शिवशम्भु के चिट्ठे/१-बनाम लार्ड कर्जन

शिवशम्भु के चिट्ठे
बालमुकुंद गुप्त, संपादक विजयेन्द्र स्नातक

नई दिल्ली: दिग्दर्शन चरण जैन, पृष्ठ १७ से – २१ तक

 
श्रीः


शिवशम्भुके चिट्ठे

[१]

बनाम लार्ड कर्जन

माइ लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भङ्गडको बुलबुला का बड़ा चाव था। गांवमें कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे। बालक शिवशम्भु शर्म्मा बुलबुलें लड़ानेका चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुलको हाथपर बिठा कर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मणकुमारकों बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालकको बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथसे बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोधसे यदि पिता ने किसी मित्रकी बुलबुल किसी दिन ला भी दी, तो वह एक घण्टे से अधिक नहीं रह पाती थी। वह भी पिताकी निगरानी में!

सरायके भटियारे बुलबुलें पकड़ा करते थे। गांवके लड़के उनसें दो-दो तीन-तीन पैसेमें खरीद लाते थे। पर बालक शिवशम्भु तो ऐसा नहीं कर सकता था। पिताकी आज्ञा बिना वह बुलबुल कैसे लावे और कहाँ रखे; उधर मन में अपार इच्छा थी कि बुलबुल जरूर हाथ पर हो। इसी से जंगल में उड़ती बुलबुल को देखकर जी फड़क उठता था। बुलबुलकी बोली सुनकर आनन्द से हृदय नृत्य करने लगता था। कैसी-कैसी कल्पनाएं हृदय में उठती
थीं। उन सब बातों का अनुभव दूसरों को नहीं हो सकता। दूसरों को क्या होगा, आज यह वही शिवशम्भु है, स्वयं इसीको उस बालकालके अनिर्वचनीय चाव और आनन्दका अनुभव नहीं हो सकता।

बुलबुल पकड़नेकी नाना प्रकारकी कल्पनाएं मन ही मनमें करता हुआ बालक शिवशम्भु सो गया। उसने देखा कि संसार बुलबुलमय है। सारे गांवमें बुलबुलें उड़ रही हैं। अपने घरके सामने खेलनेका जो मैदान है, उसमें सैकड़ों बुलबुलें उड़ती फिरती हैं। फिर वह सब ऊंची नहीं उड़ती; बहुत नीची-नीची उड़ती है। उनके बैठने के अड्डे भी नीचे-नीचे हैं। वह कभी उड़कर इधर जाती हैं और कभी उधर, कभी यहां बैठती हैं और कभी वहां, कभी स्वयं उड़ कर बालक शिवशम्भुके हाथकी उंगलियों पर आ बैठती हैं। शिवशम्भु आनन्द में मस्त होकर इधर-उधर दौड़ रहा है। उसके दो-तीन साथी भी उसी प्रकार बुलबुलें पकड़ते और छोड़ते इधर-उधर कूदते फिरते हैं।

