शिवशम्भु के चिट्ठे
बालमुकुंद गुप्त, संपादक विजयेन्द्र स्नातक

नई दिल्ली: दिग्दर्शन चरण जैन, पृष्ठ ५ से – १५ तक

 
भूमिका
गूंगी प्रजा का वकील : शिवशंभु शर्मा


हिन्दी में व्यंग्य-विनोद की सजीव शैली के पुरस्कर्ताओं में बाबू बालमुकुंद गुप्त के 'शिवशंभु के चिट्ठे' अपना अप्रतिम स्थान रखते हैं। शिवशम्भु के कल्पित नाम से, गुप्तजी ने लार्ड कर्जन के शासनकाल में, भारतीय जनता की दुर्दशा को प्रकट करने के लिए आठ चिट्ठे लिखे थे। ये चिट्ठे उस समय की राजनीतिक गुलामी और लार्ड कर्जन की निर्मम क्रूरताओं को जितने सटीक रूप में प्रस्तुत करते हैं, उतनी पूर्णता के साथ उस समय का कोई दूसरा अभिलेख नहीं करता। इतिहास के पृष्ठों में जो जानबूझकर अंकित नहीं किया गया उसे यदि पढ़ना अभीष्ट हो तो इन चिट्ठों को पलटना चाहिए। ये चिट्ठे १९०३ ई॰ से १९०५ ई॰ के मध्य 'भारतमित्र' में प्रकाशित हुए थे। उस समय गुप्तजी ही 'भारतमित्र' के सम्पादक थे।

शिवशंभू परतंत्र देश का नागरिक है। मन बहलाव के लिए वह भांग का सेवन करता है। भांग का नशा उसकी चेतना को विलीन नहीं करता, हल्का-सा सरूर होता है जो मादक ने होकर मन को तरंगायित करने में समर्थ है। मन की इसी प्रमुदित तरंग में शिवशंभु अपने चारों ओर फैले हुए समाज के दुःख-दर्द की कहानी कहना शुरू करता है। गुलामी की निविड़ शृंखलाओं में जकड़ा हुआ भारतीत शिवशशंभु अपने अस्तित्व को यदि अनुभव कर पाता है तो केवल परतंत्र भारत की पामाली के लिए जो षड्यंत्र अपने शासन काल में रचे, उनका संकेत इन चिट्ठों में लेखक
ने जिस शैली में प्रस्तुत किया है वह निस्संदेह हिन्दी व्यंग्य की बेजोड़-बेमिसाल शैली है।

लार्ड कर्जन के विषय में प्रसिद्ध है कि वह क्रूर स्वभाव का अहंकारी शासक था। उसके शासन काल में भारतीय जनता को सुख-सुविधाएं प्राप्त होना तो असंभव था ही, प्रत्युत वह तो पहले से प्राप्त अधिकारों को भी छीनने के पक्ष में था। फलत: उसने सिविल सर्विस में भारतीयों के प्रवेश का निषेध किया, उच्च स्तरीय शिक्षा के मार्ग में रोड़े खड़े किये, बंगाल को विभाजित कर देश में फूट के बीज बोए, कर वसूली के काले कानून बनाकर जनता को दु:ख-दैन्य के पाश में कसकर तड़पाया और निर्धन प्रजा का शोषण कर अपने अहं की तुष्टि के लिए दरबार रचाया तथा विक्टोरिया मेमोरियल हाल बनवाया। शिवशम्भु शर्मा ने लार्ड कर्जन की इस ‘भड़क-बाजी' और 'नुमाइशी' प्रवृत्ति में केवल 'तुमतराक' भरे कामों को देखकर यह उचित समझा कि उन्हें बताया जाए कि वायसराय होकर भी आप भारतीय प्रजा से बहुत दूर हैं। उनके हित से आपका लगाव न होने से आप ‘माइलार्ड' होने पर भी इस देश में माई-बाप नहीं बने हैं। इस गुलाम मुल्क की गूंगी प्रजा आपके सामने अपने दुःख-दर्द नहीं कहती किन्तु वह आपको हिकारत और अवमानना की नजर से देखती है। कौन साहस करे आपसे कुछ कहने का। इसलिए भंगड़ी शिवशंभु को यह दायित्व वहन करना पड़ रहा है।

