सत्य के प्रयोग/ वकालत की कुछ स्मृतियां

सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ३८६ से – ३८८ तक

 

________________

अध्याय ४४ : वकालतकी कुछ स्मृतियां ३६६ । ४४ वकालतकी कुछ स्मृतियां हिंदुस्तानमें अनेके बाद मेरे जीवनका प्रवाह किस ओर किस तरह बहा--- इसका वर्णन करनेके पहले कुछ ऐसी बातोंका वर्णन करने की जरूरत मालूम होती है, जो मैंने जान-बूझकर छोड़ दी थीं। कितने ही वकील मित्रोंने चाहा है। कि मैं अपने वकालतके दिनोंके और एक वकील की हैसियत से अपने कुछ अनुभव सुनाऊं ! अनुभब इतने ज्यादा हैं कि यदि सबको लिखने बैतूं तो उन्हींसे एक पुस्तक भर जायगी। परंतु ऐसे वर्णन इस पुस्तकके विषयकी मर्यादाके बाहर चले जाते हैं। इसलिए यहां केवल उन्हीं अनुभवोंका वर्णन करना कदाचित् अनुचित न न होगा, जिनका संबंध सत्यसे है। जहांतक मुझे याद है, मैं यह बता चुका हूं कि वकालत करते हुए मैंने कभी असत्यका प्रयोग नहीं किया और वकालतका एक बड़ा हिस्सा केवल लोकसेवाके लिए ही अर्पित कर दिया था एवं उसके लिए मैं जेब-खर्चसे अधिक कुछ नहीं लेता था और कभी-कभी तो वह भी छोड़ देता था। मैं यह मानकर चला था कि इतनी प्रतिज्ञा इस विभागके लिए काफी है। परंतु मित्र लोग चाहते हैं कि इससे भी कुछ आगेकी बातें लिखें, क्योंकि उनका खयाल है कि यदि मैं ऐसे प्रसंगोंका थोड़ा-बहुत भी वर्णन करूं कि जिनमें मैं सत्यकी रक्षा कर सका तो उससे वकीलोंको कुछ जानने योग्य बातें मिल जायेगी । । मैं अपने विद्यार्थी-जीवनसे ही यह बात सुनता आ रहा हूं कि वकालत बिना झूठ बोले काम नहीं चल सकता। परंतु मुझे तो झूठ बोलकर न तो कोई पद प्राप्त करना था, न कुछ धन जुटाना था। इसलिए इन बातोंका मुझपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था । । दक्षिण अफ्रीकामें इसकी कसौटीके मौके बहुत बार आये । मैं जानता था कि हमारे विपक्षके गवाह सिखा-पढ़ाकर लाये गये हैं और मैं यदि थोड़ा भी अपने मवक्किलको या गवाहको झूठ बोलने में उत्साहित करू तो मेरा मवक्किल जीत सकता है। परंतु मैंने हमेशा इस लालचको पास नहीं फटकने दिया । ऐसे ________________

