लेखाञ्जलि/१६—देशी ओषधियों की परीक्षा और निर्माण

लेखाञ्जलि
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १३५ से – १४९ तक

 

१६—देशी ओषधियोंकी परीक्षा और निर्माण।


कुछ रोग ऐसे हैं जो देश-विशेषोंहीमें अधिक होते हैं। गर्मी और सर्दी, नमी और रूक्षता तथा आबोहवा और स्थितिका बहुत-कुछ प्रभाव मनुष्य-शरीरपर पड़ता है। जो देश बहुत सर्द हैं वहां कुछ रोग ऐसे होते हैं जो गरम देशोंमें नहीं पाये जाते। इसी तरह गरम देशोंके कुछ रोग सर्द देशोंमें नहीं होते। इँग्लेंडमें सर्दी अधिक रहती है। वहाँवाले सर्द देशके निवासी हैं। पर उन लोगोंने अपना अधिकार ऐसे भी देशोंपर जमा लिया है जो बहुत गरम हैं। ऐसे गरम देशोंको भी उन्हें जाना और वहाँ रहना पड़ता है। वहाँके कुछ विशेष प्रकारके रोगोंसे पीड़ित होनेपर विलायती डाक्टरोंसे कुछ भी करते-धरते नहीं बनता; क्योंकि उन रोगोंके कारण, निदान, लक्षण और चिकित्सासे वे अनभिज्ञ होते हैं। इस त्रुटिको दूर करनेके लिए उन्होंने कहीं-कहीं विशेष प्रकारके डाक्टरी कालेज और स्कूल खोले हैं। वहां गरम देशोंके रोगोंके कारण आदिकी जाँच भी होती है और उनकी चिकित्सा-विधि भी सिखायी जाती है।

इस तरहका एक स्कूल कलकत्तेमें भी है। उसीके साथ एक परीक्षागार भी है। स्कूलमें उष्ण-देश-जात—श्वेत कुष्ट, काला-अज़ार, बेरीबेरी आदि—रोगोंका कारण, निदान और चिकित्सा भी सिखायी जाती है और परीक्षागारमें नयी-नयी ओषधियोंके रोगनाशक-गुणोंकी परीक्षा भी होती है। वहाँ रोगियोंको रखने और उनका इलाज करनेके लिए एक अस्पताल भी है। इस स्कूल, परीक्षागार, ओषधि-निर्म्माणशाला और अस्पतालकी संस्थापना हुए अभी कुछही समय हुआ। स्कूलमें अन्य विषयोंकी शिक्षाके सिवा सफ़ाई और तन्दुरुस्तीसे सम्बन्ध रखनेवाली बातोंकी भी शिक्षा दी जाती है, और यह शिक्षा, सुनते हैं, उस शिक्षासे किसी तरह कम नहीं, जिसकी प्राप्तिके लिए लोग स्वयं विलायत जाते हैं अथवा गवर्नमेंटके द्वारा या उसकी आज्ञासे भेजे जाते हैं।

इस स्कूलका नाम है स्कूल आव ट्रापिकल डिज़ीज़ेज़ (School of Tropical Diseases) इसमें स्वदेशी ओषधियोंकी भी परीक्षा होती है और वे तैयार भी की जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि स्कूलका कम-से-कम यह विभाग, इस देशकी हित-दृष्टिसे, बड़े महत्त्वका है। परन्तु इसकी स्थापना या संचालनामें सहायता करनेका श्रेय न तो हमारे वैद्यराजोंको है, न हकीम-साहबोंको, और न यहाँके धनवान् लक्ष्मीपतियोंहीको। इसके संस्थापक अँगरेज़ ही हैं। वे और अंगरेज़ी गवर्नमेंट ही इसका अधिकांश ख़र्च चलाती है। इसे सर ओनार्ड राजर्सने खोला है। इसकी इमारतमें १४ १/२ लाख रुपया ख़र्च हुआ है। इसके परीक्षागारमें तीन विद्वान् खोजका काम करते हैं। उनकी और उनके सहायक कर्मचारियोंकी तनख्वाह और दूसरे ख़र्च वे अँगरेज़ देते हैं जो जूट, चाय और खानोंका व्यवसाय करते हैं। कुछ सहायता गवर्नमेंट आव् इंडिया भी देती है। स्कूलमें जितने प्रोफेसर (अध्यापक) और अन्य कर्मचारी हैं उनके ख़र्चका अधिकांश बङ्गालकी गवर्नमेंट अपने ख़ज़ानेसे देनी है। इसके सिवा इस स्कूलमें कुछ विद्वान् छात्र ऐसे भी रहते हैं जो भिन्न-भिन्न विषयोंकी खोज और जाँच करते हैं। उन्हें छात्रवृत्तियाँ मिलती हैं। महाराजा दरभङ्गा और मित्र नामके एक महाशयकी धर्मपत्नीके द्वारा भी दो छात्रवृत्तियाँ दी जाती हैं। डेविड यूल नामके एक धनी अँगरेज़ भी इसकी सहायता करते हैं।

