वेनिस का बाँका/दूसरा परिच्छेद

वेनिस का बाँका
अनुवादक
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस सिटी: पाठक एंड सन भाषा भंडार पुस्तकालय, पृष्ठ ६ से – १० तक

 
दूसरा परिच्छेद

नारुटीकी कठोरताने उस बेचारे के हृदय पर ऐसा प्रभाव डाला कि संसार नेत्रों में अन्धकारमय दिखलाई देने लगा। आकुलता की अधिकता से वह शीघ्र शीघ्र पद उठाता कभी अपने भाग्य को कोसता, कभी गतदिवसों को स्मरण करके लहू के घंट पीकर रह जाता। कभी हँसता, कभी दाँत पोसता, कभी प्रस्तर-निर्मित प्रतिमा समान खड़ा रह जाता, जैसे किसी बड़ी घटना को सोच रहा हो, और फिर इस रीति से झपट कर आगे बढ़ना मानो कमर कसकर उसे सम्पादन करने चला। अन्त को एक उत्तुङ्ग आगार के स्तम्भ से लग कर अपनी गत आपत्तियों को स्मरण कर उसने शोक को अभिनव किया, जब सम्बरण करने की शक्ति शेष न रही तो चिल्ला कर कहने लगाया तो प्रारब्ध मुझसे ऐसे अद्भुत और अनोखे बीरता के कार्यों को करायेगा जो आगामि समय के लिये एक विचित्र उपाख्यान समान चिरस्मरणीय रहें। अथवा ऐसे कठिन और दुस्सह अपराध, जिनके श्रवण से अखिल अण्डकटाह कांप उठे! फलतः प्रत्येक को चमत्कृत करना अपना कार्य है, रुसाल्वो साधारण पुरुषों की भांति नियमित चाल नहीं चल सकता, उसे लघु बातों से क्या प्रयोजन। भला यह भाग्य ही का फेर है न जो यहां तक खींच लाया? किल के ध्यान में यह बात आ सकती है कि नेपल्स के सबसे बड़े व्यक्ति और महापुरुष का तनय बेनिस में रोटियों के लिये परमुखापेक्षी हो? मैं-मैं जो बड़े से बड़े बीरता के कार्य करने की शरीर में शक्ति और हृदय में साहस रखता हूँ, इस दशा को प्राप्त हुआ, कि जीर्ण
शीर्ण वस्त्र धारण किये इस नगर में मारामारा फिर रहा हूं जहां निश्शीलता ने अपना भवन निर्माण किया है, और कठोरता ने दीनों की आशा उन्मूलन करने का बीड़ा उठाया है। सहस्रशः बार बुद्धि दौड़ाता हूं तथापि क्षुधा के शृङ्खल और काल के मुख से बचने की कोई युक्ति नहीं सूझती। वही लोग जो कल मेरी वदान्यता से जीवित थे, मेरे पाकालय में निज नियमाण चित्तों को उत्तम से उनम सुरा से प्रफुल्लित करते थे, और विश्व के सुहावने व्यञ्जनों पर हाथ मारते थे आज मुझ प्रभागे को एक टुकड़ा रोटी देने से भी मुख मोड़ते हैं । इस कठोरता और निर्दयता का कुछ ठिकाना है! मनुष्य तो मनुष्य कदाचित्प रमेश्वर ने भी मुझे भुला दिया।"

इतना कह कर वह चुप हो रहा, प्रालिबद्ध होकर कुछ सोचने लगा, और फिर एक ऊँची सांस भरकर बोला "अच्छा! अब जो कुछ होता हो सोहो मैं अपने भाग्य पर सन्तुष्ट हूं, जो जो आपदा शिर पर भायेगी उसे झेलूगा, विधि जैसा जैसा नाच नचायेगा नाचंगा, भाग्य भी अपनी सी कर ले, परन्तु मैं अपने आपको न भूलूंगा, और भाग्य सहानुभूति करे या न करे मैं काम चढ़ बढ़ कर ही करूंगा। अब युवराज रुसाल्वो जिसे एक समय सम्पूर्ण नेपल्स पूजता था कहां रहा अब-अब तो मैं अकिंचन् अविलाइनों हूँ। परन्तु यद्यपि मैं अन्तिम श्रेणी पर हूं तथापि मेरा नाम दरिद्रों, भुखमरों पेटुओं और अयोग्यों की तालिका के शिरो भाग में संयोजित है।

इतने में किसी की आहटसी ज्ञात हुई। फिर कर देखता क्या है कि वही डाकू जिसे उसने दे मारा था, और दो मनुष्य और, उसी ढंग के, इस रीति से चारों ओर देखते भालते चले आते हैं जैसे किसी को खोज रहे हैं। अविलाइनों ने अपने जी में कहा “हो न हो वे तेरे ही अनुसन्धान में हैं" फिर कई
परग आगे बढ़ कर उसने सीटी बजाई। डाकू खड़े हो गये और शनैः शनैः कुछ परामर्श करने लगे। अविलाइनों ने फिर सीटी दी। इस पर एक डाकू बोला "यह वही व्यक्ति है।" और फिर वे सब उसकी ओर धीरे धीरे बढ़े। अबिलाइनों कोश से करवाल निकाल कर जहांका तहां खड़ा रहा। वे तीनों डाकू भी जो अपना मुख एक वस्त्र से आच्छादन किये हुये थे कई परग पर खड़े हो गये। एक ने उनमें से पूछा "कहो बचा क्या मन में है?" ऐसे सँभल के क्यों खड़े हुए हो?"॥

अबिलाइनों-जिम में तुम लोग थोड़ा दूर ही रहो क्यों कि मैं तुमको जानता हूँ। तुम लोग वह भले मानस हो जो दूसरों का जीवन नष्ट करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं।

पहला डाकू। तुमने हमीं लोगों को न सीटी दी थी॥

अविलाइनों-हां?॥

डाकू-तो कहो फिर क्या कहते हो?

