सत्य के प्रयोग/ ऐक्यके प्रयत्न

सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ४६३ से – ४६५ तक

 

૪૪૬ आत्म-कथा;भाग ५

उसने देख लिया कि हमारी शक्ति के अनुपात से हमें ग्रधिक मिला है और आगे के लिए राजनैतिक कष्टोंके निवारण का एक मार्ग हमें मिल गया है, उनके उत्साहके लिए इतना ज्ञान काफी था । -

   किंतु खेड़ा की प्रजा सत्याग्रह का स्वरूप पूरा नहीं समझ सकी थी, इसलिए उसे कैसे कड़वे अनुभव हुए सो हम आगे चलकर देखेंगे ।
                      
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                 ऐक्यके प्रयत्न

जिस समय खेड़ा का आंदोलन जारी था, उसी समय यूरोपका महासमर भी चल रहा था । उसके सिलसिले में वाइसरोय दिल्ली में नेताओं को बुलवाया था । मुझे भी उसमें हाजिर रहने का आग्रह किया था। मैं यह पहले ही लिख चुका हुँ कि लार्ड चेम्सफोर्ड के साथ मेरा मैत्री-संबंध था ।

      मैंने आमंत्रण मंजूर किया और दिल्ली गया; किंतु इस सभा में शामिल होने में मुझे एक संकोच था । इसका मख्य कारण यह था कि उसमें अली भाइयों, लोकमान्य तथा दूसरे नेताओं को नहीं बुलाया गया था । उस समय अली भाई जेल में थे । उनसे में एक-दो बार ही मिला था, सुना उनके बारे में बहुत-कुछ था । उनके सेवाभाव और बहादुरी की स्तुति सभी कोई किया करते थे । हकीम साहब के साथ भी मेरा परिचय नहीं हुआ था । स्व० आचार्य रुद्र और दीनबंधु एंड्रूज के मुँह से उनकी बहुत प्रशंसा सुनी थी । कलकत्तावाले मुस्लिमलीग के अधिवेशन में श्वेब कुरेशी और बैरिस्टर ख्वाजा से मेरी मुलाकात हुई थी । डाक्टर अंसारी और डाक्टर अब्दुर्रहमान से भी परिचय हो चुका था । भले मुसलमानों की सोह्वत मैं ढूंढ़ता रहता था और उनमें जो पवित्र तथा देशभक्त समझे जाते थे, उनके संपर्क में आकर उनकी भावनायें जानने की मुझे तीव्र इच्छा रहती थी । इसलिए मुझे वे अपने समाजमें जहां कहीं ले जाते, मैं बिना कोई खीचा-तानी कराये ही चला जाता था । यह तो मैं दक्षिण अफ्रीका में ही समझ चुका था कि हिंदुस्तान के हिन्दू-मुसलमानों में सच्चा मित्राचार नहीं है । दोनों के मनमुटाव को मिटाने का एक भी मौका में यों ही जाने नहीं देता था। झूठी खुशामद          अध्याय २६ : ऐक्यके प्रयत्न                       ४४७

करने या स्वत्व गंवाकर किसीको खुश करना में जानता ही नहीं था; किंतु मैं वही से यह भी समझता आया था कि मेरी अहिंसा की कसौटी और उसका विशाल प्रयोग इस ऐक्यके सिलसिले में ही होनेवाला है । अब भी मेरी यह राय कायम है । प्रतिक्षण मेरी कसौटी ईश्वर कर रहा है । मेरा प्रयोग आजा भी जारी है ।

       इन विचारों को साथ लेकर मै बंबई के बंदरपर उतरा था । इसलिए इन भाइयों का मिलाप मुझे अच्छा लगा ! हमारा स्नेह बढ़ता था । हमारा परिचय होने के बाद तुरंत ही सरकार ने अली भाइयोंको जीते-जी ही दफ़न कर दिया था । मौलाना मुहम्मदअली को जब-जब इजाजत मिलती, वह मुझे बैतूल जेल से या छिदवाड़ा जेल से लंबे-लंबे पत्र लिखा करते थे । मैंने उनसे मिलने जानेकी प्रार्थना सरकारसे की मगर उसकी इजाजत न मिली ।
     अली भाइयों के जेल जानेके बाद कलकत्ता मुस्लिम-लीग की सभा में मुझे मुसलमान भाई ले गये थे । वहाँ मुझसे बोलने के लिए कहा गया था । मैं बोला । अली भाइयों को छुड़ाने का धर्म मुसलमानों को समझाया ।

इसके बाद वे मुझे अलीगढ़-कॉलेज में भी ले गये थे । वहाँ मैने मुसलमानों को देशके लिए फकीरी लेनेका न्योता दिया था ।