अभी, हालमें, इस स्कूलकी वार्षिक रिपोर्ट निकली है। उसका सम्बन्ध १९२२ ईसवीसे है। उसके पाठसे सूचित होता है कि यह स्कूल अपना काम सफलतापूर्वक कर रहा है। शिक्षाके साथ-ही-साथ खोजका काम भी होता है। उष्णदेशोंमें होनेवाले रोगोंके सम्बन्धको शिक्षा पानेवाले २८ छात्रोंमें, रिपोर्ट के साल, १९ छात्र पास हुए। सफ़ाई और तन्दुरुस्तीसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंकी शिक्षा प्राप्त करनेकी ओर लोगोंका कम ध्यान है। इसीसे इस स्कूल में इस श्रेणीके छात्र बहुत कम भरती हुए हैं। पर इन विषयोंकी जो शिक्षा यहाँ दी जाती है वह बहुत उच्च है और विलायतमें दी जानेवाली शिक्षासे किसी तरह कम नहीं। जो लोग इस शिक्षामें "पास" होते हैं उनको डी॰ पी॰ एच॰ (D. P. H.) की पदवी मिलती है।

अब इसमें एक अजायबघर खोलनेकी भी तजवीज़ हो रही है। उसमें वे सभी चीजें रक्खी जायँगी जिनका सम्बन्ध उष्ण देशमें होनेवाले रोगोंसे है।

इस स्कूलकी प्रस्तुत रिपोर्ट में इसके एक बड़े ही महत्त्वशाली विभागकी कुछ बातों का उल्लेख है। उस विभागका नाम है, फरमाकोलाजी (Pharmacology) अर्थात् ओषधि-निर्माण-विद्या। और-और विभागोंकी तरह इस विभागका भी एक परीक्षागार (Laboratory) जुदा है। पर और विभागोंके परीक्षागारोंसे यह परीक्षागार अधिक महत्त्व रखता है। इसमें सभी तरहके आवश्यक यन्त्र और अन्यान्य सामग्रियाँ हैं। इसके प्रधानाधिकारी हैं मेजर चोपड़ा। आप पंजाबी मालूम होते हैं। डाक्टरीकी उच्च शिक्षा पाने और उच्चपदस्थ होनेपर भी आपमें स्वदेश-प्रेमकी मात्रा बहुत काफी मात्रामें विद्यमान जान पड़ती है। डाक्टरी विद्यामें निपुण होनेपर भी आप स्वदेशी ओषधियों के निर्माण और प्रचारके बड़े पक्षपाती हैं। इस देशकी ओषधियोंके गुण-दोषोंकी जाँच करनेके लिए गवर्नमेंटने जो कमिटी बनाई थी उसके एक मेम्बर आप भी थे। उस कमिटीके मेम्बरकी हैसियतसे आपने बहुत काम किया है और अनेक स्वदेशी ओषधियोंके रोग-नाशक गुणोंको आपने क़बूल किया है। इस कमिटीने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि वैद्यक और यूनानी चिकित्सा अवैज्ञानिक नहीं। अतः गवर्नमेंटको चाहिये कि वह इन चिकित्साओंको भी दाद दे।