यह ठीक है कि इस गुलाम देश की प्रजा आफिशियल प्रतिनिधि बनने का शिवशंभु के पास कोई अधिकार-पत्र या सनद नहीं है तथापि वह इस देश की प्रजा का, यहां के चिथड़ापोश कगालों का प्रतिनिधि होने का दावा रखता है। क्योंकि उसने इस भूमि में जन्म लिया है। उसका शरीर भारत की मिट्टी से बना है और उसी मिट्टी में अपने शरीर की मिट्टी को एक दिन मिला देने का इरादा रखता है। बचपन में इसी देश की धूल में लोटकर बड़ा हुआ, इसी भूमि के अन्न-जल से उसकी प्राणरक्षा होती है। शिवशंभु को कोई नहीं जानता। जो जानते हैं, वे संसार में एकदम नजान हैं। उन्हें कोई जानकर भी जानना नहीं चाहता। जानने की चीज शिवशंभु के पास कुछ नहीं है। उसके पास कोई उपाधि नहीं, राजदरबार में उसकी पूछ

नहीं। हाकिमों से हाथ मिलाने की उसकी हैसियत नहीं, उसकी हां में हां मिलाने की उसकी ताब नहीं। वह एक कपर्दक-शून्य घमंडी ब्राह्मण है। हे राज प्रतिनिधि। क्या उसकी दो-चार बातें सुनिएगा?

शिवशंभु शर्मा ने अपनी हैसियत और सामर्थ्य की बात जिस गंभीर व्यंग्य में कही है वह भारतीयों की दलित-दमित दशा का ही एक बोलता हुआ शब्दचित्र है। 'बनाम लार्ड कर्जन' शीर्षक चिठे में लेखक ने बड़ी प्रखर और निर्भीक वाणी में कर्जन से कहा है कि "जिस पद पर आप आरूढ़ हुए वह आपका मौरूसी नहीं-- नदी नाव संयोग की भांति है। आपके हाथ में कुछ दिन और कुछ करने की शक्ति है। लेकिन माइलार्ड! क्या आप भी चाहते हैं कि आपके आसपास एक वैसी ही मूर्ति (लार्ड लैंसडौन जैसी) खड़ी हो? यदि आपको मूर्तियाँ ही स्थापित करनी हैं तो आइए आपको मूर्तियां दिखा दें। "वह देखिए एक मूर्ति है, जो किले के मैदान में नहीं है, पर भारतवासियों के हृदय में बनी हुई है। पहचानिए इसे, इस वीर पुरुष ने मैदान की मूर्ति से इस देश के करोड़ों गरीबों के हृदय में मूर्ति बनवाना अच्छा समझा। यह लार्ड रिपन की मूर्ति है। और देखिए एक स्मृति मंदिर, यह आपके पचास लाख के संगमर्मर से अधिक मजबूत और सैकड़ों गुना अधिक कीमती है। यह स्वर्गीया विक्टोरिया महारानी का सन् १८५८ ई० का घोषणा-पत्र है। आपकी यादगार भी यहीं बन सकती है, यदि इन दो यादगारों की आपके जी में कुछ इज्जत हो।"

लार्ड कर्जन को अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरी बार फिर दो वर्ष के लिए वायसराय नियुक्त किया गया। भारतवासी इस नियुक्ति परु अत्यन्त खिन्न हुए लेकिन वे करते भी क्या-"जो कुछ खुदा दिखाए सो लाचार देखना।" शिवशंभु को भारत प्रभु कर्जन के इस द्विरागमन की सूचना मिली तो उन्होंने भी बेबसी से सिर धुन डाला लेकिन कलम के जरिये माईलार्ड को उनकी पुरानी करनी के लिए कोसते हुए 'श्रीमान् का स्वागत' शीर्षक से दूसरा चिट्ठा लिखा। चिट्ठे में लार्ड कर्जन के काले कारनामों का व्यंग्यमयी भाषा में उल्लेख तो उन्होंने किया ही पर भाग्य-वादी विवश-लाचार भारतीयों की तटस्थ वृत्ति पर भी गहरे प्रहार किए। भारतवासी संघर्षभीरु हैं, किसी भी संकट को स्वीकार करना, निलिप्त-

