वेनिस का बाँका/पहला परिच्छेद

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वेनिस का बांका
पहला परिच्छेद

न्ध्याका सुहावना समय, शोभाकी अधिकता का प्रादुर्भाव, दल के दल हलके पर्जन्यों का जमघटा, कहीं बहुत कहीं कम। घन पटल के प्रत्येक खण्डों से कलाकर निशिनाथ की छटा दिखलाई देती थी, प्राण उसके प्रमत्त गमन पर न्योछावर हुआ जाता था, घनाच्छादन में यही ज्ञात होता था कि उच्च अट्टालिका से कोई प्रेयसी अपनी अलौकिक छटा दिखाती है, और दीन प्रेमी के तरसाने के लिये बार बार जाली के मुखाच्छादक पट से अपना मुख छिपाती है। एड्रियाटिक समुद्र की प्रत्येक प्रोत्थित तरंगे आदर्श का कार्य करती थीं, हिमकर का प्रकाश और माधुर्य शतगुण कर दिखाने का उत्साह रखती थीं। इसपर सन्नाटा और भी आश्चर्यजनक था मनुष्य को कौन कहे जहाँ तक दृष्टि जाती पशु भी दिखलाई न देता। वायु भी बहुत ही मन्द मन्द चलती और अपना पद फूँक फूँक कर रखती थी। प्रयोजन यह कि जिधर नेत्र उठा कर अवलोकन कीजिये यही समा दृष्टिगोचर होता था, सिवाय पवन की सनसनाहट और तरङ्गों की धीमी २ गड़गड़ाहट के और कुछ सुनाई न देता था। कैसा ही आपत्तिपतित हो दो घड़ी वहाँ जाकर बैठे व्यग्रता निवारण हो, हृत्कलिका खिले, और सारा दुःख मिट्टी में मिले। [  ]अनन्तर निशीथ काल आया और घड़ियाली ने टनाटन बारह का गजर बजाया। फिर भी एक पथिक शोकित का सा स्वरूप बनाये मुख पर सन्ताप की छाप लगाये बड़ी नहर के कूल पर चुपचाप बैठा था, कभी वह आँख भर कर नगर के प्राचीरों और उन्नत प्रासादों की ओर देखता और कभी भैचक बन पानी की ओर टकटकी लगाता। अन्त को वह अपने आप कहने लगा “मैं अभागा अब कहां जाऊं, वेनिस तक तो आ पहुंचा अब यदि और भागे जाऊं तो क्या होगा, इसी हेर फेर से जीवन खोना पड़ेगा। न जाने भाग्य अब आगे क्या दिखावेगा। इस समय मेरे अतिरिक्त सब लम्बी ताने सोते होगे। महाराज उपधान आश्रय से कोमल गद्दी पर शयन करते होंगे, साधुगण निज कम्बल ही में मगन होंगे। किन्तु मेरे लिये दोनो में से एक भी नहीं यदि है भी तो यह शीतलसीली पृथ्वी। श्रमजीवी भी दिन भर परिश्रम करके सन्ध्या को छुट्टी पाता है और रात को पैर फैला कर चैन से सोता है, पर मेरा भाग्य मुझे भली भांति नाच नचाता और प्रत्येक क्षण एक नवीन राग अलापता है। इतना कह कर उसने तीसरी बार अपनी फटी जेब में हाथ डाला, और बोला!" हाय इसमें तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं, क्षुधा केल सन्ताप से कलेजा मुँह को पाता है।" फिर कोश से खड्ग निकाल चाँदनी में हिलाने और उसकी चमके देख कर कहने लगा। "कदापि नहीं। कदापि नहीं!! मेरे सच्चे और पक्के सहकारी मैं तुझे अपने पास से कभी पृथक न करूंगा। तेरा शिरोभाग मृत्यु समय पर्यन्त मेरे हाथ में रहेगा चाहे भूख से शरीरांत भले ही हो जाय। हाय! हाय!! जब वह समय स्मरण होता है जिस समय शशिवदना बिलीरिया ने तुझे मुझको समर्पण किया, मेरी कटि से पटका बांधा, और
[  ]मैंने तुझे और उसको चुम्बन किया, तो हृदय पर साँप लोट जाता है। वह तो हम दोनों को परित्याग परलोक सिधारी पर मैं तुझ से जीवित रहते पृथक् न हूंगा।" इतना कहकर उसने नेत्रों को अश्रुपूर्ण कर लिया। फिर एक क्षण में आंसू पोंछ कर कहने लगा" नहीं २ मेरी आँखों में आँसू न थे यह निशीथ काल की शीतल और तीव्र वायु का प्रमाद है कि उनमें पानी भर आया, नहीं तो आँसू कैसे, रोने के दिन अब गये।" यह कह कर उस अभागे ने अपना सिर पृथ्वी पर पटक दिया और आकुलता वश चाहा कि अपने जन्मकाल को बुरा कहे, परन्तु फिर सँभल गया और अपना सिर किहुनी से टेक कर शोकपूरित ध्वनि से एक गीत जिसे वह निज बाल्यावस्था में स्वगुरु जनों के रम्य भवनों में प्रायः गान किया करता था, गुनगुनाने लगा। फिर बोला "ठीक है यदि मेरे अभाग्य के बोझ ने मुझे दया लिया तो कुछ न हुआ।

