सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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धन लेना है । यदि मैं अपने लिए रुपया लेने लगूं तो आपसे बड़ी-बड़ी रकमें लेते हुए भुझे संकोच होगा, और अपनी गाड़ी रुक जायगी । लोगों से तो मैं हर साल ३०० पौंड से अधिक ही खर्च करा दूंगा । ” मैंने उत्तर दिया ।

“पर हम तो आपको अब अच्छी तरह जान गये हैं । आप अपने लिए थोड़े ही चाहते हैं । आपके रहने का खर्चा तो हमी लोगों को न देना चाहिए ?”

“यह तो आपका स्नेह और तात्कालिक उत्साह आपसे कहलवा रहा है । यह कैसे मान लें कि यही उत्साह सदा कायम रह सकेगा ? मुझे तो आपको कभी कड़वी बात भी कहनी पड़ेगी । उस समय भी मैं आपके स्नेह का पात्र रह सकूंगा या नहीं, सो ईश्वर जाने; पर असली बात यह है कि सार्वजनिक-काम के लिए रुपया-पैसा मैं न लूं । आप लोग सिर्फ अपने मामले मुकदमे मुझे देते रहने का वचन दें तो मेरे लिए काफी हैं । यह भी शायद आपको भारी मालूम होगा; क्योंकि मैं कोई गोरा बैरिस्टर तो हूं नहीं, और यह भी पता नहीं कि अदालत मुझ-जैसे को दाद देगी या नहीं । यह भी नहीं कह सकता कि पैरवी कैसी कर सकुंगा । इसलिए मुझे पहले से मेहनताना देने में भी आपको जोखिम उठानी पड़ेगी । और इतने पर भी यदि आप मुझे मेहनताना दें तो यह तो मेरी सेवाओं की बदौलत ही न होगा ?”

इस चर्चा का नतीजा यह निकला कि कोई २० व्यापारियों ने मिलकर मेरे एक वर्ष की आय का प्रबंध कर दिया । इसके अलावा दादा अब्दुल्ला बिदाई के समय मुझे जो रकम भेंट करने वाले थे उसके बदले उन्होंने मुझे आवश्यक फर्नीचर ला दिया और मैं नेटल में रह गया ।

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वर्गा-द्वेष

अदालतों का चिह्न है तराजू । उसे पकड़ रखने वाली एक निष्पक्ष, अंधी, परंतु समझदार बुढ़िया है । उसे विधाता ने अंधा बनाया है कि जिससे वह मुंह देखकर तिलक न लगावे; बल्कि योग्यता को देखकर लगावे । इसके विपरीत, नेटाल की अदालत से तो मुंह देखकर तिलक लगवाने के लिए वहां की [ १६७ ]
वकील-सभाने कमर कसी थी; किन्तु अदालत ने इस अवसर पर अपने चिह्न की लाज रख ली ।

मुझे वकालत की सनद लेनी थी। मेरे पास बंबई हाईकोर्ट का तो प्रमाण। था; पर विलायत का प्रमाण-पत्र बंबई-अदालत के दफ्तर में था; वकालत की मंजुरी की दरख्वास्त के साथ नेकचलनी के दो प्रमाणपत्र को आवश्यकता समझी जाती थी। मैंने सोचा कि यदि ये प्रमाण पत्र गोरे लोगों के हों तो ठीक हो ! इसलिए अब्दुल्ला सेठ की मार्फत मेरे संपर्क में आये दो प्रसिद्ध गोरे व्यापारियों के प्रमाण-पत्र लिये । दरख्वास्त किसी वकील की मार्फत दी जानी चाहिए। मामूली कायदा यह था कि ऐसी दरख्वास्त एटन-जनरल बिना फीस के पेश करता है। मि० एस्कंब एटन-जनरल थे । हम जानते ही हैं कि अब्दुल्ला सेठ के वह वकील थे । अतएव उनसे मिला और उन्होंने खुशी मेरी दरख्वास्त पेश करना मंजूर कर लिया ।

इतने अचानक वकील-सभा को तरफ से मुझे नोटिस मिला। नोटिस मेरे वकालत करने के खिलाफ विरोध की आवाज उठाई गई थी। इसमें एक कारण यह बताया गया था कि मैंने वकालत की दरख्वास्त के साथ असल प्रमाण-पत्र नहीं पेश किया था; परंतु विरोध की असली बात यह थी कि जिस समय अदालत को वकीलों को दाखिल करने के संबंध में नियम बने, उस समय किसी ने भी यह खयाल न किया होगा कि वकालत के लिए कोई काला या पीला अदमी आकर दरख्वास्त देगा। नेटाल गोरों के साहस का फल है और इसलिए यहां गोरों की प्रधानता रहनी चाहिए । उनको भय हुआ कि यदि काले वकील भी अदालत में आने लगेंगे तो धीरे-धीरे गोरों की प्रवनती चली जायगी और उनकी रक्षा की दीवारें टूट जायंगी ।

इस विरोध के समर्थन के लिए वकील-सभाने एक प्रख्यात वकील को अपनी तरफ से खड़ा किया था। इस वकील का भी संबंध दादा अब्दुल्ला से था । उनकी मार्फत उन्होंने मुझे बुलाया । उन्होंने शुद्ध-भावना से मुझसे बातचीत की । मेरा इतिहास पूछा। मैंने सब कह सुनाया । तब वह बोले

“मुझे आपके खिलाफ कुछ नहीं कहना । मुझे यह भय था कि आप कोई यहीं के पैदा हुए धूर्त आदमी होंगे। फिर आपके पास असली प्रमाण-पत्र नहीं हैं, इससे मैरे शक को और पुष्टि मिल गई । और ऐसे लोग भी होते हैं, जो दूसरों के [ १६८ ]
प्रमाण-पत्रों को इस्तैमाल कर लेते हैं । और आपने जो गोरो के प्रमाण-पत्र पेश किये हैं उनका असर मेरे दिलपर न हुआ। यहां के गोरे लोग भला आपको क्या पहचाने ? आपके साथ उनका परिचय ही कितना ?"

