काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ ६९ से – ७४ तक

 

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लोभ

लोभ बहुत बुरा है। वह मनुष्य का जीवन दुःखमय कर देता है; क्योंकि अधिक धनी होने से कोई सुखी नहीं होता। धन देने से सुख नहीं मोल मिलता। इसलिए जो मनुष्य सोने और चाँदी के ढेर ही को सब कुछ समझता है, वह मूर्ख है। मूर्ख नहीं, तो वह वृथा अहङ्कारी अवश्य है। जो बहुत धनवान् है, वह यदि बहुत बुद्धिमान् और बहुत योग्य भी होता तो हम धन ही को सब कुछ समझते। परन्तु ऐसा नहीं है। धनी मनुष्य सब से अधिक बुद्धिमान नहीं होते। इसलिए धन को विशेष आदर की दृष्टि से देखना भूल है; क्योंकि उससे सच्चा सुख नहीं मिलता। इस देश के पहुँचे हुए विद्वानों ने धन को सदा तुच्छ माना है। यह बात आज-कल के समय के अनुकूल नहीं। योरप और अमेरिका के ज्ञानी धन ही को बल—बल नहीं, सर्वस्व—समझते हैं। परन्तु जिस धन के कारण अनेक अनर्थ होते हैं, उस धन को प्रधानता कैसे दी जा सकती है? और देशों में उसे भले ही प्रधानता दी जाय, परन्तु भारतवर्ष में उसे प्रधानता मिलना कठिन है। जिस देश के निवासी संसार ही को मायामय, अतएव दुःख का मूल कारण समझते हैं, वे धन को कदापि सुख का हेतु नहीं मान सकते।

बहुत धनवान् होना व्यर्थ है। उससे कोई लाभ नहीं। क्योंकि साधारण रीति पर खाने-पीने और पहनने आदि के लिए जो धन काम आता है, वही सफल है। उससे अधिक धन होने से कोई काम नहीं निकलता। स्वभाव अथवा प्रकृति के अनुसार खाने ही पीने की आवश्यकताओं को दूर करने के लिए धन की चाह होती है। दूसरों को दिखलाने अथवा उसे स्वयं देखने के लिए धन इकट्ठा करने से कोई लाभ नहीं। कोई जगत्-सेठ ही क्यों न हो, यदि वह सितार या वीणा बजाना सीखना चाहेगा, तो उसे उस विद्या को उसी तरह सीखना पड़ेगा जिस तरह एक निर्धन--महा-कङ्गाल--को सीखना पड़ता है। उस गुण को प्राप्त करने में उसकी धनाढ्यता ज़रा भी काम न देगी। वह उसे मोल नहीं ले सकता। जब उसे धन के बल से वीणा बजाने के समान एक साधारण गुण भी नहीं मिल सकता, तब शान्ति, शुद्धता और धीरता आदि पवित्र गुण क्या कभी उसे मिल सकते हैं ? कभी नहीं।

जिसके पास आवश्यकता से थोड़ा भी अधिक धन हो जाता है, वह अपने आपको, अर्थात् यों कहिए कि अपनी आत्मा को, अपने वश में नहीं रख सकता। क्योंकि सन्तोष न होने के कारण वह उस धन को प्रति-दिन बढ़ाने का यत्न करता है। अतएव वह धन किस काम का जो लोभ को बढ़ाता जाय ? भूख लगने पर भोजन कर लेने से तृप्ति हो जाती है। प्यास लगने पर पानी पी लेने से तृप्ति हो जाती है। परन्तु धन से तृप्ति नहीं होती। उसे पाकर और भी अधिक लोभ बढ़ता है। इसी लिए धनी होना एक प्रकार का रोग है। रात को जाड़े से बचने के लिए एक लिहाफ बस होता है। यदि किसी के ऊपर आठ दस लिहाफ डाल दिये जायँ तो उसे बोझ मालूम होने लगेगा और उल्टा कष्ट होगा। परन्तु धन की वृद्धि से कष्ट नहीं मालूम होता। इसी लिए धनाढ्यता भी एक प्रकार की बीमारी है। जिसे भस्मक रोग हो जाता है, वह खाता ही चला जाता है। उसे कभी तृप्ति नहीं होती। जिसे धनाध्यता रोग हो जाता है, वह भी कभी तृप्ति नहीं होता। तृप्ति का न होना, अर्थात् आ- वश्यकताओं का बढ़ जाना ही, दुःख का कारण है। और जहाँ दुःख है, वहाँ सुख रही नहीं सकता। उन दोनों में परस्पर वैर है। अतएव उसी को धनी समझना चाहिए जिसकी आवश्यक- तायें कम हैं; क्योंकि वह थोड़े ही में तृप्त हो जाता है। तृप्ति ही सुख है; और लोभ ही दुःख है।

सन्तोष नीरोगता का लक्षण है; लोभ बीमारी का लक्षण है। जो मनुष्य खाते खाते सन्तुष्ट नहीं होता, उसे अधिक खिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसके लिए वैद्य की आवश्यकता होती है। ऐसे मनुष्यों को अधिक खिलाने की अपेक्षा उनके खाये हुए पदार्थों को, वमन कराके बाहर निकाल-

