लेखाञ्जलि/१५—लीग आफ़ नेशन्स का ख़र्च और भारत

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १२५ से – १३४ तक

 

१५—लीग आफ़ नेशन्सका ख़र्च और भारत।


सन् १८५७के ग़दरकी याद कीजिये। उसमें बड़ी से बड़ी नृशंसताएँ हुई थीं। कितने ही क़त्ले-आम भी, शायद, हुए थे। पर उन सबका सविस्तर और सच्चा वर्णन कहीं नहीं मिलता। लोगों का कहना है कि ग़दरके इतिहाससे पूर्ण जितनी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं उनमें कुछ नृशंस बातें बढ़ाकर लिखी गयी हैं और कुछपर धूल डाली गयी है। कलकत्ते के ब्लैकहोल और कानपुरके क़त्लकी कथा तो खूब विस्तारके साथ और शायद बढ़ाकर भी लिखी गयी है। पर गोरोंने कालोंपर जो अत्याचार किये हैं उनपर कम प्रकाश डाला गया है और कुछ घटनाओंपर तो बिलकुल डाला ही नहीं गया। अब कोई साठ-सत्तर वर्ष बाद एडवर्ड टामसन (Edward Thomson) नामके एक अँगरेज़को उन पुरानी बातोंकी याद आयी है। उन्होंने अँगरेज़ी में एक पुस्तक लिखकर संयुक्त-राज्य (अमेरिका) के न्यूयार्क नगरसे प्रकाशित की है। उसका नाम है—The Other Side of the Medal इस पुस्तकमें उन्होंने गोरोंके उन क्रूर कर्मोंका वर्णन किया है जो सिपाही-विद्रोहकी इतिहास-पुस्तकोंमें, किसी कारणसे, छूट गये हैं या छोड़ दिये गये हैं। यह बात हमें "माडर्न-रिव्यू" में प्रकाशित उस पुस्तककी एक समालोचनासे ज्ञात हुई। इस समालोचनाहीको पढ़कर भारतवासी पाठकोंके रोंगटे खड़े हो सकते हैं; मूल-पुस्तक पढ़नेपर उनके हृदयोंकी क्या दशा हो सकती है, यह तो पढ़नेहीसे ज्ञात हो सकेगा।

नये जीते हुए देशोंके निवासियोंपर विजेता जाति, कभी-कभी, भीषण अत्याचार कर बैठती है, यह तो इतिहास-प्रसिद्ध ही है। मिस्र, सीरिया, कांगो, रोफप्रान्त, बालकन-प्रदेश, कोरिया आदिके निवासियोंके साथ कैसे कैसे सलूक किये गये हैं, यह बात इतिहासप्रेमियों और समाचार-पत्रोंके पाठकोंसे छिपी नहीं। योरपके कितने ही देश पशु-बलमें बहुत समयसे प्रबल हो रहे हैं। इसीसे उन्होंने अनेक अन्य निर्बल देशोंको जीतकर उनपर अपना प्रभुत्व जमाया है। इस प्रभुत्व-जमौव्वलके कारण उन्हें बहुधा वहाँके अधिवासियोंपर ज़ोरो-जुल्म भी करना पड़ा है और अब भी करना पड़ता है। चीनमें इस समय क्या हो रहा है और बाक्सर-विद्रोहके समय क्या हुआ था, ये सब घटनाएं उसी पशुबल और आतङ्क-जमौव्वलके उदाहरण हैं। भारत भी इसका शिकार हो चुका है और किसी हदतक अब भी इसका शिकार हो रहा है।