अबिलाइनों-सुनो भाई मैं तुधा से पीड़ित हूँ। तुमलोग जो द्रव्य हरण कर लाये हो उसमें से कुछ दान की रीति से मुझे दो॥

डाकू-दाल? भाई वाह, दान की बात अच्छी कही, हा हा हा हा! मनुष्य क्या निरा घनचक्कर है। क्यों न हो। दान तो पचा इतना देंगे कि उठा न सकोगे॥

अबिलाइनों-नहीं तो मुझे पचास मुद्रा ऋण दो, जब तक यह ऋण निवारण न हो लेगो तुम्हारी सेवा में कटि बद्ध रहूँगा, और जो कहोगे उसको तन मन से करूंगा॥

डाकू-भला तुम हो कौन यह तो बताओ?

अबिलाइनों-एक अभागा भूखा और पेटू। इस नगर में मुझ से बढ़कर कोई दरिद्र न होगा। परन्तु यद्यपि इस समय
मेरी यह दशा है तथापि स्मरण रक्खो कि इन हाथों में वह शक्ति है कि चाहे मनुष्य तिहरा कवच क्यों न पहने हो पर कटार कलेजे में उतर जाय तो सही, और इन चक्षुओं में वह प्रकाश है कि कैसा ही अँधेरा क्यों न हो, परन्तु लक्ष्य चूक जाय तो बात नहीं॥

डाकू-भला तो फिर तुमने अभी मुझे धरातल पर क्यों दे मारा था?

अविलाइनों-यह समझ कर कि कुछ मिलेगा, परन्तु यद्यपि मैंने उसकी जीवन रक्षा की पर उस दुष्ट ने एक कौड़ी भी नहीं दी।

डाकू-नहीं दी तो अच्छा हुआ, परन्तु सुनों गुरू तुम्हारे मन में कुछ कपट छल तो नहीं है?

अविलाइनों-निराश व्यक्ति असत्य भाषण नहीं करता।

डाकू-और जो तुमने छल किया तो?

अविलाइनों-तो मेरा कलेजा है और तुम्हारा कटार।

तीनों डोकुओं ने फिर धीरे २ परस्पर कुछ समालाप किया और तदुपरांत अपने अपने कटार को कोश में कर लिया। फिर एक ने अविलाइनों से कहा “अच्छा आओ हमारे घर चलो राजमार्ग पर ऐसी बातें करना उचित नहीं"॥

अविलाइनों-चलने को तो मैं चलता हूँ पर स्मरण रखना कि यदि तुममें से किसी ने मुझ पर अंगुलि-प्रहार भी किया तो फिर सबका भाग्य फूटा। मित्र क्षमा करना कि मैंने अभी तुम्हारी पसलियां बेढंग ढीली कर दीं, पर इसके बदले में धर्म का भाई बन कर रहूँगा।

इस पर तीनों डाकुओं ने एक मुँह होकर कहा “हम लोग बचनबद्ध होते हैं और बात हारते हैं कि तुम्हारे साथ कोई बुरा बर्ताव न होगा, जो तुम्हारी ओर आंख उठा कर देखेगा

वह हमारा शत्रु है। तुम्हारी सी प्रकृति के मनुष्य से और हम लोगों से भली भांति निबहेगी । चलो किसी प्रकार का और संशय न करो" यह कह कर वह लोग आगे बढ़े और अविलाइनों उनके बीच में हो लिया बार बार वह चौकन्ना होकर श्रागे पीछे देखता जाता था, परन्तु किसी में कुछ बुरा अथवा दुष्टता का उद्योग उसने नहीं पाया, चलते चलते वह लोग एक नहर पर पहुँचे और एक लघुनौका जो कूल पर बँधी थी खोली, चारो पुरुष उस पर सवार हुए, खेते २ नगर के सिरे पर निकल आये और नौका से उतर कर कई गली कूचों को समाप्त करते हुए एक मनोहर प्रासाद के समीप जाकर कुण्डा खड़खड़ाया। एक नववयस्का युवती ने भीतर से कपाटों को खोला, और उन लोगों को एक साधारण पर विस्तृत परिसर में ले जाकर बिठलाया, बार बार वह आश्चर्य की दृष्टि से अविलाइनों की ओर देखती थी। ए महाशय कुछ प्रसन्न, कुछ व्यग्र, जी में कहते थे कि मैं कहां पाया और रह रह कर यही सोचते थे कि डाकुओं के कथन पर पूर्ण विश्वाल तथा भरोसा करना बुद्धिमत्ता से दूर है।