सत्य के प्रयोग/ नेटाल इंडियन कांग्रेस

सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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नेटाल इंडियन कांग्रेस

वकील-सभा के विरोध ने दक्षिण अफ्रीका में मेरे लिए एक विज्ञापन का काम कर दिया है कितने ही अखबारों ने मेरे खिलाफ उठाये गये विरोध की निंदा की और वकीलों पर ईर्ष्या का इलजाम लगाया। इस प्रसिद्धि से मेरा काम कुछ अंश में अपने-आप सरल हो गया।

वकालत करना मेरे नजदीक गौण बात थी और हमेशा ही रही। नेटाल में अपना रहना सार्थक करने के लिए मुझे सार्वजनिक काम में ही तन्मय हो जाना जरूरी था। भारतीय मताधिकार-प्रतिरोधक कानून के विरोध में आवाज उठाकर-महज दरख्वास्त भेजकर चुप न बैठा जा सकता था। उसका आंदोलन होते रहने से ही उपनिवेशों के मंत्रीपर असर हो सकता था। इसके लिए एक संस्था स्थापित करने की आवश्यकता दिखाई दी। अतः मैंने अब्दुल्ला सेठ के साथ मशविरा किया। इसके साथियों से भी मिला और हम लोगों ने एक सार्वजनिक संस्था खड़ी करने का निश्चय किया है।

उसका नाम रखने में कुछ धर्म-संकट आया। यह संस्था किसी पक्ष का पक्षपात नहीं करना चाहती थी। महासभा (कांग्रेस का) नाम कंजरवेटिव (प्राचीन) पक्ष में अरुचिकर था, यह मुझे मालूम था, परंतु महासभा तो भारत का प्राण थी। उसकी शक्ति बढ़ाना जरूरी था। उसके नाम को छिपाने में अथवा धारण करते हुए संकोच रखने में कायरता की गंध आती थी। इसलिए मैंने अपनी दलीलें पेश करके संस्था का नाम 'कांग्रेस' ही रखने का प्रस्ताव दिया। और २२ मई, १८९४ को 'नेटाल इंडियन कांग्रेस' का जन्म हुआ है।

दादा अब्दुल्ला का बैठकखाना लोगों से भर गया था। उन्होंने उत्साह के साथ इस संस्था का स्वागत किया। विधान बहुत सादा रक्खा था, पर चंदा भारी रक्खा गया था। जो हर मास कम-से-कम पांच शिलिंग देता वही सभ्य हो सकता था। धनिक लोग राजी-खुशी से जितना अधिक दे सकें, चंदा दें, यह तय हुआ। अब्दुल्ला सेठ से हर मास दो पौंड लिखाये। दूसरे दो सज्जनों ने भी इतना ही चंदा लिया। खुद भी सोचा कि मैं इसमें संकोच कैसे करूं? इसलिए मैंने भी प्रति[ १७१ ]
पास एक पौंड लिखाया । यह मेरे लिए बीमा करने-जैसा था; पर मैंने सोचा कि जहां मेरा इतना खर्च-वर्च चलेगा यहां प्रतिमास एक पौंड क्यों भारी पड़ेगा ? और ईश्वर ने मेरी नाव चलाई ! एक टोंड वालो की संख्या खासी हो गई। इस शिलिंइगवाले उससे भी अधिक हुए । इसके अलावा बिना' सभ्य हुए भेंट के तौर पर जो लोग दे दे सो अलग !

अनुभव ने बताया कि उगाही किये बिना कोई चंदा नहीं दे सकता है डरबन से बाहरवालों के यहां बार-बार जाना असंभव था। इससे मुझे मारी "आरंभ-शूरता का परिचय मिला। इसमे भी बहुत चक्कर खाने पड़ते, तब कहीं जाकर चंदा मिलता। मंत्री था, रुपया वसूल करने का जिम्मा मुझपर था। मुझे अपने मुंशी को सारा दिन चंदावसुली मैं गाये रहने की नौबत आ गई है। बेचारा भी उकता उठा । मैंने सोचा कि मासिक नहीं, वार्षिक चंदा होना चाहिए और वह भी सबको पेशी दे देना चाहिए । वह, सभा की गई और सब ने इस बात को पसंद किया । तय हुआ कि कम-से-कम तीन पवादिक चंदा लिया जाय । इससे वसूलीका काम आसान हो गया ।

