सङ्कलन/११ गूँगों और बहरों के लिए स्कूल

काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ ६३ से – ६८ तक

 

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गूँगों और बहरों के लिए स्कूल


जो लोग जन्म ही से वज्र बहरे होते हैं, वे गूँगे भी होते हैं। पर उनके गूँगेपन का यह कारण नहीं कि उनके बोलने की इन्द्रिय नहीं है अथवा उसकी शक्ति जाती रही है। नहीं; बोलने की शक्ति प्रायः उन सब में रहती है। पर उन्हें बोलने का अभ्यास नहीं रहता। जब से वे पैदा होते हैं, मनुष्य की वाणी उनके कानों में नहीं जाती; और जाती भी है तो कदाचित् कभी कोई बहुत ऊँची बात। इसी से वे लोग बोलना नहीं जानते। जो वाणी उनकी कर्णेन्द्रिय में कभी गई ही नहीं, उसका अभ्यास और ज्ञान उन्हें कैसे हो सकता है? बहरों की बात जाने दीजिए, यदि सुनने की शक्ति-युक्त कोई बच्चा पैदा होते ही या महीने दो महीने बाद, किसी ऐसी जगह रख दिया जाय जहाँ उसका पालन-पोषण करनेवालों के मुँह से कभी कोई बात न निकले तो, बड़ा होने पर भी, न वह बोल सकेगा, न औरों की बात समझ सकेगा। हाँ, कुछ समय बाद पीछे से चाहे वह भले ही बोलने लगे।

यही बात बहरों की है। उनके कान में मनुष्य की बात न

जाने से उन्हें बोलने का अभ्यास नहीं होता। इससे वे बेचारे जन्म भर बहरे तो रहते ही हैं; बहरेपन के कारण गूँगे भी रहते हैं। इस दोष को दूर करने के लिए अमेरिका के विद्वानों ने अजीब तरकीबें निकाली हैं। उन्होंने ऐसे स्कूल खोले हैं जिन में विशेष कर के स्त्रियाँ ही अध्यापिका हैं। वहाँ बच्चों को अध्यापिकाओं की जीभों और होठों की तरफ ध्यान दिलाया जाता है। किसी वर्ण या शब्द का उच्चारण करने में अध्यापि- काओं के होंठ जिस तरह खुलते और बन्द होते हैं और जीभ जिस तरह हिलती-डुलती है, बच्चों को भी वैसा ही करने की शिक्षा दी जाती है। 'क' 'ख' 'ग' आदि वर्णों की जगह पर अँगरेज़ी के 'A' 'B' 'C' आदि वर्ण इसी तरह सिखलाये जाते हैं। जो आवाज़ ठीक ठीक बच्चों के मुँह से नहीं निकलती, उसे निकालने के लिए एक सीधा-सादा यन्त्र भी है। जीभ की ठीक ठीक हरकत न होने ही से अपेक्षित आवाज़ नहीं नि- कलती। पर उस यन्त्र से जीभ को यथास्थान कर देने से वह निकलने लगती है। इसी तरह कुछ दिनों तक वर्णमाला और अङ्क उच्चारण करना सिखलाया जाता है।

यह शिक्षा बड़े बड़े आइनों की सहायता से दी जाती है। बच्चे क्लासों में बँटे रहते हैं। कोई 'क' क्लास में, कोई 'ख' क्लास में, कोई 'ग' क्लास में। एक एक क्लास को अलग अलग शिक्षा दी जाती है। अध्यापिका एक आइने के सामने जाती है और एक बच्चे को अपने साथ लेती है। वहाँ वह 'क' उच्चारण

करती है। उस समय उसके मुँह की जो आकृति होती है, उसे बच्चा आइने में ध्यान से देखता है और उसकी नक़ल करता है। नकल करने में यदि उससे भूल होती है तो अध्यापिका उसे दुरुस्त करती जाती है और आवश्यकता होने पर यन्त्र को जीभ में लगाती है। इस तरह क्रम क्रम से "क" क्लास के सब बच्चों को शिक्षा दी जाती है। जब वे. "क" उच्चारण में दक्ष हो जाते हैं, तब "ख" क्लास में चढ़ाये जाते हैं। इसी तरह उनकी तरक्की होती जाती है और वर्णों और अंकों का उच्चारण सिख- लाया जाता है।

गूँगे-बहरों के स्कूल में जाने से, सुनते हैं, बड़ा आनन्द आता है। मालूम होता है, कोई तमाशा हो रहा है। अध्यापिका बड़े धीर-गम्भीर भाव से बातें करती है और बच्चे उसकी बातें समझते हैं; और जो कुछ वह कहती है, वही करते हैं। जहाँ जरूरत होती है, वे बोलते भी जाते हैं। उनकी आवाज़ में सिर्फ इतना ही भेद होता है कि वह कुछ फैली सी होती है। इन स्कूलों के शिक्षा-क्रम को देखकर देखनेवालों को बड़ा आश्चर्य होता है।