स्कूलमें जो काम मेजर चोपड़ाके सिपुर्द है उसे तो आप करते ही हैं। साथही आप इस देशकी जड़ी-बूटियोंकी परीक्षा भी, वैज्ञानिक ढँगसे, करते हैं। जाँच करनेपर जो गुण जिस ओषधिमें आप पाते हैं उसमें रोग-विशेषको नाश करनेकी कितनी शक्ति है, इसकी जाँच भी आप स्कूलके अस्पतालके रोगियोंपर करते हैं। पुनर्नवा नामकी ओषधिकी जाँच आपने बड़े मनोनिवेशसे की है और उसमें क्या-क्या गुण हैं, अर्थात् किन-किन रोगोंमें उसे देनेसे लाभ होता है, इसका भी प्रामाणिक विवरण प्रकाशित किया है। उनकी इच्छा है कि एक स्कूल अलग खोला जाय। उसमें छात्रोंको ओषधि-निर्म्माण-विद्याकी भी शिक्षा दी जाय और प्रत्येक स्वदेशी ओषधिकी जाँच करके उसके रोग-नाशक गुणोंका वर्णन लिखा जाय। फिर ये ओषधियां काफी मात्रामें तैयार करके सरकारी शफाख़ानोंको दी जायँ। वहाँ उनका उपयोग उन ओषधियोंके बदलेमें किया जाय, जो दूसरे देर्शोसे यहाँ आती हैं। देखिये, कैसा स्तुत्य विचार है।

आज-कल यह हाल है कि कुचिला, सींगिया, मदार, अण्डी, जामुनकी मींगी आदि कौड़ी मोल बिकती और विदेशको जाती हैं। वहाँ उनसे नाना प्रकारकी ओषधियां, तैल इत्यादि तैयार होकर जब वे चीज़ इस देशको लौट आती हैं तब सैकड़ों गुने अधिक मूल्यपर बिकती हैं। यदि ये सब ओषधियाँ बटी, चर्चा, स्वरस, कल्क, तेल आदिके रूपमें यहीं तैयार होने लगे और वैज्ञानिक ढँगसे इनके गुणोंका पता लगाकर उनके वर्णन प्रकाशित हो जायँ तो डाक्टरोंको विश्वास हो जाय कि ये चीज़ कामकी हैं। अतएव इनका प्रचार बढ़े और देशको करोड़ों रुपयेका लाभ हो। परन्तु यह काम इतना बड़ा है कि वर्तमान स्थितिमें अकेले डाक्टर चोपड़ा नहीं कर सकते।


उन्हें कितनेही सहायक डाक्टर और कर्मचारी चाहिये। इसके लिए धन भी बहुत-सा चाहिये। स्वदेशी चिकित्साके पक्षपातियोंमें जो लोग धनी हैं और देश-भक्त भी हैं उन्हें चाहिये कि इस देशोप- योगी काममें डाक्टर-साहयकी सहायता करें।

एशियाटिक सोसायटी आव् बेङ्गालकी एक शाखा है। उसमें रोग-चिकित्सा-विषयक बातोंपर विचार किया जाता है। कुछ समय हुआ, सोसायटीकी इस शाखाके सभ्योंकी एक बैठक हुई थी। उसमें स्वदेशी-ओषधि-निम्मणिपर एक लेख पढ़ा गया था। इस लेखके लेखक हैं वे ही पूर्वनिर्द्दष्ट मेजर चोपड़ा, एल० एम० एस० और डार बी० एन० घोष। पढ़े जानेके बाद यह लेख अँगरेज़ीकी एक सामयिक पुस्तक (Indian Medical Record) में प्रकाशित हुआ है। इस लेखमें लेखक-द्वयने अपने पूर्वोक्त विचारोंको विस्तार पूर्वक प्रकट किया है। लेखके मुख्य-मुख्य अंशोंका सार नीचे दिया जाता है―