आरंभ में ही मैंने यह सीख लिया था कि सार्वजनिक काम कभी कर्ज लेकर नहीं चलाना चाहिए। और बातों में भले ही लोगों का विश्वास कर लें, पर पैसे की बात नहीं किया जा सकता ! मैंने देख लिया था कि वादा कर चुकने पर भी देने के धर्म का पालन कहीं भी नियमित रूप नहीं होता। नेटाल मैं हिंदुस्तानी इसके अपवाद न थे। इस कारण ‘ इस कारन (नेटाल इंडियन कांग्रेस) ने कभी कर्ज करके कोई काम नहीं किया ।

सभ्य बनाने में साथियों असीम उत्साह प्रकट किया था। उससे उनकी बड़ी दिलचस्पी हो गई थी। उसके कार्य से अनमोल अनुभव मिलता था । बहुतेरे लोग खुशी-खुशी नाम लिखवाते और चंदा दे देते है , दूर-दूर के गांवों में जरा मुश्किल पेश होती । लोग सार्वजनिक काम की महिमा नहीं समझते थे । कितनी ही जगह तो लोग अपने यहां आने का न्यौता भेजते, असुर व्यापारी के महा ठहराते; परंतु इस भण में हमें एक जगह शुरूआत ही दिक्कत पेश हुई । यहाँ से छः पौंड मिलने चाहिए थे; पर वह् तीन पौंड से आगे न बढ़ते थे। यदि उनसे इतनी ही रकम लेते तो औरो से इससे अधिक न मिली। ठहराय हम उन्हीं के यहां गये [ १७२ ]
थे। सबको भूख लग रही थी; पर जब तक चंदा न मिले तबतक भोजन कैसे करते? खूब मित्रत-खुशामद की गई। पर वह टस-से-मस न हुए। गांव के दूसरे व्यापारियों ने भी उन्हें समझाया। सारी रात इसी खींचतानी मैं गई। गुस्सा तो कई साथियों को आया;पर किसी ने अपना सौजन्य ने छोड़ा! ठेठ सुबह जाकर देह पसीजे और छ: पौंड़ दिये। तब जाकर हम लोगों को खाना नसिब हुआ। यह घटना टोंगाट की है। इसका असर उत्तर किनारेपूर ठेठ स्टेंगर तक तथा अंदर ठेठ चार्ल्सटाउन तक पड़ा और चंदा-वसूली का हमारा मर सरल हो गया।

परंतु प्रयोजन केवल इतना है न था कि चंदा एकत्र किया जाय। अवश्यकता से अधिक रुपया जमा न करने तत्व भी मैंने मान लिया था।

सभा प्रति सप्ताह वा प्रति मास अवश्यकता अनुसार होती है इसमें पिछली सभा की कार्रवाई पढी जाती और अनेक बातों पर चर्चा होती। चर्चा करने तथा थोडे में मतलब की बात कहने की आदत लोगों को न थी। लोग खड़े होकर बोलने में सकुचाते। मैंने सभा के नियम उन्हें समझाये और लोगों ने उन्हें माना! इससे होनेवाला लाभ उन्होंने देखा और जिन्हें सामने बोलने का रक्त न था ने सार्वजनिक कानों के लिए बोलने और विचारने लगे।

सार्वजनिक कमों में छोटी-छोटी बातों में बहुत-सा खर्च हो जाया करता हैं,यह मैं जानता था! शुरू हो रसीद-बुकतक न छापने का निश्चय रक्खा था। मेरे दफ्तर में साईक्लोस्टाइल था.उसपर रसीदें छपा लीं। रिपोर्ट भी इसी तरह छपती। जब रुपया-पैसा काफी आ गया,अय्कीकीं संख्या बढ़ गई, तभी रसीदें इत्यादि छपाई गईं। ऐसी किफायतशारी हर संस्था में आवश्यक है। फिर भी मैं जानता हूं कि सब जगह ऐसा नहीं होता है। इसलिए इस छोटी-सी उगती हुई संस्था के परवरिश के समय का इतना वर्णन कर मैंने ठीक हो। लोग रसीद लेने की पर्वा न करते,फिर भी उन्हें आग्रह-पूर्वक रसीद दी जाती। इस कारण हिसाब शुरू से ही पाई-पाई का साफ रहा,और मैं मानता हूँ कि आज भी नेटाल-कांग्रेस के दफ्तर १८९४के बही-खाते ब्योरेवार मिल जायंगे। किसी भी संस्था का विस्तार हिसाव उसकी नाक हैं। इसके बिना वह् संस्था अंत को जाकर मंदी और प्रतिष्ठा-हीन हो जाती है। शुद्ध हिसाब के बिना शुद्ध सत्य की

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।