उसे अपने और निकट करके, ढाढ़स दिया। इसी समय शंब ने ओट से निकलकर अश्व उपस्थित किए।
कुण्डनी का प्रिय अश्व धूम्रकेतु और दो ऊंची रास के अश्व तैयार थे। कुमारी को कुण्डनी ने सहायता देकर धूम्रकेतु पर सवार कराया और स्वयं अश्व पर सवार होकर राजमार्ग पर आ गई। उसने कहा—"जमकर बैठना कुमारी, हमें द्रुत गति से भागना होगा।"
राजकुमारी ने शोकपूरित स्वर में कहा—"किन्तु हम जाएंगे कहां?"
"जहां आपके मित्र हों।"
"क्या तुम्हारे पिता हमारी रक्षा नहीं कर सकेंगे?"
"कौन जाने, वे निरापद भी हैं या नहीं।"
"किन्तु मैंने तुम्हें उनसे अपनी सुरक्षा में लिया था।"
"यह समय इन बातों पर विचार करने का नहीं है।"
"किन्तु तुम मेरे लिए विपत्ति में पड़ोगी सखी?" कुमारी की आंखों से झर-झर आंसू बह चले।
कुण्डनी ने कहा—"मैं प्राण देकर भी इस विपत्ति में तुम्हारी रक्षा करूंगी राजकुमारी।"
"परन्तु हम निरीह अबला..."
"क्यों, यह सेवक और वह मेरा दास।"
"वह कहां है?"
"मार्ग में मिल जाएगा। मुझे आशा है, हमारी सहायता को उसने यह सेवक भेजा है।"
"उस पर विश्वास किया जा सकता है सखी?"
कुमारी के प्रश्न पर कुण्डनी की आंखें भी गीली हो गईं। उसने कहा—"यह खड्ग लो कुमारी।"
"और तुम?"
"मेरे पास दूसरा शस्त्र है—शंब, तुम सावधानी से हमारे पीछे चलो।"
"तो कुमारी, क्यों न हम श्रावस्ती चलें?"
"वहीं चलो सखी। वहां भगवान् महावीर हैं। वे मेरे गुरु हैं।"
"तब तो बहुत अच्छा है।" और उसने अश्व को संकेत किया। असील जानवर हवा में तैरने लगे। उनका धूम्रकेतु समुद्र-पार के द्वीप से उपानय में आया हरे तोते के रंग का अद्भुत अश्व था। उस जाति के अश्व बहुत दुर्लभ थे। उसकी गति विद्युत् के समान और देह की दृढ़ता वज्र के समान थी। तीनों अश्वारोही तेज़ी से बढ़ते चले गए।
दिन का प्रकाश फैल गया, देखते-ही-देखते सूर्योदय हो गया। उसकी सुनहरी किरणें दोनों अश्वारोहियों के थकित चेहरों पर पड़कर उपहास-सा करने लगीं। शंब ने इधर-उधर देखा। उसने देखा, सामने एक पर्वत के शृंग पर सोम वस्त्रखण्ड हिला-हिलाकर संकेत कर रहे थे। शंब ने देखकर हर्ष से चीत्कार कर उधर ही अश्व फेंका। दोनों बालाओं ने भी उसी का अनुगमन किया। चलते-चलते कुण्डनी ने कहा—"वहां मीठा पानी, वनफल या आखेट अवश्य मिलेगा।" परन्तु राजनन्दिनी बोलने की चेष्टा करके भी बोल न सकी।