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राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएँ प्रेमचंद द्वारा रचित साहित्य का उद्देश्य का एक अंश है जिसका प्रकाशन जुलाई १९५४ ई॰ में इलाहाबाद के हंस प्रकाशन द्वारा किया गया था।


"प्यारे मित्रों, आपने मुझे जो यह सम्मान दिया है, उसके लिए मैं आपको सौ जबानों से धन्यवाद देना चाहता हूँ, क्योंकि आपने मुझे वह चीज दी है, जिसके मैं बिलकुल अयोग्य हूँ। न मैंने हिन्दी-साहित्य पढ़ा है, न उसका इतिहास पढ़ा है, न उसके विकासक्रम के बारे में ही कुछ जानता हूँ। ऐसा आदमी इतना मान पाकर फूला न समाय, तो वह आदमी नहीं है। नेवता पाकर मैंने उसे तुरन्त स्वीकार किया। लोगों में 'मन भाये ओर मुँड़िया हिलाये' की जो आदत होती है। वह खतरा मैं न लेना चाहता था। यह मेरी ढिठाई है कि मै यहाँ वह काम करने खड़ा हुआ हूँ, जिसकी मुझ में लियाकत नही है; लेकिन इस तरह की गदुमनुमाई का मैं अकेला मुजरिम नहीं हूँ।..."(पूरा पढ़ें)