निराकार द्रष्टा की भाँति अतृप्त लोचन से नाटक के पटाक्षेपों को देखना उनका स्वभाव बन गया है। "अथक ऐसे हैं कि कितने ही तमाशे देख गए, पर दृष्टि नहीं हटाते। इन्होंने पृथ्वीराज, जयचंद की तबाही देखी, मुसलमानों की बादशाही देखी। अकबर, बीरबल, खानखाना और तानसेन देखे। शाहजहानी तख्तेताऊस और शाही जलूस देखे। फिर वही तख्त नादिरशाह को उठाकर ले जाते देखा। शिवाजी और औरंगजेब देखे, क्लाइव और हेस्टिंग्स-से वीर बहादुर अंग्रेज देखे। देखते-देखते बड़े शौक से लार्ड कर्जन का हाथियों का जलूस और दिल्ली दरबार देखा। कोई दिखाने वाला चाहिए, भारतवासी देखने को सदा प्रस्तुत हैं। इस गुण में वे मोंछ मरोड़कर कह सकते हैं कि संसार में कोई उनका सानी नहीं।" भारतीयों की यह तमाशाई तबीयत आज भी ज्यों की त्यों है। दिल्ली में रोज जलसे-जलूस रहते हैं और राजधानी की जनता उनमें दर्शकों का फर्ज पूरी तरह अदा करती है। लगता है कि इस मुल्क के बाशिंदों के पास कोई मुस्तकिल काम नहीं है। भीड़-भाड़, जलसे-जलूस, खेल-तमाशे, नाच-गाने, भाषण-नाटक—यही सब होता रहता है और तमाशबीन जनता कामकाज से मुक्त हो इनमें डूबी रहती है। शिवशम्भु इस प्रवृत्ति को ताड़ गए थे और इस पर चोट करना न भूले थे।

दूसरी बार वाइसराय होकर आने पर बम्बई में लार्ड कर्ज़न का राजा महाराजाओं ने बड़ी धूमधाम से स्वागत किया। बम्बई की म्युनिस्पैलिटी की ओर से आपके अभिनंदन का विशाल पैमाने पर आयोजन किया गया। इस आयोजन में लार्ड कर्ज़न ने भारतीय जनता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना तो दूर उसकी कटु शब्दों में आलोचना कर डाली। शिवशम्भु को यह सह्य न हुआ। उन्होंने अपने चिट्ठे में बड़ी स्पष्ट भाषा में बिना किसी लाग-लपेट के लार्ड कर्ज़न को सम्बोधित करते हुए लिखा—"सच मानिए कि आपने इस देश को कुछ नहीं समझा, खाली समझने की शेखी में रहे और आशा नहीं कि इन अगले कई महीनों में भी कुछ समझें। किन्तु इस देश ने आपको खूब समझ लिया और अधिक समझने की जरूरत नहीं रही।

XXX आपने गरीब प्रजा की ओर तक भी दृष्टि डालकर नहीं देखा, न गरीबों ने आपको जाना। जब आप अपना पद त्यागकर स्वदेश वापस
जावेंगे तो यह कभी न कह सकेंगे कि भारत की प्रजा का मन अपने हाथ में किया था।