आज शिवशम्भुकी मनोवाञ्छा पूर्ण हुई। आज उसे बुलबुलोंकी कमी नहीं है। आज उसके खेलनेका मैदान बुलबुलिस्तान बन रहा है। आज शिवशम्भु बुलबुलोंका राजा ही नहीं, महाराजा है। आनन्दका सिलसिला यहीं नहीं टूट गया। शिवशम्भुने देखा कि सामने एक सुन्दर बाग है। वहीं से सब बुलबुलें उड़कर आती हैं। बालक कूदता हुआ दौड़कर उसमें पहुंचा। देखा, सोनेके पेड़-पत्ते और सोने ही के नाना रंग के फूल हैं। उन पर सोने की बुलबुलें बैठी गाती हैं और उड़ती फिरती हैं। वहीं एक सोनेका महल है। उसपर सैकड़ों सुनहरी कलश हैं। उन पर भी बुलबुलें बैठी हैं। बालक दो-तीन साथियों सहित महल पर चढ़ गया। उस समय वह सोनेका बगीचा सोनेको महल और बुलबुलों-सहित एक बार उड़ा। सब कुछ आनन्दसे उड़ता था। बालक शिवशम्भु भी दूसरे बालकों-सहित उड़ रहा था। पर यह आमोद बहुत देर तक सुखदायी न हुआ। बुलबुलोंका खयाल अब बालक के मस्तिष्क से हटने लगा। उसने सोचा—हैं! मैं कहां उड़ा जाता हूं? माता-पिता कहाँ? मेरा घर कहाँ? इस विचारके आते ही सुख-स्वप्न भङ्ग हुआ। बालक कुलबुलाकर उठ बैठा। देखा और कुछ नहीं, अपना ही घर और अपनी ही चारपाई है। मनोराज्य समाप्त हो गया। आपने माई लार्ड! जबसे भारतवर्ष में पधारे हैं, बुलबुलोंका स्वप्न ही देखा है या सचमुच कोई करनेके योग्य काम भी किया है? खाली अपना खयाल ही पूरा किया है या यहाँकी प्रजाके लिए भी कुछ कर्तव्य पालन किया? एक बार यह बातें बड़ी धीरतासे मन में विचारिये। आपकी भारत में स्थितिकी अवधिके पाँच वर्ष पूरे हो गये। अब यदि आप कुछ दिन रहेंगे तो सूदमें, मूलधन समाप्त हो चुका। हिसाब कीजिए, नुमायशी कामों के सिवा कामकी बात आप कौन-सी कर चले हैं और भड़कबाजीके सिवा ड्यूटी और कर्तव्य की ओर आपका इस देशमें आकर कब ध्यान रहा है? इस बारके बजटकी वक्तृता ही आपके कर्त्तव्य-कालकी अन्तिम वक्त्तृता थी। जरा उसे पढ़ तो जाइये। फिर उसमें आपकी पाँच सालकी किस अच्छी करतूत का वर्णन करते हैं? आप बारम्बार अपने दो अति तुमतराकसे भरे कामोंका वर्णन करते हैं। एक विक्टोरिया-मेमोरियल हाल और दूसरा दिल्ली-दरबार। पर जरा विचारिये तो यह दोनों काम "शो" हुए या "ड्यूटी"? विक्टोरिया-मिमोरियल हाल चन्द पेट भरे अमीरोंके एक-दो बार देख आनेकी चीज होगी। उससे दरिद्रोंका कुछ दु:ख घट जावेगा या भारतीय प्रजाकी कुछ दशा उन्नत हो जावेगी, ऐसा तो आप भी न समझते होंगे।

अब दरबारीकी बात सुनिये कि क्या था। आपके खयालसे वह बहुत बड़ी चीज थी। पर भारतवासियों की दृष्टि में वह बुलबुलोंके स्वप्नसे बढ़ कर कुछ न था। जहाँ-जहाँसे वह जुलूसके हाथी आये, वहीं-वहीं सब लौट गए। जिस हाथीपर आप सुनहरी झूलें और सोनेका हौदा लगवाकर छत्रधारणपूर्वक सवार हुए थे, वह अपने कीमती असबाब-सहित जिसका था, उसके पास चला गया। आप भी जानते थे कि वह आपका नहीं और दर्शक भी जानते थे कि आपका नहीं। दरबारमें जिस सुनहरी सिंहासन पर विराजमान होकर आपने भारतके सब राजा-महाराजाओंकी सलामी ली थी, वह भी वहीं तक था और आप स्वयं भली-भांति जानते हैं कि वह आपका न था। वह भी जहां से आया था, वहीं चला गया। यह सब चीजें खाली नुमायशी थीं। भारतवर्षमें वह पहलेहीसे मौजूद थीं। क्या इन सबसे आपका कुछ गुण प्रकट हुआ? लोग विक्रमको याद करते हैं या
उसके सिंहासनको, अकबरको या उसके तख्तको? शाहजहांकी इज्जत उसके गुणोंसे थी या तख्तेताऊस से? आप जैसे बुद्धिमान पुरुषके लिए यह सब बातें विचारनेकी हैं।

