्दी-नवजीवन'को छोड़कर, महात्माजीकी आज्ञासे, राजस्थानमें काम करने के लिए आ चुका था। मेरे बाद कई भाइयोंके हाथोंमें 'हिन्दी-नवजीवन' का काम रहा और आत्मकथाका अनुवाद भी उसमें कई मित्रों द्वारा हुआ। अतएव उसमें भाषा-शैलीका एक-सा न रहना स्वाभाविक था। परन्तु उसे पुस्तक-रूपमें प्रकाशित करने के लिए यह आवश्यक समझा गया कि अनुवाद किसी एक व्यक्तिसे कराया जाय। यह निर्णय होते ही मैंने भूखे भिखारीकी तरह, झपट कर, अनुवादका भार अपने सिरपर ले लिया। सचमुच, वह दिन मेरे बड़े सद्भाग्यका दिन था।
अनुवाद मैंने गुजरातीसे किया। मूल कथा महात्माजी गुजराती में ही लिख रहे हैं। अंग्रेजी अनुवादमें बहुत स्वतंत्रता ली गई है। अतएव अंग्रेजीसे हिंदी उल्था करनेमें हिंदी अनुवाद मूल गुजरातीसे बहुत दूर जा पड़ता। महात्माजी गुजरातीमें बड़े थोड़ेमें, और बहुत खूबीसे, अपने हृदयके गूढ़ भावोंको व्यक्त कर देते हैं। उनका अनुवाद करना, कई बार बड़ा कठिन हो जाता है। भावको विशद करने जाते हैं तो भाषा-सौंदर्य नहीं निभ पाता और भाषा-सौंदर्यपर ध्यान देने लगते हैं तो भावमें गड़बड़ी पड़ने लगती है। मैंने कहीं-कहीं भाषाके किंचित् अटपटेपनको स्वीकार करके भी महात्माजीकी मार्मिक वाक्य-रचनाको कायम रखने की कोशिश की है। पाठक महात्माजीके ऐसे वाक्योंको 'आर्ष' वाक्य ही समझ लें। दूसरे हिंदीभाषा ज्यों-ज्यों राष्ट्र भाषाकी योग्यता और श्रेष्ठताको पहुंचती जायगी त्यों-त्यों उसका 'परदेकी बीबी' बनी रहना असम्भव होता जायगा। उसे गुजराती, मराठी, बंगाली आदि के सुंदर और मार्मिक शब्द-प्रयोगोंको अपनाकर अपना भंडार भरे बिना गुजर नहीं। इस दृष्टिसे तो इस अनुवादके ऐसे शब्द-प्रयोग मेरी रायमें केवल क्षम्य ही नहीं, स्वागत-योग्य भी हैं। रहा अनुवाद। सो इसकी अच्छाई-बुराईके बारेमें मुझे कुछ भी कहनेका अधिकार नहीं। मूल वस्तुकी अद्वितीयतासे तो कोई इन्कार नहीं कर सकता। अनुवादमें यदि मूलकी उत्तमतासे पाठकको वंचित रहना पड़े तो अपनी इस असमर्थताका दोष-भागी मैं अवश्य हूं।
जबसे मैंने अनुवादको हाथमें लिया है, मैं मुश्किल से एक जगह ठहरने पाया हूं- जहां ठहरने भी पाया हूं, तहां अन्यान्य कामोंमें भी लगा रहना पड़ा है। अतएव जितना जल्दी मैं चाहता था, इस अनुवादको पूरा न कर सका। इसका मुझे बड़ा दुःख हैं। पाठकोंकी बढ़ी हुई उत्सुकताको यदि यह अनुवाद पसंद हुआ तो मेरा दु:ख कम हो जायगा। अभी तो यह भाव कि मैं महात्माजीके इस प्रसादको हिंदी पाठकोंके सामने पुस्तक-स्वरूपमें रखनेका निमित्त-भागी बना हूं, उस दु:खको कम कर रहा है। और जब मेरी दृष्टि इस अनुवादके भावी कार्यकी ओर जाती है, तब तो मुझे इस सौभाग्यपर गर्व होने लगता है। मुझे विश्वास है कि महात्माजीकी यह उज्ज्वल 'आत्म-कथा' भूमण्डलके आत्मार्थियोंके लिए एक दिव्य प्रकाश-पथका काम देगी और उन्हें आशा तथा आत्माका अमर संदेश सुनावेगी।