देशी ओषधियोंमें बहुत-सी ओषधियाँँ ऐसी हैं जिनका प्रयोग वैद्य और हकीम सैकड़ों वर्षो से कर रहे हैं और वे अपना गुण भी खूब दिखाती हैं। पर कुछ ओषधियाँँ ऐसी भी हैं जिनके गुणोंका वर्णन पुस्तकोंहीमें पाया जाता है। उनके गुणोंकी परीक्षा उचित रीतिसे, आजतक,किसीने नहीं की। इस दशामें समझदार चिकित्सक उनके उन निर्दिष्ट गुणोंपर विश्वास नहीं करते। एक उदाहरण लीजिये। चिकित्सा-ग्रन्थोंमें लिखा है कि अशोकसे प्रदररोग, पुनर्नवा- से जलोदर ओर अभ्रक भस्मसे बहुमूत्र-रोग जाता रहता है। परन्तु ऐसे कथनको डाक्टर नहीं मान सकते, क्योंकि उनके शास्त्रमें जलोदर आदि मुख्य रोग नहीं माने गये; वे तो अन्य रोगोंक चिह्न या लक्षणमात्र माने गये हैं। इस दशामें जबतक यह बात वैज्ञानिक रीतिसे नहीं प्रमाणित की जाती कि हृदय, गुर्दे, यकृत आदिपर इन ओषधियोंका क्या असर पड़ता है तबतक विज्ञानवेत्ता डाक्टर इनके गुणोंके विषयमें किये गये दावेको भ्रान्तिरहित नहीं समझ सकते। हम यह नहीं कहते कि प्राचीन वैद्यों और हकीमोंके दावे सही नहीं। हम तो केवल इतना ही कहते हैं कि बिना जाँच और तजरुबेके हम किसीके कथन-मात्रपर पूरा विश्वास नहीं कर सकते। विश्वास जमानेके लिए प्रमाण दरकार होता है। वह प्रमाण आप डाक्टरोंको दोजिये। तभी वे इन ओषधियोंके पूर्वोक्त गुणोंके कायल हो सकते हैं।

तिब्बी और वैद्यक चिकित्साके प्राचीन ग्रन्थोंमें जिन ओषधियोंकी योजना लिखी है, बहुत सम्भव है, उनकी जाँच योग्यतापूर्वक की गयी हो और उनका यथेष्ट ज्ञान प्राप्त करके तब उनके रोग नाशक गुणोंका निश्चय किया गया हो; क्योंकि प्राचीन वैद्य और हकीम वैज्ञानिक जाँच भी करते थे। पर क्या यह बात सभी ओषधियोंके विषयमें कही जा सकती है? नहीं, बात ऐसी नहीं। आज-कल तो देशमें जितनी जड़ी-बूटियाँ पायी जाती हैं प्रायः सभीमें किसी-न-किसी रोगनाशके गुण बताये जाते हैं। इस तरहकी ख्यातिका कारण जनश्रुतिके सिवा और कुछ नहीं। किसीने को-जड़ी-बूटी देकर किसी रोगीका कोई रोग दूर कर दिया। बस उसने यह समझ लिया कि वह बूटी उस रोगकी रामबाण ओषधि है। वह इस बातकी जाँच नहीं करता कि उसमें ऐसा कौन-सा तत्त्व है जिसके कारण उसने उसमें उस रोगके नाशकी शक्ति विद्यमान मान ली। नये-नये ग्रन्थकारों और टीकाकारोंने इस तरहकी सैकड़ों ओषधियों का उल्लेख, अपने अनुभवके बलपर, किया है। उनके उसी उतने अनुभवकी बदौलत लोग, आजतक, केवल सुनी-सुनायी बातोंपर विश्वास करके, अनेक ओषधियों में अनेक रोग-नाशक गुणोंकी कल्पना करते चले आ रहे हैं। तथापि वे यह नहीं बतला सकते कि क्यों—किस आधारपर—उन्होंने उन रोगोंको दूर करनेकी शक्ति उन ओषधियोंमें मान ली है। इस तरहकी कच्ची कल्पनासे वे डाक्टरोंको कायल नहीं कर सकते। और जबतक वे ऐसा नहीं कर सकने तबतक वे यह आशा भी नहीं कर सकते कि सुशिक्षित डाक्टर और सरकारी दवाखाने, केवल उनके कथनपर विश्वास करके, तिब्बी और आयुर्वेदिक दवाएं काममें लावेंगे। उन्हें आप अपनी दवाओंके गुणोंके वैज्ञानिक प्रमाण दीजिये। फिर देखिये, वे उनका प्रयोग करते हैं या नहीं।

