सत्य के प्रयोग/ रंगरूटोंकी भरती

सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४६६ ]अध्याय २७ : रंगंरूटोंकी भरती Yళ खतम होनेके बाद श्रापको जितने नीतिके प्रश्‍न उठाने हों, श्राप उठा सकते हैं, और जितनी छानबीन करनी हो, कर सकते हैं । ” यह दलील नई न थी; परंतु जिस श्रवसरपर जिस प्रकार वह रक्खी गई, उससे मुझे नई-सी जान पड़ी और मैने सभामें जाना मंजूर कर लिया । यह निश्‍चित हुआ कि खिलाफतके बारेमें वाइसरायको पत्र लिखकर भेजूं । २७ रंगंरूटोंकी भरती सभामें मैं हाजिर हुश्रा । वाइसरायकी तीव्र इच्छा थी कि मैं सैन्य भरतीके प्रस्तावका समर्थन करूं । मैंने हिंदुस्तानीमें बोलनेकी प्रार्थना की । वाइसरायने यह स्वीकार कर ली; मगर साथ ही श्रंग्रेजीमें भी बोलनेका अनुरोध किया । मुझे भाषण तो देना था ही नहीं। मैं इतना ही बोला- “ मुझे श्रपनी जिम्मेदारीका पूरा भान है और उस जिम्मेदारीको समझते हुए मैं इस प्रस्तावका समर्थन करता हूं । ” हिंदुस्तानीमें बोलनेके लिए मुझे बहुतोंने धन्यवाद दिया । बे कहते थे कि वाइसरायकी सभामें हिंदुस्तानी बोलनेकां इस जमानेमें यह पहला ही दृष्टांत था । यह धन्यवाद और पहला ही दृष्टांत होनेकी खबर मुझे श्रखरी । मैशरमाया । श्रपने ही देशमें देश-संबंधी कामकी सभामें, देशी भाषाका बहिष्कार · या उसकी श्रवगणना होना कितने दु:खकी बात है ? और मुझ जैसा कोई शख्स यदि हिंदुस्तानीमें एक या दो वाक्य बोल ही दे तो उसे धन्यवाद किस बात का ? ऐसे प्रसंग हमें श्रपनी गिरी हुई दशाका भान कराते हैं । संभामें जो वाक्य मैंने कहे थे उनमें मेरे लिए तो बहुत वजन था; क्योंकि यह सभा या यह समर्थन ऐसे न थे, जिन्हें मैं भूल सकू । श्रपनी एक जिम्मेदारी तो मुझे दिल्लीमें ही खत्म कर लेनी थी । वाइसरायको पत्र लिखनेका काम मुझे श्रासान नहीं लंगा । सभामें जानेकी श्रपनी श्रानाकानी, उसके कारण, भविष्यकी प्राशाएं वगैराका खुलासा, अपने लिए सरकारके लिए, और प्रजाके लिए, करनेकी श्राव्यशकता मुझे जान पड़ती थी । । मैने वाइसरायको पत्र लिखा । उसमें लोकमान्य तिलक, श्रली भाई २६ ।। [ ४६७ ]Y以o अंत्मि-कथा : भाग ५ श्रादि नेताओंकी गैरहाजिरीके बारेमें अपना खेद प्रकट किया, लोगोंकी राजनैतिक मांगों और लड़ाईमेंसै उत्पन्न मुसलमानोंकी मांगोंका उल्लेख किया । यह पत्र छापनेकी इजाजत मैंने वाइसरायसे मांगी, जो उन्होंने खुशीसे दे दी । यह पत्र शिमला भेजना था, क्योंकि सभा खत्म होते ही वाइसराय शिमला चले गये थे । वहां डाकसे पत्र भेजनेमें ढील होती थी । मेरे मनमें पत्र महत्त्वपूर्ण था । समय बचानेकी जरूरत थी । चाहे जिसके हाथसे भेजनेकी इच्छा नहीं होती थी । मुझे ऐसा लगा कि अगर यह पत्र किसी पवित्र आदमीके हाथसे जाय तो बड़ा अच्छा है । दीनबंधु और सुशील रुदने रेवरेंड श्रायलैंड महाशयका नाम सुझाया । उन्होंने यह मंजूर किया कि पत्र पढ़नेपर अगर शुद्ध लगेगा तो ले जाऊंगा । पत्र खानगी तो था ही नहीं । उन्होंने पढ़ा, वह उन्हें पसंद प्राया और उसे ले जानेको राजी हो गये । मैंने दूसरे दर्जेका रेल-भाड़ा देनेकी व्यवस्था की; किंतु उन्होंने उसे लेनेसे इन्कार