परन्तु इस पशुबलसे बली योरपके कुछ देश, बहुत समयसे, परस्पर भी लड़ने-भिड़नेकी ताकमें चले आ रहे हैं। कारण वही प्रभुत्वलिप्सा है। मेरा ही प्रभुत्व सबसे बढ़ा-चढ़ा रहे; मैं ही अधिकाधिक निर्बलोंको पदानत करता चला जाऊँ; तू दूर रह; तू मेरे काममें विघ्न न डाल—बात यह। योरपमें कुछ समय पूर्व जो महायुद्ध हुआ था उसका कारण भी यही लिप्सा थी। जर्मनी अपना बल बढ़ा रहा था। औरोंको यह बात पसन्द न थी। बस, सब प्रतिस्पर्धा अपना-अपना गुट बनाकर लड़ पड़े। जिनका पक्ष प्रबल था उन्होंने छल-बलसे किसी तरह जर्मनीको हरा दिया। पर उनकी इस जीतहीने उनके कान खड़े कर दिये। उन्होंने कहा, इस एक युद्धसे तो धन-जनकी इतनी हानि हुई है; और भी कोई ऐसा ही युद्ध छिड़ गया तो हमलोगों का सर्वनाश ही हो जायगा—हमारे देश एकदम ही उद्ध्वस्त हो जायँगे। यह सोचकर उन्होंने लीग आफ़ नेशन्स नामकी एक संस्था बना डाली। उसे एक प्रकारकी शान्ति-स्थापक सभा या पञ्चायत कहना चाहिये। उसका सदर मुक़ाम स्विज़रलैंडके एक शहरमें क़रार दिया गया। वहां बड़े-बड़े दफ्तर खुल गये। सैकड़ों कर्म्मचारी रक्खे गये। बड़ी सभाके मातहत अनेक छोटी-छोटी कमिटियाँ भी बना डाली गयीं। इस सभाके अधिवेशन समय-समयपर हुआ करते हैं। अन्तर्जातीय राजकीय विषयोंपर विचार होना है, नियम निर्धारित होते हैं और पारस्परिक झगड़े आपसहीमें निपटानेकी चेष्टा की जाती है।

अबतक जर्मनी इस सभाका सभासद् न था। अब वह भी हो गया है। जर्मनी, इँग्लेंड, फ्रांस, इटली और जापान ये पाँच बलाढ्य राज्य हैं। इनके प्रतिनिधियोंको इस सभा स्थायी सभासदत्व प्राप्त है। अमेरिकाके भी कितने ही छोटे-छोटे राज्योंके प्रतिनिधियोंको इसमें जगह मिली है। चीन, फ़ारिस, तुर्की आदिके भी प्रतिनिधि इसमें शामिल हैं। पर बोलबाला बड़े राज्योंहीके प्रतिनिधियों का है। अवशिष्ट राज्योंको अस्थायी हो सभासदत्व प्राप्त है। सो भी कुछ कुछ समय बाद। प्रतिनिधित्वके नियम इस खूबसूरतीसे बनाये गये हैं जिसमें, काम पड़नेपर, छोटे-छोटोको दाल न गले; बड़े अर्थात् बलाढ्य राज्य ही मनमानी कर सकें। सो शान्तिस्थापनाकी चेष्टा करनेवालोंने यहाँ भी अपनी स्वार्थपरताका पूरा खयाल रक्खा है। अतएव कहना चाहिये कि यह शान्ति-सभा केवल योरपके कुछ देशोंके हाथका खिलौना है। उन्होंने अपने मतलबकी सिद्धिके लिए इसकी सृष्टि की है। इसीसे अमेरिकाके संयुक्तराज्य इसमें शामिल नहीं हुए। इसमें आधिक्य और ज़ोर जापान और योरपहीके कुछ देशोंका है। इसकी कुछ काररवाईयोंसे नाराज़ होकर योरपके भी एक देश, अर्थात् स्पेन,ने इसका साथ अभी हालही में छोड़ दिया है। इसके नियमोंमें एक नियम यह भी है कि यदि कोई देश किसी देश-विशेष पर अकारण हो, अथवा किसी क्षुद्र कारणसे,आक्रमण करे तो शान्ति-सभा उसकी रक्षा करेगी। पर रीफोंके सरदार अब्दुलकरीमपर अभी उस दिन फ्रांस और स्पेनके, तथा सीरियापर फ्रांसके जो आक्रमण हुए उनसे इस लीगने उन देशोंकी रक्षा तो दूर, उन आक्रमणोंके विषयमें विशेष चर्चा तक अपने अधिवेशनोंमें न की। इधर विदेशी राज्यों के विशेषाधिकारोंके कारण चीनमें जो उत्पात हो रहे हैं उनपर भी इस सभाने टीका-टिप्पणी तक न की। कुछ देशोंको ऐसे आदेश मिले हैं कि अमुक-अमुक देशपर तुम तबतक प्रभुत्व जमाये रहो जबतक वे देश अपना राज्य आप करनेके योग्य न हो जाय। ऐसे प्राप्ताधिकार देश (fandatory Powers) कहाते हैं। अपने अधिकारमें लाये गये देशों या जातियोंपर ये लोग कभी-कभी बड़ी-बड़ी सख्तियां करते हैं। उस दिन इन लोगोंने अपने-अपने अधीन देशोंके सम्बन्ध में अपनी-अपनी रिपोर्ट सभामें पेश की। उनपर सभाने कुछ योंहींसा एतराज़ किया और कुछ प्रश्न भी पूछे। इसपर इन अधिकारी देशोंने बड़ी नागज़गी ज़ाहिर की। बात यह कि हम जैसा चाहेंगे शासन करेंगे। पूछनेवाले तुम कौन?