खुशीकी बात है, आजतक अनेक शिक्षा प्राप्त डाक्टरों और विज्ञानवेत्ताओंने स्वदेशी ओषधियोंके विषयमें बहुत-कुछ जाँच-पड़ताल की है और कितनी ही पुस्तकें और लेख भी लिख डाले हैं। आजसे सौ सवा सौ वर्ष पूर्व सर विलियम्स जोन्सने इस कामका सूत्रपात किया था। उन्होंने कुछ पौधोंपर एक पुस्तक लिखी है। उनके बाद, १८१३ ईसवीमें, जान फ्लेमिंगने एक बड़ी-सी सूची प्रकाशित का। उसमें उन्होंने उन पौधोंका वर्णन किया जो दवाके काम आते हैं। तदनन्तर शागनेशी, मुहीउद्दीन शेरिफ, डेविड हूपर, और डाइमक आदिने भी कई पुस्तकें इस विषयको लिखकर प्रकाशित की। इन पुस्तकोंमें आयुर्वेदिक और तिब्बी ग्रन्थोंके आधारपर जड़ी-बूटियोंक वर्णन ही नहीं, किन्तु इनमें लेखकोंने अपने अनुभवों और परीक्षाओंका भी वर्णन किया है। इसके सिवा कुछ लोगोंने ओषधीय लताओं, पौधों और बूटियोंकी परीक्षा, रसायन-शास्त्रमें निर्दिष्ट नियमोंके अनुसार भी, करके उस परीक्षाका फल प्रकट किया। अभी, हालहीमें, गवर्नमेंटकी आज्ञासे जिस कमिटीने इस विषयमें जांच-पड़ताल की थी उसने तो बड़े ही महत्त्वकी सामग्री एकत्र कर दी है। अतएव अबतक इस सम्बन्धमें जो काम हो चुका है उससे भविष्यत्‌में बहुत सहायता मिल सकती है।

तथापि देशी ओषधियोंके गुण-धर्म्मका पता लगानेके लिए अभी बहुत समय, बहुत धन और बहुत बड़े आयोजनकी आवश्यकता है। पहले तो एक ऐसे परीक्षागारकी आवश्यकता है जिसमें सब तरहके शस्त्र, यन्त्र और अन्यान्य सामग्रियाँ हों। फिर इस इतने बड़े कामके लिए और कर्मचारियोंके सिवा अनेक रसायन-शास्त्रियोंकी भी आवश्यकता है; क्योंकि ओषधियोंके गुण-धर्म्मकी परीक्षा रसायनशास्त्रके ज्ञाताओंके बिना हो ही नहीं सकती। पद-पदपर उनकी आवश्यकता पड़ती है। ओषधि-निर्माणके कामके लिए और देशोंमें जैसे कारखाने और परीक्षागार हैं वैसे ही जबतक इस देशमें न खोले जायँगे और अनेक रसायन-वेत्ता उसमें योग न देंगे तबतक हम अपने काममें कदापि सफल-मनोरथ न होंगे। अभी तो कलकत्तेके स्कूलसे सम्बद्ध परीक्षागारमें मेजर चोपड़ाकी सहायताके लिए केवल एक ही रसायन-शास्त्री है। इस दशामें ओषधि-सम्बन्धी काम नाम लेने योग्य भला कैसे हो सकता है।