विषय | पृष्ठ | विषय | पृष्ठ |
पहला भाग | | २१. 'निर्बलके बल राम' | ७४ |
१. जन्म | ३ | २२. नारायण हेमचंद्र | ७७ |
२. बचपन | ६ | २३. महाप्रदर्शिनी | ८१ |
३. बाल-विवाह | ८ | २४. बैरिस्टर तो हुए--लेकिन | |
४. पतिदेव | ११ | आगे? | ८३ |
५. हाई स्कूलमें | १४ | २५. मेरी दुविधा | ८६ |
६. दु:खद प्रसंग——१ | १९ | ||
७. दुःखद प्रसंग——२ | २३ | दूसरा भाग | |
८. चोरी श्रौर प्रायश्चित | २६ | १. रायचंदभाई | ९० |
९. पिताजीकी मृत्यु और | | २. संसार-प्रवेश | ९३ |
मेरी शर्म | ३० | ३. पहला मुकदमा | ९७ |
१०. धर्मकी झलक | ३३ | ४. पहला आघात | १०० |
११. विलायतकी तैयारी | ३७ | ५. दक्षिण अफ़्रीकाकी | |
१२. जाति-बहिष्कार | ४१ | तैयारी | १०३ |
१३. आखिर विलायतमें | ४४ | ६. नेटाल पहुंचा | १०६ |
१४. मेरी पसन्दगी | ४८ | ७. कुछ अनुभव | १०९ |
१५. 'सभ्य' वेशमें | ५१ | ८. प्रिटोरिया जाते हुए | ११२ |
१६. परिवर्तन | ५५ | ९. और कष्ट | ११७ |
१७. भोजनके प्रयोग | ५८ | १०. प्रिटोरियामें पहला दिन | १२१ |
१८. झेंप——मेरी ढाल | ६२ | ११. ईसाइयोंसे परिचय | १२५ |
१९. असत्य-रूपी जहर | ६६ | १२. भारतीयोंसे परिचय | १२९ |
२०. धार्मिक परिचय | ७१ | १३. कुलीपनका अनुभव | १३१ |
विषय १. तूफानके चिह्न |
पृष्ठ |
विषय |
पृष्ठ |
| विषय | पृष्ठ | | विषय | पृष्ठ |
७. | मिट्टी और पानी के | | २८. | पत्नी की दृढ़ता | ३२८ |
| प्रयोग | २६९ | २९. | घरमें सत्याग्रह | ३३२ |
८. | एक चेतावनी | २७२ | ३०. | संयमकी ओर | ३३५ |
९. | जबरदस्तसे मुकाबला | २७५ | ३१. | उपवास | ३३७ |
१०. | एक पुण्य स्मरण और | | ३२. | मास्टर साहब | ३४० |
| प्रायश्चित्त | २७७ | ३३. | अक्षर-शिक्षा | ३४२ |
११. | अंग्रेजोंसे गाढ़ परिचय | २८० | ३४. | आत्मिक शिक्षा | ३४५ |
१२. | अंग्रेजोंसे परिचय (चालू) | २८३ | ३५. | अच्छे-बुरेका मेल | ३४७ |
१३. | ‘इंडियन ओपीनियन’ | २८७ | ३६. | प्रायश्चित्तके रूपमें | |
१४. | ‘कुली लोकेशन’ या | | | उपवास | ३४९ |
| भंगीटोला? | २९० | ३७. | गोखलेसे मिलने | ३५१ |
१५. | महामारी——१ | २९३ | ३८. | लड़ाईमें भाग | ३५३ |