शिवशम्भु की वाणी में न तो कहीं घिघियाहट है और न कहीं मिथ्या अहंकार का दर्प। उन्होंने स्पष्टवादिता को व्यंग्य में सानकर, निर्भीकता का पुट देकर बड़े सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। अंग्रेजी राज्य के अखंड प्रताप को शिवशम्भु जानते थे और यह भी जानते थे कि लार्ड कर्ज़न जैसे प्रचंड शासक के विरोध में कुछ भी कहने की शक्ति भारतीयों में नहीं है किन्तु शिवशम्भु न तो भारत के राजा-महाराजा थे और न नौकरशाही के गुलाम पुर्जे। उनका स्वाभिमान परतंत्रता के क्षणों में आहत होने पर भी विनष्ट नहीं हुआ था। इसलिए जब उन्होंने लार्ड कर्ज़न और अंग्रेजों के प्रभुत्व का वर्णन किया तो उस पौराणिक निरंकुश राजा का स्मरण किया जिसे रावण के नाम से जाना जाता है। लेकिन स्मरण की शैली इतनी मोहक और मर्मस्पर्शी कि शिवशम्भु राजनीतिक द्रोह के अपराध में पकड़े न जा सके। भारत के निस्तेज और निर्वीर्य राजा-महाराजों की दशा पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं—"भारत के राजा अब आपके हुक्म के बंदे हैं। उनको लेकर चाहे जुलूस निकालिए, चाहे दरबार बनाकर सलाम कराइए, चाहे उन्हें विलायत भिजवाइए, चाहे कलकत्ते बुलवाइए, जो चाहे सो कीजिए, वे हाज़िर हैं। आपके हुक्म की तेजी तिब्बत के पहाड़ों की बरफ को पिघलाती है, फारस की खाड़ी का जल सुखाती है, काबुल के पहाड़ों को नरम करती है। जल, स्थल, वायु और आकाश मंडल में सर्वत्र आपकी विजय है। इस धराधाम में अब अंग्रेजी प्रताप के आगे कोई उंगली उठाने वाला नहीं है। इस देश में एक महाप्रतापी राजा के प्रताप का वर्णन इस प्रकार किया जाता था कि इंद्र उसके यहां जल भरता था, पवन उसके यहां चक्की चलाता था, चांद-सूरज उसके यहां रोशनी करते थे, अग्नि उसके यहां भोजन पकाती थी इत्यादि। पर अंग्रेजी प्रताप उससे भी बढ़ गया है। समुद्र अंग्रेज़ी राज्य का मल्लाह है, पहाड़ों की उपत्यकाएं बैठने के लिए कुर्सी-मूढ़े। बिजली कलें चलाने वाली दासी और हजारों मील खबर लेकर उड़ने वाली दूरी, इत्यादि-इत्यादि।"

लार्ड कर्जन को प्रबोधते हुए शिवशम्भु ने भारतीय विचार-दर्शन का
बड़ी मार्मिक शैली में दुहराया है। राजा मुंज को समझाते हुए बालक भोज ने कहा था, "नैकेनापि संमंगता वसुमती मुंजस्त्वया यास्यति।" ठीक उसी भाषा में शिवशम्भु कहते हैं—"विक्रम, अशोक और अकबर के साथ यह भूमि नहीं गई। औरंगजेब-अलाउद्दीन इसे मुट्ठी में दबाकर नहीं रख सके। महमूद, तैमूर और नादिर इसे लूट के माल के साथ ऊंटों और हाथियों पर लादकर न ले जा सके। आगे भी यह किसी के साथ नहीं जाएगी, चाहे कोई कितनी ही मजबूती क्यों न करे।"

भारत की प्रजा को यह आशा थी कि दूसरी बार वाइसराय होकर आने पर लार्ड कर्जन भारतीयों के हित के लिए कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। उन्हें ऐसी भी आशा थी कि बड़े लाट अपने भाषण में उन सुधारों का उल्लेख करेंगे जो इस बार वे भारत में करना चाहते हैं किंतु उनका प्रथम भाषण भारतीयों की 'आशा का अंत' करने वाला सिद्ध हुआ। शिवशम्भु को भी इस भाषण से गहरी ठेस पहुंची और उन्होंने अपने पांचवें चिट्ठे में अपनी वेदना को बड़ी व्यंग्यमयी भाषा में अभिव्यक्त किया। शिवशम्भु ने पहले ही वाक्य में कहा—"माइलार्ड, अब के आपके भाषण ने नशा किरकिरा कर दिया। आशा से बंधा यह संसार चलता है। रोगी को रोग से, कैदी को कैद से, ऋणी को ऋण से, कंगाल को कंगाली से—इसी प्रकार हरेक क्लेशित व्यक्ति को एक दिन अपने क्लेश से मुक्त होने की आशा होती है। पर हाय! जब उसकी यह आशा भी भंग हो जाए, उस समय उसके कष्ट का क्या ठिकाना—

"किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ता के रोइये।
जो थक गया हो बैठ के मंजिल के सामने।"

अफसोस माइलार्ड! बड़े लाट होकर आपके भारत में पदार्पण करने के समय इस देश के लोग श्रीमानजी से जो-जो आशाएं करते थे और सुख स्वप्न देखते थे, वह सब उड़नछू हो गए।"

शिवशम्भु शर्मा ने भारतीय जलवायु और यहां के नमक का प्रभाव दिखाते हुए लार्ड कर्जन की कृतघ्नता उद्घाटित करने में बड़े कौशल से काम लिया है। भारत का नमक खाकर भी भारतीयों की निंदा करने वाले कर्जन
को निर्दोष ठहराते हुए कहा कि—"यह तो यहां के नमक की तासीर है। यहां का नमक खाकर विचार-बुद्धि खो जाती है। दया और सहृदयता भाग जाती है, उदारता उड़नछू हो जाती है। आंखों पर पट्टी बांधकर कानों में ठीठे ठोककर, नाक में नकेल डालकर, आदमी को जिधर-तिधर घसीटे फिरता है और उसके मुख से खुल्लमखुल्ला इस देश की निन्दा कराता है। आदमी के मन में वह (नमक) यही जमा देता है कि जहां का खाना वहां की खूब निन्दा करना और अपनी शेखी मारते जाना।" कर्जन के लिए इससे बढ़कर और क्या व्यंग्य हो सकता है।

भारतवर्ष की जनता नाना प्रकार के कष्टों को झेलती हुई भी राजा को दोषी नहीं ठहराती। वह अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल ही कष्ट में देखती है और फिर भी कर्ज़न अपनी कुटिलता में उसे धूर्त कहता है। शिवशम्भु की कर्जन को यह कुटिलता सालती है और उसका मन अपने देश की भोली जनता की दरिद्र दशा पर द्रवित हो उठता है। वह कर्जन से कहते हैं कि आप नहीं जान सकते कि हम भारतीयों की नीति-परायणता, सत्यवादिता और धर्मनिष्ठा कैसी है। आपके स्वदेशी यहां बड़ी-बड़ी इमारतों में रहते हैं, जैसे रुचि हो वैसे पदार्थ भोग सकते हैं। भारत आपके लिए भोग्य भूमि है। किन्तु इस देश के लाखों आदमी, इस देश में पैदा होकर आवारा कुत्तों की भांति भटक-भटककर मरते हैं। उनको दो हाथ भूमि बैठने को नहीं, पेट भरकर खाने को नहीं, मैले चिथड़े पहनकर उमरें बिता देते हैं। और अंत में एक दिन कहीं पड़कर चुपचाप प्राण दे देते हैं। इस प्रकार क्लेश पाकर मरने पर भी कभी-कभी वह लोग यह कहते हैं कि पापी राजा है, इससे हमारी यह दुर्गति है। माइलार्ड! वे कर्मवादी हैं। वह यही समझते हैं कि किसी का कोई दोष नहीं—सब हमारे पूर्व कर्मों का दोष है। हाय! हाय! ऐसी प्रजा को आप धूर्त कहते हैं।"