किसी ओषधिकी परीक्षाके लिए पहले इस बातका पता लगानेकी ज़रूरत है कि उसमें कौन-कौनसे रासायनिक द्रव्य हैं। यह बात अच्छे-अच्छे यन्त्रों और परीक्षाओंसे ही सम्भव है। यह काम सुदक्ष रसायनज्ञ ही कर सकता है। विश्लेषण और पृथकरण द्वारा द्रव्योंका पता लग जानेपर उनके प्रयोगकी परीक्षा आवश्यक होती है। किस रोगमें वह कितना काम दे सकती है, इसकी जांचके लिए बहुत समय, योग्यता और धैर्य्य की ज़रूरत होती है।

तीन मुख्य अभिप्रायोंको ध्यानमें रखकर देशी ओषधियोंकी परीक्षा और प्रयोगकी आवश्यकता है, यथा—

(१) परीक्षा और प्रयोगके द्वारा इतनी ओषधियाँ निश्चित कर लेना चाहिये जिससे इस देशको उनके लिए और देशोंका मुँह न ताकना पड़े। फिर उन ओषधियोंको व्यावसायिक ढँगपर खिलाने और पिलाने लायक बना लेना चाहिये।

(२) वैद्य और हकीम जिन रोगोंमें जो ओषधियाँ देते हैं उनकी जाँच करके यह निश्चय कर लेना चाहिये कि उनमेंसे कौन-कौन ओषधि गुणकारी है और किसके विषयमें वैद्यों तथा हकीमोंका दावा ठीक नहीं। फिर जो ओषधियाँ परीक्षामें पूरी उतरें, उनका प्रचार पश्चिमी देशोंके डाक्टरों-द्वारा किये जानेको चेष्टा करनी चाहिये।

(३) ओषधियाँ इस तरह तैयार की जायँ कि लागत कम पड़े। सस्ती होनेहीसे सब लोग उन्हें मोल ले सकेंगे और अधिक आदमियोंको उनसे फायदा पहुँच सकेगा।

सैकड़ों जड़ी-बूटियाँ यहाँ ऐसी उत्पन्न होती हैं जिनके गुण-धर्म्मों से पूर्वी और पश्चिमी देशोंके डाक्टर अच्छी तरह परिचित हैं। उनमेंसे कुछ विदेशोंको भेजी जाती हैं। वहाँसे उनकी दवाएँ तैयार होकर जब यहाँ आती हैं तब एक पैसेकी चीज़के डेढ़ दो रुपये देने पड़ते हैं। यदि ये सब ओषधियाँ यहीं तैयार की जायँ तो लाखों रुपये देशहीमें रहें और हज़ारों आदमियोंकी जीविकाका द्वार खुल जाय। फिर सैकड़ों जड़ी-बूटियाँ वहाँ जगह-की-जगह सूख जाती हैं, कोई उन्हें पूछता भी नहीं। इस तरह देशका अनन्त धन योंही नष्ट हो जाता है। कुछ जड़ी-बूटियाँ और पौधोंकी उत्पत्तिका उल्लेख, उदाहरणके तौरपर, नीचे दिया जाता है—

शिमलासे काश्मीर तक, हिमालय पर्वतपर, अङ्गूरीशफा उत्पन्न होता है। खुरासानी अजवान भी हिमालयपर होती है। इस देशके उष्ण प्रदेशोंमें इतना कुचला पैदा होता है जिसकी सीमा नहीं। यह कुचला बड़े काम आता है। कोई दवाखाना ऐसा न होगा जहाँ इससे बनी हुई ओषधियाँ न काममें लायी जाती हों। धतूरा तो सभी कहीं पाया जाता है। मालती सिन्धमें और पेशावरके आस-पास, इन्द्रायण सीमाप्रान्त और पञ्जाबमें, और जङ्गली प्याज़ तो सभी कहीं अधिकतासे उगती है। इसी तरह और भी अनन्त ओषधियाँ ऐसी हैं ओ जङ्गलों, पहाड़ों, घाटियों और तराइयोंमें गाड़ियों पैदा होती और अकारण ही नष्ट जाती हैं। इन सबकी परीक्षा होनी चाहिये और यह देखना चाहिये कि किस मौसममें और कहाँकी कौन चीज़ एकत्र करनेसे उसके रासायनिक गुण कम नहीं होते। दूसरे देशोंमें उत्पन्न इन जड़ी-बूटियोंकी तुलना अपने देशकी जड़ी-बूटियोंसे करना चाहिये और यह देखना चाहिये कि अपनी देशज ओषधियोंमें यदि कुछ कमी है तो उसकी पूर्ति किस तरह हो सकती है। किसी विशेष आबोहवा, मौसम और भूमिमें उत्पन्न करनेसे इन बूटियोंके गुणधर्मकी कमी यदि दूर हो सकती हो तो जाँच और तजरुबेसे उसे दूर कर देना चाहिये।

