सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ २६८ ] "पर वहां मेरी पूछ ही ज्यादा न होगी; क्या आप मेरा वहांका खर्च चलायेंगे ?” मैंने कहा ।

"हां, हां, मैं तुम्हारा खर्च चलाऊंगा, तुम्हें बड़े-बड़े बैरिस्टरोंकी तरह किसी वक्त यहां लाऊंगा और लिखने-लिखानेका काम तो तुम्हारे लिए वहीं भेज दिया करूंगा। बैरिस्टरोंको बड़े-छोटे बनानेका काम तो हम वकीलोंका है न ? तुमने जामनगर और वेरावल में जैसा काम किया है, उससे तुम्हारी नाप हो गई है और मैं बेफिकर हो गया हूं । तुम जो लोक-सेवा करने के लिए पैदा हुए हो, उसे यहां काठियावाड़में दफन नहीं होने देंगे। बोलो, कब जा रहे हो ?

"नेटालसे मेरे कुछ रुपये आने बाकी हैं, उनके आनेपर जाऊंगा।"

दो-एक सप्ताहमें रुपये आ गये और मैं बंबई चला गया। वहां मैंने पेन गिल्बर्ट और सयानीके आफिसमें 'चेंबर्स' किरायेपर लिये और ऐसा लगा मानो वहां स्थिर हो गया ।

२२

धर्म संकट

आफिसके अलावा मैंने गिरगांवमें घर भी लिया, परंतु ईश्वरने मुझे स्थिर नहीं रहने दिया। घर लिये बहुत दिन नहीं हुए थे कि मेरा दूसरा लड़का सन्त बीमार हो गया। काल-ज्वरने उसे घेर लिया था। बुखार उतरता नहीं था। घबराहट तो थी ही; पर रातको सन्निपातके लक्षण भी दिखाई देने लगे। इस व्याधिसे पहले, बचपनमें, उसे चेचक भी जोरकी निकल चुकी थी।

डाक्टरकी सलाह ली। डाक्टर ने कहा--" इसके लिए दवाका उपयोग नहीं हो सकता ! अब तो इसे अंडे और मुर्गीका शोरवा देने की जरूरत है ।

मणिलालकी उम्र दस सालकी थी, अत: उससे तो क्या पूछना था ! में उसका पालक था, अतः मुझे ही निर्णय करना था। डाक्टर एक भले पारसी थे। मैंने कहा---- " डक्टर, हम तो सब अन्नाहारी हैं। मेरा विचार तो लड़के- को इन दोनों से एक भी वस्तु देनेका नहीं है । दूसरी ही कोई वस्तु न बतलायेंगे ?"

डाक्टर बोले--- "तुम्हारे लड़केकी जान खतरेमें है । दूध और पानी [ २६९ ] मिलाकर दिया जा सकता है। पर उससे पूरा पोषण नहीं मिल सकता। तुम जानते हो कि मैं तो बहुत-से हिंदू-परिवारों में जाया करता हूं; पर दवाके लिए तो हम जो बातते हैं वहीं चीज उन्हें देते हैं और वे उसे लेते भी हैं। मैं समझता कि तुम भी अपने लड़केके साथ ऐसी सख्ती न करो तो अच्छा होगा।

"आप जो कहते हैं वह तो ठीक है, और आपको ऐसा कहना ही चाहिए पर मेरी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है । यदि लड़का बड़ा होता तो जरूर उसकी इच्छा जानने का प्रयत्न भी करता और जो वह चाहता वही उसे करने देता'; पर यहां तो इसके लिए मुझे ही विचार करना पड़ रहा है ! मैं तो समझता हूं कि मनुष्यके धर्म की कसौटी ऐसे ही समय होती है। चाहे ठीक हो चाहे गलत, मैने तो इसको धर्म माना है कि मनुष्यको मांसादि न खाना चाहिए । जीवनके साधनोंकी भी सीमा होती हैं । जीने के लिए भी अमुक वस्तुओंको हमें नहीं ग्रहण करना चाहिए। मेरे धर्म की मर्यादा मुझे और मेरे लोगोंको भी ऐसे समयपर मांस इत्यादिका उपयोग करने से रोकती है। इसलिए आप जिस खतरेको देखते है मुझे उसे उठाना होगा। पर आपसे मैं एक बात चाहता हूं। आपका इलाज तो मैं नहीं करूंगा; पर मुझे इस बालककी नाड़ी और हृदयको देखना नहीं पाता है। जल-चिकित्साकी मुझे थोड़ी जानकारी है। उन उपचारोंको मैं करना चाहता हूं; परंतु अगर आप समय-समयपर मणिलालकी तबियत देखनेको आते रहें और उसके शरीरमें होनेवाले फेरफारोंसे मुझे परिचित करते रहेंगे तो मैं आपका उपकार मानूंगा ।"

सज्जन डाक्टर मेरी कठिनाइयों को समझ गये और मेरी इच्छानुसार उन्होंने मणिलालको देखने के लिए आना मंजूर कर लिया ।

यद्यपि मणिलाल अपनी राय कायम करने लायक नहीं था तो भी डाक्टरके साथ जो मेरी बातचीत हुई थी वह मैंने उसे सुनाई और अपने विचार प्रकट करनेको कहा।

"आप खुशीके साथ जल-चिकित्सा कीजिए। मैं शोरबा नहीं पीऊंगा, और न अंडे ही खाऊंगा।" उसके इन वाक्योंसे में प्रसन्न हुआ; यद्यपि मैं जानता था कि अगर मैं उसे दोनों चीजें खानेको कहता तो वह खा भी लेता ।