ऐसी ही इस सभामें भारतको भी अपने प्रतिनिधि भेजनेका अधिकार प्राप्त है। पर इन प्रतिनिधियोंको भारतवासी नहीं चुनते। चुनती है ब्रिटिश गवर्नमेंट। इस दिल्लगीपर अनेक समझदार भारतवासियोंने अपनी प्रतिकूलता प्रकट की है। उनका कहना है कि इस सभाके खर्चका एक अंश जब भारत देता है तब अपना प्रतिनिधि वह आपही क्यों न चुने। सरकारका और भारतवासियों का हित एक नहीं। इस दशा में खर्च तो भारतसे लेना और प्रतिनिधि अपने मनका चुनना, प्रतिनिधित्वकी अवहेलनाके सिवा और कुछ नहीं। इस दफे इस सभाके अधिवेशनमें प्रतिनिधित्व करने के लिए गवर्नमेंटने कपूरथलाके महाराजा साहबको भी भेजा था। उन्होंने वहाँ कुछ ऐसी बातें कहीं जिन्हें भारतवासियोंके कितने ही नेताओंने बिलकुल ही पसन्द नहीं की। उधर विलायतमें महाराजा बर्दवानने भी भारतीय प्रतिनिधिकी हैसियतसे कुछ ऐसी बातें कह डालीं, जो उचित नहीं समझी गयीं।

तिनपर भी यहां, इस देशमें, कुछ लोग नक्कारा बजाते फिरते हैं कि इस सभासे बड़े-बड़े लाभ हैं। इसने भारतका प्रतिनिधि लेकर भारतका गौरव बढ़ा दिया है। सभामें भारतीय प्रतिनिधिको अन्य स्वतन्त्र देशोंके प्रतिनिधियोंके साथ बैठनेका अधिकार प्राप्त हो गया है—वग़ैरह-वग़ैरह। परन्तु पास बैठनेहीसे भारत उन अन्य देशोंकी बराबरीका नहीं हो जाता। उनकी और भारतकी स्थितिमें आकाश-पातालका अन्तर है। अफीमकी पैदावार और रफ्तनी तथा कल-कारखानोंमें काम करनेवाले मजदूरोंके काम आदिके सम्बन्धमें नियम बना देनेहीसे भारतके हित-चिन्तनकी इतिश्री नहीं हो जाती। जिन बड़ी-बड़ी त्रुटियोंके कारण भारतवासियोंकी दुर्गति हो रही है उनकी तरफ तो इस सभा अर्थात् लीगका ध्यान ही नहीं। और यदि वह ध्यान भी देना चाहे तो नहीं दे सकती। कुछ बानक ही ऐसा बना दिया गया है। ऊपर लिखी गयी बातको न भूलिये कि यह लीग योरपके कुछ ही बलाढ्य देशोंके हाथका खिलौना है। उन्होंने कुछ बन्धन ही ऐसा बाँध दिया है कि काम-काजके वक्त कसरत राय उन्हींकी रहे।