इतने में किसी की पद-परिचालाना की आहट सी ज्ञात हुई। पीछे फिर कर देखा तो पास की एक गली में 'जहांकलितकौमुदी के कारण झुटपुटा सा था, एक बृहत् डोल का मनुष्य कपड़ा मुख पर डाले मन्द मन्द टहलता दिखलाई दिया। उसे देख कर पथिक निज मन में कहने लगा "कदाचित् इस निर्जन स्थल में इस व्यक्ति को परमात्मा ने मेरे ही लिये भेजा है, मैं-मैं, (थोड़ा रुक कर) अब भिक्षाप्रार्थी हूंगा। वेनिस में भिक्षा माँग खाना नेपल्स में प्रतारकता करने से सहस्र गुण उत्तम है, सम्भव है कि महात्मा की जीर्ण गुदड़ी में उसके अन्तर का अमूल्य लाल यथावत् बना रहे" यह कह कर वह उठ खड़ा हुआ और उस पुरुष की ओर बढ़ो। गली में प्रवेश करते ही देखता क्या है कि दूसरी ओर से एक तीसरा पुरुष और पाया परन्तु उस मनुष्य को
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टहलता हुआ देखकर एक गृह की ओट में जा छिपा। पथिक ने सोचा कि यह मनुष्य गूढ़ पुरुषों की भाँति कोने में घात लगा कर क्यों खड़ा हुआ, कहीं यह उन लोगों में से तो न हो जो कौड़ी कौड़ी पर दूसरों का अमोल जीवन लेने और अपना देने को प्रस्तुत हो जाते हैं! संभव है किसीने उसके विभव पर दाँत लगाया हो और इस पुरुष को उसके विनाश के लिये तानात किया हो, वह बेचारा किस निश्चिन्तता के साथ टहल रहा है। जो हो, पर बचाजी तुम भी सँभल जाना, फूल न उठना, यह देखो में उसकी सहायता को प्रा पहुंचा। यह कहकर पथिक भीत की छाया में उसकी ओर बढ़ा और वह जहाँ का तहाँ खड़ा रहा। ज्यों ही वह दूसरा अपरिचित व्यक्ति इन दोनों के पास से होकर जाने लगा त्यों ही उक्त गूढ़ पुरुष ने अपने स्थान से उचक कर चाहा कि, एक हाथ कटार का ऐसा लगावे कि मण्डारा खुल जाय परन्तु पथिक ने झपट कर उसके हाथ से कटार छीन लिया और उसे पृथ्वी पर देमारा! अपरिचित ने पीछे फिर कर कहा "ऐं यह धमा चौकड़ी कैसी?" डाकू तो उठ कर पलायित हुआ और पथिक ने मुसकरा कर कहा महोदय, कुछ नहीं यह एक बात थी जिससे आपके जीवन की रक्षा हुई।" अपरिचित-"क्या कहा? मेरी जीवनरक्षा क्या हुई?" पथिक-"यह भलेमानस जो अभी नौ दो ग्यारह हुए पहले आपके पीछे बिल्ली के समान दबे पैर गये और कटार तान ही चुके थे कि मैंने देख लिया और आपकी जीवन रक्षा हुई। अब कुछ मेरी भी सुनिये। क्षुधा के कारण मेरी बुरी दशा है, यदि एक पैसा दीजिये तो बड़ा धर्म होगा। महाशय! परमेश्वर के लिये मुझे कुछ दीजिये। अपरिचित-" चल दूर हो, दुष्ट कहीं का, मैं तुझे और तेरे
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फरफंदों को भली भांति जानता हूं। हुँ, हँ, कहता है जीवन रक्षा की!अजी यह तुम लोगों की मिली मार थी। यह मैं जानता हूं कि तुम सब मेरी ताक में हो? जीवनरक्षा के बहाने से मुद्रा भी लो और उपकार भी जताओ। ऐसी चतुरता, महाराज से चलेगी; बोनारुटी तुमारी चापलूसी की बातों में नहीं आने का।"

इस समय इस शोक संतप्त, क्षुधितमनुष्य की वह दशा थी जैसी कि निराशाकी अन्तिम अवस्था में होती है, काटो तो लहू नहीं। पर एक वार फिर जी कड़ा करके बोला "महाशय!परमेश्वर साक्षी है कि मैंने वात नहीं बनाई मेरी दशापर दया कीजिये नहीं तो आज निशा में मेरा जीवन समाप्त हो जावेगा।" अपरिचित-"अबे कहता हूँ कि नहीं-अभी चला जा नहीं तो परमेश्वर की शपथ, यह कह कर उस कठोर चित्त ने अपनी वगल से एक पिस्तौल निकाली और अपने रक्षक की ओर झुकाई। पथिक-"राम राम!! क्या वेनिस में सेवकाई का प्रतिकार यों ही किया करते हैं?" अपरि चित-वह देख नगर रक्षक सिपाही समीप है पुकारने ही की देर है?" पथिक-परमेश्वर का कोप, क्या तुमने मुझे डाकू समझा है?" अपरिचित-बस! कोलाहल न कर! भला चाहता है तो चुपचाप अपना रास्ता पकड़।" पथिक-"सुनिये महाशय! ज्ञात हुआ कि आपका नाम बोनारुटी है मैं अपने हृदयपत्र पर यह नाम लिख लेता हूँ। मैं यह समझूगा कि वेनिस नगर में जो दूसरा दुष्टात्मा मुझे मिला वह आप ही हैं।" फिर कुछ सोच कर बड़ी भयानक वाणी से बोला "स्मरण रख ऐ बोनारुटी! जब तू अबिलाइनो का नाम सुने तो यह समझना कि तेरी दुर्दशा के दिन आ गये।" यह कहकर अबिलाइनो उस निर्दयी को वहीं छोड़ कर चला गया।