सङ्कलन/१३ चीन के विश्व-विद्यालयों की परीक्षा-प्रणाली

काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ ७५ से – ८० तक

 

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चीन के विश्व-विद्यालयों की परीक्षा-प्रणाली

चीन संसार में सब से अधिक आबाद देश है। पर वह शिक्षा में बहुत पीछे है। यद्यपि वहाँ शिक्षित लोगों की बड़ी क़दर है, तथापि उनकी जीविका का मैदान बहुत तंग है। यदि उन्हें सरकारी नौकरी न मिली तो वे अध्यापकी या मुहर्रिरी करके जैसे-तैसे अपने दिन बिताते हैं। विशेष कर उन चीनी शिक्षितों की मिट्टी और भी खराब होती है जो किसी कारण से पदवी (Degree) नहीं प्राप्त कर सकते। वे छोटी छोटी देहाती पाठशालाओं में, जिनमें पचीस तीस से अधिक लड़के नहीं होते, सात आठ रुपये मासिक पर अपना जीवन बड़े कष्ट से बिताते हैं। वे बार बार परीक्षाओं में शामिल होते हैं और इस आशा पर जमे रहते हैं कि जब हम कृतकार्य होंगे, तब हमारा भाग्य अवश्य ही जगेगा। ऊँची ऊँची परीक्षाओं के हज़ारों उम्मेदवारों में से अधिकांश चालीस पचास वर्ष की उम्रवाले होते हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके बाल बिलकुल सफेद हो गये हैं और जो अपने नाती-पोतों के साथ बैठकर काँपते हुए हाथ से इस आशा से निबन्ध लिखते हैं कि शायद बुढ़ापे ही में धन और यश मिलना बदा हो। पर दुर्भाग्य से हज़ारों में सिर्फ चालीस पचास ही पास होते हैं। प्रति वर्ष अधिकांश उम्मेदवारों के फेल हो जाने का कारण यह है कि चीनी परीक्षाओं की प्रणाली इतनी दोष-पूर्ण है कि परीक्षोत्तीर्ण होना बड़ा दुस्साध्य कार्य है। वह इतनी अद्भुत और जटिल होती है कि विदेशियों के लिए उसका समझना अत्यन्त ही कठिन है। इस तरह की परीक्षा संसार में शायद ही और कहीं होती हो। सब से पहली अर्थात् नीचे दर्जे की परीक्षा साल में एक दफे होती है। इसे प्रत्येक जिले का शासनकर्ता लेता है। उसका काम यह है कि वह सब से ख़राब उम्मेदवारों को अलग कर दे और बचे हुए उम्मेदवारों को, जिनकी योग्यता काफी समझे, अपने से ऊँचे अधिकारी के पास भेज दे। जो उम्मेदवार इस हाकिम की भी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये, उनकी परीक्षा शिक्षा-विभाग के सर्वोच्च अधिकारी के द्वारा ली जाती है। यही अधिकारी उन्हें "Hsiu Tsai" की पदवी देता है। यह अफसर किसी प्रान्तिक शासन-कर्ता के अधीन नहीं होता। वह सीधे सम्राट् से पत्र-व्यवहार कर सकता है। वही उसको नियुक्त करते हैं। वह तीन वर्ष के लिए नियत किया जाता है। उसका प्रभुत्व किसी गवर्नर से कम नहीं होता।