हमारे देश में होली का पर्व उत्साह और उमंग का उत्सव है। इस दिन छोटे-बड़े का भेदभाव दूर कर सभी नागरिक समान रूप में भाईचारे का व्यवहार करते हैं। राजा और प्रजा के बीच की दूरी भी होली के दिन मिट जाती है। शिवशम्भु को ऐसे ही किसी दिन अचानक एक मधुर गीत की टेक सुनाई देती है। कोई बड़ी मस्ती में गा रहा है—"चलो चलें आज खेलें
होली कन्हैया घर।" कनरसिया शिवशम्भु खटिया पर बैठ गए, सोचने लगे कि होली खिलैया कहते हैं कि चलो आज कन्हैया के घर होली खेलेंगे। कन्हैया कौन ब्रज के राजकुमार और खेलने वाले कौन, उनकी प्रजा—ब्रज के ग्वाल-बाल। तो क्या आज हम अपने राजा के साथ होली खेल सकते हैं। लेकिन राजा तो दूर सात समुद्र पार है। राजा का केवल नाम सुना है, न राजा को शिवशम्भु ने देखा है और न राजा ने शिवशम्भु को। खैर राजा न सही उसका प्रतिनिधि तो है, ठीक वैसे ही जैसे कृष्ण द्वारका में थे और उद्धव को ब्रज में अपना प्रतिनिधि बनाकर उन्होंने भेजा था। लेकिन आज तो स्थिति ही विचित्र है। "कृष्ण है, उद्धव है, पर ब्रजवासी उनके निकट भी नहीं फटकने पाते। राजा है, राज-प्रतिनिधि है, पर प्रजा की उन तक रसाई नहीं। सूर्य है, धूप नहीं। चंद्र है चांदनी नहीं, माइलार्ड नगर में ही हैं पर शिवशम्भु उनके द्वार तक नहीं फटक सकता है, उसके घर चलकर होली खेलना तो विचार ही दूसरा है। प्रजा की बोली वह नहीं समझता, उसकी बोली प्रजा नहीं समझती। द्वितीया के चांद की तरह कभी-कभी बहुत देर तक नजर गड़ाने से उसका चंद्रानन दिख जाता है तो दिख जाता है। यदि किसी दिन शिवशम्भु शर्मा के साथ माइलार्ड नगर की दशा देखने चलते तो वे देखते कि इस महानगर की लाखों प्रजा भेड़ों और सूअरों की की भांति सड़े-गंदे झोंपड़ों में पड़ी लोटती है। उनके आसपास सड़ी बदबू और मैले सड़े पानी के नाले बहते हैं, कीचड़ और कूड़े के ढेर चारों ओर लगे हुए हैं। उनके शरीर पर मैले-कुचैले फटे चिथड़े लिपटे हुए हैं, ऐसी विपन्नावस्था में भारत की प्रजा क्या कहकर अपने राजा और उसके प्रति-निधि को संबोधन करें। क्या यों कहें कि जिस ब्रिटिश राज्य में हम अपनी जन्मभूमि में एक अंगुल भूमि के अधिकारी नहीं, जिसमें हमारे शरीर को फटे चिथड़े भी नहीं जुड़े और न कभी पापी पेट को पूरा भोजन मिला उस की जय हो। उसके राजप्रतिनिधि हाथियों का जलूस निकालकर सबसे बड़े राज्य हाथी पर चंवर-छत्र लगाकर निकलें और स्वदेश में जाकर प्रजा के सुखी होने का डंका बजावें।"

शिवशम्भु शर्मा को लार्ड कर्जन के शासनकाल में जिस घोर दुराशा का सामना करना पड़ा वह उनके छठे चिट्ठे से स्पष्ट लक्षित होता है।
शिवशम्भु ने बड़ी स्पष्ट भाषा में कहा है कि अब राजा और प्रजा के मिल कर होली खेलने का समय गया। जो बाकी था, वह कश्मीर नरेश महाराज रणवीरसिंह के साथ समाप्त हो गया। माइलार्ड अपने शासनकाल का सुन्दर से सुन्दर सचित्र इतिहास स्वयं लिखवा सकते हैं, वह प्रजा के प्रेम की परवा क्यों करेंगे। फिर भी शिवशम्भु शर्मा अपने प्रभु तक संदेश पहुंचा देना चाहता है कि वह आपकी गूंगी प्रजा का एक वकील है और जिसके शिक्षित होकर मुंह खोलने तक आप कुछ करना नहीं चाहते।