कुछ ओषधियाँ विदेशसे ऐसी भी आती हैं जो इस देशमें नहीं पायी जातीं। पर उनसे मिलती-जुलती और ओषधियाँ ज़रूर पायी जाती हैं। जाँच करनेवालोंको रासायनिक प्रक्रिया-द्वारा अपनी ओषधियोंके गुण-धर्म्म का पता लगाना चाहिये और रसायन-शास्त्रके आधारपर यह निश्चय करना चाहिये कि अमुक ओषधिमें अमुक तत्त्व हैं। विश्ल्लेषण करके उनकी मात्राका निर्देश कर देना चाहिये। यदि वैसी ही ओषधियाँ अन्य देशोंसे यहाँ आती हों तो उनकी जगह अपनी देशज ओषधियोंके प्रयोगकी सिफारिश करना चाहिये। वैज्ञानिक प्रणालीसे गुण-धर्मका निश्चय हो जानेपर डाक्टर लोग झख मारकर उनका प्रयोग करेंगे, क्योंकि वे सस्ती पड़ेंगी। जानबूझकर कोई अपना रुपया क्यों व्यर्थ बरबाद करेगा? विदेशी दवा जालप (Jalap) में जो गुण हैं, वही प्रायः कालादानामें हैं। जो बात भार्ङ्गीमें है वही क्वासिया (Quassia) में। चीन और जापानसे जो पेपरमिट तेल आता है वही यहाँके पुदीनेसे तैयार किया जा सकता है। परन्तु जब-तक वैज्ञानिक ढंगसे इन ओषधियोंके गुण-धर्म्म का निश्चय करके यह न सिद्ध किया जायगा कि इनके प्रयोगसे वही काम होगा जो विदेशी ओषधियोंसे होता है तबतक विज्ञान और रसायन-विद्याके क़ायल डाक्टर किसीकी बात, सिर्फ कह देनेहीसे, कभी माननेवाले नहीं। इसीसे परीक्षागारमें अर्वाचीन यन्त्रोंकी सहायतासे इनके परीक्षण, पृथक्करण और गुण-धर्म्म निरूपणकी आवश्यकता है। मद्रासके डाक्टर कोमनने बबरी, पुनर्नवा, सेमल, कुर्ची आदि कितनी ही देशज ओषधियोंमें कुछ विशेष रोगोंको दूर करनेके गुण बताये हैं। परन्तु इस तरह उनका सिर्फ बता देना काफ़ी नहीं। रसायनशास्त्रके नियमोंसे उनमें उन गुणोंका होना डाक्टरोंके गले उतार देना पड़ेगा। तभी वे इस कथनपर विश्वास करेंगे, अन्यथा नहीं।