चीज वह बननी चाहिए, जिसका कुछ देर कयाम हो। माता-पिताकी याद आते ही बालक शिवशम्भुका सुख-स्वप्न भङ्ग हो गया। दरबार समाप्त होते ही वह दरबार-भवन, वह एम्फीथियेटर तोड़कर रख देनेकी वस्तु हो गया। उधर बनाना, इधर उखाड़ना पड़ा! नुमायशी चीजोंका यही परिणाम है। उनका तितलियोंका-सा जीवन होता है। माई लार्ड! आपने कछाड़के चाय वाले साहबोंकी दावत खाकर कहा था कि यह लोग यहां नित्य हैं और हम लोग कुछ दिनके लिए। आपके वह "कुछ दिन" बीत गये। अवधि पूरी हो गई। अब यदि कुछ दिन और मिलें, तो वह किसी पुराने पुण्यके बलसे समझिये। उन्हींकी आशा पर शिवशम्भु शर्मा यह चिट्ठा आपके नाम भेज रहा है, जिससे इन मांगे दिनों में तो एक बार आप को अपने कर्तव्य का खयाल हो।

जिस पद पर आप आरूढ़ हुए, वह आपका मौरूसी नहीं। नदी-नाव संयोग की भांति है। आगे भी कुछ आशा नहीं कि इस बार छोड़ने के बाद आपका इससे कुछ सम्बन्ध रहे। किन्तु जितने दिन आपके हाथ में शक्ति है, उतने दिन कुछ करने की शक्ति भी है। जो आपने दिल्ली आदिमें कर दिखाया, उसमें आपका कुछ भी न था, पर वह सब कर दिखानेकी शक्ति आपमें थी। उसी प्रकार जानेसे पहले, इस देशके लिए कोई असली काम कर जाने की शक्ति आपमें है। इस देशकी प्रजाके हृदयमें कोई स्मृतिमन्दिर बना जानेकी शक्ति आपमें है। पर यह सब तब हो सकता है कि वैसी स्मृतिकी कुछ कदर आपके हृदय में भी हो। स्मरण रहे धातुकी मूर्तियोंके स्मृतिचिह्नसे एक दिन किलेका मैदान भर जायेगा। महारानी का स्मृति मन्दिर मैदानकी हवा रोकता था या न रोकता था, पर दूसरों की मूर्तियां इतनी हो जावेगी कि पचास-पचास हाथ पर हवाको टकराकर चलना पड़ेगा। जिस देश में लार्ड लैंसडौनकी मूर्ति बन सकती है, उसमें और किस-किसकी मूर्त्ति नहीं बन सकती? माई लार्ड! क्या आप भी चाहते हैं कि उसके आसपास आपकी भी एक वैसी ही मूर्त्ति खड़ी हो? यह मूर्तियां किस प्रकारसे स्मृति चिह्न हैं? इस दरिद्र देशके बहुतसे धनकी एक ढेरी है, जो किसी काम नहीं आ सकती। एक बार जाकर देखनेसे ही विदित होता है कि वह कुछ विशेष पक्षियों के कुछ देर विश्राम लेनेके अड्डेसे बढ़कर कुछ नहीं है। माइ लार्ड! आपकी मूर्त्ति की वहां क्या शोभा होगी? आइये, मूर्त्तियां दिखावें। वह देखिये, एक मूर्त्ति है, जो किलेके मैदानमें नहीं है, पर भारतवासियों के हृदय में बनी हुई है। पहचानिये, इस वीर पुरुषने मैदानकी मूर्त्ति से इस देशके करोड़ों गरीबों के हृदयमें मूर्त्ति बनवाना अच्छा समझा। वह लार्ड रिपनकी मूर्त्ति है। और देखिये, एक स्मृति मन्दिर यह आपके पचास लाख के सङ्गमरमर वाले से अधिक मजबूत और सैकड़ों गुना कीमती है। यह स्वर्गीया विक्टोरिया महारानी का सन् १८५८ ई॰ का घोषणा पत्र है। आपकी यादगार भी यही बन सकती है, यदि इन दो यादगारों की आपके जी में कुछ इज्जत हो।

मतलब समाप्त हो गया। जो लिखना था, वह लिखा गया। अब खुलासा बात यह है कि एक बार शो और ड्यूटीका, मुकाबिला कीजिए। शोको शो ही समझिये। शो ड्यूटी नहीं है। माई लार्ड! आपके दिल्ली दरबार की याद कुछ दिन बाद उतनी ही रह जावेगी, जितनी शिवशम्भु शर्म्माके सिर में बालकपन के उस सुख-स्वप्न की है!

('भारतमित्र', ११ अप्रैल सन् १९०३ ई॰)