सत्य के प्रयोग/ फिर दक्षिण अफ्रीका

सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ २७२ से – २७३ तक

 

समुद्रसे दूर मालूम हुए। सांताक्रुजमें एक सुंदर बंगला मिल गया। वहां रहने लगे व हमने समझा कि आरोग्यकी दृष्टि से हम सुरक्षित हो गये। चर्चगेट जानेके लिए मैंने वहांसे पहले दर्जेका पास ले लिया। मुझे स्मरण है कि कई बार पहले दमें अकेला में ही रहता है इसलिए मुझे कुछ अभिमान भी होता । कई बार बांदरासे चर्चगेट जानेवाली खास गाड़ी पकड़ने के लिए सांताक्रुजसे चलकर जाता ! मेरा धंधा आर्थिक दृष्टिले भी मेरी धारणासे ज्यादा ठीक चलता हुआ मालूम होने लगा। दक्षिण अफ्रीकाके मवक्किल भी मुझे कुछ काम देते थे। मुझे लगा कि इससे मेरा खर्च सहूलियतसे निकल सकेगा ।

हाईकोर्ट का काम तो अभी मुझे नहीं मिलता था; पर उस समय वहांपर जो 'मूट' (चर्चा) चलती रहती थी, उसमें मैं जाया करता था; पर उसमें भाग लेनेकी मेरी हिम्मत नहीं होती थी। मुझे याद है कि उसमें जमीयतराम नानाभाई काफी भाग लेते थे। दूसरे नये बैरिस्टरोंकी भांति में भी हाईकोर्ट के मुकदमे सुनने के लिए जाने लगा; पर वहां कुछ जानने के बदले समुद्रकी फर-फर चलने- वाली हवामें झोंके खाने में अच्छा आनंद मिलता था। दूसरे साथी भी ऊंघते ही थे, इससे मुझे शर्म भी न आती। मैंने देखा कि वहां ऊंबना भी 'फैशन' में शुमार है।

हाईकोर्टके पुस्तकालयका उपयोग शुरू किया और वहां कुछ जान-पहचान भी शुरू की। मुझे लगा कि थोड़े ही समयमें मैं भी हाईकोर्ट में काम करने लगूंगा।

इस प्रकार एक ओर मुझे अपने धंधेके विषयमें कुछ निश्चितता होने लगी, दूसरी तरफ गोखलेकी नजर तो मुझपर थी ही। सप्ताहमें दो-तीन बार चेंबरमें आकर वह मेरी खबर ले जाते और कभी-कभी अपने खास मित्रोंको भी ले आते थे। बीच-बीच में वह अपने काम करनेके ढंगमे भी मुझे वाकिफ करते जाते थे ।

पर मेरे भविष्य के विषयमें यह कहना ठीक होगा कि ईश्वरने ऐसा कोई भी काम नहीं होने दिया, जिसे करनेका मैंने पहले सोच रक्खा हो। जैसे ही मैने स्थिर होने का निश्चय किया और स्वस्थताका अनुभव करने लगा, एकाएका दक्षिण अफ्रीकासे तार आ गया--- " चैम्बरलेन यहां पा रहे हैं, तुम्हें शीघ्र आना चाहिए।" मेरा वचन मुझे याद ही था। मैंने तार दिया--- " खर्च भेजिए, मैं पानेको तैयार हूं।" उन्होंने तत्काल रुपये भेजे और मैं आफिस समेटकर वहां रवाना हो गया ।

मैंने सोचा था कि मुझे वहां एक वर्ष तो यो लग जायगा। अत: बंगला रहने दिया और बाल-बच्चोंको भी वहीं रखना ठीक समझा ।

मैं यह मानता था कि जो युवक देसमें कमाई न करते हों और साहसी हों, उन्हें विदेशोंमें जाना चाहिए। इसलिए मैं अपने साथ चार-पांच युवकोंको भी ले गया। उनमें मगनलाल गांधी भी थे।

गांधी-कुटुंब बड़ा था, आज भी है। मेरी इच्छा थी कि उसमें से जो लोग स्वतंत्र होना चाहें, वे स्वतंत्र हो जायं। मेरे पिता कइयोंका निर्वाह करते थे; पर वह थे रजवाड़ोंकी नौकरीमें; मैं चाहता था कि वह इस नौकरीसे निकल सकें तो ठीक हो । यह हो नहीं सकता था कि मैं उन्हें दूसरी नौकरी दिलवानेका यत्न करता। शक्ति होनेपर भी इच्छा न थी। मेरी धारणा तो यह थी कि वह स्वयं और दूसरे भी स्वावलंबी बनें तो अच्छा । पर अंतमें तो ज्यों-ज्यों मेरे आदर्श आगे बढ़े (यह मैं मानता हूं) त्यों-त्यों उन युवकोंके आदर्शको बनाना भी मैंने आरंभ किया। उनमें मगनलाल गांधीको बनाने में मुझे बड़ी सफलता मिली--पर इस विषयपर आगे चल कर लिखा जायगा।

बाल-बच्चोंका वियोग, जमा हुआ काम तोड़ देना, निश्चिततासे अ- निश्चिततामें प्रवेश करना--यह सब क्षणभरके लिए खटका; पर मैं तो अनिश्चित जीवनका आदी हो गया था। इस दुनिया में ईश्वर या सत्य, कुछ भी कहिए, उसके सिवा दूसरी कोई चीज निश्चित नहीं। यहां निश्चितता मानना ही नम है। यह सब जो अपने आसपास हमें दिखाई पड़ता है और बनता रहता है, अ- निश्चित और क्षणिक है ; उसमें जो एक परमतत्व निश्चित-रूपसे छिपा हुआ है, उसकी जरा-सी 'झलक' ही मिल जाय और उसपर श्रद्धा बनी रहे, तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता है। उसकी खोज ही परम पुरुषार्थ हैं ।

मैं डरबन एक दिन भी पहले पहुंचा, यह नहीं कहा जा सकता। मेरे लिए तो काम तैयार ही रक्खा था। मि० चेंबरलेनसे मिलनेवाले डेप्यूटेशनकी तारीख तय हो चुकी थी। मुझे उनके सामने पढ़ने के लिए निवेदनपत्र तैयार करना था और डेप्यूटेशनके साथ जाना था ।

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