“पर यहां तो मेरे लिए सभी नये हैं । अब्दुल्ला सेठ से भी मेरी पहचान यहीं हुई !' मैं बीच में बोला ।

" हां, पर आप कहते हैं कि वह आपके गांव के हैं। और आपके पिता वहां के दीवान थे, अतएव आपके परिवार के लोगों को तो वह पहचानते ही हैं । यदि उनका हलफिया बयान पेश कर दें तो मुझे कुछ भी उज्ज़ न होगा। मैं वकीलसभा को लिख भेजूंगा कि गांधी का विरोध मुझसे न होगा ।"

मुझे गुस्सा आया, पर मैंने रोका ! मुझे लगा---'यदि मैने अब्दुल्ला सेठ का ही प्रमाण-पत्र पेश किया होता तो उसका कोई परवा न करता और गोरों की जान-पान मांगी जाती । फिर मेरे जन्म के साथ वकालत-संबंधी मेरी योग्यता का क्या संबंध हो सकता है ? यदि मैं दुष्ट या गरीब मां-बाप का पुत्र होऊं तो यह बात मैरी लियाकतु की जांच मेरे खिलाफ किसलिए कही जाय ?' पर मैने इन सय विचारों को रोककर उत्तर दिया----- ।

“हालांकि में यह नहीं जानता कि इन सब बातों के पूछने का अधिकार वकीलसभा को हैं, फिर भी जैसा आप वाहते हैं, दादा अब्दुल्ला को हलफिया बयान में पेश कर देने को तैयार हूं ।' ।

अब्दुल्ला सेठ का हुलुफियर बयान लिखा और वह वकील को दिया । उन्होंने तो संतोष प्रकट कर दिया, पर कील-सभा को संतोष न हुआ । उसने अपना विरोध अदालत में भी उठाया। अदालत ने मि० एस्कंब का जवाब सुने बिना ही सभा का विरोध नामंजूर कर दिया। प्रधान न्यायाधीश ने कहा

“इस दलील में कुछ जान नहीं कि प्रार्थी ने असली प्रमाण-पत्र नहीं पेश क्रिया । यदि उसुने झूठी सौगंध खाई होगी तो उसपर अदालत में झूठी कसम खाने का मुकदमा चल सकेगा और उसका नाम वकीलों की सूची से हटा दिया जायगा । अदालत की धाराओं में काले-गोरे का भेदभाव नहीं है। हमें मि० गांधी को वकालत करने से रोकने का कोई अधिकार नहीं । उनको दरखवास्त मंजूर की जाती है । मि० गांधी, आप आकर शपथ् ले सकते हैं।" [ १६९ ]मैं उठा ! रजिस्ट्रार के पास जाकर शपथ ली । शपथ लेते ही प्रधान न्यायधिस ने कहा-“अब आपको को अपनी पगड़ी उतार देनी चाहिए। वकील के हैसियत से वकील पोशाक संबंधों अदालत का जो नियम है, उसका पालन आपको करना है?

मैंने अपनी अदा समझ ली । डरबन मजिस्ट्रेट के अदालत में पगड़ी पहन रहने की बात पर जो मैं अड़ा रहा था, सो वहां न रह सका। पगड़ी उतारी, यह बात नहीं कि पगड़ी उतारने के विरोध मैं दलील न थी; पर मुझे तो अब बड़ी लड़ाइयां लड़नी थी । पगड़ी पहने रहने की हठ में मैरी युद्ध-कला की समाप्ति न होती थी। उलटा इससे उसमें बट्टा लग जाता।

अब्दुल्ला सेठ तथा दुसरे मंत्री को मेरी यह नरसी (या कमजोरी ?) अच्छी न लगी ! वह चाहते थे कि वकील को हैसियत से भी मैं पगड़ी पहन रखने की टेक कायम रखता । मैंने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की है, जैसा देश वैसा भैस ? बाली कहावत के रहस्य समझा . “हिंदुस्तान में यदि वहां के गोरे अधिकारी अथवा जज पगड़ी उतार ने पर मजबूर करें तो उसका विरोध किया जा सकता हैं । नेटाल-जैसे में, और फिर अदालत के एक सदस्य को हैसियत से मुझे अदालत के रिवाज का, विरोध शोभा नहीं देता ।'

यह तथा दूसरी दलीलें देकर मित्रों को मैंने कुछ शांत तो किया; पर में नहीं बुझता कि एक ही बात को भिन्न परिस्थिति में भिन्न रीति से देखने के ओचित्य को में, इस समय, उनके हृदय पर इस तरह अंकित कर सका कि जिससे उन्हें संतोष हो; परंतु मेरे जीवन में अन्न और अनाग्रह दोनों सदा साथ-साथ चलते आते हैं। पीछे चलकर मैंने कई बार यह अनुभव किया है कि सत्याग्रह यह बात अनिवार्य है। अपनी इस समझौतावृत्ति के कारण मुझे कई बार अपनी जान जोखिम मैं डालनी पड़ी है और मित्रों के असंतोष को शिरोधार्य करना पड़ा हैं; पर सत्य तो वज्र की तरह कठोर और कमल की तरह कोमल है ।

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।