वैशाली की नगरवधू/39. पलायन
39. पलायन
इसी समय एक अग्निबाण वहां आकर गिरा, उसमें से अति तीव्र लाल रंग का अग्नि स्फुलिंग निकल रहा था। उससे क्षण-भर ही में उस सुसज्जित कक्ष में आग लग गई। बहुमूल्य कौशेय, उपाधान, पट्टवासक और मणिजटित साज-सज्जाएं जलने लगीं। देखते-देखते एक, दो, तीन फिर अनेक अग्निबाण रंगमहल के विविध स्थलों पर गिर-गिरकर आग लगाने लगे। महल धांय-धांय जलने लगा। अन्तःपुर में भीषण कोलाहल उठ खड़ा हुआ। मार-काट, शस्त्रों की झनकार, स्त्रियों के चीत्कार और योद्धाओं की हुंकार से दिशाएं भर गईं। बहुत-से सैनिक इधर-उधर दौड़ने लगे।
कुण्डनी ने महाराज दधिवाहन के पाश्र्व में पड़ा खड्ग उठा लिया और एक कौशेय से कसकर अंग लपेट लिया। इसी समय रक्त से भरा खड्ग हाथ में लिए सोम ने आकर कहा—"कुन्डनी, शीघ्रता करो, एक क्षण विलम्ब करने से भी राजनन्दिनी की रक्षा नहीं हो सकेगी। तुम उन्हें लेकर गुप्त द्वार से अश्वशाला के पाश्र्वभाग में जाओ, वहां अश्व सहित शंब है, तुम सीधे श्रावस्ती का मार्ग पकड़ना। मेरी प्रतीक्षा में रुकना नहीं, अपना कार्य पूर्ण कर मैं कहीं भी मार्ग में मिल जाऊंगा।"
कुण्डनी ने एक क्षण भी विलम्ब नहीं किया। वह राजनन्दिनी के शयनकक्ष की ओर दौड़ चली। चारों ओर धुआं और अन्धकार फैला हुआ था। राजकुमारी अकस्मात् नींद से जागकर आकस्मिक विपत्ति से त्रस्त हो शयनकक्ष के द्वार पर अपने शयन-काल के असम्पूर्ण परिधान में ही विमूढ़ बनी खड़ी थी। कोई दासी, चेटी, कंचुकी या प्रहरी वहां न था। कुण्डनी को देखकर कुमारी दौड़कर उससे लिपट गई, उसने कातर कण्ठ से कहा—"क्या हुआ है हला? यह सब क्या हो रहा है?"
"दुर्भाग्य है राजनन्दिनी! दुर्ग पर शत्रुओं का अधिकार हो गया और वे अन्तःपुर में घुस आए हैं। महाराज दधिवाहन मारे गए। प्राण लेकर भागो राजकुमारी।"
राजकुमारी को काठ मार गया। उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। वह जड़वत् आंखें फाड़-फाड़कर कुण्डनी की ओर देखती रही।"
कुण्डनी लपकती हुई भीतर गई, एक उत्तरवासक उठा लाई और उसे कुमारी के शरीर पर लपेटती हुई बोली—"साहस करो हला, अभी गुप्त द्वार तक कदाचित् शत्रु नहीं पहुंचे हैं। आओ, हम भाग निकलें। अब एक क्षण का भी विलम्ब घातक होगा।"
एक प्रकार से वह उसे घसीटती हुई-सी गुप्त द्वार से बाहर ले आई। बाहर आकर उसने देखा अन्तःपुर से बड़ी-बड़ी आग की लपटें उठ रही हैं। चारों ओर योद्धा हाथों में मशालें लिए दौड़ रहे हैं। घायलों का आर्तनाद और मार-काट का घमासान बढ़ रहा था। राजकुमारी ने अश्रुपूरित नेत्रों से देखकर कुछ कहना चाहा, पर शब्द उसके होंठों से नहीं निकले, होंठ केवल कांपकर रह गए। उसका अंग भी बेंत की भांति कांप रहा था। कुण्डनी ने उसे अपने और निकट करके, ढाढ़स दिया। इसी समय शंब ने ओट से निकलकर अश्व उपस्थित किए।
कुण्डनी का प्रिय अश्व धूम्रकेतु और दो ऊंची रास के अश्व तैयार थे। कुमारी को कुण्डनी ने सहायता देकर धूम्रकेतु पर सवार कराया और स्वयं अश्व पर सवार होकर राजमार्ग पर आ गई। उसने कहा—"जमकर बैठना कुमारी, हमें द्रुत गति से भागना होगा।"
राजकुमारी ने शोकपूरित स्वर में कहा—"किन्तु हम जाएंगे कहां?"
"जहां आपके मित्र हों।"
"क्या तुम्हारे पिता हमारी रक्षा नहीं कर सकेंगे?"
"कौन जाने, वे निरापद भी हैं या नहीं।"
"किन्तु मैंने तुम्हें उनसे अपनी सुरक्षा में लिया था।"
"यह समय इन बातों पर विचार करने का नहीं है।"
"किन्तु तुम मेरे लिए विपत्ति में पड़ोगी सखी?" कुमारी की आंखों से झर-झर आंसू बह चले।
कुण्डनी ने कहा—"मैं प्राण देकर भी इस विपत्ति में तुम्हारी रक्षा करूंगी राजकुमारी।"
"परन्तु हम निरीह अबला..."
"क्यों, यह सेवक और वह मेरा दास।"
"वह कहां है?"
"मार्ग में मिल जाएगा। मुझे आशा है, हमारी सहायता को उसने यह सेवक भेजा है।"
"उस पर विश्वास किया जा सकता है सखी?"
कुमारी के प्रश्न पर कुण्डनी की आंखें भी गीली हो गईं। उसने कहा—"यह खड्ग लो कुमारी।"
"और तुम?"
"मेरे पास दूसरा शस्त्र है—शंब, तुम सावधानी से हमारे पीछे चलो।"
"तो कुमारी, क्यों न हम श्रावस्ती चलें?"
"वहीं चलो सखी। वहां भगवान् महावीर हैं। वे मेरे गुरु हैं।"
"तब तो बहुत अच्छा है।" और उसने अश्व को संकेत किया। असील जानवर हवा में तैरने लगे। उनका धूम्रकेतु समुद्र-पार के द्वीप से उपानय में आया हरे तोते के रंग का अद्भुत अश्व था। उस जाति के अश्व बहुत दुर्लभ थे। उसकी गति विद्युत् के समान और देह की दृढ़ता वज्र के समान थी। तीनों अश्वारोही तेज़ी से बढ़ते चले गए।
दिन का प्रकाश फैल गया, देखते-ही-देखते सूर्योदय हो गया। उसकी सुनहरी किरणें दोनों अश्वारोहियों के थकित चेहरों पर पड़कर उपहास-सा करने लगीं। शंब ने इधर-उधर देखा। उसने देखा, सामने एक पर्वत के शृंग पर सोम वस्त्रखण्ड हिला-हिलाकर संकेत कर रहे थे। शंब ने देखकर हर्ष से चीत्कार कर उधर ही अश्व फेंका। दोनों बालाओं ने भी उसी का अनुगमन किया। चलते-चलते कुण्डनी ने कहा—"वहां मीठा पानी, वनफल या आखेट अवश्य मिलेगा।" परन्तु राजनन्दिनी बोलने की चेष्टा करके भी बोल न सकी।