कर दिया और रातका सफर होनेपर भी इंटरका ही टिकट लिया। उनकी इस सादगी, सरलता, स्पष्टतापर मैं मोहित हो गया । इस प्रकार पवित्र हाथों भेजे गये पत्रका परिणाम मेरी दृष्टिसे अच्छा ही हुश्रा । उससे मेरा मार्ग साफ हो गया । मेरी दूसरी जिम्मेदारी रंगरूट भरती करने की थी । मैं यह याचना खड़ामें न करूं तो और कहां करता ? अपने साथियोंको अगर पहले न्यौता न दू तो और किसे दू' ? खेड़ा पहुंचते ही वल्लभभाई वगैराके साथ सलाह की । कितनों हीके गले यह घूट तुरत न उतरी । जिन्हें यह बात पसंद भी पड़ी, उन्हें कार्यकी सफलताके बारे में संदेह हुश्रा । फिर जिस वर्गमॅसे यह भरती करनी थी, उसके मनम इस सरकारके प्रति कुछ भी प्रेम न था । सरकारके अफसरोंके द्वारा हुए कडुए अनुभव अभी उनके दिमागमें ताजे ही थे । । तो भी कार्यारंभ करनेके पक्षमे सभी हो गये । कार्यका प्रारंभ करते ही मेरी प्रांखें खुल गई । मेरा आशावाद भी कुछ ढीला पड़ा । खेड़ाकी लड़ाईमें लोग खुश हो कर मुफ्तमें गाड़ी देते थे, जहां एक स्वयंसेवककी जरूरत होती वहां तीन-चार मिल जाते थे । अब पैसा देनेपर भी गाड़ी दुर्लभ हो गई। किंतु इस तरह मै कोई निराश होनेवाला जीव नहीं था । गाड़ीके बदले पैदल ही सफर करनेका निश्चय किया । रोज बीस मीलकी मंजिल तै करनी थी। जब गाड़ी [ ४६८ ]अध्याय २७ : रंगरूटोंकी भरती ४५१ ही नहीं मिलती थी तो खाना कहांसे मिलता ? मांगना भी उचित नहीं जान पड़ता था । इसलिए यह निश्चय किया कि प्रत्येक स्वयंसेवक अपने भोजनका सामान अपने झोलेमें लेकर ही बाहर निकले । मौसम गर्मीका था । इसलिए ओढ़नेका कुछ सामान साथ रखनेकी जरूरत नहीं थी । जिस-जिस गांवमें हम जाते, वहां सभा करते । लोग श्राते तो मगर भरतीके लिए नाम मुश्किलसे एक या दो ही मिलते । ‘श्राप श्रहिंसावादी होकर हमें हथियार लेनेके लिए क्यों कहते हैं ? सरकारने हिंदुस्तानका कौनसा भला किया है जो श्राप उसे मदद देनेपर जोर देते हैं ? ' इस तरहके अनेक सवाल हमारे सामने पेश किये जाते थे । ऐसा होने पर भी हमारे सतत कामका असर लोगोंपर होने लगा था । नाम भी यों ठीक संख्यामें लिखे जान लगे और हम मानने लगे कि अगर पहली टुकड़ी निकल पड़े तो दूसरीके लिए रास्ता साफ हो जायगा । कमिश्नरके साथ मैंने यह चर्चा शुरू कर दी थी कि जो रंगरूट भरती हो जायं उन्हें कहां रखना चाहिए, इत्यादि । दिल्लीके नमूनेपर कमिश्नर लोग जगह-जगह सभाएं करने लग थे । वैसी सभा गुजरातमें भी हुई । उसमें मुझे और मेरे साथियोंको भी श्राने का श्रामंत्रन था । यहां भी मैं गया था । किंतु अगर दिल्लीमें मेरा जाना कम शोभता जान पड़ा था तो यहां और भी कम लगा । ‘जी-हां’ ‘जी-हां' के वातावरणमें मुझे चैन नहीं पड़ता था । यहां मैं जरा ज्यादा बोला था । मेरे बोलनेमें खुशामद जैसा तो था नहीं, बल्कि दो-एक कडुए वचन भी थे । रंगरूटोंकी भरतीके संबंध में मैंने पत्रिका छापी थी । उसमें भारती होनेके निमंत्रणमें एक दलील दी थी, जो कमिश्नरको खटकी थी । उसका सार यह था- “ब्रिटिश राज्यके अनेक अपकृत्योंमें सारी जनताको शस्त्र-रहित करनेके कानूनका इतिहास उसका सबसे काला काम माना जायगा । यदि यह