लार्ड कर्जन को दो वर्ष का समय पूरा होने पर इंगलैंड वापस बुला लिया गया था। उसका जंगी लाट किचनर से विरोध हो गया था और ब्रिटिश सरकार ने कर्ज़न का त्यागपत्र स्वीकार कर किचनर की बात मानी थी। 'विदाई संभाषण' शीर्षक चिट्ठे में इस घटना को गुप्तजी ने बड़ीव्यंग्यमयी शैली में लिखा है। "अब देखते हैं कि जंगी लाट के मुकाबले में आपने पटखनी खाई, सिर के बल नीचे आ रहे। आपके स्वदेश में वही ऊंचे माने गए, आपको साफ नीचा देखना पड़ा, पदत्याग की धमकी से भी ऊंचे न हो सके।" स्वागत के समय जिन मार्मिक शब्दों में लार्ड कर्जन को परामर्श दिया गया है कि वे पठनीय हैं— "इस संसार के आरम्भ में बड़ा भारी पार्थक्य होने पर भी अंत में बड़ी भारी एकता है। समय अंत में सबको अपने मार्ग पर ले आता है। देशपति राजा और भिक्षा मांगकर पेट भरने वाले कंगाल का परिणाम एक ही होता है। कितने ही शासक और नरेश पृथ्वी पर हो गए। आज उनका कहीं पता-निशान नहीं है। थोड़े-थोड़े दिन अपनी नौबत बजा चले गए। आपमें शक्ति नहीं कि पिछले छह वर्षों को लौटा सकें या उनमें जो कुछ हुआ है उसे अन्यथा कर सकें। किंतु विदाई के समय पूरी दृढ़ता एवं निर्भीकता से कर्जन के शासनकाल को दु:खांत नाटक बताना उस समय के संपादक-धर्म का सर्वश्रेष्ठ निदर्शन है। "आपके शासनकाल का नाटक घोर दुःखांत है और अधिक आश्चर्य की बात यह है कि दर्शक तो क्या स्वयं सूत्रधार भी नहीं जानता कि उसने जो खेल सुखांत समझकर खेलना प्रारंभ किया था, वह दुःखांत हो जाएगा।"

विदाई के समय लार्ड कर्जन को अपने क्रूर कृत्यों के लिए पश्चात्ताप नहीं हुआ। उसकी मनःस्थिति को समझकर शिवशम्भु ने कहा कि माइलार्ड
जब तक आपके हाथ में शक्ति रही, आपने भारत की भलाई के लिए कुछ नहीं किया। भारत के बिगाड़ने के लिए आपने क्या-क्या नहीं किया किंतु क्या किसी एक मनुष्य के किए किसी विशाल देश का कुछ बिगड़ सकता है। आपने वंगविच्छेद का बीज बोकर इस देश की जनता को जो पीड़ा पहुंचाई है वह क्या कभी भूली जा सकेगी। तुगलक भी आपके ही स्वभाव का एक शासक पांच सौ वर्ष पहले इस देश में हुआ था। लेकिन इसके बाद दौलताबाद बसाने से दिल्ली उजड़ नहीं गई थी और आपके भी वंग-विच्छेद से बंगाल विनष्ट नहीं होगा। "सब ज्यों का त्यों है। बंग देश की भूमि जहां थी वहीं है और उसका हर एक नगर और गांव जहां था वहीं है। कलकत्ता उठाकर चेरापूंजी के पहाड़ पर नहीं रख दिया गया और शिलांग उड़कर हुगली के पुल पर नहीं आ बैठा। बंगविच्छेद करके माइलार्ड ने अपना एक खयाल पूरा किया है। कितने ही खयाली इस देश में अपना खयाल पूरा करके चले गये XXX आपके इस प्रकार के कारनामों से भारतवासियों के मन में यह बात जम गई है कि अंग्रेजों से भक्तिभाव करना वृथा है, प्रार्थना करना वृथा है और उनके आगे रोना-गाना वृथा है। दुर्बल की वह नहीं सुनते।"

