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साहित्य में बुद्धिवाद प्रेमचंद द्वारा रचित साहित्य का उद्देश्य का एक अंश है जिसका प्रकाशन जुलाई १९५४ ई॰ में इलाहाबाद के हंस प्रकाशन द्वारा किया गया था।


"साहित्य सम्मेलन की साहित्य परिषद् में श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र ने इस विषय पर एक सारगर्भित भाषण दिया, जिसमें विचार करने की बहुत कुछ सामग्री है। उसमें अधिकांश जो कुछ कहा गया है, उससे तो किसी को इनकार न होगा। जब हमें कदम-कदम पर बुद्धि की जरूरत पड़ती है, और बुद्धि को ताक पर रखकर हम एक कदम भी आगे नहीं रख सकते, तो साहित्य क्योंकर इसकी उपेक्षा कर सकता है। लेकिन जीवन के हरेक व्यापार को अगर बुद्धिवाद की ऐनक लगाकर ही देखें, तो शायद जीवन दूभर हो जाय। भावुकता को सीधे रास्ते पर रखने के लिए बुद्धि की नितान्त आवश्यकता है, नहीं तो आदमी संकटों में पड़ जाय, इसी तरह बुद्धि पर भी मनोभावों का नियन्त्रण रहना जरूरी है, नहीं तो आदमी जानकर हो जाय, बल्कि राक्षस हो जाय।..."(पूरा पढ़ें)