मैं कूने के उपचारोंको जानता था, उनका उपयोग भी किया था। बीमारीसें [ २७० ]उपवासका स्थान बड़ा है, यह मैं जानता था । कुनेकी पद्धतिके अनुसार मन मणिलालको कटि-स्नान कराना शुरू किया। तीन गिनटसे ज्यादा उसे टबमें नहीं रखता। तीन दिन तो सिर्फ नारंगीके रसमें पानी मिलाकर देता रहा और उसीपर रक्खा ।

बुखार दूर नहीं होता था और रातको वह कुछ-कुछ बड़बड़ाता था। बुखार १०४ डिग्री तक हो जाता था। मैं घबराया। यदि बालकको खो बैठा तो जगत्में लोग मुझे क्या कहेंगे? बड़े भाई क्या कहेंगे? दूसरे डाक्टरोंको क्यों न बुला लूं ? किसी वैद्यको क्यों न बुलाऊं ? मां-बापको अपनी अधूरी अकल आजमानेका क्या हक है ?

ऐसे विचार उठते । पर ये विचार भी उठते---"जीव ! जो तू अपने लिए करता है, वही यदि लड़के के लिए भी करे तो इससे परमेश्वर संतोष मानेंगे। तुझे जल-चिकित्सापर श्रद्धा है, दवापर नहीं। डाक्टर जीवन-दान तो देते नहीं। उनके भी तो आखिर में प्रयोग ही है न । जीवनको डोरी तो एकमात्र ईश्वरके ही हाथ में है। ईश्वरका नाम ले और उसपर श्रद्धा रख और अपने मार्गको न छोड़।"

मनमें इस तरह उथल-पुथल मचती रही। रात हुई। मैं मणिलाल को अपने पास लेकर सोया हुआ था। मैंने निश्चय किया कि उसे भीगी चादरकी पट्टीमें रक्खा जाय । मैं उठा, कपड़ा लिया, ठंडे पानी में उसे डुबोया और निचोड़कर उसमें पैरसे लेकर सिर तक उसे लपेट दिया और ऊपरसे दो कम्बल ओङा दिये; सिरपर भीगा हुआ तौलिया भी रख दिया। शरीर तवेकी तरह तप रहा था, व बिलकुल सूखा था, पसीना तो आता ही न था ।

मैं खूब थक गया था। मणिलालको उसकी मांको सौंपकर मैं आध घंटेके लिए खुली हवामें ताजगी और शांति प्राप्त करने के इरादेसे चौपाटीकी तरफ गया। रातके दस वजे होंगे। मनुष्योंकी आमद-रफ्त कम हो गई थी; पर मुझे इसका खयाल न था ! विचार-सागरमें गोते लगा रहा था--" हे ईश्वर ! इस धर्म-संकटमें तू मेरी लाज रखना ।" मुंहले 'राम-राम का रटन तो चल ही रहा था। कुछ देरके बाद मैं वापस लौटा । मेरा कलेजा धड़क रहा था। घरमें घुसते ही मणिलालने आवाज दी----" बापू ! आगये ?"

"हां, भाई। " [ २७१ ] "मुझे इसमेंसे निकालिए न ! मैं तो मारे पागके मरा जा रहा हूं।"

"क्यों, पसीना छूट रहा है क्या ?"

"अजी, मैं तो पसीनेसे तर हो गया। अब तो मुझे निकालिए ।"

मैंने मणिलालका सिर देखा । उसपर मोतीकी तरह पसीनेकी बूंदें चमक रही थीं। बुखार कम हो रहा था। मैंने ईश्वरको धन्यवाद दिया।

"मणिलाल, घबड़ा मत । अब तेरा बुखार चला जायगा, पर कुछ और पसीना आ जाय तो कैसा ?" मैंने उससे कहा।

उसने कहा--- " नहीं बापू ! अब तो मुझे छुड़ाइए । फिर देखा जायगा।"

मुझे धैर्य आ गया था, इसीलिए बातोंमें कुछ मिनट गुजार दिये। सिरसे पसीने की धारा बह चली। मैंने चद्दरको अलग किया और शरीरको पोंछकर सुखा कर दिया। फिर बाप-बेटे दोनों साथ सो गये। दोनों खूब सोये ।

सुबह देखा तो मणिलालका बुखार बहुत कम हो गया है। दूध, पानी तथा फलोंपर चालीस दिनोंतक रखा । मैं निश्चित हो गया था। बुखार हठीला था; पर वह काबूमें आ गया था। आज मेरे लड़कोंमें मणिलाल ही सबसे अधिक स्वस्थ और मजबूत है।

इसका निर्णय कौन कर सकता है कि यह रामजीकी कृपा है या जल- चिकित्सा, अल्पाहार अथवा और किसी उपायकी ? भले ही सब अपनी-अपनी श्रद्धाके अनुसार करें; पर उस वक्त मेरी तो ईश्वरने ही लाज रक्खी । यही मैंने माना और आज भी मानता हूं।

२३

फिर दक्षिण अफ्रीका

मणिलाल तो अच्छा हो गया; पर मैंने देखा कि गिरगांववाला मकान रहने लायक न था। उसमें सील थी। प्रकाश भी काफी न था। इसलिए रेवाशंकरभाईसे सलाह करके हम दोनोंने बंबईके किसी खुली जगह्वाले मुहल्ले में मकान लेनेका निश्चय क्रिया । मैं बांदरा, सांताक्रुज वगैरामें भटका ! बांदरामें कसाई-खाना था, इसलिए वहां रहनेकी हमारी इच्छा न हुई । घाटकूपर वगैरा

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