शिवशम्मु के आठ चिट्ठों के अतिरिक्त बाबू बालमुकुंद गुप्त ने 'कर्जन-शाही' शीर्षक से भी बड़े व्यंग्य भरे लेख लिखे थे। उन लेखों में कर्जन के कठोर स्वभाव का वर्णन करते हुए उनकी क्रूरताओं को आलंकारिक शैली में व्यक्त किया गया है। कर्जन के विषय में उन्होंने लिखा है—"अहंकार, आत्मश्लाघा, जिद और गालबजाई में लार्ड कर्जन अपने सानी आप निकले। जब से अंग्रेजी राज्य आरंभ हुआ है तब से इन गुणों में आपकी बराबरी करने वाला एक भी बड़ा लाट इस देश में नहीं आया। भारतवर्ष की बहुत-सी प्रजा के मन में धारणा है कि जिस देश में जल न बरसता हो, लार्ड कर्जन पदार्पण करें तो वर्षा होने लगती है, और जहां के लोग अतिवर्षा और तूफान से तंग हों वहां कर्जन के जाने से स्वच्छ सूर्य निकल आता है।" इस प्रकार की अनेक व्यंग्योक्तियां गुप्तजी के लेखों में छिटकी पड़ी हैं। 'मेले का ऊंट' शीर्षक चिट्ठे में मारवाड़ी समाज की कुरीतियों को 'मारवाड़ी ऐसोसियेशन' द्वारा व्यक्त किया गया है। इनमें से एक व्यंग्य उन सेठ-साहूकारों,
रायबहादुरों पर किया गया है जो चापलूसी द्वारा सरकार में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। "जिनके बाप-दादा भेड़ की आवाज सुनकर डर जाते थे, जिनको स्वयं चाकू से कलम का डंक काटते भय लगता है उन्हें सरकार ने रायबहादुर बनाया है।"

"जो लिखते अरिहीन पै सदासेल के अंक।
झपत नैन तिन सुतन के कटत कलम को डंक।"


गुप्तजी के पैने व्यंग्य के लिए उनके 'ककराष्टक' और 'होली है' शीर्षक निबंध पठनीय हैं।

बाबू बालमुकुंद गुप्त की शैली ने हिंदी में गद्य के धरातल पर व्यंग्य को प्रतिष्ठित किया। इसके पहले कविता में तो व्यंग्य आ गया था किंतु गद्य के द्वारा गुप्तजी ने उसे व्यावहारिक एवं संप्रेषणीय बनाया। गुप्तजी के चिट्ठों के पाठक अपने समय में सबसे अधिक थे। अंग्रेजी में भी इनका अनुवाद श्री ज्योत्स्येंद्रनाथ बनर्जी ने किया था जो अंग्रेजों में भी चर्चा का विषय बना। हिंदी के कई लेखकों ने इनके अगुकरण का भी प्रयास किया। व्यंग्य-विनोद के माध्यम से राजनीति, समाज, शिक्षा, सुधार और प्रचार के क्षेत्र में जितना काम गुप्तजी ने किया उतना न तो उनसे पहले कोई लेखक कर सका था और न उनके बाद किसी ने इस क्षेत्र में ख्याति अर्जित की। गुप्तजी ने पद्य में भी अनेक रचनाएं कीं किंतु उनकी मौलिक प्रतिभा के दर्शन हमें गद्य में ही होते हैं इसलिए इस लघु लेख में हमने उनकी चुटीली और मार्मिक कविताओं को उदाहरण के रूप में नहीं लिया है। गुप्तजी के पचास से अधिक लेख हैं जो व्यंग्य की दृष्टि से श्लाघ्य होने के साथ तत्कालीन राजनीति, समाज, शिक्षा तथा भारतीय स्थितियों का सजीव चित्र पाठक के सम्मुख उपस्थित करने में समर्थ हैं। भारतेंदु युग के सच्चे वारिस और द्विवेदी युग के उन्नायक के रूप में बाबू बालमुकुंद गुप्त का नाम हिंदी साहित्य के इतिहास में अमिट बना रहेगा।

राणा प्रताप बाग विजयेन्द्र स्नातक
दिल्ली