    अली भाइयों को छुड़ाने के लिए मैंने सरकार के साथ पत्र-व्यवहार चलाया । इस सिलसिले में इन भाइयों की खिलाफंत-संबंधी हलचलका अध्ययन किया । मुसलमानों के साथ चर्चा की । मुझे लगा कि अगर मैं मुसलमानों का सच्चा मित्र बनना चाहूँ तो मुझे अली भाइयों को छुड़ाने में और खिलाफत का प्रश्न न्यायपूर्वक हल करने में पूरी मदद करनी चाहिए । खिलाफत का प्रश्न मेरे लिए सहल था । उसके स्वतंत्र गुण-दोष तो मुझे देखने भी नहीं थे । मुझे ऐसा लगा कि उस संबंध में मुसलमानों की मांग नीति-विरुद्ध न हो तो मुझे उसमें मदद देनी चाहिए । धर्म के प्रश्न में श्रद्धा सर्वोपरि होती है। सबकी श्रद्धा एक ही वस्तु के बारे में एक ही सी होतो फिर जगत में एक ही धर्म हो सकता है । खिलाफतसंबंधी मांग मुझ नीति-विरुद्ध नहीं जान पड़ी । इतना ही नहीं, बल्कि यही मांग इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लाइड जार्ज ने स्वीकार की थी, इसलिए मुझे तो उनसे अपने वचन का पालन कराने भरका ही प्रयत्न करना था । वचन ऐसे स्पष्ट शब्दों में थे कि मर्यादित गुणदोष की परीक्षा मुझे महज अपनी अन्तरात्मा को प्रसन्न करने की  ४४९                  आत्म-कथा : भाग ५

ही खातिर करनी थी । -

     खिलाफत के प्रश्न में मैंने मुसलमानों का जो साथ दिया, उसके विषय में मित्रों और टीकाकारों ने मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई है । इस सबका विचार करने पर भी मैंने जो राय कायम की, जो मदद दी या दिलाई, उसके लिए मुझे जरा भी पश्चाताप नहीं है । न उसमें कुछ सुधार ही करना है । आज भी ऐसा प्रश्न यदि उठ खड़ा हो तो, मुझे लगता है, मेरा आचरण उसी प्रकार का होगा ।
     इस तरह के विचार के लिये ही मैं दिल्ली गया । मुसलमानों की इस शिकायत के बारे में मुझे वाइसराय से चर्चा करनी ही थी । खिलाफत के प्रश्न ने अभी अपना पूर्ण रूप नहीं धारण किया था ।
    दिल्ली पहुंचते ही दीनबंधु एंड्रूजने एक नैतिक प्रश्न ला खड़ा किया । इस अर्से में इटली और इंग्लैंड के बीच गुप्त-संधि-विषयक चर्चा अंग्रेजी अखबारों में आई । दीनबंधु ने मुझसे उसके संबंध में बात की और कहा, “ अगर ऐसी गुप्त संधिया इंग्लैंड ने किसी सरकार के साथ की हो तो फिर आप इस सभा में कैसे शामिल हो कर मदद दे सकते हैं ?” मैं इस संधि के बारे में कुछ नहीं जानता था । दीनबंधु का शब्द मेरे लिए बस था । इस कारण को पेश करके मैंने लार्ड चेम्सफोर्डको लिखा कि मुझे सभा में आने से उज्र है । उन्होंने मुझे चर्चा करने के लिए बुलाया । उनके साथ और फिर मि० मैफी के साथ मेरी लंबी चर्चा हुई । इसका अंत यह हुआ कि मैंने सभा में जाना स्वीकार कर लिया । संक्षेप में वाइसराय की दलील यह थी-“आप कुछ यह तो नहीं मानते कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल जो कुछ करे, वाइसराय को उसकी खबर होनी चाहिए ? में यह दावा नहीं करता कि ब्रिटिश सरकार किसी दिन भूल करती ही नहीं । यह दावा में ही क्या, कोई नहीं करता, मगर आप यदि यह कबूल करें कि उसका अस्तित्व संसार के लिए लाभकारी है, उसके कारण इस देश को कुल मिलाकर लाभ ही पहुंचा है, तो या फिर आप यह नहीं कबूल करेंगे कि उसकी आपत्ती के समय उसे मदद पहुँचाना हर एक नागरिक का धर्म है । गुप्त-संधि के संबंध में आप ने अखबारों में जो देखा है, सो मैंने भी पढ़ा है । मैं आप को विश्वास दिला सकता हुँ कि इससे अधिक कुछ भी नहीं जानता । यह भी तो आप जानते ही हैं कि अखबारों में कैसी गप्पें आती हैं । तो क्या आप अखबारों में छपी एक निंदक बात से ऐसे समय में सल्तनत को छोड़ सकते हैं ? लड़ाई 

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