१६. | महामारी——२ | २९५ | ३९. | धर्मकी समस्या | ३५६ |
१७. | लोकेशनकी होली | २९९ | ४०. | सत्याग्रहकी चकमक | ३५८ |
१८. | एक पुस्तकका चमत्कारी | | ४१. | गोखलेकी उदारता | ३६२ |
| प्रभाव | ३०१ | ४२. | इलाज क्या किया? | ३६४ |
१९. | फिनिक्सकी स्थापना | ३०४ | ४३. | विदा | ३६७ |
२०. | पहली रात | ३०६ | ४४. | वकालत की कुछ | |
२१. | पोलक भी कूद पड़े | ३०९ | | स्मृतियां | ३६९ |
२२. | ‘जाको राखे साइयां’ | ३१२ | ४५. | चालाकी? | ३७२ |
२३. | घरमें फेर-फार और | | ४६. | मवक्किल साथी बने | |
| बाल-शिक्षा | ३१५ | ४७. | मवक्किल जेलसे कैसे | |
२४. | जुलू ‘बलवा’ | ३१९ | | बचा? | ३७५ |
२५. | हृदय-मंथन | ३२१ | | पांचवां भाग | |
२६. | सत्याग्रहकी उत्पत्ति | ३२४ | १. | पहला अनुभव | ३७९ |
२७. | भोजनके और प्रयोग | ३२६ | २. | गोखलेके साथ पूनामें | ३८१ |
| विषय | पृष्ठ | | विषय | पृष्ठ |
३. | धमकी? | ३८३ | २५. | खेड़ा की लड़ाई का अंत | ४४४ |
४. | शांति-निकेतन | ३८७ | २६. | ऐक्य के प्रयत्न | ४४६ |
५. | तीसरे दर्जे की फजीहत | ३९० | २७. | रंगरूटों की भर्ती | ४४९ |
६. | मेरा प्रयत्न | ३९२ | २८. | मृत्यु-शय्यापर | ४५५ |
७. | कुंभ | ३९३ | २९. | रौलेट-ऐक्ट और मेरा | |
८. | लक्ष्मण-झूल | ३९८ | | धर्म-संकट | ४५९ |
९. | आश्रमकी स्थापना | ४०१ | ३०. | वह अद्भुत दृश्य | ४६३ |
१०. | कसौटीपर | ४०३ | ३१. | वह सप्ताह!——१ | ४६५ |
११. | गिरमिट-प्रथा | ४०६ | ३२. | वह सप्ताह!——२ | ४७० |
१२. | नीलका दाग | ४१० | ३३. | 'हिमालय-जैसी भूल' | ४७४ |
१३. | बिहार की सरलता | ४१३ | ३४. | 'नवजीवन' और | |
१४. | अहिंसादेवी का | | | 'यंग-इंडिया' | ४७६ |
| साक्षात्कार | ४१६ | ३५. | पंजाबमें | ४७८ |
१५. | मुकदमा वापस | ४२० | ३६. | खिलाफतके बदलेमें | |
१६. | कार्य-पद्धति | ४२३ | | गोरक्षा? | ४८१ |
१७. | साथी | ४२६ | ३७. | अमृतसर-कांग्रेस | ४८५ |
१८. | ग्राम-प्रवेश | ४२८ | ३८. | कांग्रेसमें प्रवेश | |
१९. | उज्जवल पक्ष | ४३० | ३९. | खादीका जन्म | ४९१ |
२०. | मजदूरोंसे संबंध | ४३२ | ४०. | मिल गया | ४९३ |
२१. | आश्रमकी झांकी | ४३५ | ४१. | एक संवाद | ४९६ |
२२. | उपवास | ४३७ | ४२. | असहयोगका प्रवाह | ४९८ |
२३. | खेड़ामें सत्याग्रह | ४४० | ४३. | नागपुरमें | ५०२ |
२४. | 'प्याज-चोर' | ४४२ | ४४. | पूर्णाहुति | ५०३ |
यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।
यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।