कानून रद्द कराना हो और शस्त्र चलाना सीखना हो तो उसके लिए यह सुवर्ण योग है । राजकी इस प्रापतिके समय में मध्यमवर्ग यदि स्वेच्छासे मदद करेगा तो इससे पारस्परिक अविश्वास दूर होगा और जो शस्त्र धारण करना चाहते हैं वे खुशीसे उन्हें रख सकेंगे ।” इसको लक्ष्य करके कमिश्नरको कहना पड़ा था कि उनके और मेरे बीच मतभेद होते हुए भी सभामें मेरी हाजिरी उन्हें प्रिय थी । मुझे भी अपने [ ४६९ ]४५२ आत्म-कथा : भाग ५ मतका समर्थन जहां तक हो सका, मीठे शब्दोंमें करना पड़ा था । पहले जिस पत्रका उल्लेख किया गया है उसका सारांश इस प्रकार है-- “सभामें उपस्थित होनेके लिए में हिचकिचा रहा था, परंतु आपसे मुलाकात करनेके बाद भेरी हिचकिचाहट दूर हो गई है ॥ और उसका एक कारण यह अवश्य है कि आपके प्रति मुझे बहुत आदर है । न आनेके कारणोंमें एक मजबूत कारण यह था कि उसमें लोकमान्य तिलक, श्रीमती बेसेंट और अलीभाइयोंको निमंत्रण नहीं दिया गया था । इन्हें मैं जनताके बड़े ही शक्तिशाली नेता मानता हूं । मैं तो यह मानता हूं कि उनको निमंत्रण न भेजकर सरकारने बड़ी गंभीर भूल की है । मैं अब भी यह सुझाना चाहता हूं कि जब प्रांतीय सभाएं की जायं तब उन्हें अवश्य निमंत्रण भेजा जाय । मेरी नाकिस रायमें चाहे कैसा ही मतभेद क्यों न हो, कोई भी सल्तनत ऐसे प्रौढ़ नेताओंकी अवगणना नहीं कर सकती । इसी कारण मै सभाकी कमेटियों में शामिल न हो सका और सभामें प्रस्तावका समर्थन करके संतुष्ट हो गया । सरकारने यदि मेरे सुझाव स्वीकृत कर लिये तो मैं तुरंत ही इस काम में लग जानेकी आशा रखता हूं । “ जिस सल्तनतमें हम भविष्यमें संपूर्ण हिस्सेदार बननेकी आशा करते हैं, उसको आपत्तिकालमें पूरी मदद करना हमारा धर्म है । परंतु मुझे यह कहना चाहिए कि उसके साथ हमें यह अशा भी रही है कि इस मददके कारण हम अपने ध्येयतक जल्दी पहुंच सकेंगे । इसलिए लोगोंको यह माननेका अधिकार है कि जिन सुधारोंको देनेकी आशा आपने अपने भाषणमें दिखलाई हैं उनमें कांग्रेस और मुस्लिम लीगकी मुख्य-मुख्य मांगोंका भी समावेश होगा । अगर मुझसे बन पड़ता तो मैं ऐसे समय में होमरूल वगैराका उच्चार तक न करता और साम्राज्यके ऐसे नाजुक समयपर तमाम शक्तिशाली भारतीयोंको उसकी रक्षामें चुपचाप कुरबान हो जानेके लिए कहता । इतना करनेसे ही हम साम्राज्यके बड़े-बड़े और सम्माननीय हिस्सेदार बन जाते और रंग-भेद और देश-भेद दूर हो जाता । [ ४७० ]अध्याय २७ : रंगरूटोंकी भरती 있 • “ परंतु शिक्षित वर्गने इससे कम कारगर रास्ता अख्तियार किया है । जन-समाजमें उसकी पहुंच बहुत है । मै जबसे हिंदुस्तानमें आया हूं तभीसे जनसमाजके गाढ़ परिचयमें आता रहा हूं और मैं आपको यूह कहना चाहता हूं कि उनमें होमरूल प्राप्त करनेका उत्साह पैदा हो गया है । बिना होमरूलके प्रजाको कभी संतोष न होगा । वे यह समझते हैं कि होमरूल प्राप्त करनके लिए जितना भी त्याग किया जा सके कम ही होगा । इसलिए यद्यपि साम्राज्यके लिए जितने भी स्वयंसेवक दिये जा सकें देने चाहिएं, किंतु मैं आर्थिक मददके लिए यह नहीं कह सकता हूं ॥ लोगोंकी हालतको जानकर मैं यह कह सकता हूं कि हिंदुस्तान अबतक जितनी मदद कर चुका है वह भी उसकी शक्तिसे अधिक हैं । परंतु में इतना अवश्य समझता हूं कि जिन्होंने सभामें प्रस्तावका समर्थन किया। उन्होंने इस कार्यसे प्राणांत तक मदद करनेका निश्चय किया है । परंतु हमारी स्थिति मुश्किल है । हम कोई दूकानके हिस्सेदार नहीं । हमारी मददकी नींव भविष्यकी आशापर स्थित है; और वह आशा क्या हैं, यह यहां विशेषरूपसे कहना चाहिए । मैं कोई सौदा करना नहीं चाहता। फिर भी मुझे इतना तो यहां अवश्य कहना चाहिए कि यदि इसमें हमें निराश होना पड़ा तो साम्राज्यके बारे में आज-तक हमारी जो धारणा है वह केवल भ्रम समझी जाएगी । - आपने अंदरूनी झगड़े भूल जानेकी जो बात कही है उसका अर्थ यदि यह हो कि जुल्म और अधिकारियोंके अपकृत्य सहन करें तो यह असंभव है । संगठित जुल्मके सामने अपनी सारी शक्ति लगा देना मैं अपना धर्म समझता हूं । इसलिए आप अधिकारियोंको हिदायत दें कि वे किसी भी जीवकी अवहेलना न करें और पहले कभी जितना लोकमतका आदर नहीं किया उतना अब करें । चंपारनमें सदियोंके जुल्मका विरोधकर मैंने ब्रिटिश न्यायका सर्वश्रेष्ठ होना प्रमाणित कर दिया है । खेड़ाकी रैयतने यह देख लिया है कि जब उसमें सत्यके लिए कष्ट सहन करनेकी शक्ति हैं तब सच्ची शक्ति राज्य नहीं, बल्कि लोकमत है । और इसलिए जिस सल्तनतको प्रजा शाप दे रही थी उसके प्रति अब [ ४७१ ]४५४ आत्म-कथा :भाग ५ कटुता कुछ कम हो गई है और जिस राज्यसताने सविनय कानूनभंग सहन कर लिया है वह लोकमतका सर्वथा अनादर नहीं करेगी, ऐसा उनको विशवास हो गया है । इसलिए मैं यह मानता हूं कि चंपारन और खेड़ामें मैंने जो कार्य किया है वह लड़ाईके संबंधमें मेरी सेव्रा ही है । यदि आप मुझे इस प्रकारका कार्य बंद करनको कहेंगे तो मैं यही समझुंगा कि आप मुझे अपने शवासको ही रोक देनेके लिए कहते हैं । यदि शस्र-बलके स्थानमें मुझे अात्मबल अर्थात् प्रेमबलको लोकप्रिय बनानेमें सफलता मिले तो मैं यह जानता हूं कि हिंदुस्तानपर सारे विशवकी त्योरी चढ़ जाय तो भी वह उसका सामना कर सकेगा । इसलिए हर समय कष्ट सहन करनेकी इस सनातन रीतिको अपने जीवनमें उतारनेके लिए मैं अपनी आत्माको कसता रहूंगा और दूसरोंको भी इस नीतिको अंगीकार करने के लिए कहता रहूंगा। और यदि में कोई और काम करता भी हूं तो वह इसी नीतिकी अद्वितीय उत्तमता सिद्ध करनेके लिए ही । “ अंतमें मैं आपसे विनती करता हूं कि आप मुसलमान राज्योंके बारेमे निशिचत विशवास दिलानेकी प्रेरणा ब्रिटिश प्रधानमंडलको करें । आप जानते हैं कि इस विषयमें प्रत्येक मुसलमानको चिंता बनी रहती है । एक हिंदू होकर मैं उनकी इस चिंताके प्रति लापरवाह नहीं रह सकता हूं । उनका दु:ख तो हमारा ही दु:ख है । मुसलमानी राज्यके हकोंकी रक्षा करनेमें, उनके धर्मस्थानोंके विषयमें उनके भावोंका आदर करनेमें और हिंदुस्तानकी होमरूलकी मांग स्वीकार करनेमें साम्राज्यकी सलामती है । मैंने यह पत्र इसलिए लिखा है कि मैं अंग्रेजोंको चाहता हूं और अंग्रेजोंमें जैसी वफादारी है, वैसी ही में प्रत्येक भारतीयममें जाग्रत करना चाहता हूं ।"

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।