एक ही प्रसंगका स्मरण मुझे होता है कि जब मेरे मुवक्किलकी जीत हो जानेके बाद मुझे ऐसा शक हुआ कि उसने मुझे धोखा दिया। मेरे अंत:करणमें भी हमेशा यही भाव रहा करता कि यदि मेरे मवविकलका पक्ष सच्चा हो तो उसकी जीत हो। और झूठा हो तो उसकी हार हो । मुझे यह नहीं याद पड़ता कि मैंने अपनी फीसकी दर मामलेकी हार-जीतपर निश्चित की हो । मवक्किलकी हार है। या जीत, मैं तो हमेशा मिहनताना ही मांगता और जीत होने के बाद भी उसीकी आशा रखता। मक्किलको भी पहले ही कह देता कि यदि मामला झूठा हो तो मेरे पासु न आना । गवाहोंको बनानेका काम करनेकी अशा मुझसे में रखना । आगे जाकर तो मेरी ऐसी साख बढ़ गई थी कि कोई झूठा मामला मेरे पास लाता ही नहीं था। ऐसे मवक्किल, भी मेरे पास थे जो अपने सच्चे मामले ही मेरे पास लाते और जिनमें जरा भी गंदगी होती तो वे दूसरे वकीलके पास ले जाते ।। । एक ऐसा समय भी आया था कि जिसमें मेरी बड़ी कड़ी परीक्षा हुई । एक मेरे अच्छे-से-अच्छे. भवक्किलका मामिला था। उसमें जमाखर्चको बहुतेरी उलझनें थीं ! . बहुत समय सामला चल रहा था। कितनी ही अदालतोंमें उसके कुछ-कुछ हिस्से गये थे। अंतको अदालत द्वारा नियुक्त हिसाब-परीक्षक पंचोंके जिम्मे उसका हिसाब सौंपा गया था । पंचके ठहरावके अनुसार मेरे भवक्विालकी पूरी जीत होती श्री'; परंतु उसके हिसाबमें एक छोटी-सी परंतु भारी भूल रह शुई थी । जमानामेकी रकम पंचकी झुलसे उलटी लिख दी गई थी। विपक्षीने इस पंचके फैसलेको रद्द करनेकी दरख्वास्त दी थी । मेरे मवकिलकी तरफसे मैं छोटा वकील था ! बड़े वकीलने पंचकी भूल देख ली थी; परंतु उनकी राय यह थी कि पंचकी भूल कबूल करनेके लिए मुवक्किल बाध्य नहीं था; उनकी यह साफ यि थी कि अपने खिलाफ जानेवाली किसी बातको मंजूर करनेके लिए कोई वकील बाध्य नहीं है । पर मैंने कहा, इस मामलेकी भूल तो हमें कबूल करनी ही चाहिए । .... बड़े वकीलने कहा--- "यदि ऐसा करें तो इस बातका पूरा अंदेशा हैं। कि अदालत इस सारे फैसलेको रद्द कर दे और कोई भी समझदार वकील अपने मवक्किलको ऐसी जोखिममें नहीं डालेगा । मैं तो ऐसी' जोखिम उठानेके लिए कभी तैयार न होऊंगा । यदि मामला उलट जाय तो मवक्किलको कितना खर्च ________________

अध्याय ४४ : वकालतको कुछ स्वालियर ३७१ । उठाना पड़े और अंतको कौन कह सकता है कि नतीजा क्या हो ? " इस बातचीतके समय हमारे मवक्किल भी मौजूद थे । मैंने कहा, “मैं तो समझता हूं कि मवक्किलो और हम लोगोंको ऐसी जोखिम जरूर उठानी चाहिए। फिर इस बातका भी क्या भरोसा कि अदालतको भूल मालूम हो जाय और हम उसे मंजूर न करें तो भी वह भूल-भरा फैसला कायम ही रहेगा और यदि भूल सुधारते हुए मदक्किलको नुकसान सहना पड़े तो क्या पर यह तो तभी न होगा जब हम भूल कबूल करें ? " बड़े वकील बोले ।। | "हम यदि मंजूर न करें तो भी अदालत उसे ने पकड़ लेगी अथवा विपक्षी भी उसको न देख लेंगे इस बातका क्या निश्चय ? " मैंने उत्तर दिया। " तो इस मुकदमेमें आप बहस करने जायंगे ? भूल मंजूर करनेकी शर्तपर मैं बहस करने के लिए तैयार नहीं ।' बड़े वकीलने दृढताके साथ कहा । मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “ यदि आप न जायंगे और मवक्किल चाहेंगे तो मैं जाने के लिए तैयार हूं। यदि भूल कबूल न की जाय तो इस मुकदमे में मेरे लिए काम करना असंभव है ।” इतना कहकर मैंने मवक्किलके मुंहकी ओर देखा । वह जरा चिंतामें पड़े ; क्योंकि इस मुकदमे में शुरू से ही था और उनका मुझपर पूरा-पूरा विश्वास था । वह मेरी प्रकृति से भी पूरे-पूरे वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने कहा- “तो अच्छी बात है, आप ही बहस करने जाइए। शौकसे भूल मान लीजिए । हार ही नसीबमें लिखी होगी तो हार जायंगे । आखिर सांचको अांच क्या ?" यह देखकर मुझे बड़ा आनंद हुआ। मैंने दूसरे उत्तरकी' अशा ही नहीं रक्खी थी। बड़े वकीलने मुझे खूब चेताया और मेरी ‘हठधर्मी के लिए मुझपर तरस खाया और साथ ही धन्यवाद भी दिया । | अब अदालतमें क्या हुआ सो अगले अध्यायमें ।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।