जितने डाक्टरी दवाख़ाने हैं और जितने सरकारी अस्पताल हैं सभीमें विलायती ही दवाएं मिलती और दी जाती हैं। वे बहुत महँगी पड़ती हैं। निजके तौरपर डाक्टरी-पेशा करनेवाले लोग तो दवाओंके दाममें दूकानका किराया, नौकरोंकी तनख्वाह, रोशनी वगैरहका ख़र्च और अपना मुनाफ़ा जोड़कर उनको और भी महँगा कर देते हैं। उनसे सिर्फ वे ही रोगी फ़ायदा उठा सकते हैं जिनके पास चार पैसे हैं। रहे, ख़ैराती अस्पताल, सो उनको दवाओंके लिए सालाना एक निश्चित रक़म मिलती है। उसीके भीतर जो दवाएं वे चाहें मँगा सकते हैं, अधिक नहीं। नतीजा यह होता है कि रोज़ काममें आनेवाली बहुत ही साधारण दवाएँ भी—मसलन कुनैन, मैगनेशिया और अण्डीका तेल भी-कभी-कभी कम पड़ जाता है। क़ीमती दवाओंकी तो बात ही जुदा है। वे तो बहुतही कम नसीब होती हैं।

इस दशामें देशज जड़ी-बूटियोंसे इस ढंगसे ओषधियाँ तैयार करना चाहिये जो सस्ती पड़ें। तभी अमीर-ग़रीब सभीको लाभ पहुँच सकेगा—तभी सब लोग उन्हें ख़रीद सकेंगे। भारतवर्ष के सदृश बुभुक्षित और निर्धन देशके लिए कीमती दवाओंका होना, न होना, दोनों बराबर हैं। दवाएं सस्ती तभी हो सकती हैं जब वे अपने ही देशमें अपनी ही जड़ी-बूटियों और लता-पत्रादिसे तैयार की जायँ और बहुत अधिक मात्रामें तैयारको जायँ। अतएव हमें ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये कि उपयोगी जड़ी-बूटियोंको समयपर एकत्र करें, ज़रूरत होनेपर अनाजकी फसलकी तरह उन्हें भी पैदा करें, फिर बड़े-बड़े कारखाने खोलकर उनके कल्क, स्वरस, चूर्ण और बटिकाएं आदि तैयार करके उन्हें सस्ते मूल्यपर बेचें। विदेशसे आनेवाली ओषधियोंके मुकाबलेमें यदि हमारे यहाँ वैसी ही ओषधियाँ पायी जाती हों तो उनके गुण-धर्म्मोंका वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करके उनका विवरण प्रकाशित करना चाहिये। फिर व्यावसायिक ढङ्गपर उनका निर्माण करके विदेशी ओषधियोंके बदले उनके व्यवहारका प्रचार करना चाहिये। इसी तरह धीरे-धीरे सभी उपयोगी जड़ी-बूटियोंसे ओषधियाँ प्रस्तुत करके विदेशी ओषधियोंका उपयोग बन्द कर देना चाहिये। देशहीमें दवाएं तैयार करनेसे विदेशियोंका मुनाफा, जहाज़ और रेलका खर्च और बहुत अधिक मज़दूरी न देनी पड़ेगी। नतीजा यह होगा कि दवाएं सस्ती पड़ेंगी, देशमें ओषधि-निर्माणका व्यवसाय बढ़ेगा और यहाँका लाखों रुपया यहीं रहेगा। अभी तो यह हाल है कि सैकड़ों मन कुचिला, धतूरा, सींगिया और अण्डीके बीज इत्यादि योरप और अमेरिकाके व्यवसायी यहाँसे कौड़ी मोल ले जाते हैं। हज़ारोंकोस दूर-देशोंमें जाकर इन्हीं चीज़ोंसे बनी हुई ओषधियाँ जब फिर भारतको लौटती हैं तब उनके दाम कौड़ियोंके बदले मुहरोंमें देने पड़ते हैं।

इस विवेचनसे यह बात ध्यानमें आ जायगी कि देशहीमें ओषधि-निर्माण होनेसे देशको कितना लाभ पहुँच सकता है। इसकी सिद्धिके लिए अनेक परीक्षागारों, अनेक रसायन-विशारदोंकी सहानुभूति और सहायता, तथा बहुत धनकी आवश्यकता है। देशभक्तों, व्यवसायियों और धनवानोंका धर्म है कि वे इस ओर ध्यान दें और मेजर चोपड़ाके हृद्‌गत विचारोंको कार्य्यमें परिणत करनेकी चेष्टामें लगे।

[जुलाई १९२३]