ना पड़ता है। क्योंकि अनावश्यक अथवा आवश्यकता से अधिक पदार्थ पेट में रहने से रोग हुए बिना नहीं रहता। इसी तरह जिनको सन्तोष नहीं, अर्थात् जो लोग प्रति-दिन अधिक अधिक धन इकट्ठा करने के यत्न में रहते हैं, उनको अधिक देने की अपेक्षा उनसे कुछ छीन लेना अच्छा है। क्योंकि जब कोई वस्तु कम हो जाती है, तब मनुष्य बची हुई से सन्तोष करता है। अतएव सन्तोष होने से उसे सुख मिलता है। सन्तोष न होने से कभी सुख नहीं मिलता; किसी न किसी वस्तु की सदैव कमी ही बनी रहती है! लोभी मनुष्य को चाहे त्रिलोक की सम्पत्ति मिल जाय, तो भी उसे और सम्पत्ति पाने की इच्छा बनी ही रहेगी।

लोभ एक तरह की बीमारी है; परन्तु है बड़ी सख्त़ बीमारी। सख्त़ इसलिए है कि वह अपने को बढ़ाने का यत्न करती है, घटाने का नहीं। जो मनुष्य भूखा होता है, वह भोजन करता है; भोजन छोड़ नहीं देता। परन्तु लोभी का प्रकार उलटा है। उसे द्रव्य की भूख रहती है; परन्तु जब वह उसे मिल जाता है, तब उसे वह काम में नहीं लाता; रख छोड़ता है; और अधिक धन पाने के लिए दौड़-धूप करने लगता है।

लोभी मनुष्य बहुधा इसलिए धन इकट्ठा करता है जिसमें उसे किसी समय उसकी कमी न पड़े। परन्तु उसे उसकी कमी हमेशा ही बनी रहती है। पहले उसकी कमी कल्पित होती है; परन्तु पीछे से वह यथार्थ-असली-हो जाती

है; क्योंकि घर में धन होने पर भी वह उसे काम में नहीं ला सकता। लोभ से असन्तोष की वृद्धि होती है, और सन्तोष का सुख खाक में मिल जाता है। लोभ से भूख बढ़ती है और तृप्ति घटती है। लोभ से मूल धन व्यर्थ बढ़ता है, और उसका उपयोग कम होता है। लोभी का धन देखने के लिए, वृथा रक्षा करने के लिए और दूसरों को छोड़ जाने ही के लिए होता है। ऐसे धन से क्या लाभ ? ऐसे धन को इकट्ठा करने में अनेक कष्ट उठाने की अपेक्षा संसार भर में जितना धन है, उसे अपना ही समझना अच्छा है। क्योंकि लोभी का धन उसके काम तो आता नहीं; इसलिए उसे दूसरे का धन, मन ही मन, अपना समझने में कोई हानि नहीं। उससे उलटा लाभ है; क्योंकि उसे प्राप्त करने के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता। लोभियों को ख़ज़ाने के सन्तरी समझना चाहिए। लोभी मनुष्य जब तक जीते हैं, तब तक सन्तरी के समान अपने धन की रखवाली करते हैं और मरने पर उसे दूसरों के लिए छोड़ जाते हैं।

कोई कोई लोभी, अपने पीछे, अपने लड़कों के काम आने के लिए धन इकट्ठा करते हैं। उनको यह समझ नहीं कि जिस धन के बिना उनका काम चल गया, उसके बिना उनके लड़कों का भी चल जायगा। इस प्रकार बाप-दादे का धन पाकर अनेक लोग बहुधा उसे बुरे कामों में लगा कर खुद भी बद- नाम होते हैं और अपने बाप-दादे को भी बदनाम करते हैं।

धनवान् यदि लोभी है तो उसे रात को वैसी नींद नहीं

आ सकती जैसी निर्धन अथवा निर्लोभी को आती है। धनवान् को निर्धन की अपेक्षा भय भी अधिक रहता है। यदि मनुष्य लोभी है तो थोड़ी सम्पत्तिवाले से हम अधिक सम्पत्तिवाले ही को दरिद्री कहेंगे। क्योंकि जिसे ५ रुपये की आवश्यकता है, वह उतना दरिद्री नहीं, जितना ५०० रुपये की आवश्यकतावाला है। कहाँ ५ और कहाँ ५००! सधनता और निर्धनता मन की बात है। जिनका मन उदार है, वे अनुदार और लोभी मनुष्यों की अपेक्षा अधिक धनवान् हैं। क्योंकि उदारता के कारण उनका धन किसी के काम तो आता है -- चाहे वह बहुत ही थोड़ा क्यों न हो। बहुत धन होकर भी यदि मनुष्य लोभी हुआ और उसका धन किसी के काम न आया तो उसका होना न होना दोनों बराबर हैं। शेख सादी ने बहुत ठीक कहा है --

तवङ्गरी बदिलस्त न बमाल।

अर्थात् अमीरी दिल से होती है, माल से नहीं।

[अप्रैल १९०८.
 


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