इस तरह अयोग्य विद्यार्थियों की छटनी होते होते जो सबसे अच्छे विद्यार्थी बच रहते हैं, वही परीक्षा दे सकते हैं। प्रत्येक परीक्षा में दो निबन्ध और कुछ पद्य लिखाये जाते हैं। निबन्धों में चीनी प्राचीन ग्रन्थों के अवतरणों की भरमार होनी
चाहिए। विद्यार्थियों को कोई नई बात सोचने के लिए अपने मस्तिष्क पर जोर नहीं देना पड़ता। हजारों वर्ष की पुरानी बाते, तोते की तरह रट कर, वे छुट्टी पा जाते हैं। जो कुछ उनमें लिखा हुआ है, उसी को सहस्त्रशः विद्यार्थी प्रति वर्ष आँख बन्द करके लिखते चले जाते हैं। चीन की प्राचीन प्रथा है कि एक नियत संख्या से अधिक परीक्षार्थी किसी परीक्षा में पास नहीं किये जाते, चाहे उम्मेदवारों की तादाद कितनी ही अधिक क्यों न हो। योग्यता जाँचने का साधन भी बड़ा विचित्र है। वह यह है कि उम्मेदवार नियत संख्या के अन्य उम्मेदवारों से अधिक योग्य हो। कभी कभी इस प्रथा से घोर अन्याय हो जाता है। शान्टुंग, चेकियांग, केन्टन आदि प्रान्तों में हजारों विद्यार्थी परीक्षा में शरीक होते हैं। यदि पास किये जानेवालो की संख्या केवल तीस हुई तो सिर्फ इतने ही पास किये जायेंगे। शेष अपना सा मुँह लेकर अपने घर लौट जायँगे। इसके विरुद्ध शान्सी, शेन्सी, कान्सू आदि प्रान्तों में बहुत ही थोड़े अर्थात् तीस चालीस परीक्षार्थी होते हैं। उनमें से प्रायः सभी पास कर दिये जाते हैं। फल यह होता है कि एक जगह अत्यन्त अयोग्य उम्मेदवार पास हो जाता है और दूसरी जगह उससे कहीं अधिक योग्य परीक्षार्थी फेल हो जाता है। सुनते हैं, किसी किसी जिले में शासनकर्ता गली गली घूम कर नियत संख्या के उम्मेदवारों को इकट्ठा करता है। "Hsiu Tsai" पदवी-धारी लोग लाल झब्बेदार टोपी पहनते हैं जिसमें सुनहला बटन लगा रहता है। यह बटन प्रकट करता है कि यह कोई सरकारी कर्म्मचारी है।

दूसरी परीक्षा जिसे "Chuken" कहते हैं, तीन वर्ष में एक दफे, केवल प्रान्तिक राजधानियों में, होती है। इस परीक्षा के लिए चीन की राजधानी पेकिन से विशेष परीक्षक आते हैं। जिस स्थान पर परीक्षा होती है, वह देखने योग्य होता है। प्रत्येक उम्मेदवार एक छोटी सी झोपड़ी में ठहराया जाता है। वहाँ वह एक तख़्ते पर उकडूँ बैठकर अपने निबन्ध लिखता है। उसके सामने एक विचित्र प्रकार की छोटी सी मेज़ भी रहती है। ये झोपड़ियाँ एक लम्बी कतार में बनी होती हैं और संख्या में आठ हजार के लगभग होती हैं। वे इतनी गन्दी रहती हैं कि उनमें एक दिन भी ठहरना मुशकिल है। पर बेचारे पदवी-लोभियों को उसी नरक-तुल्य स्थान में पूरे तीन दिन रहना और वहीं अपने निबन्ध लिखना पड़ता है। फिर एक दिन की छुट्टी मिलती है। इसके बाद तीन दिन और इस काल-कोठरी में उन्हें बिताने पड़ते हैं। उस मैदान में स्थान स्थान पर बुर्ज बने होते हैं। परीक्षक लोग उन्हीं बुर्जों में बैठ कर दिन-रात, चौबीसों घण्टे, उनकी निगरानी करते हैं। परीक्षा की इस अद्भुत प्रणाली के कारण उम्मेदवारों को बड़ी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। पर साथ ही साथ उन्हें धोखेबाज़ी करने का अवसर भी हाथ आता है। कितने ही परीक्षा देनेवाले किताबों के ढेर के ढेर टोकरियों में रक्खे हुए, बैठे नकल किया
करते हैं। जहाँ आठ आठ हजार आदमी एक साथ परीक्षा देते हों, वहाँ अपने बदले किसी योग्यतर बाहरी आदमी से परीक्षा दिलवा देना और खुद पदवी के अधिकारी बनना कौन सी बड़ी बात है? ऐसी चालबाजियाँ अकसर हुआ करती हैं। उम्मेदवारों के इस टिड्डी-दल में से सिर्फ सत्तर आदमी पास किये जाते हैं। परीक्षा की सख्ती की हद हो गई !