सैंकड़ों तरह के खिलौने इन स्कूलों में जमा रहते हैं। जिन चीजों और जिन जानवरों को हम लोग रोज देखते हैं, खिलौनों के रूप में वे स्कूल में रक्खे रहते हैं। उन से बच्चों को शिक्षा दी जाती है। जब वे वर्णमाला सीख चुकते हैं, तब वस्तु- परिज्ञान कराया जाता है। अध्यापिका कुत्ते के आकार का खिलौना हाथ में लेती है और मुँह से कहती है "कु-त्ता।" वाक्य बच्चों से बोर्ड पर लिखाया गया और सारी क्लास से वह उच्चारण भी कराया गया और बोर्ड पर लिखाया भी गया।

वाक्य लिखना और उच्चारण करना आ जाने पर नित्य के व्यवहार की और भी बातें उन्हें धीरे-धीरे सिखलाई जाती हैं; और साथ ही साथ व्याकरण का भी बोध कराया जाता है। इस तरह चित्रों से, खिलौनों से, रङ्गों से, क्रियाओं से, बड़ी युक्ति और धीरज के साथ पहले तीन चार वर्ष गूँगे और बहरे लड़कों को बोलना, और साथ ही साथ लिखना-पढ़ना भी, सिखलाया जाता है। पहले-पहल शिक्षा का क्रम बहुत ही सीधा-सादा होता है। ऐसी ही बातें बच्चों को सिखलाई जाती हैं जो हर वक्त उनके देखने में आती हैं। जितने वाक्य उन्हें सिखलाये जाते हैं, सब सरल होते हैं। उन्हें बच्चे लिखना भी सीखते हैं और उच्चारण करना भी। इस तरह चार ही पाँच वर्ष की शिक्षा से वे मतलब भर को बोल भी लेने लगते हैं और दूसरों को बोलते देख उनकी मुखाकृति से उनकी बातों का मतलब भी समझ लेते हैं। वे चुने हुए सैंकड़ों वाक्य लिख भी लेते हैं और सहल सहल किताबें भी पढ़ लेते हैं। जो किताबें गूँगे बच्चों के लिए तैयार की जाती हैं, उनमें उलट-पुलट कर प्रायःवही शब्द और वही वाक्य होते हैं जिन्हें वे पहले याद कर चुकते हैं।

इसके बाद वह समय आता है जब बच्चों को इतिहास, भूगोल, अङ्क-गणित और वैज्ञानिक विषय सिखलाये जाते हैं। इन सब विषयों के सिखलाने की ऐसी अच्छी तरकीबें निकाली

गई हैं कि गूँगे और बहरे लड़के आसानी से उन्हें समझ सकते हैं। बच्चों के बोलने और पढ़ने की तरफ अधिक ध्यान दिया जाता है; क्योंकि इसकी सबसे अधिक ज़रूरत समझी जाती है। इस तरह कुछ समय तक और अभ्यास जारी रहने से लड़के आप ही आप अपने मनोभाव प्रकट कर लेने लगते हैं और दूसरों की बातें समझ लेने में उन्हें कुछ भी कठिनता नहीं होती। जब वे इस अवस्था को पहुँच जाते हैं, तव उनकी शिक्षा सफल समझी जाती है।

गूँगे और बहरे लड़कों को लिखना, पढ़ना और बोलना ही नहीं सिखलाया जाता, किन्तु जीविका-उपार्जन के पेशे भी सिखलाये जाते हैं। लड़कियों को लकड़ी पर नक्काशी के काम करना, चित्र बनाना, सीना-पिरोना और खाना पकाना सिख- लाया जाता है। लड़कों को दरजी का काम, बेल-बूटे बनाने का काम, किताबें छापने का काम, तसवीर खींचने का काम -- ऐसे ही और भी कितने ही उपयोगी काम सिखलाये जाते हैं।

गूँगे और बहरे लड़कों की प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त होने पर वे प्रायः उसी तरह लिख, पढ़ और बोल सकते हैं जैसे और आदमी। उनकी और साधारण आदमियों की बोली में बहुत ही कम अन्तर मालूम होता है। इस तरह शिक्षा प्राप्त लड़के ऊँचे दरजे के स्कूलों और कालेजों में भरती होकर उच्च शिक्षा भी प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा-समाप्ति के बाद वे बड़े बड़े काम करते हैं। समाज में उनका बड़ा आदर होता है। देखिए, प्रकृति जिन बातों से गूंगों और बहरों को वञ्चित करना चाहती है, उन्हीं को मनुष्य अपनी विद्या, बुद्धि और मिहनत से उन्हें प्राप्त करा देता है।

[सितम्बर १९०७.





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