अच्छा, जिस लीगसे भारतका इतना कम हित होता है और इतने कम हित होनेकी सम्भावना आगे भी है उसके लिए इस निर्धन देशको ख़र्च कितना करना पड़ता है। इस लीगके सालाना ख़र्चका तख़मीना हर साल तैयार किया जाता है। दिसम्बर १९२६ के "माडर्न-रिव्यू" में १९१६ के १२ महीनोंके ख़र्चका जो टोटल दिया गया है वह ९,१७,२२५ पौंड है। याद रखिये, इस मासिकपत्रके सम्पादक लीगके पिछले अधिवेशनमें खुद ही हाज़िर हुए थे। अतएव उन्होंने यह टोटल लीगके काग़ज़-पत्र देखकर ही दिया है, अपनी कोरी कल्पनासे नहीं दिया। ये इतने पौंड यदि १५) रुपया फ़ी पौंडके हिसाबसे बताये जाय तो १,३७,५९३७५, अर्थात् १ करोड़ ३७ १/२ लाख रुपयेसे भी अधिक हुए। यह इतना ख़र्च ९३७ अंशोंमें बाँटा जाता है। लीगमें शामिल देशों की आबादी, आमदनी और रक़बे आदिको ध्यानमें रखकर हर देशके लिए अंश नियत किये जाते हैं। चुनांचे इँग्लेंड अर्थात् ग्रेट-ब्रिटेनके १०५ अंश नियत हुए हैं और बेचारे भुक्खड़ भारतके ५६ अंश। आपको यह बता देना चाहिये कि पहले भारतके इससे भी अधिक अंश थे। यह भी तो, अभी कुछ ही समय से, बहुत कुछ रोने-पीटनेसे, हुई है। ऊपर जो १ करोड़ ३८४ लाखका टोटल दिया गया है उसे यदि ९३७ अंशोंमें बाँटें तो हर अंशके हिस्सेमें कोई १४,६८६ १/२ रुपया आता है। उसे यदि भारतके ५६ अंशोंसे गुणा करें तो भारतके सालाना देने का टोटल ८, २२, ३३ रुपया होता है। यह कोई सवा आठ लाख रुपया प्रायः यों ही चला जाता है। इसके बदले में यदि कुछ मिलता है तो केवल थोड़ेसे नियमोंपनियमोंका बण्डल। जिस भारतके अधिकांश लोगोंको एक वक्त भी पेटभर भोजन मयस्सर नहीं होता, जहाँ निरक्षताका अखण्ड साम्राज्य है, जहाँ दस-दस बीस-बीस कोस तक शफ़ाख़ानोंका नाम तक नहीं, वहाँका इतना रुपया इस लीगके ढकोसलेके लिए उड़ा दिया जाय, इसपर किस साक्षर और सज्ञान भारतवासीको दुःख न होगा। इस लीग या शान्ति-सभामें सारी दुनियाके कोई ६० देश शामिल हैं। उनमेंसे छोटे-ही-छोटे अधिक हैं; बड़े-बड़े धुक्कड़ तो थोड़े ही हैं। अच्छा, अब देखिये, इन धुक्कड़ोंमेंसे कौन कितने अंश ख़र्च देता है—

नाम देश अंश
ग्रेट ब्रिटन १०५
फ्रांस ७९
इटली ६०
जापान ६०
भारत ५६
चीन ४६
कनाड़ा ३५
पोलेंड ३२
आस्ट्रेलिया २७
ब्रेज़ील २९
आयरलेंड १६
नेदरलेंड्स २३
रोमानिया २२
सरबिया २०
ज़ेको स्लोवेकिया २९