तीसरी और सब से ऊँची परीक्षा "Gim Shih" की है। यह केवल चीन की राजधानी पेकिन में होती है। "Chuken" पदवी-धारी सब प्रान्तों से इसमें शरीक होते हैं। इसका ढंग ठीक वैसा ही होता है जैसा कि दूसरी परीक्षा का। इसमें भी बहुत थोड़े आदमी पास होते हैं। उत्तीर्ण छात्रों के दो विभाग किये जाते हैं। दूसरी श्रेणीवाले यदि सरकारी नौकरी करना चाहें, तो जिले के शासनकर्ता ( Magistrate ) बनाये जाते हैं। यदि वे दुर्भाग्य से किसी दूरवर्ती या उजाड़ प्रान्त में नियत किये गये तो रिशवत के बल से अच्छे प्रान्त की बदली करा सकते हैं। प्रथम श्रेणी के मनुष्य "Hanlin" पदवी के लिए परीक्षा देते हैं। इस पदवी के लिए लिपि-सौन्दर्य और अत्युत्कृष्ट लेख-प्रणाली की बड़ी आवश्यकता है। इस परीक्षा में जो प्रथम होता है, उसको "Chuang Yuan" की अत्यन्त सम्मानास्पद उपाधि मिलती है। वह अपने प्रान्त में एक महान पुरुष समझा जाने लगता है। अधिकांश "Hanlin" पदवी-धारी लोग चीनी

गवर्नमेंट के शाही दफ़तरों में काम करने लगते हैं। फिर वे या तो शिक्षा-विभाग के सर्वोच्च अधिकारी या "Chuken" परीक्षा के परीक्षक बनाये जाते हैं। इसके बाद उन्हें कोई ऊँचे दर्जे की सरकारी जगह मिल जाती है।

इस तरह चीन में हजारों वर्षों से परीक्षायें होती चली आ रही हैं। राज-कर्मचारियों के चुनाव की प्रणाली भी पूर्व- वत् ही बनी है। जब तक विदेशियों के क़दम-शरीफ़ चीन में नहीं पहुँचे थे, तब तक सब काम सन्तोषजनक रीति से होता रहा। पर जब से राज्य-लोलुप पश्चिमी जातियों ने चीन को दबाना शुरू किया है, तब से कुछ दूरदर्शी चीनी विद्वानों की आँखें खुल गई हैं। वे समझने लगे हैं कि ज़माने के साथ साथ चले बिना इस संसार में अपना नाम बनाये रखना बहुत मुश- किल है। शिक्षा और परीक्षा की लगी हुई पद्धति को छोड़ कर जब तक हम लोग पश्चिमी रीति-नीति से लौकिक शिक्षा का प्रचार न करेंगे, तब तक उन्नति करना तो दूर रहा, उलटे विदे- शियों की ठोकरें खाते खाते एक दिन चीनी जाति विधर्मियों के पराधीनता-पाश में अवश्य बँध जायगी। यद्यपि चीन के इन दूरदर्शी सुपुत्रों की चेष्टा अभी तक पूर्ण रूप से सफल नहीं हुई, तथापि उसके शुभ परिणाम के चिह्न प्रकट होने लगे हैं। आशा है कि वह एक न एक दिन अवश्य सफल होगी।

[सितम्बर १६०८.
 

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