रूस और अमेरिकाके संयुक्तराज्य इसमें शामिल नहीं। जर्मनी अभी शामिल हुआ है। इससे उसका हिसाब नहीं दिया गया। अब आप देखिये कि पहलेके चार धुक्कड़ोंके साथ बेचारा भारत भी बांध दिया गया है। इतने बड़े चीनको भी उससे कम ही खर्च देना पड़ता है, पर भारतको इटली जौर जापान के सदृश बलवान् राष्ट्रोंके प्रायः बराबर—कुछ यों ही कम—रुपया फूँकना पड़ता है। जर्मनीको भी अब शायद भारतसे अधिक खर्च न देना पड़ेगा। सो जो देश सर्वतन्त्र-स्वतन्त हैं और जिनकी बलवत्ताका आतङ्क सारे संसारमें छाया हुआ है उनके बराबर बैठनेका झूठा गौरव प्राप्त करके भारतके कङ्गाल कृषकोंका आठ लाखसे भी अधिक रुपया स्विट्ज़रलेंडके एक नगरको हर साल भेज दिया जाता है।

स्विट्ज़रलेंडमें लीगकी बड़ी-बड़ी इमारतें हैं। उनमें लीगके कितने ही दफ्तर हैं। इन दफ्तरोंमें बहुतसे अफ़सर और सैकड़ों कर्मचारी काम करते हैं। यह सवा करोड़से भी अधिक रुपया प्रायः उन्हींकी जेबोंमें जाता है। पर इन दफ्तरोंमें जहाँ अन्यान्य देशोंके निवासी सैकड़ों कर्म्मचारी काम करते हैं वहां गौरवकी गुरुतासे झुकी हुई पीठवाले भारतके सिर्फ़ ३ मनुष्य काम करते हैं। कुछ बड़े-बड़े देशोंके निवासी कर्म्मचारियोंकी संख्या नीचे दी जाती है—

देश कर्म्मचारियोंकी संख्या
ग्रेट ब्रिटन २२१
फ्रांस १८०
इटली ३४
स्पेन १०
देश कर्मचारियोंकी संख्या
पोलेंड १२
बेलजियम १८
आयरलेंड १३
नेदरलेंड्स १५
स्विट्ज़रलेंड २१०
जर्मनी १०

स्विट्ज़रलेंडके २१० कर्म्मचारी देखकर कहीं यह न समझ जाइएगा कि ये लोग बड़ी-बड़ी तनख़्वाहें पाते होंगे, नहीं इनमेंसे अधिकांश दफ़्तरी, चपरासी, ज़मादार, पोर्टर वगैरह ही हैं। कारण यह कि दफ़्तर इन्हींके देशमें हैं। वहाँ चपरासी और कुलीका काम करनेके लिए ग्रेटबिटन और फ्रांससे अँगरेज़ और फ़रासीसी जानेवाले नहीं। इसीसे वहींवालोंको ये सब पद दे डाले गये हैं। जो जर्मनी लीगके खर्च के लिए एक फूटी कौड़ी भी नहीं देता रहा है उसने भी लीगके दफ़्तरोंमें अपने १० कर्म्मचारी ठूँस दिये हैं। पर जो भारत ८ लाखसे भी अधिक हर साल देता है उसके सिर्फ़ तीन ही कर्म्मचारी वहाँ प्रवेश कर पाये हैं। यह न समझियेगा कि फ्रेंच-भाषा न जाननेके कारण अधिक भारतवासी नहीं लिये गये। ढूँढ़नेसे कोड़ियों भारतवासी ऐसे मिल सकते हैं जो अँगरेज़ी और फ्रेंच दोनों भाषाएँ बखूबी जानते होंगे।

[फरवरी १९२७]